परिणाम देने में अक्षम क्यों है मोदी मंत्रिमणडल
वीरेन्द्र जैन
कुछ राज्यों में हुये विधानसभा के उपचुनावों
से यह साफ संकेत मिलता है कि गत लोकसभा चुनावों के दौरान सृजित भ्रम टूटता जा रहा
है क्योंकि मोदी सरकार उन वादों की पूर्ति की ओर बढती नजर नहीं आ रही जिन से
आकर्षित हुये सक्रिय मतों के सहारे उन्होंने अपनी बढत बनायी थी और स्पष्ट बहुमत तक पहुँचने में सफल हुये थे।
हमारे देश में सभी नागरिकों को समान रूप से मत देने का अधिकार है किंतु सभी
मतदाताओं की चेतना का स्तर एक जैसा नहीं है। चुनावों को तीन तरह की प्रवृत्तियां
प्रभावित करती हैं जिनमें से पहली तरह की जातिवाद, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद,
भाषावाद, जैसी प्रवृत्तियां हैं, दूसरी
तरह की प्रवृत्तियों में पैसा, शराब, उपहार, दबाव, लालच, गलत सूचनाएं, असुरक्षा,
अशिक्षा, आदि आती हैं तीसरी कोटि में समाज का वह चेतन वर्ग आता है जो लोकतंत्र का
आदर्श है और अपनी समझ व अनुभवों के आधार पर चुनाव करता है, यह वर्ग सरकारों के
कार्यनिष्पादन और उनके आचरण को परखता रहता है और अपना मानस बनाता है। यह वर्ग मीडिया
से प्राप्त सूचनाओं और अनुभवों के आधार पर अपना पक्ष बदलता भी रहता है और दूसरे
कारकों के समान रहने पर कई क्षेत्रों में चुनाव परिणामों को प्रभावित भी करता है।
इसी वर्ग के मतों का बदलाव सत्ता के चरित्र को परखने का काम करता है, पर अभी तक
ऐसा कोई परिपूर्ण मापदण्ड विकसित नहीं हुआ है जिससे किसी उम्मीदवार को प्राप्त मतों
के बीच उपरोक्त विभाजन का सही आकलन किया जा सके। जहाँ तीसरी प्रवृत्ति के लोग कम
होते हैं, वहाँ तरह तरह के अपराधी और भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात लोग भी अपने क्षेत्रों
से लगातार जीतते रहते हैं। पर जहाँ इस तीसरी प्रवृत्ति के लोग अधिक पाये जाते हैं
वहाँ सत्ताएं अपने कार्यनिष्पादन के अनुरूप बदलती भी रहती हैं। हमारे देश में ऐसे
मतदाताओं का अनुपात क्षेत्रवार क्रमशः बदल रहा है।
राजनीतिक विश्लेषक भी चुनाव परिणामों पर
दुहरा मापदण्ड रखते हैं। बहुदलीय चुनाव प्रणाली में आम तौर पर कुल मतों के पन्द्रह
से बीस प्रतिशत के बीच, या डाले गये मतों के तीस से चालीस प्रतिशत मत पाने वाले
बहुमत पा लेते हैं। इससे उन्हें सत्ता पाने का अधिकार तो मिल जाता है पर लोकतंत्र
की मूल भावनाओं के अनुरूप वे बहुसंख्यक जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते। राजनीतिक
विश्लेषक भी अपनी पक्षधरता के अनुरूप ही विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। कभी पक्ष और
विपक्ष में गिरे मतों को विश्लेषण का आधार बनाते हैं तो कभी जीती गयी सीटों को
आधार बना लेते हैं। उल्लेखनीय है कि इस समय देश में जो सरकार है उसे कुल मतों का बीस
प्रतिशत और डाले गये मतों का इकतीस प्रतिशत प्राप्त हुआ है व उसने 282 सीटें जीती
हैं। इसके विपरीत कि 4.10 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाली
बहुजन समाज पार्टी को एक भी
सीट नहीं मिली जबकि 0.40 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को 6 सीटें मिल गईं। यह विसंगति व्यवस्थागत दोष है और पुराने समय से चला आ रहा
है।
उल्लेखनीय है कि देश में सत्तारूढ हुयी भारतीय जनता पार्टी
ने चुनाव जीतते ही अपना अध्यक्ष बदल लिया और प्रधानमंत्री ने एक ऐसे व्यक्ति को
अध्यक्ष बनवा दिया जो उनका अन्ध समर्थक और उनके मुख्यमंत्री रहने के दौर में उनके
मंत्रिमण्डल का सबसे विश्वासपात्र सदस्य था। उस पर कई गम्भीर आरोप भी लगे थे व
कोर्ट को राज्य बाहर रहने का आदेश भी देना पड़ा था। पार्टी में अनेक अनुभवी और
वरिष्ठों के होते हुये भी उनकी यह नियुक्ति उनकी चुनाव प्रबन्धन की कुशलता और
प्रधानमंत्री के प्रति समर्पण के कारण ही हुयी है। लोकसभा चुनावों के दौरान उनका चतुर
प्रबन्धन कौशल बहुत उत्तम था और इस प्रबन्धन में चुनाव जिताने वाले सारे कारकों का
स्तेमाल उनके क्षेत्रवार यथा वांछित किया गया। अपने इस अभियान का नाम उन्होंने
भारत विजय रखा था जो सामंती दौर में किसी देश को जीतने वाला शब्द है और उनके
अभियान का सही नामकरण है। उन्होंने चुनावी हथियारों से एक युद्ध ही लड़ा है और
युद्ध में सब ज़ायज होने के सिद्धांत के अनुरूप हर तरह की नैतिकता को परे रख कर ही
लड़ा है।
जब कोई भी बड़ा दल उनके साथ गठबन्धन करने में
संकोच कर रहा था तब उन्होंने कारपोरेट घरानों से जुटाये संसाधनों के सहारे छोटे
छोटे संसाधनहीन दो दर्ज़न दलों के साथ समझौता किया। बीजू जनता दल द्वारा पहले, और
जेडी[यू] द्वारा बाद में साथ छोड़ देने के बाद उनके पास शिवसेना और अकाली दल जैसे
कुल दो ही प्रमुख दल शेष थे। जब अपने अतिरिक्त आत्मविश्वास के कारण मायावती ने
उनके सारे प्रस्ताव ठुकरा दिये तो उन्होंने बिहार में हाशिये पर पहुँच गये राम
विलास पासवान, प्रखर दलित नेता उदितराज और महाराष्ट्र में रामदास अठावले की हर
शर्त मानते हुये अपने गठबन्धन में दलित समर्थन की कमी को दूर किया। पिछड़ों का
समर्थन पाने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सोची समझी नीति के अंतर्गत न केवल
दंगाइयों को प्रोत्साहित किया अपितु उनकी अस्मिता जगाने के लिए दंगे के आरोपियों
को सार्वजनिक मंचों से सम्मानित भी किया। अपने हिन्दुत्व को प्रमाणित करने के लिए
न केवल दर्ज़न भर भगवावेष धारियों को टिकिट ही दिया अपितु किसी भी जीत सकने वाली
सीट पर किसी प्रमुख अल्पसंख्यक को टिकिट न देकर हिन्दुत्ववादी होने का परोक्ष
संकेत भी दिया। कठिन और चुनौतीपूर्ण सीटों पर रंगमंच व फिल्मी दुनिया के ऐसे चमकीले
सितारों को उतारा जो हर समय अभिनय व्यवसाय के लिए तैयार रहते हैं चाहे वह चुनाव के
उम्मीदवार होने की भूमिका ही क्यों न हो! राज परिवार के सदस्यों व खिलाड़ियों को वे
पहले ही स्थान देते रहे हैं। कहा जाता है सोलहवीं लोकसभा के लिए हुये चुनाव, इतिहास
के सबसे मँहगे चुनाव थे व उपहार, शराब व पैसा लेकर वोट देने वाला मतदाता वर्ग
निराश नहीं रहा। इन चुनावों में अवैध हथियारों, अवैध शराब और ड्रग्स के अम्बार के
साथ साथ दो सौ निन्नानवे करोड़ तो चुनाव आयोग ने नगद जब्त भी किये हैं। मीडिया को
किस तरह से नियंत्रित किया गया और पक्ष की सूचनाओं को किस तरह से अतिरंजित किया
गया इसकी जानकारी के लिए सोशल मीडिया का बहुत मामूली सा हिस्सा ही शेष बचा था।
जब कुशल प्रबन्धन के सहारे एक कमजोर पार्टी
को एक व्यक्ति की सत्ता वाली पार्टी में बदल दिया गया हो तो उस पार्टी में कठोर
अनुशासन वाली तानाशाही के अंतर्गत काम कर रहे मंत्री सौ दिन में अपनी कार्यक्षमता
प्रदर्शित करने के लिए कैसे खुशी खुशी सामने आ सकते हैं। भले ही कई विभागों को
मिला कर समन्वित करने का प्रयास किया गया हो पर मंत्रियों के बीच में तो आपसी समन्वय
नहीं है। अडवाणी द्वारा प्रस्तावित व बालठाकरे द्वारा समर्थित प्रधानमंत्री पद की दावेदार
रही विदेशमंत्री वरिष्ठता में तीसरे क्रम पर हैं, और प्रधानमंत्री के साथ विदेश
यात्रा पर जाने को तैयार नहीं या प्रधानमंत्री उन्हें ले नहीं जाना चाहते। जल
संसाधन मंत्री उमा भारती का ही उदाहरण लें तो वे कई वर्षों तक अपनी अलग पार्टी बना
कर भाजपा को भरपूर नुकसान पहुँचा चुकी हैं, व खटास अभी बाकी है। सुषमा स्वराज से
उनकी प्रतिद्वन्दता पुरानी है. अरुण जैटली के ऊपर प्रैस को लीक करने का आरोप लगा
कर ही उन्होंने भरी सभा में अटल बिहारी और अडवाणी को चुनौती दी थी। वैंक्य्या
नायडू को उन्हीं के कारण अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था और इसे पत्नी के स्वास्थ से
जोड़ने पर उमाजी से बहुत ही खराब टिप्पणी झेलना पड़ी थी। संसद में महिला आरक्षण के
सवाल पर उनका दृष्टिकोण पार्टी के दृष्टिकोण से भिन्न पिछड़े वर्ग के दलों से मेल
खाता है। बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के मामले में उन पर आरोप तय हो चुके हैं और वे अकेली
ऐसी केबिनेट मंत्री हैं। राजनाथ के पुत्र के खिलाफ जो चर्चा मीडिया में आयी थी
उसके साथ साथ यह खबर भी चली थी कि यह खबर मंत्रिमण्डल में नम्बर दो की स्थिति पाने
के द्वन्द में बाहर आयी थी, जिसका प्रधानमंत्री और पार्टी अध्य्क्ष को खण्डन करना
पड़ा। राजस्थान से आये मंत्री पर गम्भीर आरोप हैं। कृषि मंत्री का कहना है कि उनके
विभाग की कार्य उपलब्धियां सौ दिन में नहीं दी जा सकतीं। शिक्षा मंत्री अपनी
शिक्षा की डिग्री के कारण ही परेशान हैं। स्वास्थ मंत्री एम्स के संजय चतुर्वेदी
को सीवीसी पद से हटाने से उठे विवाद में परेशान हैं। घटक दल के राम विलास पासवान
को कभी उनके पास रहे पिछले विभागों से
कमतर और चुनौतीपूर्ण विभाग मिला है। विपक्ष में रहते हुये चन्दबरदाई बनी रहने वाली
पार्टी को रक्षा और वित्त के क्षेत्र में सच्चाई से रूबरू होना पड़ रहा है।
क्या
ऐसे चुनी गयी सरकार ऐसे मंत्रिमण्डल के सहारे सौ दिनों में अपने लक्ष्य की ओर जाती
दिख सकती है? अगर उपचुनावों के परिणाम इसी भ्रम भंग से जन्मे हैं तो महाराष्ट्र और
हरियाना के विधानसभा चुनावों में दोनों तरफ की एंटी इनकम्बेंसी काम करेगी। महाराष्ट्र
में तो जो अपने सहयोगी दल को कम सीटें जीतने देगा वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार
होगा और हरियाना में हरियाना जनहित काँग्रेस से गठबन्धन टूट ही चुका है।
वीरेन्द्र जैन
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