शनिवार, दिसंबर 28, 2019

प्रेमचन्द से राजेन्द्र यादव तक के देखे सपनों का पूरा होना


प्रेमचन्द से राजेन्द्र यादव तक के देखे सपनों का पूरा होना
वीरेन्द्र जैन


आज अगर राजेन्द्र यादव होते तो बहुत खुश होते।
जनवरी 1993 में हंस के सम्पादकीय में उन्होंने एक अलग रुख लिया था। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ने पर, जब सभी बुद्धिजीवी , पत्रकार , सम्पादक राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता एक स्वर से कट्टर हिन्दुत्व की निन्दा कर रहे थे तब उन्होंने उस मुस्लिम नेतृत्व की आलोचना की थी  जिसने कुछ वर्ष पहले ही शाहबानो मामले पर दिल्ली के बोट क्लब पर पाँच लाख की रैली निकाल कर एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी थी।
उन्होंने लिखा था कि तुम लोगों ने बाबरी मस्ज़िद तुड़वा ली। बहुत दावे कर रहे थे कि ईंट से ईंट बजा देंगे, पर यह भूल गये थे कि तुम अल्पसंख्यक हो और जब संख्या बल के आधार पर टकराने की कोशिश करोगे तो बहुसंख्यक ही जीतेंगे। ऐसा करके तुम बहुसंख्यकों को एकजुट होने व हमलावर होने को उकसाने का काम करोगे। किसी भी देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी उनकी अलग से एकता नहीं अपितु एक धर्म निरपेक्ष व्यवस्था ही देती है।
पिछले दिनों सिटीजनशिप अमेन्डमेंट बिल और फिर एक्ट में धार्मिक आधार पर जानबूझ कर भेदभाव किया गया था ताकि मुसलमानों का विरोध धार्मिक विभाजन पैदा करे और कम पढे लिखे या अन्धभक्तों हिन्दुओं को लगे कि यह विरोध अनावश्यक व बेमानी है। खुद को चाणक्य समझने वाले लोगों ने पिछले अनुभवों के आलोक में, अपनी समझ से बहुत चतुराई भरी चाल चली थी, ताकि बेरोजगारी, मन्दी आदि से प्रताड़ित जनता साम्प्रदायिकता के तनाव में इन्हें भूल जाये व विधानसभा चुनावों में उन्हें फिर जिता दे। बहुत हद तक वे सफल भी हुये किंतु हमारी चुनाव प्रणाली, जो कभी एक दल को लाभ दे जाती है, वही कभी नुकसान भी कर जाती है।
बिल के षड़यंत्र को समझ कर न केवल मुस्लिमों ने अपितु देश भर के धर्मनिरपेक्ष लोगों ने एकजुट होकर षड़यंत्र को उजागर किया व आन्दोलन में एकजुटता दिखायी। महाराष्ट्र राज्य की पराजय के बाद झारखण्ड में हुयी पराजय के साथ बिल के सामूहिक विरोध ने इसे साम्प्रदायिक बनने से रोका और धर्मनिरपेक्ष आधार पर दलों में एकजुटता स्थापित हुयी। यह पराजय न केवल आरएसएस के इशारों पर नाचने वाली भाजपा की पराजय थी अपितु यह ओवैसी के फैलते प्रभाव की पराजय भी थी। उल्लेखनीय यह है कि यह एकता बिना किसी परम्परागत नेतृत्व के बनी है और जनता की समझ की एकता है। इसमें लिंग भेद के बिना जो शिक्षित युवा एकत्रित हुये उन्होंने सारे बहकावों और दुष्प्रचार के साथ साथ सारे लालचों को भी ठुकरा दिया। कुछ गैरसरकारी संगठन और वामपंथी कला समूह तो इस दिशा में लगातार सामर्थ्यभर प्रयास करते रहे हैं जिसने बीज का काम किया। यह सब उन्होंने अपना कर्तव्य मान कर किया।
राजेन्द्र यादव का भी यही सपना था। उन्होंने हंस के माध्यम से लगभग तीन दशक तक इस मशाल को जलाये रखा और बेहद सुलझे तरीके से परिस्तिथियों का विश्लेषण सामने लाते रहे। सम्पादकीय आलेखों के माध्यम से यह काम पहले प्रेमचन्द, कमलेश्वर, और उत्तरार्ध में प्रभाष जोशी ने भी किया। आज उन सब के सपने सफलता की ओर बढ रहे हैं।  
फैज़ के शब्दों में कहें तो –
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [.प्र.] 462023
मो. 9425674629
 
  

‘मैटिनी शो’ महिला निर्देशकों की फिल्मों पर आधारित समारोह


‘मैटिनी शो’ महिला निर्देशकों की फिल्मों पर आधारित समारोह
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भोपाल में मध्यप्रदेश महिला मंच और इंटरनैशनल एसोशिएन आफ विमेन इन रेडियो एंड टेलीविजन [इंडिया चैप्टर] की ओर से महिलाओं द्वारा निर्देशित फिल्मों का तीन दिवसीय समारोह आयोजित हुआ जिसमें डाक्यूमेंटरी/ शार्ट फिल्म/ एनिमेशन एक्स्पेरीमेंटल तरह की 29 फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। कार्यक्रम का नाम ‘द मैटिनी शो’ रखा गया था। यद्यपि यह एक ज़ेन्डर आधारित प्रदर्शन था किंतु फिल्मों की विषयवस्तु और निर्माण के आधार पर ऐसा कोई भेद महसूस नहीं किया जा सकता था। वैसे भी फिल्म भले ही डायरेक्टर’स मीडिया माना जाता हो किंतु उसके निर्माण में कुल व्यक्तियों की जो संख्या लगती है उससे उसे किसी ज़ेंडर विशेष की फिल्म नहीं माना जा सकता। इस समारोह की अधिकांश फिल्में भी ऐसी ही थीं। फिल्मों की अवधि दो घंटे से लेकर 6 मिनिट तक थी। इसमें राजनीतिक फिल्मों से लेकर बच्चों की फिल्मों तक विविधता थी।
अनियमित कोयला मजदूर बाबूलाल भुइंया के औद्योगिक सुरक्षा बल द्वारा मार दिये जाने व उसके बलिदान से अन्य मजदूरों में पैदा हुयी जागरूकता की कहानी से समारोह का प्रारम्भ हुआ, तो इसमें पंजाब में नशे की आदत से मुक्त कराने वाले पुनर्वास केन्द्रओं द्वारा उनके परिवारों की भूमिका को रेखांकित किया गया था। समारोह में हैदराबाद विश्व विद्यालय के प्रतिभाशाली दलित छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए विवश करने के प्रतिरोध में उसके अंतिम पत्र से जनित छात्र उत्तेजना की कथा कहने वाली फिल्म भी थी। 2002 में हुये साम्प्रदायिक नरसंहार में अपने जले हुये घर को देख कर नास्टलाजिक होते सायरा और सलीम की फिल्म भी थी।
जीवन और राजनीतिक संघर्ष में महिलाओं की भूमिका को दर्शाने वाली फिल्में भी समुचित संख्या में थीं। इन फिल्मों में कश्मीर की महिलाओं का प्रतिरोध आन्दोलन भी था जो गीतों, तस्वीरों और साक्षात्कार के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। उत्तरी छत्तीसगढ के बलरामगढ जिले की किशोरी मीना खाल्को की पुलिस मुठभेड़ में की गयी हत्या से पहले यौन हिंसा को दबाने की कोशिश और दोषियों को दण्डमुक्त हो जाने पर फिल्म ‘एनकाउंटरिंग इनजस्टिस’ भी है। सत्ता के खिलाफ सच बोलने का साहस करती महिला पत्रकारों द्वारा चुकाई गयी कीमत को दर्शाती फिल्म ‘वैलवेट रिवोल्यूशन’ है जिसे छह महिला निर्देशकों ने अपने अपने आब्जर्वेशनों से बनाया है। जो लोग धर्म नैतिकिता और जातिवाद के सहारे राजनैतिक चालें चल रहे हैं उनके बारे में बताने वाली फिल्म ‘तुरुप’ है।
इस समारोह में जीवन के विभिन्न रंगों को दिखाने वाली फिल्में भी थीं जो पीछे जाकर भी देखती हैं। ऐसी ही भावुक कर देने वाली फिल्म ‘द अदर सोंग’ है जो बनारस व लखनऊ की तवायफों के अतीत में ले जाकर उनकी वर्तमान दशा को बताती है। ‘पिछला वरका’ में पाकिस्तान छोड़ कर आयी महिलाएं ताश के पत्तों में अपनी दुपहरियां बिताती हुई अतीत की यादों को कुरेदती रहती हैं। एक महत्वपूर्ण फिल्म ‘बाल्खम हिल्स अफ्रीकन लेडी ट्रुप’ है जो विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक कारणों से यौन हिंसा का शिकार हुयी चार महिलाओं द्वारा एक थिएटर ग्रुप के माध्यम से अपनी कहानी कहने पर बनी फिल्म है। इस अभिव्यक्ति से वे अपने शोषण से जन्मी हीन भावना और मानसिक प्रताड़ना से मुक्ति पाती हैं। ट्रांस ज़ेंडर की समस्याओं और उनके बारे में नासमझियों को बताती फिल्म ‘बाक्स्ड’ है तो हैदराबाद में शेखों द्वारा लड़कियों की खरीद फरोख्त और उनके यौन शोषण और उससे आज़ादी की कहानी कहती फिल्म ‘स्टिल आई राइज’ है। दृढतापूर्वक दहेज का विरोध करती लघु फिल्म ‘अपराजिता’ है, तो वज़न कम करने के चक्कर में कुछ और खोज लेने की कहानी ‘डब्ल्यू स्टेन्ड्स फार’ है। अपने पुरुष मित्र के घर में उसकी माँ द्वारा मासिक धर्म के दाग लगने पर किया गया व्यवहार व पुरुष मित्र की प्रतिक्रिया के बाद उसके बारे में विचार बदल देने की कथा ‘स्टैंस’ में कही गयी है। पश्चिमी बंगाल के नन्दीग्राम में दो लड़कियों की आत्महत्या और उनके परिवारियों के व्यवहार पर ‘इफ यू डेयर डिजायर’ है। हर रोज हिंसा का सामना करने वाले कश्मीर में सामाजिक मानदण्डों से उबरने के लिए कला का सहारा लेने के प्रयास की कहानी ‘द स्टिच’ है। ‘डेविल इन द ब्लैक स्टोन’ में बीड़ी बना एक साथ रहने वाली तीन महिलाएं प्रति परिवार दस किलो चावल दो रुपये किलो मिलने की खबर सुन अलग अलग झोपड़ी बना लेती हैं, किंतु जिस को सर्वेक्षणकर्ता समझ रही होती हैं वह मस्जिद के लिए चन्दा मांगने वाला निकलता है और तीनों घरों को चन्दा एकत्रित करने के लिए अलग अलग डब्बा थमा कर चला जाता है। गुस्से में वे डिब्बा फेंक देती हैं।
प्लास्टिक कचरे पर बनी ‘पिराना’, पुराने जहाजों को तोड़े जाने वाले चिटगाँव बन्दरगाह पर बनी ‘द लास्ट राइट्स’ चाय की बदलती दुकानों और बेचने वालों पर बनी फिल्म ‘चाय’ है तो आवासीय विद्यालय में दृष्टि विकलांगों पर केन्द्रित फिल्म ‘कोई देखने वाला है’ भी दिखायी गयी हैं।
एक बच्चे के जन्मदिन पर उसके पिता द्वारा केक का आर्डर देने वाली दुकान की तलाश और बच्चे की मनमानियों की कहानी ‘द केक स्टोरी’ है जिसमें बच्चे ने बेहतरीन एक्टिंग की है। इसके साथ ही साथ ‘केली’ ‘फ्राइड फिश’ ‘डिड यू नो’ ‘अद्दी’ और ‘डेजी’ एनीमेशन फिल्में थीं।
सच है कि मैटिनी शो स्वतंत्र महिलाओं का शो ही रहता आया है। शायद यही सोच कर आयोजकों ने इस समारोह क नाम ‘मैटिनी शो’ रखा होगा। सिनेमा में रुचि रखने वालों, लघु फिल्म निर्माताओं, औए फिल्म समीक्षकों की संख्या कुछ और अधिक रुचि लेती तो उत्तम था।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, दिसंबर 08, 2019

श्रद्धांजलि/ संस्मरण- स्वयं प्रकाश जितने वजनदार उतने ही विनम्र थे स्वयं प्रकाश


श्रद्धांजलि/ संस्मरण- स्वयं प्रकाश
जितने वजनदार उतने ही विनम्र थे स्वयं प्रकाश 
कहानीकार स्वयं प्रकाश के लिए इमेज परिणाम
वीरेन्द्र जैन
मैं लम्बे समय तक कहानियों का नियमित पाठक रहा हूं जिसका शौक कमलेश्वर के सम्पादन के दौर में निकलने वाली सारिका से लगा था। सारिका के समानांतर कथा आन्दोलन के दौर में जो कहानियां लिखी गयीं, उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर प्रेमचन्द आज लिख रहे होते तो वैसी ही यथार्थवादी कहानियां लिखते। मुझे याद नहीं कि मैं कब किस कहानी को पढ कर स्वयं प्रकाश का प्रशंसक बन गया पर उनका नाम मेरे लिए ऐसा ब्रांड बन चुका था जिसे किसी पत्रिका में देख कर मैं सबसे पहले उसी कहानी को पढता था, और उन्होंने कभी निराश नहीं किया। सारिका के अलावा अनेक लघु पत्रिकाओं में उनकी कहानियां मिल जाती थीं जिनमें सव्यसाची जी द्वारा सम्पादित उत्तरार्ध [उत्तरगाथा], ज्ञानरंजन जी के सम्पादन में निकलने वाली पहल, कमलाप्रसाद जी द्वारा सम्पादित वसुधा, से रा यात्री द्वारा सम्पादित वर्तमान साहित्य आदि तो थी हीं, धर्मयुग और हंस में भी पढने को मिल जाती थीं। वैसे उनकी कहानियां हिन्दी की सभी लघु और बड़ी पत्रिकाओं में छपती रहीं हैं। मेरे पढने की सीमा था उनके छपने की कोई सीमा नहीं थी।
उनसे पहली मुलाकात भारत भवन के किसी कार्यक्रम में हुयी थी जिसमें वे आमंत्रित थे और बगल में एक थैला दबाये हुये सीढियां उतर रहे थे। थैला उस रैग्जिन का बना था जिसे आमतौर पर रोडवेज बसों के कंडैक्टर- ड्राइवर सीट पर चढी हुयी गहरे हरे से रंग की रेग्जिन से बनवा लेते रहे हैं। उनकी इस सादगी भरी पहचान की चर्चा कभी श्री राज नारायण बौहरे और प्रो. के बी एल पांडेजी कर चुके थे। आमंत्रितों में उनका नाम था इसलिए थैला देख कर ही मैंने पहचान लिया था। मैंने पुष्टि करने के अन्दाज में पूछा था- स्वयं प्रकाश जी? उन्होंने बिन मुस्कराये या पहचाने जाने की खुशी के विनम्र सहमति में सिर हिलाया, और पूछा आप? मैंने अपना नाम बताया और कहानी उपन्यास के क्षेत्र में गलतफहमी से बचाने के लिए कहा कि मैं दतिया वाला हूं, डूब वाला नहीं। वे बोले कि डूब वालों को मैं पहचानता हूं और फिर गत महीने हंस में किसी कहानी पर छपी मेरी पत्र प्रतिक्रिया की चर्चा की व प्रशंसा करते हुए कहा कि वह संतुलित टिप्पणी थी। मैं धन्य हो गया था और लगा था कि छोटे छोटे प्रयास भी बेकार नहीं जाते। बाद में राजेन्द्र यादव जी से भी मेरी इस बात पर सहमति बनी थी कि मैं कहानियों पर टिप्पणियां ही लिखा करूंगा और मैंने अनेक वर्षों तक हंस में कहानियों पर पत्र टिप्पणियां लिखीं, जिसे मैं पाठकीय समीक्षा मानता रहा।
दूसरी मुलाकात इस मुलाकात के एकाध वर्ष के अंतराल में ही हुयी थी जब वे बनमाली पुरस्कार ग्रहण करने आये थे। इस अवसर पर उनके द्वारा कही गयी बातों का मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ था। इसमें उन्होंने कहा था कि “जूलियस फ्यूचक के अनुसार लेखक तो जनता का जासूस होता है जिसे हर अच्छी- बुरी जगह जाकर जानकारी एकत्रित करना होती है, इसलिए वह कथित सामाजिक नैतिकिता की परवाह में किसी जगह प्रवेश से खुद को रोक नहीं सकता। उसे चोर, उचक्कों. सेठों और शराबियों, सबके बीच जाना पड़ेगा। मैंने अच्छा कामरेड दिखने की कोशिश में अपनी अज्ञानता में भूल कर दी कि बहुत लम्बे समय तक किसी धर्मस्थल में नहीं गया। अब मुझे पता ही नहीं कि मन्दिर में क्या क्या बदमाशियां चल रही हैं या वहां का कार्य व्यवहार कैसे चलता है”।
2001 में मैं पुनः भोपाल आकर रहने लगा व उसके कुछ ही वर्ष बाद स्वय़ं प्रकाश जी भी सेवा निवृत्त होकर भोपाल रहने लगे। मेरे एक साहित्यकार मित्र जब्बार ढाकवाला आई ए एस थे और वे भी स्वयं प्रकाश जी के लेखन को बहुत पसन्द करते थे। उनके पास समुचित संसाधन थे किंतु वे बड़े पद के कारण घिर आने वाले अयोग्य व चापलूस साहित्यकारों से दूर भी रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने एक छोटा सा ग्रुप बना लिया था जो किसी न किसी बहाने लगभग साप्ताहिक रूप से मिल बैठ लेता था। इसमें ढाकवाला दम्पत्ति के अलावा डा. शिरीष शर्मा, उर्मिला शिरीष, डा, विजय अग्रवाल प्रीतबाला अग्रवाल, आदि तो थे व अवसर अनुकूल आमंत्रितों में स्वयं प्रकाशजी, गोबिन्द मिश्र, डा. बशीर बद्र, डा. ज्ञान चतुर्वेदी, अंजनी चौहान, श्रीकांत आप्टे, मुकेश वर्मा,बनाफर चन्द्र आदि आदि भी होते थे। बाद में व्यापक स्तर तक चलने वाले स्पन्दन पुरस्कारों की श्रंखला का विचार भी इसी ग्रुप के विचार-मंथन से निकला था। ढाकवाला दम्पत्ति बाहर से आने वाले प्रमुख व चर्चित साहित्यकारों की मेजबानी करने में प्रसन्नता महसूस करते थे। मैं स्थायी  आमंत्रित था इसलिए मुझे अनेक ऐसे लोगों से निजी तौर पर मिलने का मौका मिला जिनसे मैं इतनी निकटता से अन्यथा नहीं मिल पाता। इसी मिलन में हम लोग जन्मदिन मनाने की कोशिश भी करते थे और स्वयं प्रकाश जी का साठवां जन्मदिन भी मनाया था जिसमें उनसे कुछ बेहतरीन कहानियां सुनी थीं। इस अवसर पर एक रोचक प्रसंग यह हुआ कि जब वे बाहर जूते उतारने लगे तो मौसम को देखते हुए मैंने कहा कि पहिने आइए, आजकल तो सभी घरों में चलते हैं। स्वयं प्रकाशजी ने कहा कि तुम व्यंग्यकार लोग किसी को नहीं छोड़ते, कि तभी जब्बार ने कहा कि तुम्हें कैसे पता कि आज मेरा और तन्नू जी [उनकी पत्नी] का झगड़ा हुआ है। उनका जन्मदिन ठहाकों से ही शुरू हुआ था। उनकी बेटी की शादी में लड़के वालों ने मैरिज गार्डन के बाहर बैनर लगवा दिया था ‘ भटनागर परिवार आपका स्वागत करता है ‘। मैंने मजाक में उनसे कहा कि मुझे पता नहीं था कि आप भटनागर हैं, तो वे धीरे से बोले कि मुझे भी खुद पता नहीं था। फिर इतने जोर से ठहाका लगा कि आसपास लोग देखने लगे।
वे जितने बड़े लेखक थे उतने ही सादगीपसन्द और विनम्र थे। मुझे दूर दूर तक हुये अपने बार बार ट्रांसफरों के कारण अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला है जो अधिक से अधिक समय अपने बारे में ही बात करना पसन्द करते हैं या अपनी बातचीत में वे बार बार ‘सुन्दर वेषभूषा’ में उपस्थित हो जाते हैं। स्वयंप्रकाश जी को मैंने कभी अपने बारे में बात करते हुए या अनावश्यक रूप से खुद को केन्द्र में लाते नहीं देखा। एक बार एक स्थानीय पत्रिका के नामी सम्पादक ने जनसत्ता में प्रकाशित उनके एक लेख को बिना पूछे अपनी पत्रिका में छाप लिया। मैंने फोन करके उनसे जानकारी होने के बारे में पूछा तो उन्होंने इंकार कर दिया, बोले जनसता अकेला अखबार है जो अपनी प्रकाशित सामग्री पर कापीराइट रखता है और इस आशय का नोट अपनी प्रिंट लाइन में लिखता है। मैंने उन्हें पत्रिका का अंक उपलब्ध करवा दिया किंतु उन्होंने उन्हें फोन तक नहीं किया। दिल्ली के एक प्रकाशक मेरे घर आकर रुकते थे और चाहते थे कि मैं उन्हें भोपाल के लेखकों से मिलवाऊं। मैंने यह काम किया भी और अन्य लोगों के अलावा उन्हें स्वयंप्रकाश जी से भी मिलवाया था। मेरे अनुरोध पर उनको एक किताब भी देने का वादा किया था, बाद में उनके अनुभव उस प्रकाशक के बारे में अच्छे नहीं रहे। पर उस प्रकाशक से मेरे अनुभव भी कहाँ अच्छे रहे थे!
उनके उपन्यास ‘ईंधन’ पर मैंने पाठक मंच के लिए समीक्षा लिखी तो उसे लगे हाथ छपने के लिए भी भेज दी. जिसे लोकमत समाचार नागपुर ने तुरंत छाप दी, जो शायद पहली समीक्षा थी। कुछ दिनों बाद मिलने पर मैंने उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो बोले अरे तुम्हारी समीक्षा थी, मैं तो दिल्ली वाले वीरेन्द्र जैन को पत्र लिखने वाला था। उनकी बीमारी की खबर जब कुछ देर से मुझे मिली तो मैंने  फोन कर पूछा, किंतु उन्होंने कहा कि मैं बिल्कुल ठीक हूं, कोई बात नहीं। बात बदल कर वे दूसरी बातें करते रहे। जबकि सच यह था कि उन्हें ऐसी बीमारी थी जो आम लोगों को होने वाली सामान्य बीमारी से बिल्कुल अलग थी। उनका हीमोग्लोबिन खतरनाक रूप से बढ जाता था। डायलिसिस के अलावा डाक्टरों के पास कोई इलाज नहीं था।
 पिछले दिनों जब उन्हें म.प्र. सरकार का शिखर सम्मान घोषित हुआ था तब मुँह से बेशाख्ता निकला था- बहुत सही फैसला। वैसे पुरस्कार/ सम्मान  उन्हें पहले भी बहुत मिल चुके थे जिनमें से कोई भी उनके पाठकों द्वारा उनकी कहानियों, उपन्यासों की बेपनाह पसन्दगी से बड़ा नहीं था। आमजन की कहानियों को उन्हीं की भाषा में कहते हुए भी वे जिस विषय को उठाते थे उसमें ताजगी होती थी, वह अभूतपूर्व होता था। कथा इस तरह से आगे बढती थी जैसे वीडियोग्राफी की जा रही हो, बनावट बुनाहट बिल्कुल भी न हो। उनके कथानकों में झंडे बैनर नारे कहीं नहीं दिखते थे पर फिर भी वे वह बात कह जाते थे जिसे दूसरे अनेक लेखक उक्त प्रतीकों के बिना नहीं कह पाते।
विभिन्न सामाजिक विषयों पर लिखे गये उनके लेखों का संग्रह ‘रंगशाला में दोपहर’ को पढने के बाद मैंने भी अपने बिखरे बिखरे विचारों को लेखबद्ध किया जो विभिन्न समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुये, अन्यथा वे केवल निजी बातचीत का विषय होकर रह जाते। उनकी अलग अलग कहानियों के गुणों पर बहुत सारी बातें की जा सकती हैं, पर अभी नहीं।
उन्हें पूरे दिल से श्रद्धांजलि। उनका साथ, उनकी कहानियां व उनके पात्र जीवन भर साथ रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, नवंबर 30, 2019

चकरघिन्नी अन्धभक्तों के बीच मोदीशाह का रथ


चकरघिन्नी अन्धभक्तों के बीच मोदीशाह का रथ
वीरेन्द्र जैन
मोदी के केन्द्रीय राजनीति में आने के बाद भाजपा में दो काम हुये। पहला काम तो यह हुआ कि भाजपा का केवल नाम रह गया और सारी पार्टी नरेन्द्र मोदी व अमित शाह जैसे दो जिस्म एक आत्मा में सिमिट कर रह गयी। पुरानी पार्टी में अडवानी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, यशवंत सिन्हा जैसे एक दो दर्जन जो बड़े नाम थे उन्हें उम्र के आधार पर मार्गदर्शक मंडल के नाम किनारे कर दिया गया या राज्यपाल आदि बना कर मुख्य धारा से दूर कर दिया गया। इसके बाद जो पुराने सक्रिय लोग रह गये थे उन्हें असमय ही मृत्यु ने निगल लिया। गोपीनाथ मुंडे, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, अनंत कुमार, अरुण माधव दवे, मनोहर पार्रीकर,कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर आदि इस बीच नहीं रहे। जसवंत सिंह, अस्वस्थ हो गये तो अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, व उमाभारती आदि के विरोध को बेमानी कर दिया गया। राजनाथ सिंह तो पहले ही ‘एलिस इन वन्डरलैंड’ थे, धीरे धीरे उनका अकेलापन बढता ही गया। चुनावी सफलता के बाद तो लम्बे समय तक सत्ता से दूर रहे भाजपा नेता भी मानने लगे कि सत्ता मोदी के नाम पर ही मिल सकती है, सो उन्होंने उन्हें ही ‘त्वमेव माता, च पिता त्वमेवं’ की तर्ज पर नरेन्द्र मोदी को और उनके सबसे विश्वासपात्र अमित शाह को सर्वेसर्वा के रूप में स्वीकार कर लिया। ‘ फिर उसके बाद चरागों में रौशनी न रही’। दूसरी ओर मोदी ने अपनी भाषण कला और गुजरात के आंकड़ों से ऐसे अन्धभक्तों की बड़ी भीड़ जुटा ली जो अपने देवता के बारे में केवल अच्छा बोलना, सुनना व देखना ही पसन्द करते थे। कार्यवाही की धमकियों और सफलता के सपनों से उन्होंने विभिन्न दलों के दागी लोगों को सम्मलित कर लिया जो सीधे उन्हीं के शरणागत थे। इसके साथ ही 44 दूसरे दलों को चुनावी गठबन्धन में शामिल कर लिया। दूसरा सत्ता केन्द्र उदित होने से संघ के लोग सशंकित तो थे किंतु उन्हें भी उनके ही एजेंडे को लागू करने के संकेत देकर मना लिया गया।   
2019 के आमचुनाव में मीडिया के अधिकांश चुनावी विश्लेषकों को मोदी की सफलता कम नजर आ रही थी, किंतु वे न केवल जीत गये अपितु पहले से अधिक सीटें प्राप्त कर जीते। विधानसभाओं में दलबदल व खरीद फरोख्त से सराकारें बना लीं। अब केवल मोदी ही मोदी थे। राज्यसभा के कुछ लोगों से सौदा समझौता कर अल्पमत को बहुमत में बदल लिया। विरोधियों को ईवीएम में गड़बड़ नजर आयी, देश हतप्रभ होकर रह गया। किंतु अन्धभक्तों को मोदी की विजय पताका से जयजयकार का मौका मिला। देश भर में ऐसे मोदी अन्धभक्तों के समूह दिखने लगे जो किसी विचारधारा की जगह मोदी को उद्धारक के रूप में देखने लगे। सीमा और आतंक प्रभावित क्षेत्रों में भी सुरक्षा की कमजोरियों को भी गलत प्रचार के द्वारा अन्धभक्त विजय मानने लगे व असहमत लोगों को देशद्रोही समझने लगे।
ऐसे माहौल में कुछ महीनों बाद ही मोदीशाह पार्टी की लगातार चुनावी हारों ने उस बाल्टी की असलियत को उजागर कर दिया है जिसे साबुन का झाग उठाकर भरी दिखाया जा रहा था। चुनावों से पहले कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने, कश्मीर राज्य को दो केन्द्र शासित क्षेत्र में बांटने के बाद भी हरियाणा में अल्पसंख्यक सरकार बनानी पड़ी व धुर विरोधियों से उनकी शर्तों पर समझौता करना पड़ा। देश की आर्थिक राजधानी वाले राज्य महाराष्ट्र में जिस तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति के पदों का दुरुपयोग करने के बाद भी मुँह की खानी पड़ी और अपने पुराने सहयोगी को विरोधी बनाना पड़ा, उससे बड़ी किरकिरी हुयी है। पश्चिम बंगाल के तीन विधानसभाओं में हुये उपचुनावों में उनके प्रदेश अध्यक्ष समेत तीनों में मिली हार ने उनके गुब्बारे की हवा निकाल कर रख दी है। झारखण्ड विधान सभा चुनावों में उनके गठबन्धन सहयोगी जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी का समांतर रूप से लड़ना व भूमिहारों के प्रमुख नेता सरयू राय का छिटक कर मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव में उतरने से जो छवि धूमिल हो रही है उसके परिणाम दूरगामी होंगे। मीडिया के अनुमानों के अनुसार झारखण्ड में दोबारा से भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनने नहीं जा रही है। कमोवेश दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी इसी तरह के संकेत हैं।
लगातार बढती बेरोजगारी, मन्दी और गिरती अर्थव्यवस्था के ठोस संकेतों के बीच प्रज्ञा ठाकुर जैसे बयानों के सहारे जनता को कितने दिन तक भटका सकेंगे। मोदीशाह यह समझाने में नाकाम रहे हैं कि उन्होंने इतने गम्भीर आरोपों में कैद रही महिला को टिकिट देकर लोकसभा में क्यों भिजवाया। जिन दिग्विजय सिंह से वे भयभीत थे वे तो पहले से ही संसद में हैं। मीडिया बार बार संकेत दे रहा है कि प्रज्ञा ठाकुर का बयान उनका निजी बयान नहीं है और एक सोची समझी कूटनीति के अंतर्गत दिलवाया गया है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मोदीशाह की मुख्य ताकत क्रीतदास मीडिया के दुष्प्रचार के सहारे अन्धभक्तों का अन्धसमर्थन है, किंतु वे ही भक्त अब विभूचन की स्थिति में हैं। मोदी को खुद भी प्रज्ञा के बयान का विरोध करना पड़ा है और राजनाथ सिंह को संसद में बयान देना पड़ा है। म.प्र. में जब विपक्षी प्रज्ञा का पुतला जला कर विरोध कर रहे थे तब भाजपा समर्थक यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे मोदी के बयान का साथ दें, या प्रज्ञा ठाकुर का साथ दें। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम प्राध्यापक की नियुक्ति पर सात दिनों तक मौन धारण करने के बाद नियुक्ति के पक्ष में बयान देने से स्वाभाविक रूप से पक्ष तय करने वाले भक्त शर्मिन्दा हो रहे हैं।
दल खत्म कर दिया, संगठन खत्म कर दिया, अर्थव्यवस्था समेत शासन सम्हल नहीं पा रहा, न्यायपालिका आये दिन धिक्कार रही है, सेना का गलत जगह प्रयोग बढ रहा है, मीडिया कब तक अपनी निन्दा सहता रहेगा! जो मोदी के नाम पर लड़ जाते थे, वे अब ध्यान से सुन कर सोचने लगे हैं। दम केवल इस बात की है कि विकल्प का कोई स्पष्ट रूप सामने नहीं उभर रहा।
मुकुट बिहारी सरोज कह गये हैं-
जिनके पांव पराये हैं, जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे लेकिन इतिहास नहीं
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, नवंबर 14, 2019

अयोध्या का फैसला और भाजपा


अयोध्या का फैसला और भाजपा 
वीरेन्द्र जैन
अयोध्या के रामजन्मभूमि मन्दिर के सम्बन्ध में बहुप्रतीक्षित फैसला आ चुका है।
राजनीतिक चतुरों ने इस विवाद को ‘रामजन्म भूमि मन्दिर’ विवाद से ‘राम मन्दिर विवाद’ में प्रचारित कर दिया था, और सवाल करते थे कि बताओ अयोध्या में राम मन्दिर नहीं बनेगा तो क्या कराची में बनेगा! स्वाभाविक रूप से जो उत्तर उभरता था कि अयोध्या में ही राम मन्दिर बनेगा। यह मुद्दे की दिशा को विचलित कर देने की विधि थी। अयोध्या में एक नहीं हजारों राम मन्दिर हैं जो पुराने हैं व नये मन्दिरों के निर्माण पर कोई रोक नहीं है। वहाँ एक नहीं हजार मन्दिर और बन सकते हैं। मन्दिर का निर्माण कोई समस्या नहीं था। मुद्दा यह था कि जिस जगह पर 1528 में एक मस्ज़िद बनी थी जिसे बाबर के आदेश पर मीरबाकी ने बनवाया था। दावा था कि उस स्थान पर जिसे राम की जन्मभूमि माना जाता है, कभी रामजन्मभूमि मन्दिर था। आरोप यह था कि उक्त मन्दिर को तोड़ कर बाबरी मस्ज़िद बनायी गयी थी और पिछले लगभग सौ से अधिक वर्षों से हिन्दू उसी स्थान पर मस्जिद की जगह रामजन्म भूमि मन्दिर की पुनर्स्थापना की मांग कर रहे थे। मुगल काल से ब्रिटिश शासन काल तक इस मांग से 562 रियासतों का कोई राजा नबाब नहीं जुड़ा था इसलिए हिन्दुओं के आराध्य राम की जन्मभूमि मन्दिर की लड़ाई को बल नहीं मिल सका था। इतिहास बताता है कि धार्मिक ‘हिन्दू संगठनों’ ने 1813 में इस आधार पर पहला दावा किया था। 1859 में इस स्थान पर कब्जे के लिए हिंसा की घटना हुयी तो ब्रिटिश सरकार ने इसके चारों और कटीले तारों की बाड़ बनवायी थी। 1885 में पहली बार महंत रघुवर दास ने अदालत से मन्दिर बनाने की मांग की। 1934 में विवादित हिस्सों को तोड़ा गया था जिसकी मरम्मत ब्रिटिश सरकार ने करायी थी। कहा जाता है कि 1949 में तत्कालीन हिन्दूवादी कलैक्टर के.के. नायर के इशारे पर, रात्रि में रामलला की मूर्ति को रखवा दिया गया था। उल्लेखनीय है कि सेवानिवृत्ति के बाद यही कलैक्टर बलरामपुर से जनसंघ के टिकिट पर चुनाव लड़ कर संसद में पहुंचे थे व उसके बाद उनकी पत्नी भी सांसद बनी थीं। उन्होंने हिंसा का डर दिखा कर उस स्थान से मूर्तियों को हटाने की सलाह मानने से इंकार कर दिया था और सलाह दी थी कि केवल एक पुजारी अन्दर जाकर पूजा करेगा व जाली के बाहर से हिन्दू दर्शन कर सकेंगे। तब से मुसलमानों का प्रवेश और नमाज वहाँ बन्द हो गयी थी, और अपने अधिकार के लिए वे कोर्ट चले गये थे।
1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा मस्ज़िद के लिए केस दर्ज करने से पहले 1950 में हिन्दू पक्ष और 1959 में निर्मोही अखाड़ा भी कोर्ट से पूजा की अनुमति मांग चुका था। 1967 के बाद उत्तर प्रदेश में अनेक गठबन्धन सरकारें बनीं जिनमें जनसंघ भागीदार रही व 1977 में केन्द्र में बनी जनता पार्टी में वे घटक की तरह सम्मलित हो गये थे किंतु उन्होंने कभी राम जन्मभूमि मन्दिर का मुद्दा नहीं उठाया। 1980 में उन्हें दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी से बाहर होना पड़ा और 1984 में श्रीमती गाँधी की हत्या के बाद हुये चुनाव में वे दो सीटों तक सिमट गये थे। अपने राजनीतिक पुनरोत्थान के लिए उन्होंने इस सुसुप्त मुद्दे को हाथ में लिया और गोबिन्दाचार्य द्वारा बनायी गयी योजना के अनुसार रथ यात्रा निकाली जिसकी सवारी श्री लालकृष्ण अडवाणी ने की।
यह टर्निंग बिन्दु था इस के साथ ही इस अभियान का दूसरा पक्ष प्रारम्भ हुआ। पहले पक्ष में केवल भावुक धार्मिक पक्षधरता थी| इसमें लड़ने के लिए न संगठन था न धन। दूसरे पक्ष में राजनीतिक पक्ष था, संगठन था और धन था।, इसमें धर्म का नाम तो था पर धर्म नहीं था। तब से राम जन्मभूमि मुद्दा गरमा गया था। तब के कमजोर प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने एक ओर शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कानून बदलवा कर जो भूल की थी उसकी बराबरी करने में अयोध्या में मन्दिर का ताला खुलवा कर दूसरी भूल कर डाली। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन पर बोफोर्स कांड के आरोप लगाये जिसे भाजपा ने बल दिया। इससे काँग्रेस अल्पमत में आ गयी और वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की अल्पमत सरकार बनी। सीपीएम के दबाव में वी पी सिंह ने भाजपा को सरकार में शामिल नहीं किया। ग्यारह महीने में ही जनता दल बिखर गया था इसलिए काँग्रेस का मुख्य प्रतिपक्ष बनने के लिए अपेक्षाकृत संगठित भाजपा के पास उपयुक्त अवसर और हाथ में राममन्दिर अभियान था।
इस अभियान के बल पर भाजपा दो से अस्सी और फिर दो सौ तक पहुंची व इसी संख्याबल के आधार पर बाद में अटल बिहारी सरकार तक बनाने में सफल रहे। उनकी विजय का दूसरा कोई मुख्य आधार नहीं था। इसी अभियान की निरंतरता के अंतर्गत कार सेवकों के नाम से गये लोगों के कारण ही गोधरा कांड और गुजरात का नरसंहार हुआ। इसी के प्रभाव में मोदी ने गुजरात में ध्रुवीकरण के सहारे अपनी एकछत्र सत्ता हासिल की और इसी के प्रभाव में उन्होंने प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की रेस जीती। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि भाजपा का देश की सत्ता तक पहुंचने का अभियान और राम जन्मभूमि मन्दिर एक ही आन्दोलन के हिस्से रहे हैं। इस का बने रहना भाजपा के चुनाव अभियान के लिए लाभदायक रहा है, इसलिए उसे मन्दिर बनाने की कोई जल्दी नहीं थी अपितु वे मुद्दे को गरमाये रखने में रुचि रखते थे।
सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला व्यापक जनहित में न्यायिक से ज्यादा एक प्रशासनिक फैसला है। मुख्य न्यायाधीश ने इसकी सुनवाई करते समय अपने पहले बयान में कहा था कि हमारे लिए यह आस्था का मामला नहीं अपितु भूमि के स्वामित्व का विवाद है जिसे रामलला विराजमान को लीगल एंटिटी मान कर दिया गया है।
इस अभियान के दूसरे पक्ष में अडवाणीजी की रथयात्रा से लेकर मस्जिद गिराये जाने के बाद मुम्बई, गुजरात और दूसरी जगहों में हुये दंगों में हजारों लोग मारे गये हैं, व हजारों करोड़ की सम्पत्ति बर्बाद हुयी है। जो फैसला हुआ है वह समझौते के माध्यम से पहले भी सम्भव था किंतु वे तो ध्रुवीकरण चाहते थे क्योंकि इसमें बहुसंख्यकों का दल लाभ में रहता है।
भले ही प्रकट रूप में भाजपा खुशी व्यक्त कर रही है पर क्या इस फैसले से भाजपा खुश होगी? उल्लेखनीय है कि भाजपा के नियंत्रक, संघ प्रमुख मोहन भागवत से जब पूछा गया कि राम मन्दिर के बाद काशी मथुरा के बारे में क्या योजना है, तो वे इस सवाल को टाल गये। शायद हाथ लगे फार्मूले को छोड़ना उन्हें मंजूर नहीं होगा। उनके ही आनुषांगिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद, जिसके नाम से यह अभियान चलाया गया था, ने तो काशी मथुरा के अलावा अन्य साढे तीन सौ विवादित धर्म स्थलों की सूची जारी की हुयी है। आलोचना होने पर भाजपा कह देती थी कि यह हमारा कार्यक्रम नहीं विहिप का कार्यक्रम है, किंतु समर्थन मिलने पर सबसे पहले अपनी गरदन माला पहनने के लिए आगे कर देती रही है।
वे यह प्रकट कर रहे हैं कि फैसले में सब कुछ उनके पक्ष में अच्छा हुआ है किंतु ऐसा नहीं है। कोर्ट ने गुम्बद में मूर्तियां रखने और मस्जिद तोड़ने को आपराधिक कृत्य माना है और आरोपियों को जल्दी सजा देने की सलाह दी है। इस अवसर पर यह बात चर्चा के केन्द्र में नहीं आयी है कि आरोपियों में भाजपा के सबसे बड़े नेताओं में से सर्वश्री अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार आदि के नाम हैं, और अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानती है तो इन्हें सजा हो सकती है। क्या इसके छींटे पूरी भाजपा पर नहीं आयेंगे?
इस अभियान में प्रचार का केन्द्रीय बिन्दु यह था कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद बनायी गयी है, ठीक उसी स्थान पर राम का जन्म हुआ था और ठीक वहीं जन्मभूमि मन्दिर था जिसे तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी।  इसी तर्क के आधार पर वे बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने और वहीं मन्दिर निर्माण की बात करते थे। कोर्ट ने यह कह दिया है कि पुरातत्वविदों द्वारा उस स्थान पर किसी इमारत होने के प्रमाण तो पाये हैं किंतु ना तो उसका मन्दिर होना प्रमाणित है और ना ही तोड़ा जाना। उल्लेखनीय है कि विवाद के चरम पर जब मुम्बई के एक इंजीनियर ने प्रस्ताव किया था कि विवाद टालने के लिए वह ऐसा नक्शा बना सकता है जिसमें बाबरी मस्जिद के बने रहते उसके ऊपर मन्दिर का निर्माण हो सकता है, या उसके नीचे अंडरग्राउंड में मन्दिर बनाया जा सकता है जो प्राप्त अवशेषों के अनुसार सही तल पर होगा। किंतु कहा गया था कि उन्हें मन्दिर उसी तल पर चाहिए जिस तल पर मस्जिद बनी है। सच तो यह है कि उन्हें राजनीतिक लाभ के लिए मन्दिर नहीं विवाद चाहिए था।
हमें उम्मीद रखना चाहिए कि समझदारी के विकास के साथ राममन्दिर प्रेमी और उसका राजनीतिक स्तेमाल करने वाले अलग हो सकें।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 02, 2019


 गांधीजी- राजनीति और समाजसेवा की परस्परता
                                                                   वीरेन्द्र जैन

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       गांधी पिछली सदी के महानतम नेताओं में से एक थे। अपने समय के सबसे सशक्त साम्राज्यवाद के साथ उन्होंने सहज ढंग से उपलब्ध साधनों से ऐसी लड़ाई लड़ी है कि उनके शत्रु भी उनसे खीझते भले रहे हों पर उनकी निन्दा करने का अवसर नहीं पाते थे। एक अतिसहनशील और परिवर्तनों के प्रति उदासीन समाज को लड़ाई में साथ लेने की रणनीति तैयार कर लेने में उनका कोई सानी नहीं था। गांधीजी जब अफ्रीका से लौट कर आये और उन्होंने अपना काम करना प्रारम्भ किया तो तिलक ने उन्हें सलाह दी कि पहले वे पूरे हिन्दुस्तान को देखें और समझें। सलाह का पालन करते हुये गांधीजी ने दो वर्ष तक घूम घूम कर गांवों से शहर तक पूरे देश के जनजीवन को अपनी पूरी गहरी संवेदनशीलता के साथ देखा व बिना किसी पूर्वाग्रह के लोगों के मानस को पढा। बिहार के चम्पारन जिले में जब एक महिला को उन्होंने नदी तट पर आधी धोती को धोते ओर सुखाने के बाद शेष आधी धोती को धोते देखा व जाना कि ऐसा करने के पीछे उसके पास एक ही धोती का होना है तब उनकी समझ में आ गया कि इस देश के लिये उन्हें क्या करना है।

       गांधीजी ने उस दौरान ही समझ लिया था कि बिना सामाजिक परिवर्तन के राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। वे विचारों की जड़ता को पसन्द नहीं करते थे और अनुभवों से निकाले गये निष्कर्षों के आधार पर कभी भी अपने विचार बदल सकते थे। अपने काम के दौरान उन्हें यह भी समझ में आ गया कि सामाजिक परिवर्तन के लिये समान स्तर पर उतरकर सम्वाद बनाने की जरूरत होती है व सम्वाद बनाने के लिये न केवल समान भाषा में बातचीत करने की जरूरत होती है अपितु अपने रहन सहन और पहनावे को सामने वाले के अनुरूप लाये बिना असरकारी सम्वाद नहीं बनाया जा सकता। जहां नेहरू और जिन्ना का प्रभाव केवल अंग्रेजी ढंग से पढे लिखे लोगों तक पड़ा वहीं गांधी आम आदमी के पास पहुंचने में सफल हो सके। इंगलैण्ड में पढे और अफ्रीका में बैरिस्ट्री कर चुके गांधी ने सूट पैंट छोड़ कर धोती लाठी को अपनाया और खुद की काती हुयी मोटी खादी से बुने हुये कपड़ों को ख़ुशी-खुशी पहना। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि ऐसा उन्होंने तात्कालिक दिखावे या कूटनीति के रूप में नहीं किया, जैसा कि आज के चुनावी नेता, चुनाव के समय करते हैं अपितु इसके महत्व को स्वीकारते हुये उन्होंने इसे दिल से अपना लिया था। जहां नेहरू और जिन्ना के बौद्धिक आतंक और नफासत से आम आदमी एक दूरी बना कर चलता था वहीं गांधी उसे अपने आदमी लगते थे। गांधी ने न केवल आम आदमी की भाषा और भूषा का ही स्तेमाल किया अपितु सरल व सस्ते भोजन के लिये उन्होंने शाकाहार को अपनाया। पर ऐसा नहीं कि वे शाकाहार को सब पर लादते हों। उनके साथ रहने वाले नेहरूजी प्रति दिन एक अन्डे का सेवन जिन्दगी भर करते रहे और उनके सबसे समर्पित साथी खान अब्दुल गफ्फार खां जिन्हें खुद सीमांत गांधी के नाम से जाना गया व जो ऐसे अकेले नेता थे जो विभाजन स्वीकार कर लेने पर गांधीजी के कंधे पर सिर रख कर फूट-फूट रोये थे,जिन्दगी भर मांसाहारी बने रहे। एक बार बचपन में इंदिरागांधी ने उनसे पूछा था कि क्या मैं अंडा खा सकती हूं तो बापू ने कहा था कि यदि तुम्हारे घर में खाया जाता है तो तुम खा सकती हो। गांधीजी ने दूध के लिये भारत के पुराने पौराणिक पशु गाय को नहीं चुना अपितु उन्होंने सस्ते सुलभ व कम से कम देख भाल की जरूरत वाली बकरी को पाला ,क्योंकि वह ही गरीब की मां हो सकती थी।
       गांधीजी ने लोगों के दिल में इसलिये जगह बनायी क्योंकि वे लोगों के साथ केवल दिमाग से नहीं जुड़े अपितु दिल और दिमाग दोनों से जुड़े। राजनीति के साथ समाज सेवा करने  की आवश्यकता उन्होंने इस कारण महसूस की ताकि लोग राजनीतिक बात सुनने की स्थिति में तो आयें। वे जानते थे कि कोई भी सम्वाद तभी बनाया जा सकता है जब सम्बोघित किया जाने वाला व्यक्ति सुनने की स्थिति और तैयारी में हो। सम्वाद वन वे ट्रैफिक नहीं हो सकता। वे पहले अपने श्रोता की सुनना और उसे समझना ज्यादा जरूरी समझते थे। ऐसा ही वे अपने तत्कालीन शासकों से चाहते थे। गांधीजी जब माउंटबेटन से मिलने गये तो वहां कूलर चल रहा था। फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक लपियर कालिन्स के अनुसार तब सम्भवत: वह भारत में चलने वाला एकमात्र कूलर रहा होगा। गांधीजी बोले- मुझे सर्दी लग रही है- यह कह कर उन्होंने बातचीत से पहले वहां कूलर बन्द करवा दिया व माउंटबेटन को बातचीत के मेज पर बराबरी का अहसास करा दिया। वे यह सन्देश देना चाहते थे कि तुम्हारी मशीनों से चमत्कृत हो मैं अपने यथार्थ को नहीं भूल सकता हूं। उनका एक चम्मच था जिससे वे दही खाते थे। जब चम्मच टूट गया तब उन्होंने उसमें एक खपच्ची बांध ली थी और लगातार उसीसे नाशता करते थे। जब लेडी माउंटबेटन ने मेज पर नाश्ता लगवाया तो उन्होंने थैली में से अपना टूटा चम्मच और दही निकाल लिया। फिर बोले कि मैं अपना नाश्ता अपने साथ लाया हूं। जिस साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था उसके प्रतिनिधि के सामने ऐसी विनम्र चुनौती रखने वाले गांधी सम्वाद में बराबरी का महत्व समझते थे व दूसरों को भी उसका अहसास कराते रहते थे।
             गांधीजी समाज को एक जीवित इकाई की तरह समझते थे और मानते थे कि यदि शरीर की एक उंगली में दर्द हो तो उसका असर पूरे अंगों पर होता है व उस अंग को ठीक रखे बिना दूसरे अंगों को ठीक रखना संभव नहीं हो सकता इसलिये वे समाज से केवल गुलामी का ही दर्द नहीं हटाना चाहते थे अपितु छुआछूत, जातिभेद, गरीबी और रोगों आदि के साथ समांतर संघर्ष चलाते थे। तत्कालीन समाज में अस्पृश्य मानी जानी वाली जातियों के साथ बैठकर भोजन करने वाले व अपना पाखाना स्वयं साफ करने की परम्परा डालने वाले गांधी अछूतोद्धार को भी राजनीतिक लड़ाई से कम महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। वे अपने को आस्तिक ही नहीं वैष्णव भी बतलाते थे और रोज  प्रार्थना करते थे ,पर यह प्रार्थना सामूहिक होती थी जिसमें सभी धर्मों की प्रार्थनाएं सम्मलित थीं। उनके एक भजन में अल्लाह ईश्वर एकहि नाम के शब्द आते थे। उनका यह ढंग समाज के सभी समुदायों को जोड़ने वाला था।
             अंग्रेजी साम्राज्यवाद से अहिंसक लड़ाई लड़ने वाला यह योद्धा उपर से ठन्डा दिख सकता था क्योंकि उसके पास अपने सिद्धांतों और विश्वासों की मजबूती थी। वह इन आन्दोलनों के दौर में भी कुष्टरोगियों की सेवा भी करता है और अखबार का सम्पादन भी करता है। आज के पूर्णकालिक राजनेता जो अपने भाषणों में गरीब निर्धन और दलितों के लिये निरंतर घड़ियाली आंसू बहाते हैं ना तो पर्ल्स पोलियो के दिन बच्चों को पोलियो ड्राप पिलवाने के लिये निकलते हैं और ना ही सम्पूर्ण साक्षरता आन्दोलन के दौरान लोगों को साक्षरता हेतु अपने प्रभाव का कोई प्रयास करते नजर आते हैं। यदि राजनेताओं ने गरीबी हटाओं  और स्वरोजगार योजनाओं को लागू करवाने को एक राजनीतिक आन्दोलन की तरह लिया होता तो समाज और उन नेताओं के प्रति विश्वास में जबरदस्त फर्क आया होता। एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार पचासी प्रतिशत लोग आज के नेताओं की बातों पर भरोसा नहीं करते हैं। आज  राजनीति का अर्थ हो गया है कि सत्ता में अपने आप को अपनी क्षमताओं से अधिक ऊंचे स्थान पर फिट करने के लिये प्रयत्नशील रहना व ऐसा होने में अवरोध बनने वालों का विरोध करना। जिस दल के कार्यकर्ता सत्ता के लाभों के अभ्यस्त हो जाते हैं वे सत्ता चली जाने के बाद लुंजपुंज हो जाते हैं जबकि लोगों को उनके विधिसम्मत अधिकार दिलवाने के लिये संघर्ष करने का यह सर्वोत्तम अवसर होता है। भाषणों में देश के लिये खून की एक एक बूंद देने का दावा करने वाले यदि राष्ट्रीय त्योहारों पर रक्तदान की परंपरा ही डालें तो इस देश के किसी अस्पताल को कभी रक्त की कमी न पड़े और प्रतिवर्ष हजारों जानें बच सकें। गांधीजी अगर आज होते तो उन्होंने ऐसा ही कोई ढंग चुना होता। किस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने वर्ष में कितना रक्त दान किया है इसका आंकड़ा न केवल उस पार्टीवालों का देशवासियों के प्रति समर्पण ही प्रकट करेगा अपितु उनके त्याग की परीक्षा भी करेगा। श्री नरेन्द्र मोदी भी स्वच्छता को भाजपा का कार्यक्रम नहीं बना सके हैं, जो केवल सरकारी तमाशा बन कर रह गया है।
             खेद की बात तो यह है कि जिन लोगों के पास गांधी की विरासत थी वे उसका उपयोग नहीं कर रहे हैं और गांधीवाद के शत्रु उनकी रणनीतियों का सर्वाधिक कुटिलतापूर्वक स्तेमाल कर रहे हैं। जब ग्यारह सितम्बर दो हजार दो को वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आतंकियों ने हमला किया तो उसमें सबसे अधिक उल्लेखनीय तथ्य यह था कि उन हमलावरों ने अमेरिका के ही विमानों का अपहरण करके और उनके महत्वपूर्ण स्थलों पर टकराकर धाराशायी कर दिया। मुझे इस घटना के समय इन अर्थों में गांधीजी की याद आयी कि अगर किसी के पास इरादे हों तो संघर्ष के लिये बाहरी संसाधनों की जरूरत नहीं होती और अपनी जान को दांव पर लगा देने के आगे सारे हथियार बेकार होते हैं। गांधीजी इसे अपने अच्छे कार्यों के लिये अच्छे ढंग से प्रयोग करते थे। चुनाव के समय जनता की सेवा के दावे करने वाले नेता चुनाव हार जाने पर जनता की सेवा से दूर क्यों हो जाते हैं या केवल छुटपुट विरोध प्रर्दशनों तक अपने को सीमित क्यों कर लेते हैं? क्या जनता की सेवा किसी पद के लिये चुने जाकर ही की जा सकती है?गांधी बिना किसी पद पर रहे कुष्टरोगियों की सेवा करते थे, अछूतोद्धार करते थे, सूत कातते थे और हिन्दी प्रचार सभा चलवाते थे। आज यदि साम्प्रदायिक संगठन अपनी जगह बना सके हैं तो उसके पीछे उनका जनसेवा के स्थलों पर दिखना भी है। उनको निर्मूल करने की इच्छा रखने वालों को गांधी के रास्ते पर चलकर सबसे पहले समाजसेवा में उनसे आगे निकल कर दिखाना होगा। समाजसेवा के कार्यों को सरकारी मशीनरी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता तथा सरकारी मशीनरी के द्वारा वांछित परिणाम पाने के लिये राजनीतिक संगठनों का सक्रिय हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया है। पर, किसी भी दल की घोषणाओं में सरकार से बाहर रहते हुये किये जाने वाले सामाजिक कार्यक्रमों की चर्चा तक नहीं की जाती। गांधीजी दहेजप्रथा, सतीप्रथा आदि कुरीतियों से टकराने को सदैव तत्पर रहते थे पर आज उनके नाम पर राजनीति करने वाले वोटों के लालच में विभिन्न समाजों की कुप्रथाओं को न केवल संरक्षण देते हैं अपितु कानूनी दायरे में आने पर उन्हें बचाने का काम भी करते हैं।

             गांधीवादी राजनीति का दावा करने वाले दलों के सदस्य यदि प्रतिमाह केवल एक सामाजिक कार्य में ईमानदारी से सहयोंगी होने का कार्यक्रम बनाकर चलें तो उनकी लोकप्रियता में गुणात्मक परिवर्तन दिख सकता है। गांधीवाद की सबसे बड़ी विशेषता सिद्धांतों और व्यवहारिकता को समानान्तर ढंग से चलाना है। गांधीजी ने अपनी जिन्दगी में इसे सफलतापूर्वक करके दिखाया है।

वीरेन्द्र जैन
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