अयोध्या का फैसला और भाजपा
वीरेन्द्र जैन
अयोध्या के रामजन्मभूमि मन्दिर के सम्बन्ध
में बहुप्रतीक्षित फैसला आ चुका है।
राजनीतिक चतुरों ने इस विवाद को ‘रामजन्म
भूमि मन्दिर’ विवाद से ‘राम मन्दिर विवाद’ में प्रचारित कर दिया था, और सवाल करते
थे कि बताओ अयोध्या में राम मन्दिर नहीं बनेगा तो क्या कराची में बनेगा! स्वाभाविक
रूप से जो उत्तर उभरता था कि अयोध्या में ही राम मन्दिर बनेगा। यह मुद्दे की दिशा
को विचलित कर देने की विधि थी। अयोध्या में एक नहीं हजारों राम मन्दिर हैं जो
पुराने हैं व नये मन्दिरों के निर्माण पर कोई रोक नहीं है। वहाँ एक नहीं हजार
मन्दिर और बन सकते हैं। मन्दिर का निर्माण कोई समस्या नहीं था। मुद्दा यह था कि
जिस जगह पर 1528 में एक मस्ज़िद बनी थी जिसे बाबर के आदेश पर मीरबाकी ने बनवाया था।
दावा था कि उस स्थान पर जिसे राम की जन्मभूमि माना जाता है, कभी रामजन्मभूमि
मन्दिर था। आरोप यह था कि उक्त मन्दिर को तोड़ कर बाबरी मस्ज़िद बनायी गयी थी और पिछले
लगभग सौ से अधिक वर्षों से हिन्दू उसी स्थान पर मस्जिद की जगह रामजन्म भूमि मन्दिर
की पुनर्स्थापना की मांग कर रहे थे। मुगल काल से ब्रिटिश शासन काल तक इस मांग
से 562 रियासतों का कोई राजा नबाब नहीं जुड़ा था इसलिए हिन्दुओं के आराध्य राम की
जन्मभूमि मन्दिर की लड़ाई को बल नहीं मिल सका था। इतिहास बताता है कि धार्मिक
‘हिन्दू संगठनों’ ने 1813 में इस आधार पर पहला दावा किया था। 1859 में इस स्थान पर
कब्जे के लिए हिंसा की घटना हुयी तो ब्रिटिश सरकार ने इसके चारों और कटीले तारों
की बाड़ बनवायी थी। 1885 में पहली बार महंत रघुवर दास ने अदालत से मन्दिर बनाने की
मांग की। 1934 में विवादित हिस्सों को तोड़ा गया था जिसकी मरम्मत ब्रिटिश सरकार ने
करायी थी। कहा जाता है कि 1949 में तत्कालीन हिन्दूवादी कलैक्टर के.के. नायर के
इशारे पर, रात्रि में रामलला की मूर्ति को रखवा दिया गया था। उल्लेखनीय है कि
सेवानिवृत्ति के बाद यही कलैक्टर बलरामपुर से जनसंघ के टिकिट पर चुनाव लड़ कर संसद
में पहुंचे थे व उसके बाद उनकी पत्नी भी सांसद बनी थीं। उन्होंने हिंसा का डर दिखा
कर उस स्थान से मूर्तियों को हटाने की सलाह मानने से इंकार कर दिया था और सलाह दी
थी कि केवल एक पुजारी अन्दर जाकर पूजा करेगा व जाली के बाहर से हिन्दू दर्शन कर
सकेंगे। तब से मुसलमानों का प्रवेश और नमाज वहाँ बन्द हो गयी थी, और अपने अधिकार
के लिए वे कोर्ट चले गये थे।
1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा मस्ज़िद के लिए
केस दर्ज करने से पहले 1950 में हिन्दू पक्ष और 1959 में निर्मोही अखाड़ा भी कोर्ट
से पूजा की अनुमति मांग चुका था। 1967 के बाद उत्तर प्रदेश में अनेक गठबन्धन
सरकारें बनीं जिनमें जनसंघ भागीदार रही व 1977 में केन्द्र में बनी जनता पार्टी
में वे घटक की तरह सम्मलित हो गये थे किंतु उन्होंने कभी राम जन्मभूमि मन्दिर का
मुद्दा नहीं उठाया। 1980 में उन्हें दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी
से बाहर होना पड़ा और 1984 में श्रीमती गाँधी की हत्या के बाद हुये चुनाव में वे दो
सीटों तक सिमट गये थे। अपने राजनीतिक पुनरोत्थान के लिए उन्होंने इस सुसुप्त
मुद्दे को हाथ में लिया और गोबिन्दाचार्य द्वारा बनायी गयी योजना के अनुसार रथ
यात्रा निकाली जिसकी सवारी श्री लालकृष्ण अडवाणी ने की।
यह टर्निंग बिन्दु था इस के साथ ही इस अभियान
का दूसरा पक्ष प्रारम्भ हुआ। पहले पक्ष में केवल भावुक धार्मिक पक्षधरता थी| इसमें लड़ने के लिए
न संगठन था न धन। दूसरे पक्ष में राजनीतिक पक्ष था, संगठन था और धन था।, इसमें धर्म
का नाम तो था पर धर्म नहीं था। तब से राम जन्मभूमि मुद्दा गरमा गया था। तब के कमजोर
प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने एक ओर शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर
कानून बदलवा कर जो भूल की थी उसकी बराबरी करने में अयोध्या में मन्दिर का ताला
खुलवा कर दूसरी भूल कर डाली। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन पर बोफोर्स कांड के आरोप
लगाये जिसे भाजपा ने बल दिया। इससे काँग्रेस अल्पमत में आ गयी और वीपी सिंह के
नेतृत्व में जनता दल की अल्पमत सरकार बनी। सीपीएम के दबाव में वी पी सिंह ने भाजपा
को सरकार में शामिल नहीं किया। ग्यारह महीने में ही जनता दल बिखर गया था इसलिए
काँग्रेस का मुख्य प्रतिपक्ष बनने के लिए अपेक्षाकृत संगठित भाजपा के पास उपयुक्त
अवसर और हाथ में राममन्दिर अभियान था।
इस अभियान के बल पर
भाजपा दो से अस्सी और फिर दो सौ तक पहुंची व इसी संख्याबल के आधार पर बाद में अटल
बिहारी सरकार तक बनाने में सफल रहे। उनकी विजय का दूसरा कोई मुख्य आधार नहीं था।
इसी अभियान की निरंतरता के अंतर्गत कार सेवकों के नाम से गये लोगों के कारण ही गोधरा
कांड और गुजरात का नरसंहार हुआ। इसी के प्रभाव में मोदी ने गुजरात में ध्रुवीकरण
के सहारे अपनी एकछत्र सत्ता हासिल की और इसी के प्रभाव में उन्होंने प्रधानमंत्री
पद तक पहुंचने की रेस जीती। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि भाजपा का देश की सत्ता
तक पहुंचने का अभियान और राम जन्मभूमि मन्दिर एक ही आन्दोलन के हिस्से रहे हैं। इस
का बने रहना भाजपा के चुनाव अभियान के लिए लाभदायक रहा है, इसलिए उसे मन्दिर बनाने
की कोई जल्दी नहीं थी अपितु वे मुद्दे को गरमाये रखने में रुचि रखते थे।
सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला व्यापक जनहित
में न्यायिक से ज्यादा एक प्रशासनिक फैसला है। मुख्य न्यायाधीश ने इसकी सुनवाई
करते समय अपने पहले बयान में कहा था कि हमारे लिए यह आस्था का मामला नहीं अपितु
भूमि के स्वामित्व का विवाद है जिसे रामलला विराजमान को लीगल एंटिटी मान कर दिया
गया है।
इस अभियान के दूसरे पक्ष में अडवाणीजी की
रथयात्रा से लेकर मस्जिद गिराये जाने के बाद मुम्बई, गुजरात और दूसरी जगहों में
हुये दंगों में हजारों लोग मारे गये हैं, व हजारों करोड़ की सम्पत्ति बर्बाद हुयी
है। जो फैसला हुआ है वह समझौते के माध्यम से पहले भी सम्भव था किंतु वे तो
ध्रुवीकरण चाहते थे क्योंकि इसमें बहुसंख्यकों का दल लाभ में रहता है।
भले ही प्रकट रूप में भाजपा खुशी व्यक्त
कर रही है पर क्या इस फैसले से भाजपा खुश होगी? उल्लेखनीय है कि भाजपा के नियंत्रक,
संघ प्रमुख मोहन भागवत से जब पूछा गया कि राम मन्दिर के बाद काशी मथुरा के बारे
में क्या योजना है, तो वे इस सवाल को टाल गये। शायद हाथ लगे फार्मूले को छोड़ना
उन्हें मंजूर नहीं होगा। उनके ही आनुषांगिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद, जिसके नाम
से यह अभियान चलाया गया था, ने तो काशी मथुरा के अलावा अन्य साढे तीन सौ विवादित धर्म
स्थलों की सूची जारी की हुयी है। आलोचना होने पर भाजपा कह देती थी कि यह हमारा
कार्यक्रम नहीं विहिप का कार्यक्रम है, किंतु समर्थन मिलने पर सबसे पहले अपनी गरदन
माला पहनने के लिए आगे कर देती रही है।
वे यह प्रकट कर रहे हैं कि फैसले में सब
कुछ उनके पक्ष में अच्छा हुआ है किंतु ऐसा नहीं है। कोर्ट ने गुम्बद में मूर्तियां
रखने और मस्जिद तोड़ने को आपराधिक कृत्य माना है और आरोपियों को जल्दी सजा देने की
सलाह दी है। इस अवसर पर यह बात चर्चा के केन्द्र में नहीं आयी है कि आरोपियों में
भाजपा के सबसे बड़े नेताओं में से सर्वश्री अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती,
विनय कटियार आदि के नाम हैं, और अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानती है तो
इन्हें सजा हो सकती है। क्या इसके छींटे पूरी भाजपा पर नहीं आयेंगे?
इस अभियान में प्रचार का केन्द्रीय बिन्दु
यह था कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद बनायी गयी है, ठीक उसी स्थान पर राम का जन्म हुआ
था और ठीक वहीं जन्मभूमि मन्दिर था जिसे तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी। इसी तर्क के आधार पर वे बाबरी मस्जिद को तोड़े
जाने और वहीं मन्दिर निर्माण की बात करते थे। कोर्ट ने यह कह दिया है कि
पुरातत्वविदों द्वारा उस स्थान पर किसी इमारत होने के प्रमाण तो पाये हैं किंतु ना
तो उसका मन्दिर होना प्रमाणित है और ना ही तोड़ा जाना। उल्लेखनीय है कि विवाद के
चरम पर जब मुम्बई के एक इंजीनियर ने प्रस्ताव किया था कि विवाद टालने के लिए वह
ऐसा नक्शा बना सकता है जिसमें बाबरी मस्जिद के बने रहते उसके ऊपर मन्दिर का
निर्माण हो सकता है, या उसके नीचे अंडरग्राउंड में मन्दिर बनाया जा सकता है जो
प्राप्त अवशेषों के अनुसार सही तल पर होगा। किंतु कहा गया था कि उन्हें मन्दिर उसी
तल पर चाहिए जिस तल पर मस्जिद बनी है। सच तो यह है कि उन्हें राजनीतिक लाभ के लिए
मन्दिर नहीं विवाद चाहिए था।
हमें उम्मीद रखना चाहिए कि समझदारी के
विकास के साथ राममन्दिर प्रेमी और उसका राजनीतिक स्तेमाल करने वाले अलग हो सकें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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