रविवार, मार्च 22, 2020

म.प्र. में घायल लोकतंत्र


म.प्र. में घायल लोकतंत्र  
वीरेन्द्र जैन

म.प्र में सरकार बदल गयी। यहाँ की राजनीति दो ध्रुवीय कही जाती है, किंतु यह केवल नाम की दो ध्रुवीय है, यहाँ समय समय पर एक ही तरह से दो पार्टियां शासन करती रहती हैं। यह इकलौता ध्रुव काँग्रेस संस्कृति का है।
इन्दिरा गाँधी के बाद काँग्रेस किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं रहा। वह ऐसे लोगों के समूह का नाम है जो अपने अहंकार के लिए या धन कमाने के लिए अथवा दोनों के लिए सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। चूंकि देश में एक लोकतांत्रिक नामक व्यवस्था है इसलिए इन्हें अपना लक्ष्य पाने के लिए चुनावों में उतरना पड़ता है। ये लोग किसी विचारधारा, कार्यक्रम या घोषणा पत्र के आधार पर चुनाव नहीं लड़ते हैं क्योंकि ऐसा करने पर वे चुनाव नहीं जीत सकते व उनको कोई लाभ नहीं होगा। वैसे दिखावे के लिए ऐसे कागज तैयार करके रख लेते हैं, पर वोट हथियाने के लिए उन्हें क्षेत्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पैसा, शराब, और बाहुबलियों के दबावों का ही सहारा लेना पड़ता है। यही कांग्रेसी संस्कृति हो गयी है, जिसे सारे प्रत्याशी अपनाते हैं, भले ही वे भाजपा के नाम से चुनाव लड़ते हों। यही कारण है कि जनता के द्वारा चुना हुआ शासन जनता के लिए और जनता का नहीं होता। इसी सुविधा के सहारे यहाँ का कोई भी जनप्रतिनिधि कभी भी भाजपा से काँग्रेस और काँग्रेस से भाजपा में बिना किसी हिचक के आ जा सकता है। कथित विकास या सशक्तिकरण योजनाएं इसलिए घोषित की जाती हैं ताकि उनके सहारे खजाने से धन निकाला जा सके। 1985 में दलबदल कानून आ जाने के बाद यह काम चुनाव के पूर्व कर लिया जाता है, पर बीच में भी तरह तरह के रास्ते निकाल लिये जाते हैं।
प्रदेश में कुछ आरक्षित सीटों को छोड़ कर प्रतिनिधित्व हर तरह से सम्पन्न लोगों के हाथों में ही रहता है इसलिए राजनीति उनके लिए शतरंज के खेल की तरह मनोरंजन का विषय रहता है। कभी कभी ये नेता अपने समर्पित लोगों का गुट बना लेते हैं। ताजा घटनाक्रम में भी काँग्रेस तीन या उससे अधिक गुटों में काम कर रही थी जिसमें से एक पूर्व बड़े राज परिवार के नेतृत्व वाले गुट ने उन्हें समुचित राजसी सम्मान न मिलने के नाम पर समर्थन वापिस लिया था और कभी भाजपा के खिलाफ जोर से गरज के अपना स्थान बनाने वाले पिछली सारी बातें भुला कर खुद भाजपा में चले गये। उन्होंने अपने गुट के कोटे से जिन लोगों को टिकिट दिलवाये थे उसके बदले में उनसे बगावत करायी थी। हाल ही मैं सम्पन्न शतरंज के खेल में एक नेतृत्व बाजी हार गया तो उसने थाली दूसरे के सामने सरका दी।
रोचक है कि कथित लोकतंत्र का यह खेल इक्कीसवी सदी में खेला जा रहा है, जब साक्षरों की संख्या में तीव्र वृद्धि हो चुकी है, देश डिजिटल हो चुका है, 24 घ्ंटे सातों दिन के सैकड़ों न्यूज चैनल हैं, जगह जगह सीसी टीवी कैमरे लगे हैं, तब काँग्रेस के एक गुट के मंत्री और विधायक राजधानी से चोरी चोरी गायब हो जाते हैं जिनके बारे में बताया गया कि उनका अपहरण कर के दूसरे राज्य में ले जाया गया है, जहाँ विपक्षी दल की पार्टी का शासन है। ये विधायक किसी रिसार्ट में थे और उनके पास उनके मोबाइल फोन नहीं थे। बताया गया था कि वे अपने दल के नेता और मुख्यमंत्री से बात नहीं करना चाहते। उनके एक ही हस्तलिपि और भाषा में लिखे एक जैसे स्तीफे विधानसभा अध्यक्ष के पास पहुँचते हैं। नियमानुसार विधानसभा अध्यक्ष स्तीफों को उनके ही द्वारा लिखे होने की पुष्टि के लिए उन्हें सामने उपस्थित होने के सन्देश भेजता है, तो भी वे सामने नहीं आते। वे जिस राज्य में थे, उस राज्य की सरकार और पुलिस भी यह कह कर इधर की सरकार की मदद नहीं करती। विधायकों की ओर से यह भी कहा बताया गया कि उन्हें भोपाल में खतरा है। वे जिस प्रदेश के निवासी हैं, विधायक हैं, मंत्री रहे थे उन्हें पार्टी के एक गुट व विपक्ष की सहानिभूति के बाद भी समूह में भोपाल आने में डर लगना बताया गया। बाद में इन विधायकों को तब ही मुक्ति मिली जब वे दिल्ली जाकर भाजपा के सदस्य बन गये।
इधर राज्यपाल सूचना माध्यमों के आधार पर सरकार से विश्वासमत प्राप्त करने को कहते हैं जबकि सरकार कहती थी कि पहले हमारे विधायक आकर विधिवत स्तीफा तो दे दें। विपक्षी दल दबाव बनाता है तो मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है और कोर्ट, बाहर रह रहे विधायकों को उनकी मर्जी पर छोड़ कर उपलब्ध विधायकों के बीच विश्वासमत प्राप्त करने का आदेश देता है। विधानसभा अध्यक्ष मजबूरन उन अनुपस्थित विधायकों का स्तीफा मंजूर कर लेता है जिससे बहुमत घट जाने के कारण मुख्यमंत्री स्तीफा दे देते हैं। इससे पहले सत्तारूढ काँग्रेस भी बचे विधायकों के अपहरण के डर से अपने उन्हें एकत्रित कर जयपुर के फाइव स्टार होटल में भिजवा देती है, बाद में भाजपा भी अपने विधायकों को सामूहिक रूप से पड़ोसी जिले के फाइव स्टार होटल में ले जाती है, जहाँ वे सामूहिक मनोरंजन और क्रिकेट खेलते देखे जाते हैं। इन में से किसी को भी कोरोना वायरस की चिंता नहीं सताती जबकि विधानसभा अध्यक्ष ने विधानसभा को इसी कारण से विलम्बित किया था।
विधायकों के त्यागपत्र मंजूर हो जाने के कारण अब उपचुनाव होगा। किंतु क्या परिणाम होगा अगर बंगलौर से लौट कर आये विधायकों में से कुछ कह देते हैं कि उन्हें बन्धक बना कर रखा गया था  स्तीफा व भाजपा की सदस्यता पर हस्ताक्षर दबाव में करना पड़े! पिछले दिनों ही एक भाजपा विधायक शरद कोल ने 6 मार्च को स्तीफा देने के बाद 16 मार्च को अध्यक्ष से कहा था कि उन पर दबाव डाल कर स्तीफा लिखवाया गया था। अध्यक्ष ने उनका स्तीफा वापिस कर दिया, किसी पर भी दबाव बनाने का कोई प्रकरण दर्ज नहीं हुआ। क्या होगा अगर उपचुनाव में भाजपा इन विधायकों को टिकिट नहीं देती है। क्या होगा अगर इन्हें टिकिट मिलने पर भाजपा के मूल सदस्यों ने इन्हें टिकिट देने का विरोध किया क्योंकि ये कुछ समय पहले तक उनके विरोधी थे व विचारहीन राजनीति में दुश्मनी निजी होती है जो ऊपर के राजनीतिक समझौतों से नहीं बदलती। क्या होगा अगर ऐसी स्थितियों में ये त्यागपत्र देने वाले विधायक कांग्रेसी प्रत्याशियों से चुनाव हार गये और कांग्रेस का फिर से बहुमत बन गया! 
यह पूरे तंत्र के बिखर जाने का परिणाम है। सवाल है कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी नेतृत्वहीन क्यों हो गयी, क्यों उसके पास संगठन और अनुशासन नहीं बचा? यह पार्टी क्यों अभी तक पूर्व राजाओं, महाराजाओं, की कृपा के सहारे चुनावों में उतर पाती है, जिनका जनता के बीच प्रभाव बचा हुआ है और इन से उठ गया है? क्यों इस पार्टी में इतनी गुटबाजी है और इसी के आधार पर टिकिटों का कोटा तय होता है। कैसे एक कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी से निकल कर उसका सदस्य कभी भी घोर साम्प्रदायिक पार्टी में सहजता से चला जाता है और उस पार्टी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्या यह विश्वसनीय है कि दल बदलने या त्यागपत्र देने वाले विधायक विधायक बिना किसी लाभ लोभ के विधायकी की सुविधाओं और सम्मान को त्याग कर स्तीफा देता हो। और जैसा कि कहा जाता है कि यह डील करोड़ों रुपयों में होती है, तो ये रुपये कहाँ से आते हैं व दो नम्बर के इन रुपयों के व्यवस्था करने वाली पार्टी द्वारा काला धन निकालने के दावे कितने झूठे हैं। चार्टर्ड प्लेन और फाइव स्टार होटलों का करोड़ों का बिल कैसे चुकाया जाता है? आज़ादी और लोकतंत्र के सत्तर साल बाद भी कैसी मूल्यहीन पीढी के पास सत्ता आ गयी है जो निजी लाभ लोभ के लिए सारे मूल्यों व सम्बन्धों को भूल सकती है। राज्यपाल और चुनाव आयोग जैसे पदों के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले सन्देह के घेरे में क्यों आने लगे हैं?
यह केवल एक राज्य सरकार के मुखिया बदलने के सवाल नहीं हैं, ये पूरे तंत्र के बिखर जाने के सवाल हैं। इस बिखराव को सम्हालने की कोई तैयारी नहीं दिखती है, हम अराजकता की ओर बढ रहे हैं? क्या देश की राजधानी जैसे तीन दिन तक हस्तक्षेपमुक्त हिंसा का नंगा नाच पूरे देश तक फैलेगा?
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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