शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

मोर पंख और मनेका गाँधी के बहाने



मोर पंख और मनेका गाँधी के बहाने
वीरेन्द्र जैन

         मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है। उसके रंगबिरंगे पंख जो उसके नृत्य के समय एक खास परिधि में फैल जाते हैं, व फैल कर रंगों का ऐसा समायोजन करते हैं कि प्रकृति की अद्भुत छटा दिखायी देती है। इसी के कारण उसके पंखों से कई कलात्मक और सजावटी वस्तुओं का निर्माण किया जाता रहा है जो हस्तकला का बेजोड़ नमूना होती हैं। मनेका गाँधी जो केन्द्र सरकार के मोदी मंत्रिमण्डल में महिला एवं बालविकास मंत्री हैं, अपने पर्यावरण प्रेम के लिए जानी जाती हैं। वे पिछले अनेक वर्षों से पशु पक्षियों के संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कर रही हैं, और हाल ही में उन्होंने मोरपंख के कारोबार को अवैध घोषित किये जाने में सरकार के सामने आ रही रुकावट से सम्बन्धित महत्वपूर्ण बयान दिया है।
         अपने बयान में उन्होंने कहा है कि मोरपंख के कारोबार को अवैध घोषित करने में सरकार के सामने सबसे बड़ी रुकावट जैन समाज का विरोध है। उल्लेखनीय है कि जैन मुनि जो पैरों में जूते नहीं पहिनते हैं, अपने साथ मोरपंखों से बनी एक झाड़ूनुमा निर्मति रखते हैं जिससे रास्ता और बैठने सोने का स्थान साफ करते रहते हैं, इसे पिच्छि कहा जाता है। यह पिच्छि भार में कम और उपयोग में कोमल होती है। जब इसे बदला जाता है तो पुरानी पिच्छि की नीलामी की जाती है और धार्मिक लोग उसे हजारों रुपये देकर खरीदकर स्मृति के रूप में रखते हैं। जैन धर्मालम्बियों का प्रमुख सिद्धांत अहिंसा है। आम तौर पर जैन मन्दिरों में चमड़े का बेल्ट और पर्स आदि ले कर जाने की मनाही है जिसका कारण यह है कि चमड़े की कुछ वस्तुएं प्राप्त करने के लिए पशुओं का शिकार भी किया जाता है। वैसे आमतौर पर चमड़े की नब्बे प्रतिशत से अधिक वस्तुओं के लिए पशुओं का शिकार नहीं किया जाता अपितु स्वाभाविक रूप से मृत या मांसाहार के लिए वध किये गये पशु की खाल से ही बनायी जाती हैं, पर सन्देह का लाभ देने के कारण उन्होंने सभी तरह के चमड़े की वस्तुओं का बहिष्कार किया हुआ है। ऐसा अहिंसक समाज और उसके संत अगर यह महसूस करें कि उनके द्वारा स्तेमाल की गयी पिच्छियों के कारण राष्ट्रीय पक्षी मोर का शिकार किया जा रहा है तो सांसारिक भौतिक वस्तुओं के त्याग की पराकाष्ठा में जीवन व्यतीत करने वाले संत शायद उसके स्तेमाल का विकल्प तलाशने में थोड़ी सी भी देर न करें, क्योंकि मोर पंखों की कलात्मकता से उन्हें कोई लगाव नहीं होता है।
         यदि केन्द्रीय मंत्री मनेका गाँधी की इस बात में किंचित भी सचाई हो कि मोर पंखों के लिए मोरों का शिकार किया जाता है, जो राष्ट्रीय प्रतीक होने के कारण एक बड़ा अपराध भी है तो उन्हें बिना किसी तुष्टीकरण के तुरंत ही कानूनी कार्यवाही करना चाहिये थी। इन दिनों देश में लगभग पाँच हजार जैन संत होंगे जो पिच्छि का स्तेमाल करते होंगे और एक पिच्छि के उपयोग का समय लगभग दो से तीन वर्ष बताया जाता है। यह मान्यता है कि मोर के पंख स्वाभाविक रूप से गिरते हैं जिन्हें एकत्रित करके इस तरह की हस्तकलाओं का निर्माण और व्यापार किया जाता है। अपनी उम्र पूरी करने के समय तक मोर पूरी तरह पंख विहीन हो जाता है। भारत सरकार के मंत्री के पास ज्यादा उपयोगी आंकड़े और सूचनाएं होना चाहिये।
         कभी पत्रकारिता करने वाली और सूर्या नामक पत्रिका की सम्पादक रह चुकी मनेका गाँधी नेहरू-गाँधी परिवार की महत्वपूर्ण सदस्य हैं और यही वंश परम्परा भाजपा में उनकी और उनके पुत्र की हैसियत निर्धारित करती है। अगर राजनीतिक कौशल की दृष्टि से देखा जाये तो भाजपा में उन्हें प्राप्त पदों को प्राप्त करने की पात्रता रखने वाले बहुत सारे वरिष्ठ लोग हैं। सदैव से सत्ता के लिए हर तरह के समझौते करने को उत्सुक रहने वाली भाजपा ने कभी उन्हें उनकी वंश परम्परा के कारण पद दिये थे ताकि वे संसद में आपनी संख्या बढा सकें पर ताजा चुनावों में उनकी यह मजबूरी नहीं रही है जिसके परिणाम स्वरूप ऐसे लोगों का महत्व कम हो गया है। यही कारण है कि ऐसे लोग अपने को अधिक से अधिक हिन्दूवादी राजनीति का सिपाही बताने की कोशिश करने लगे हैं। स्मरणीय है कि पिछले आम चुनावों के ठीक पहले वरुण गाँधी ने मुसलमानों के खिलाफ जो और जैसा बयान दिया था, उन्हें जानने वाले बताते हैं कि उनकी सोच वैसी नहीं है। वे तो केवल भाजपा और संघ के प्रति ज्यादा बफादारी दिखाने के लिए हाथ काटने की भाषा तक चले गये थे। विधानसभा के ताजा उपचुनावों के परिणाम आने से पूर्व भाजपा के लोग उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के आंकड़ों के अनुसार जल्दी सरकार बना लेने के सपने देखने लगे थे और उसी की तैयारी में न केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ही बढा रहे थे अपितु संवेदनशील अपराधों को सुर्खियों में लाकर उन्हें अतिरंजित भी कर रहे थे। वे जल्दी से जल्दी उत्तर प्रदेश की सरकार को भंग करने की परिस्तिथियां बनाने में लग गये थे। बड़े बड़े मानवीय संकटों पर मुँह न खोलने वाली मनेका गाँधी भी अपने पुत्र को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का सपना देखने लगी थीं व उन्होंने इस आशय का बयान भी दिया था।
         पिछले दशकों में जब से गठबन्धन सरकारों का दौर शुरू हुआ है उसी के समानांतर राजनीति निहित स्वार्थों का खेल होकर रह गयी है। भाजपा की जीत में अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु दल बदलने वालों की बड़ी संख्या है जिनमें से अभी बहुत कम लोगों को पद के रूप में उनका मेहनताना मिल सका है। फास्ट फूड के इस दौर में केवल सड़कों को ही वाहन रेस का मैदान नहीं बना दिया गया है अपितु हर क्षेत्र में पात्रता और उचित समय से पहले फल पाने का लालच बढ रहा है। इसके लिए बहुत बेशर्मी से साधनों की पवित्रता को पूरी तौर पर भुला दिया गया है। इसी के समानांतर राजनीतिज्ञ जितनी जल्दी लोकप्रियता लूट लेते हैं उतनी ही जल्दी उनकी लोकप्रियता का पतन भी होता है। परिणाम सामने है। क्या मनेकाजी सबक लेंगीं?
वीरेन्द्र जैन
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मो. 09425674629
    

बुधवार, सितंबर 24, 2014

परिणाम देने में अक्षम क्यों है मोदी मंत्रिमणडल



परिणाम देने में अक्षम क्यों है मोदी मंत्रिमणडल
वीरेन्द्र जैन

      कुछ राज्यों में हुये विधानसभा के उपचुनावों से यह साफ संकेत मिलता है कि गत लोकसभा चुनावों के दौरान सृजित भ्रम टूटता जा रहा है क्योंकि मोदी सरकार उन वादों की पूर्ति की ओर बढती नजर नहीं आ रही जिन से आकर्षित हुये सक्रिय मतों के सहारे उन्होंने अपनी बढत बनायी थी और  स्पष्ट बहुमत तक पहुँचने में सफल हुये थे। हमारे देश में सभी नागरिकों को समान रूप से मत देने का अधिकार है किंतु सभी मतदाताओं की चेतना का स्तर एक जैसा नहीं है। चुनावों को तीन तरह की प्रवृत्तियां प्रभावित करती हैं जिनमें से पहली तरह की जातिवाद, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जैसी प्रवृत्तियां हैं,  दूसरी तरह की प्रवृत्तियों में पैसा, शराब, उपहार, दबाव, लालच, गलत सूचनाएं, असुरक्षा, अशिक्षा, आदि आती हैं तीसरी कोटि में समाज का वह चेतन वर्ग आता है जो लोकतंत्र का आदर्श है और अपनी समझ व अनुभवों के आधार पर चुनाव करता है, यह वर्ग सरकारों के कार्यनिष्पादन और उनके आचरण को परखता रहता है और अपना मानस बनाता है। यह वर्ग मीडिया से प्राप्त सूचनाओं और अनुभवों के आधार पर अपना पक्ष बदलता भी रहता है और दूसरे कारकों के समान रहने पर कई क्षेत्रों में चुनाव परिणामों को प्रभावित भी करता है। इसी वर्ग के मतों का बदलाव सत्ता के चरित्र को परखने का काम करता है, पर अभी तक ऐसा कोई परिपूर्ण मापदण्ड विकसित नहीं हुआ है जिससे किसी उम्मीदवार को प्राप्त मतों के बीच उपरोक्त विभाजन का सही आकलन किया जा सके। जहाँ तीसरी प्रवृत्ति के लोग कम होते हैं, वहाँ तरह तरह के अपराधी और भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात लोग भी अपने क्षेत्रों से लगातार जीतते रहते हैं। पर जहाँ इस तीसरी प्रवृत्ति के लोग अधिक पाये जाते हैं वहाँ सत्ताएं अपने कार्यनिष्पादन के अनुरूप बदलती भी रहती हैं। हमारे देश में ऐसे मतदाताओं का अनुपात क्षेत्रवार क्रमशः बदल रहा है।  
      राजनीतिक विश्लेषक भी चुनाव परिणामों पर दुहरा मापदण्ड रखते हैं। बहुदलीय चुनाव प्रणाली में आम तौर पर कुल मतों के पन्द्रह से बीस प्रतिशत के बीच, या डाले गये मतों के तीस से चालीस प्रतिशत मत पाने वाले बहुमत पा लेते हैं। इससे उन्हें सत्ता पाने का अधिकार तो मिल जाता है पर लोकतंत्र की मूल भावनाओं के अनुरूप वे बहुसंख्यक जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते। राजनीतिक विश्लेषक भी अपनी पक्षधरता के अनुरूप ही विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। कभी पक्ष और विपक्ष में गिरे मतों को विश्लेषण का आधार बनाते हैं तो कभी जीती गयी सीटों को आधार बना लेते हैं। उल्लेखनीय है कि इस समय देश में जो सरकार है उसे कुल मतों का बीस प्रतिशत और डाले गये मतों का इकतीस प्रतिशत प्राप्त हुआ है व उसने 282 सीटें जीती हैं। इसके विपरीत  कि 4.10 प्रतिशत मत प्राप्‍त करने वाली बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली जबकि 0.40 प्रतिशत मत प्राप्‍त करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को 6 सीटें मिल गईं। यह विसंगति व्यवस्थागत दोष है और पुराने समय से चला आ रहा है।
       उल्लेखनीय है कि देश में सत्तारूढ हुयी भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव जीतते ही अपना अध्यक्ष बदल लिया और प्रधानमंत्री ने एक ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनवा दिया जो उनका अन्ध समर्थक और उनके मुख्यमंत्री रहने के दौर में उनके मंत्रिमण्डल का सबसे विश्वासपात्र सदस्य था। उस पर कई गम्भीर आरोप भी लगे थे व कोर्ट को राज्य बाहर रहने का आदेश भी देना पड़ा था। पार्टी में अनेक अनुभवी और वरिष्ठों के होते हुये भी उनकी यह नियुक्ति उनकी चुनाव प्रबन्धन की कुशलता और प्रधानमंत्री के प्रति समर्पण के कारण ही हुयी है। लोकसभा चुनावों के दौरान उनका चतुर प्रबन्धन कौशल बहुत उत्तम था और इस प्रबन्धन में चुनाव जिताने वाले सारे कारकों का स्तेमाल उनके क्षेत्रवार यथा वांछित किया गया। अपने इस अभियान का नाम उन्होंने भारत विजय रखा था जो सामंती दौर में किसी देश को जीतने वाला शब्द है और उनके अभियान का सही नामकरण है। उन्होंने चुनावी हथियारों से एक युद्ध ही लड़ा है और युद्ध में सब ज़ायज होने के सिद्धांत के अनुरूप हर तरह की नैतिकता को परे रख कर ही लड़ा है।
      जब कोई भी बड़ा दल उनके साथ गठबन्धन करने में संकोच कर रहा था तब उन्होंने कारपोरेट घरानों से जुटाये संसाधनों के सहारे छोटे छोटे संसाधनहीन दो दर्ज़न दलों के साथ समझौता किया। बीजू जनता दल द्वारा पहले, और जेडी[यू] द्वारा बाद में साथ छोड़ देने के बाद उनके पास शिवसेना और अकाली दल जैसे कुल दो ही प्रमुख दल शेष थे। जब अपने अतिरिक्त आत्मविश्वास के कारण मायावती ने उनके सारे प्रस्ताव ठुकरा दिये तो उन्होंने बिहार में हाशिये पर पहुँच गये राम विलास पासवान, प्रखर दलित नेता उदितराज और महाराष्ट्र में रामदास अठावले की हर शर्त मानते हुये अपने गठबन्धन में दलित समर्थन की कमी को दूर किया। पिछड़ों का समर्थन पाने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सोची समझी नीति के अंतर्गत न केवल दंगाइयों को प्रोत्साहित किया अपितु उनकी अस्मिता जगाने के लिए दंगे के आरोपियों को सार्वजनिक मंचों से सम्मानित भी किया। अपने हिन्दुत्व को प्रमाणित करने के लिए न केवल दर्ज़न भर भगवावेष धारियों को टिकिट ही दिया अपितु किसी भी जीत सकने वाली सीट पर किसी प्रमुख अल्पसंख्यक को टिकिट न देकर हिन्दुत्ववादी होने का परोक्ष संकेत भी दिया। कठिन और चुनौतीपूर्ण सीटों पर रंगमंच व फिल्मी दुनिया के ऐसे चमकीले सितारों को उतारा जो हर समय अभिनय व्यवसाय के लिए तैयार रहते हैं चाहे वह चुनाव के उम्मीदवार होने की भूमिका ही क्यों न हो! राज परिवार के सदस्यों व खिलाड़ियों को वे पहले ही स्थान देते रहे हैं। कहा जाता है सोलहवीं लोकसभा के लिए हुये चुनाव, इतिहास के सबसे मँहगे चुनाव थे व उपहार, शराब व पैसा लेकर वोट देने वाला मतदाता वर्ग निराश नहीं रहा। इन चुनावों में अवैध हथियारों, अवैध शराब और ड्रग्स के अम्बार के साथ साथ दो सौ निन्नानवे करोड़ तो चुनाव आयोग ने नगद जब्त भी किये हैं। मीडिया को किस तरह से नियंत्रित किया गया और पक्ष की सूचनाओं को किस तरह से अतिरंजित किया गया इसकी जानकारी के लिए सोशल मीडिया का बहुत मामूली सा हिस्सा ही शेष बचा था।  
      जब कुशल प्रबन्धन के सहारे एक कमजोर पार्टी को एक व्यक्ति की सत्ता वाली पार्टी में बदल दिया गया हो तो उस पार्टी में कठोर अनुशासन वाली तानाशाही के अंतर्गत काम कर रहे मंत्री सौ दिन में अपनी कार्यक्षमता प्रदर्शित करने के लिए कैसे खुशी खुशी सामने आ सकते हैं। भले ही कई विभागों को मिला कर समन्वित करने का प्रयास किया गया हो पर मंत्रियों के बीच में तो आपसी समन्वय नहीं है। अडवाणी द्वारा प्रस्तावित व बालठाकरे द्वारा समर्थित प्रधानमंत्री पद की दावेदार रही विदेशमंत्री वरिष्ठता में तीसरे क्रम पर हैं, और प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा पर जाने को तैयार नहीं या प्रधानमंत्री उन्हें ले नहीं जाना चाहते। जल संसाधन मंत्री उमा भारती का ही उदाहरण लें तो वे कई वर्षों तक अपनी अलग पार्टी बना कर भाजपा को भरपूर नुकसान पहुँचा चुकी हैं, व खटास अभी बाकी है। सुषमा स्वराज से उनकी प्रतिद्वन्दता पुरानी है. अरुण जैटली के ऊपर प्रैस को लीक करने का आरोप लगा कर ही उन्होंने भरी सभा में अटल बिहारी और अडवाणी को चुनौती दी थी। वैंक्य्या नायडू को उन्हीं के कारण अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था और इसे पत्नी के स्वास्थ से जोड़ने पर उमाजी से बहुत ही खराब टिप्पणी झेलना पड़ी थी। संसद में महिला आरक्षण के सवाल पर उनका दृष्टिकोण पार्टी के दृष्टिकोण से भिन्न पिछड़े वर्ग के दलों से मेल खाता है। बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के मामले में उन पर आरोप तय हो चुके हैं और वे अकेली ऐसी केबिनेट मंत्री हैं। राजनाथ के पुत्र के खिलाफ जो चर्चा मीडिया में आयी थी उसके साथ साथ यह खबर भी चली थी कि यह खबर मंत्रिमण्डल में नम्बर दो की स्थिति पाने के द्वन्द में बाहर आयी थी, जिसका प्रधानमंत्री और पार्टी अध्य्क्ष को खण्डन करना पड़ा। राजस्थान से आये मंत्री पर गम्भीर आरोप हैं। कृषि मंत्री का कहना है कि उनके विभाग की कार्य उपलब्धियां सौ दिन में नहीं दी जा सकतीं। शिक्षा मंत्री अपनी शिक्षा की डिग्री के कारण ही परेशान हैं। स्वास्थ मंत्री एम्स के संजय चतुर्वेदी को सीवीसी पद से हटाने से उठे विवाद में परेशान हैं। घटक दल के राम विलास पासवान को कभी उनके पास रहे  पिछले विभागों से कमतर और चुनौतीपूर्ण विभाग मिला है। विपक्ष में रहते हुये चन्दबरदाई बनी रहने वाली पार्टी को रक्षा और वित्त के क्षेत्र में सच्चाई से रूबरू होना पड़ रहा है।
      क्या ऐसे चुनी गयी सरकार ऐसे मंत्रिमण्डल के सहारे सौ दिनों में अपने लक्ष्य की ओर जाती दिख सकती है? अगर उपचुनावों के परिणाम इसी भ्रम भंग से जन्मे हैं तो महाराष्ट्र और हरियाना के विधानसभा चुनावों में दोनों तरफ की एंटी इनकम्बेंसी काम करेगी। महाराष्ट्र में तो जो अपने सहयोगी दल को कम सीटें जीतने देगा वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार होगा और हरियाना में हरियाना जनहित काँग्रेस से गठबन्धन टूट ही चुका है। 
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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सोमवार, सितंबर 08, 2014

धर्म परिवर्तन की राजनीति और अम्बेडकर



धर्म परिवर्तन की राजनीति और अम्बेडकर
वीरेन्द्र जैन                          
       प्रेम विवाह भी अंततः विवाह ही होता है और उसमें भी परम्परागत विवाह की तरह कभी कभी टूटन पैदा हो जाती है। जब ऐसी टूटन अंतर्धार्मिक विवाहों के बीच आती है तो धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले इसे धर्म परिवर्तन से जोड़ने लगते हैं ताकि एक सम्प्रदाय की भावनाओं को भड़का कर उसका राजनीतिक लाभ ले सकें। लव ज़ेहाद शब्द भी एक धर्म विशेष से जुड़े शब्द से मिला कर एक षड़य्ंत्र की रचना है। धर्म परिवर्तन के नाम पर किये जा रहे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के परिप्रेक्ष्य में इस बात को विस्तार से समझने की जरूरत है कि भारत रत्न डा.भीमराव अंबेडकर ने कई लाख दलितों के साथ नागपुर में जोर शोर से धर्म परिवर्तन किया था। उन्होंने सवर्णों द्वारा दलितों के साथ किये जा रहे शोषण और दमन के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज़ कराने के लिए यह अहिंसक कदम उठाया था और बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। डा. अम्बेडकर के जीवन प्रसंगों में हिन्दू सवर्ण समाज द्वारा किये गये दुर्व्यवहार की जितनी चर्चा आती है उतनी बौद्ध धर्म के प्रभाव की नहीं आती। स्मरणीय है कि उन्होंने कहा था कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा जरूर हुआ हूं, पर हिन्दू की तरह मरूंगा नहीं।
                हिन्दू साम्प्रदायिक दल वैसे तो यह कहते रहे थे कि मनुस्मृति ही हमारा संविधान है, और संविधान के गठन के समय भी उन्होंने कहा था कि जब हमारे यहाँ मनुस्मृति मौजूद है तो अलग से संविधान की क्या जरूरत पर प्रकारांतर में वे जब इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस लोकतंत्र में दलितों के लिए भगवान का दर्ज़ा पा चुके, अम्बेडकर के विचारों और कार्यों की उपेक्षा का मतलब पूरे दलित समाज से दूर हो जाना है, तब ही उन्होंने उन्हें स्वीकारा और अपनाने की कोशिश की। उल्लेखनीय है कि इस बात को बहुत दिन नहीं हुये जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में उन अरुण शौरी जी को महत्वपूर्ण मंत्री बनाया गया था जिन्होंने अम्बेडकर के खिलाफ इलेस्ट्रेटिड वीकली में एक श्रंखला लिखी थी और जो बाद में पुस्तकाकार रूप में भी वर्शिपिंग फाल्स गाड के रूप में सामने आयी थी। हाल ही में यह भी चर्चा रही कि मोदी मंत्रिमण्डल में उन्हें मंत्री बनाया जाने वाला था जिसे बाद में अगले मंत्रिमण्डल विस्तार तक के लिए स्थगित कर दिया गया है, जो सम्भवतः महाराष्ट्र समेत कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव हो जाने के बाद किया जायेगा। अम्बेडकर समर्थकों को लुभाने के लिए भाजपा समर्थक यह कह कर उनकी प्रशंसा करने लगे थे कि अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करते समय इस बात का ध्यान रखा कि उन्होंने अपने समर्थकों को मुसलमान या ईसाई बनाने की जगह बौद्ध धर्म अपनाने को प्रेरित किया। विडम्बना यह है कि उक्त बात करते समय वे खुद को एक हिन्दूवादी दल होने की सच्चाई बयान कर रहे थे जिसे गाहे-बगाहे वे छुपाने की असफल कोशिशें भी करते रहते हैं।  
       इतिहास बताता है कि जब धर्म शोषण का हथियार बनता है तब वह अधिक से अधिक समर्थन जुटाना चाहता है, और दूसरे धर्मों को किसी भी तरह परास्त करना चाहता है। हिन्दुओं के लिए जब देश में इस्लाम चुनौती नहीं था तब बौद्ध धर्म चुनौती के रूप में सामने आया था जिसने समाज की जाति प्रथा के विरुद्ध भी आवाज बुलन्द की थी। बाद में देश और विदेश में तेजी से विस्तार करते हुये बौद्ध धर्म से उनके हिंसक संघर्ष हुये थे और पुष्यमित्र काल में बौद्ध धर्म के हजारों मठ व ग्रंथ नष्ट कर दिये गये थे व लाखों बौद्धों को मौत के घाट उतार दिया गया था। जो बौद्ध धर्म चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बर्मा, जापान आदि पूरे पूर्व एशिया में फैला वह सम्राट अशोक के काल में राज्याश्रित होकर इस भूखण्ड में भी बहुत अधिक प्रभाव रखता था। जब इस हिंसक विरोध से भी बौद्ध धर्म भारत से पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ तब उसका विकृत्तीकरण किया गया। उल्लेखनीय है कि जिस बुद्धू शब्द का अर्थ मूर्ख माना गया है वह निन्दा की तरह बौद्धों के लिए ही तत्कालीन हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त किया गया था। इस तरह के विकृत्त्तीकरण से भी निष्प्रभावी होने के बाद बुद्ध को अवतार मानने की नीति बनायी गयी थी। लगभग इसी तरह गाँधीजी की हत्या के बाद मिठाई बाँटने वालों ने बाद में उनके नाम को प्रातः स्मरणीयों में सम्मलित कर लिया था।
       हमारे देश में धर्म परिवर्तन का लम्बा इतिहास रहा है और अलग अलग दर्शनों वाले शैव, शाक्त व वैष्णवों के एक साथ आने के साथ जैन, बौद्ध, सिख, आर्यसमाज, आदि भिन्न दर्शनों और पूजा पद्धतियों के लोग उसी में से निकलते भी रहे हैं। हर युग में लाखों की संख्या में लोग अपनी आस्थाएं बदलते  रहे हैं। अहिंसक आन्दोलन से स्वतंत्र हुये देश में अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन को अपने राजनीतिक दर्शन का आधार बनाया था ताकि दलितों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ सवर्णों पर दबाव बनाया जा सके, और एक जातिविहीन समाज की स्थापना का वातावरण तैयार किया जा सके।   
       डा. अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को दीक्षा भूमि, नागपुर में लगभग आठ लाख हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराते हुये अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं थीं जिससे उनकी नीति के संकेत मिलते हैं। उन्होंने इन शपथों को इस तरह निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके। ये प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं। ये प्रसिद्ध 22 प्रतिज्ञाएँ निम्न हैं:
1.
मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
2.
मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैंउनकी पूजा करूँगा
3.
मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.
4.
मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ
5.
मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ
6.
मैं श्रद्धा (श्राद्ध) में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा.
7.मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा
8. मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ
9. . मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करूँगा
10.  मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया और प्यार भरी दयालुता रखूँगा तथा उनकी रक्षा करूँगा.
11. मैं चोरी नहीं करूँगा.
12. मैं झूठ नहीं बोलूँगा
13.मैं कामुक पापों को नहीं करूँगा.
1
4. मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा.
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5. मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करूँगा एवं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करूँगा.
1
6. मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है क्योंकि यह असमानता पर आधारित है, और स्व-धर्मं के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाता हूँ
17. मैं दृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ की बुद्ध का धम्म ही सच्चा धर्म है.
18. मुझे विश्वास है कि मैं फिर से जन्म ले रहा हूँ (इस धर्म परिवर्तन के द्वारा).
19. मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांतों व शिक्षाओं एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करूँगा.
20. मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करूँगा

21. मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा
22. मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित परमितों का पालन करूँगा
       साम्प्रयादिकता और जातिवाद के आधार पर ध्रुवीकृत समाज में इन बुराइयों का रणनीतिक विरोध भी चलता रहता है। गत दिनों मध्यप्रदेश के शिवपुरी में एक दलित परिवार ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए इस्लाम धर्म अपनाने और धर्म परिवर्तन को हथियार बनाया जिससे मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार में तेज हलचल हुयी, और उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया। यदि अम्बेडकर द्वारा प्रयुक्त यह हथियार दलित जनता के हाथ लग गया तो वह हर तरह की साम्प्रदायिक सरकारों पर दबाव बनाने के लिए इसका प्रयोग कर सकती है। स्मरणीय है कि आज से लगभग आठ साल पूर्व कुछ अध्यापक संगठन अपनी माँगें मनवाने के लिए इस धमकी का प्रयोग कर चुके हैं। यदि दलित और आर्थिक रूप से पिछड़े समाज ने इसे हथियार की तरह उपयोग करना शुरू कर दिया तो भविष्य में धर्म के आधार पर राजनीति करने वालों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है।
वीरेन्द्र जैन          
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