सोमवार, जून 10, 2019

टुकड़े टुकड़े गैंग का सही पता


टुकड़े टुकड़े गैंग का सही पता
वीरेन्द्र जैन

जब किसी राजनीतिक दल के प्रचारकों द्वारा उछाले गये जुमले को देश का प्रधानमंत्री दुहराने लगे तो यह निश्चित है कि या तो मामला बहुत गम्भीर है या प्रधानमंत्री गैर गम्भीर है।
तीन वर्ष पहले एक वीडियो एक छात्र संगठन  द्वारा उछाला गया था, जिसमें देश के सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय जवाहरलाल यूनिवेर्सिटी में कुछ युवा अफज़ल गुरु की वरसी पर नारे लगाते हुए दिख रहे हैं, जिनमें से एक नारा, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह’, भी है। कहा जाता है कि अफज़ल गुरु को फांसी मिलने के बाद जेएनयू के छात्रों का एक छोटा सा गुट जो संसद पर हुए हमले में अफज़ल गुरु को निर्दोष मान कर, प्रति वर्ष 9 फरबरी को यह खुला आयोजन करता रहा है। यही आयोजन उसने सन्दर्भित वर्ष 2016 में भी किया था। अंतर इतना था कि तब तक देश में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन चुकी थी। उल्लेखनीय यह भी है कि जे एन यू में देश की श्रेष्ठतम युवा मेधा अध्ययन और शोध करती है और विभिन्न विचारों के पुष्प एक साथ खिल कर एक सही लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान के सच्चे विश्वविद्यालय का स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। इस विश्व विद्यालय की स्थापना के समय से ही यहाँ के छात्र संघ पर वामपंथी रुझान के छात्र संघों का प्रभुत्व रहा है जो भाजपा जैसे दक्षिणपंथी और काँग्रेस जैसे मध्यम मार्गी दलों व उनके छात्र संगठनों को अखरता रहा है। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनते ही यह विश्व विद्यालय उनके निशाने पर आ गया था। उल्लेखनीय है कि भाजपा नेता व राज्यसभा के सांसद सुब्रम्यम स्वामी ने सरकार बनते ही जे एन यू को बन्द करने की मांग रख दी थी। इस विश्व विद्यालय में सन्दर्भित वर्ष में एआईएसएफ [सीपीआई] छात्र संगठन के कन्हैया कुमार छात्र परिषद के अध्यक्ष थे, और आइसा [ सीपीआई एमएल] के छात्र संगठन की शहला रशीद उपाध्यक्ष थीं। अन्य पदों पर भी वापपंथी छात्र संगठन के छात्र पदाधिकारी थे। जब सुनिश्चित तिथि को कश्मीरी छात्रों के गुट ने स्मृति कार्यक्रम का आयोजन किया तो संसद पर हमले के एक मृत्यु दण्ड प्राप्त आरोपी को देशद्रोही मानने वाले एबीवीपी [भाजपा] छात्र संगठन के लोगों ने पहले से वीडियोग्राफी की व्यवस्था के साथ उन्हें रोकने या उनसे टकराने की कोशिश की थी। छात्रों के बीच झगड़े की खबर सुन कर कन्हैया कुमार समेत अन्य छात्र नेता भी उपस्थित हो गये थे। एबीवीपी ने इसे अवसर की तरह लिया और उसकी शिकायत पर दिल्ली पुलिस ने जो केन्द्र सरकार के अधीन होती है, कन्हैया कुमार समेत अन्य छात्र नेताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था और उन पर ही आरोप लगा दिया कि उन्होंने “ भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा इल्लाह” के नारे लगाये। बाद में कोर्ट ने पाया कि उनके खिलाफ जो वीडियो प्रस्तुत किया गया था उसमें छेड़ छाड़ की गयी थी इसलिए कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी थी। यदि ऐसे नारे लगाये गये थे तो नारे लगाने वालों को पुलिस कभी गिरफ्तार नहीं कर सकी। कन्हैया कुमार को जमानत के लिए ले जाते समय कुछ वकीलों ने पुलिस हिरासत में कन्हैया के साथ मारपीट की व कोर्ट परिसर में तिरंगे झंडे लहराये। इन्हीं वकीलों के फोटो भाजपा के बड़े बड़े मंत्रियों व नेताओं के साथ गलबहियां करते हुए विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये किंतु पुलिस हिरासत में कोर्ट ले जाते समय कन्हैया पर किये गये हमले के सन्दर्भ में की गयी किसी दण्डात्मक कार्यवाही की कोई खबर देश को नहीं मिली। इस सब से देश भर में धारणा यह बनायी गयी कि वामपंथी व उसके छात्र संगठन के छात्र देश द्रोही हैं और वे देश के टुकड़े करना चाहते हैं। भले ही अदालत की ओर से उन्हें कोई सजा नहीं मिली किंतु भाजपा पक्ष की ओर से इन्हें लगातार ‘टुकड़े टुकड़े गैंग” की तरह सम्बोधित किया गया। यहाँ तक कि चुनावी प्रचार सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भी इस जुमले का प्रयोग किया गया। यह वैसा ही था कि जब भी कोई इस सरकार से सच जानने की कोशिश करता था तो उसे देशद्रोही कह दिया जाता था। उल्लेखनीय यह भी है कि देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, लेखकों की हत्या के बाद जब सरकारी दल के संगठनों द्वारा हत्या के आरोपियों का पक्ष लिया गया, उनको संरक्षण दिया गया तो उसके विरोध में अपने पुरस्कार वापिस कर देने वाले देश के प्रतिष्ठित लोगों को ‘अवार्ड वापिसी गैंग’ कह कर पुकारा गया और इस जुमले को चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी ने भी दुहराया।
कोई आन्दोलनकारी जब भी कोई नारा लगाता है तो वह चाहता है कि उसे और उसकी विचारधारा को उस नारे के साथ पहचाना जाये। कन्हैया कुमार जिस लोकतांत्रिक संगठन से सम्बन्धित था उसका राष्ट्रीय एकता से तो सम्बन्ध है किंतु वे किसी भी तरह से अलगाववाद से नहीं जुड़े हैं और न ही उनका ऐसा कोई इतिहास रहा है। यह सब जानते हैं कि देश की सबसे प्रमुख इंटेलीजेंस संस्था के प्रमुख के माध्यम से देश के प्रधानमंत्री को तो इस सच का पता ही होगा। इसके बाद भी अगर वे देश के वामपंथियों के लिए टुकड़ टुकड़े गैंग और अवार्ड वापिसी गैंग जैसे जुमलों का प्रयोग करते हैं तो यह शर्म की बात है, क्योंकि देश के प्रधानमंत्री से चुनाव प्रचार में भी गलतबयानी की उम्मीद नहीं की जाती। किसी अन्य प्रधानमंत्री ने कभी ऐसी भाषा या गलत जानकारी का प्रयोग नहीं किया
देशद्रोह के कानून के गलत स्तेमाल ने उस कानून का मखौल बना कर रख दिया है। कोर्ट का फैसला है कि एक लोकतांत्रिक देश में बिना किसी सैनिक तैयारी के सरकार के खिलाफ बोलना देशद्रोह नहीं होता। यदि किसी ने अति क्रोध में ऐसे नारे भी लगाये हैं तो उसे सजा देने के लिए दूसरी अनेक धाराएं हैं। बार बार बात बात में देशद्रोह का आरोप लगाना देश की सैनिक शक्ति का भी अपमान है।
दूसरी ओर यह सच है कि देश में विभाजन का खतरा बढ रहा है और उन असल ताकतों को पहचानने की जरूरत है जिनके कारण यह खतरा बढ रहा है। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में पाकिस्तान की मांग से पहले ‘ हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा आया था। यह नारा स्वयं में विभाजन के बीजारोपण करने वाला था, और हिन्दी के साथ मिल कर तो बड़े विभाजन के बीज बो रहा था। यही कारण था कि देश के सबसे बड़े राष्ट्रभक्त महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का गठन किया था और उसका मुख्यालय दक्षिण में बनाया था, जिससे दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को बढा कर राष्ट्रीय एकता अनायी जा सके। आज एक ऐसी सरकार है जो बार बार खुद की पहचान एक हिन्दूवादी सरकार की तरह कराने की कोशिश कर रही है। देश के अन्य अल्पसंख्यकों को जिस तरह से गौहत्या, लवजेहाद, घर वापिसी, धर्म परिवर्तन, आदि के नाम पर प्रताड़ित किया जाने लगा है और बात बात में उन्हें पाकिस्तान जाने को कहा जाने लगा ह। इसका परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी आबादी अपने घर में ही खुद को पराया महसूस करने लगी है। इतना ही नहीं दलित जातियों को जिस तरह प्रताड़ित किया जाने लगा है, उससे लगता है कि गैरदलित जातियों के वर्चस्व के लोग सत्ता में हैं और वे कम होते रोजगार के अवसरों व सरकारी नौकरियों के कम होते जाने से जनित संभावित विरोध को आरक्षण से जोड़ना चाहते हैं, ताकि विरोध को विभाजित कर सकें। उत्तरपूर्व में वर्षों से चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों को इस दौरान नयी हवा मिली है। आदिवासियों द्वारा अपने जंगलों और जमीनों के दोहन के खिलाफ किये गये प्रतिरोध को पुलिस दमन से दबाये जाने के प्रकरणों में वृद्धि हुयी है। विरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सलवादी कह कर उस दमन को सही ठहराया जाता है। सीमा पर होने वाली हलचलों के समय पूरा देश एक साथ सरकार का सहयोग करता रहा है, किंतु अब देश के प्रमुख राजनीतिक दलों तक को सही सूचनाएं नहीं दी जा रही हैं, और पूछने पर उन्हीं को देशद्रोही व दुश्मन को खुश करने वाला बताया जाने लगा है। अपने चुनावी लाभ के लिए जातियों के विभाजन का लाभ लेने के लिए जातिवादी आधार पर टिकिट दिये जाते हैं। साक्षी महाराज को लोधी वोटों के आधार पर, व निरंजन ज्योति को मल्लाह वोटों के आधार पत टिकिट दिया गया। ठाकुर दिग्विजय सिंह के वोटों को काटने के लिए प्रज्ञा ठाकुर को लेकर आये। जहाँ जातियों के आधार पर चुनाव होते हैं, वहाँ चुनावों के दौरान पड़ी दरारें बाद तक बनी रहती हैं।
हाल ही मैं शिक्षानीति में हिन्दी को अनिवार्य करने के नाम पर दक्षिण में सोये हुए हिन्दी विरोध को फिर से कुरेद दिया गया है। उल्लेखनीय है कि चुनावों के दौरान अपने भाषण में सुप्रसिद्ध लेखक जावेद अख्तर ने सही कहा था कि समाज को विभिन्न कारणों से विभाजित करने वाली टुकड़े टुकड़े गैंग तो सत्ता में बैठे हुए लोग हैं जो अपनी गलत नीतियों, व गलत राजनीति से टुकड़ों टुकड़ों में बाँट रही हैं। टाइम पत्रिका ने अगर नरेन्द्र मोदी को डिवाइडर इन चीफ बताया है जो बिल्कुल निराधार तो नहीं है।    
यह जरूरी है कि चुनाव हो जाने के बाद देश में पदारूढ सरकार चुनावी मूड से बाहर निकले व प्रधानमंत्री अपने विभाग में बैठे सैकड़ों प्रतिभाशाली अधिकारियों से प्राप्त जानकारी लेकर ही अपनी बात कहने की आदत डालें, जिससे उनके भाषणों में होने वाली त्रुटियों को देश की त्रुटियों में न गिना जाये। राष्ट्रीय एकता सलामत रहे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

 

बुधवार, जून 05, 2019

कार्टूनिस्ट बालेन्दु परसाई के बहाने


कार्टूनिस्ट बालेन्दु परसाई के बहाने
वीरेन्द्र जैन

इस बिगड़ी हुयी दुनिया, समाज, राजनीति और राजनेताओं के दुर्गुणों को रेखांकित करने के लिए जब उन्हें और अधिक बिगड़ा हुआ दिखा कर उनके दुर्गुणों को इंगित किया जाता है तो व्यंग्य पैदा होता है।
मुझे आलोचक डा. रामकृपाल पांडेय के सौजन्य से एक बार हिन्दी के सबसे प्रमुख आलोचकों में से एक डा. राम विलास शर्मा से मिलने का मौका मिला था तब मैंने उनसे पूछा था कि हास्य और व्यंग्य में क्या अंतर है। उन्होंने कहा था कि जब आदमी दांत खोलकर हँसता है तो हास्य होता है, किंतु जब वह दांत भींच कर हँसता है तो व्यंग्य होता है। उनकी यह बात मुझे सदैव याद रही। मैंने भी अपनी एक पुस्तक की भूमिका में लिखा था कि-
फुसफुसाने से सोया हुआ दोस्त नहीं जागता
और जोर से बोलने पर दुश्मन के सावधान हो जाने का खतरा है
इसलिए गुदगुदा कर जगा रहा हूं 
ज्यादातर व्यंग्य दुश्मनों के नहीं अपनों की भूलों को इंगित करने की कला है, इसलिए उसमें चाकू नहीं शल्य चिकित्सक के नश्तर चलाये जाते हैं जो तात्कालिक तकलीफ तो देते हैं किंतु दूरगामी फायदा भी पहुँचाते हैं।
एक फ़्रांस का फिल्म डाइरेक्टर किसी पत्रकार को साक्षात्कार दे रहा था। उसने किसी अन्य डाइरेक्टर के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा कि वह मार्क्सवादी है। इस पर पत्रकार ने पलट कर कहा कि वह तो अपने आप को मार्क्सवादी नहीं कहता। “उसको क्या मालूम कि वह मार्क्सवादी है” उस डाइरेक्टर ने संजीदगी से कहा।
हमारे मित्र कार्टूनिस्ट बालेन्दु परसाई भी दुनिया के सबसे बड़े कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण के एकलव्य हैं। वे गंडा ताबीज बँधवा कर उनके शिष्य नहीं बने अपितु प्रति दिन नियम से उस दिन की सबसे प्रभावित कर देने वाली घटना पर कार्टून बना कर सैकड़ों वेबपत्रिकाओं को भेज देते हैं, जो उनको जारी करती हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने यह सुविधा उपलब्ध करायी है कि वह ताज़ा घटना पर की गई प्रतिक्रिया को बासी नहीं होने देती। कार्टून के लिए यह ताज़गी और भी ज्यादा जरूरी होती है क्योंकि उसे कम से कम स्थान में अपनी बात कहना होती है व उसके पास अलग से सन्दर्भ देने की जगह नहीं होती।
किसी चित्रकार को अपने विषय चुनने का अधिकार होता है किंतु कार्टूनिस्ट को यह सुविधा कम होती है। उसे किसी ताजा घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देना होती है और कई बार तो बहुत हाथ साध कर कलम चलाने का समय नहीं होता है। उसके पात्र गलत जगह गतिमान हो जाते हैं, रंग फैल जाते हैं। ऐसा होने पर भी बालेन्दु के कार्टून अपनी बात कह जाते हैं सन्देश पहुँचा देते हैं। उन्हें यह मालूम है कि कौन कहाँ गलत है और कूची से नश्तर किस जगह पर चलाना है। गलत जगह पर चलाया गया डाक्टर का नश्तर नुकसान भी कर सकता है। उनकी इस समझ को प्रणाम।
अंत में एक और घटना याद आ रही है। लक्ष्मण के कार्टून लगातार टाइम्स आफ इंडिया के मुखपृष्ठ पर छपने वाली दुनिया की श्रंखला में गिनी जाती है। जब इस श्रंखला को पचास साल हुये तो एक पत्रकार ने उनसे साक्षात्कार लिया। अन्य बातों के अलावा जब उन्होंने विभिन्न राजनेताओं के बारे में पूछा जिन पर लक्ष्मण ने कार्टून बनाये थे तो उस बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि ज्योति बसु मेरे काम के लिए बहुत मनहूस रहे। उन्होंने मुझे कभी कार्टून बनाने का मौका ही नहीं दिया।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, जून 02, 2019

काँग्रेस का इतिहास और उसका संकट


काँग्रेस का इतिहास और उसका संकट   

वीरेन्द्र जैन
काँग्रेस इस समय नेतृत्व के संकट से गुजरती हुयी बतायी जा रही है जबकि यह उसके नेतृत्व का नहीं अस्तित्व का संकट है। सच तो यह है कि दल के रूप में उसका अस्तित्व तो इन्दिरा जी के काल में ही समाप्त हो गया था। उसके बाद तो काँग्रेस की मूर्ति बना कर सत्ता अनुष्ठान चलता रहा है। अब उस सच की पहचान हो रही है।
सब जानते हैं कि काँग्रेस स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए गठित संगठन का नाम था जिस लक्ष्य को पाने के लिए ही सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह ने अपना अलग मार्ग चुना था। आज़ादी के बाद गाँधीजी की इच्छा के विपरीत उसी संगठन को राजनीतिक दल के रूप में जारी रखने का फैसला किया गया। इसी में से समाजवादी जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया आदि निकले। कम्युनिष्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं ने भी अपनी विचारधारा के साथ साथ आज़ादी के लिए काँग्रेस में रह कर काम किया था। बाद में कम्युनिष्ट पार्टी पहले दो आम चुनावों में समुचित सीटें जीत कर मुख्य विपक्षी दल रही। दूसरी ओर आरएसएस जैसे हिन्दूवादी संगठन थे जो हिटलर और मुसोलिनी से प्रभावित थे व अंग्रेजों की जगह मुसलमानों को अपना मुख्य दुश्मन मानते थे। वे अंग्रेजों को बनाये रखना चाहते थे और अंग्रेजों से लड़ने वाली हिन्दू मुस्लिम सबकी साझा पार्टी काँग्रेस व उसके स्वतंत्रता आन्दोलन को पसन्द नहीं करते थे। इसी तरह भारतीय संविधान के निर्माता अम्बेडकर जी थे जो मानते थे कि जातियों में बंटे समाज में जब आज़ादी मिलेगी तो वह ऊंची कही जाने वाली जातियों को ही मिलेगी इसलिए जाति मुक्त समाज का निर्माण पहली आवश्यकता है। गाँधीजी आजादी के लिए सभी धाराओं के बीच समन्वय स्थापित करने वाले व्यक्ति थे।
गाँधीजी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया गया था, जिसको हटाने की शर्त के रूप में उन्होंने सरदार पटेल को वचन दिया था कि संघ कभी राजनीति में भाग नहीं लेगा, किंतु उन्होंने कुछ समय बाद अपने स्वयं सेवक भेज कर भारतीय जनसंघ का गठन करा दिया था, जो अब भाजपा के नाम से उसी का आनुषंगिक संगठन बना हुआ है। भाजपा पूरी तरह संघ से ही नियंत्रित होती है व जिसके हर स्तर के संगठन सचिव के रूप में आरएसएस का प्रचारक ही नियुक्त किया जाता है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान सक्रिय कांग्रेसियों का सत्ता पर स्वाभाविक हक बनता था। काँग्रेस के स्वरूप को ध्यान में रख कर समन्वयवादी नेहरूजी ने अपने मंत्रिमंडल में एक ओर हिन्दूवादी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सम्मलित किया था दूसरी ओर अम्बेडकर जी को भी मंत्री बनाया था। उनके सामने विपक्ष में एक भिन्न विचार लेकर केवल कम्युनिष्ट पार्टी थी जो कहीं कहीं किसानों मजदूरों को उनकी मांगों के लिए संगठित तो कर सकती थी किंतु विचार के रूप में केवल उच्च राजनीतिक चेतना को ही सम्बोधित कर सकती थी। उसके विचार को स्थापित न होने देने के लिए पूंजीवादी घरानों द्वारा विभिन्न प्रकार की संघ की मदद से झूठी धारणाएं फैलायी जा रही थीं। बम्बई की कपड़ा मिलों की हड़ताल के बाद वे तेलंगाना किसान आन्दोलन के दौरान सशस्त्र संघर्ष कर चुके थे। केरल में बनी पहली गैर कांग्रेसी कम्युनिष्ट सरकार को धारा 356 का दुरुपयोग करके भंग किया गया था।
1967 में पहली संविद सरकार बनने से पहले तक काँग्रेस माने सरकार होता था। सामाजिक समरसता के लिए कृतज्ञ दलित जिन्हें तब हरिजन नाम से पुकारा जाता था और हिन्दू महासभा व आरएसएस के कट्टर हिन्दुत्व से आशंकित मुसलमान काँग्रेस का स्थायी वोटर था व शेष वोट तो उसे सत्ता की धमक और चमक से मिल जाते थे। पहले आम चुनावों तक काँग्रेस को चुनाव जीतने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता था। उसे पहली बड़ी चुनौती 1967 में मिली। तब तक चीन के साथ हुये सीमा विवाद में देश पीछे हटने को मजबूर हो चुका था। कम्युनिष्ट पार्टी का विभाजन हो चुका था। जवाहर लाल नेहरू का निधन हो चुका था, उसके बाद बने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना पड़ा था और तास्कन्द समझौते के समय उनकी भी मृत्यु हो गयी थी। प्रधानमंत्री पद के लिए इन्दिरा गाँधी को मोरारजी देसाई के समक्ष बहुमत के आधार पर कांग्रेस कार्य समिति में हुए मतदान से चुना गया था। देश में अभूत पूर्व खाद्य संकट आ चुका था जिसकी स्तिथि यह थी कि शास्त्री जी को देशवासियों से एक दिन उपवास करने के लिए कहना पड़ा था। कांग्रेसियों को सत्ता सुख का चश्का लग चुका था और वे आपस में प्रतियोगिता करते हुए गुटबाजी करने लगे थे। सरकार कमजोर हो रही थी और उसी समय वरिष्ठों के नेतृत्व ने इन्दिरा गाँधी को हटाने के लिए एकजुट होना शुरू कर दिया जिसकी भनक लगते ही श्रीमती गाँधी ने राष्ट्रपति चुनाव में वामपंथियों के उम्मीदवार को आत्मा की आवाज पर मत देने का सन्देश दे, काँग्रेस को विभाजित कर दिया। उससे पहले उन्हें बहुमत के लिए वामपंथियों का सहारा लेना पड़ा जिन्होंने बड़े बैंकों व बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण तथा पुराने राज परिवारों को मिलने वाले प्रिवी पर्स व विशेष अधिकारों को समाप्त करने की शर्त पर समर्थन दिया। श्रीमती गाँधी को यह सब करना पड़ा। इसी के साथ उन्होंने खुद को प्रगतिशील प्रचारित करते हुए काँग्रेस को केन्द्र से वाम की ओर झुकाव वाली पार्टी दिखाने की कोशिश की। इसका व्यापक प्रभाव हुआ और वे पुराने काँग्रेसियों समेत जनसंघ सोशलिस्टों आदि को हाशिए पर समेटने में सफल हो गयीं। सीपीआई के साथ उनका समझौता हो गया व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सोवियत रूस उनका मददगार हो गया। यही वह समय था जब सारी दक्षिणपंथी ताकतें व विश्व पटल पर अमेरिका उनके खिलाफ हो गया, देश में आन्दोलन शुरू हो गये व एक चुनाव याचिका में आये फैसले के बहाने उनके तख्ता पलट की तैयारियां होने लगीं। यही कारण था कि उन्होंने इमरजैंसी लगा दी। इस इमरजैंसी में उन्होंने न केवल विपक्षी नेताओं को ही जेल में बन्द कर दिया अपितु अपनी पार्टी के लोगों पर भी लगाम लगाने के लिए पूरी पार्टी को अस्थायी समितियों के द्वारा संचालित कर नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। दूसरी तरफ उन्होंने संजय गाँधी को आगे कर सीपीआई को किनारे कर दिया क्योंकि अब उनके पास समुचित बहुमत था। यही समय संजय गाँधी के उफान और काँग्रेस के पुराने ढांचे के चरमरा कर इन्दिरा काँग्रेस में बदलने का था। इमरजैंसी हटने और चुनावों में काँग्रेस की बुरी पराजय के बाद जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, नन्दिनी सत्पथी व चन्द्र शेखर , मोहन धारिया, जैसे युवा तुर्क अलग हो चुके थे। किंतु देश में काँग्रेस जैसी देशव्यापी कोई दूसरी पार्टी नहीं थी इसलिए जनसंघ की मदद से बनी जनता पार्टी के प्रयोग ने जल्दी ही श्रीमती गाँधी को फिर मौका दे दिया। सरकार बनते ही उन्होंने काँग्रेस में अपने से बड़ा दूसरा नेतृत्व न उभरने देने का फैसला किया। दुर्भाग्य से संजय गाँधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन, खालिस्तान आन्दोलन, और स्वर्ण मन्दिर घटनाक्रम के बाद उनके सिख गार्डों द्वारा उनकी हत्या तक काँग्रेस उनके परिवार की जेबी पार्टी बन चुकी थी। यही कारण रहा कि उनकी मृत्यु के बाद वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी की जगह राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा। राजनीति में आने के अनिच्छुक रहे राजीव गाँधी अपनी साफसुथरी मनमोहक छवि के बाबजूद एक कमजोर प्रधानमंत्री थे। वे बोफोर्स तोप खरीद के चक्कर में फंस गये व उनके ही वित्त मंत्री ने विद्रोह करके उनसे सत्ता छीन ली। यही समय था जब जनसंघ से भाजपा बन चुकी पार्टी ने काँग्रेस के विकल्प बनने का सपना देखना शुरू कर दिया। 1984 के चुनावों में दो तक सिमटने के बाद भी उसे खाली जगह दिख रही थी इसलिए उसने राम मन्दिर और मण्डल विरोध का अभियान छेड़ा, जिसमें उसे सफलता मिलती गयी। जिस दर से काँग्रेस  सिमिट रही थी उसी दर से भाजपा बढ रही थी। 1989 में राजीव गाँधी की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गाँधी ने राजनीति में आने से मना कर दिया जिससे काँग्रेस सर्व स्वीकृत नेतृत्व से वंचित हो गयी। अर्जुन सिंह, नारायन दत्त तिवारी, नरसिम्हा राव, प्रणव मुखर्जी, सीताराम केसरी आदि अनेक नेता नेतृत्व के सपने देखने लगे थे। इस बीच जिसको भी नेतृत्व मिला वह समझौते के रूप में मिला। वैसे भी 1989 के बाद लगातार गठबन्धन सरकारें रहीं जिन्हें हर बार सहयोगियों के साथ सौदा करना पड़ता था। संगठन और चुनावों में क्षीण होती जा रही काँग्रेस के नेता सत्ता से दूर नहीं रह सकते थे इसलिए सबने मिल कर सोनिया गाँधी से नेतृत्व का निवेदन किया जो क्षमता, भाषा, संस्कृति, स्वभाव, व बुरे अनुभवों के कारण बिल्कुल भी रुचि नहीं रखती थीं। किंतु आग्रहों व दूरदर्शिता के कारण उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया।
काँग्रेस पार्टी बिल्कुल समाप्त हो चुकी थी किंतु पुराना ढांचा मजबूत था। अब काँग्रेस कहीं से नहीं जीतती थी अपितु अपने निजी प्रभाव से काँग्रेस के चुनाव चिन्ह पर काँग्रेसी व्यक्ति जीतते थे। ऐसे सब लोग गाँधी नेहरू परिवार की सदस्य होने के कारण सोनिया गाँधी को नेता माने हुये थे। वे प्रसन्नता में टिकिट तो दे सकती थीं किंतु किसी को सजा नहीं दे सकती थीं। काँग्रेस में अनेक गुट हो चुके थे और सारे लोग निजी हित के लिए राजनीति कर रहे थे काँग्रेस की चिंता किसी को नहीं थी। पार्टी की उपयोगिता केवल चुनाव चिन्ह या कार्पोरेट घरानों से प्राप्त चन्दे को चुनाव खर्च के नाम हथियाने तक थी। मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह, शशि थरूर आदि कभी साम्प्रदायिकता के खिलाफ बयान दे देते थे और संघियों के निशाने पर आ जाते थे। पर तब दूसरे काँग्रेसी उनके बचाव में भी खड़े नहीं होते थे, जिससे काँग्रेस का बिखराव देख संघ परिवारियों को बड़ा बल मिलता था।
2004 में अटल बिहारी के नेतृत्व वाली सरकार का गठबन्धन चुनाव में समुचित सीटें नहीं ला सका और कम्युनिष्टों सहित गैर भाजपाई दल बड़ी संख्या में चुनाव जीते। कम्युनिष्ट भाजपा को समर्थन दे नहीं सकते थे इसलिए यूपीए का गठन हुआ जिसमें उन्होंने काँग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार को बाहर से समर्थन देना मंजूर कर लिया। भाजपा द्वारा सोनिया गाँधी को विदेशी बता कर भारी शोरगुल और तमाशे किये गये जिससे उन्होंने अपने समर्थन को मनमोहन सिंह को सौंप दिया। सत्ता सुख मिलने तक काँग्रेसी काँग्रेस से जुड़े रहे। इन दस सालों में भाजपा ने अपनी मर्जी से ही सदन चलने दिया, पर काँग्रेसियों को सदन की चिंता नहीं सतायी। वे तो चाहते थे कि सरकार चलती रहे। भाजपा ने यूपीए के शासन काल के दस साल लगातार संगठन और चुनावी तैयारियों में लगाये व उचित प्रबन्धन व रणनीतियों से 2014 के आम चुनाव में विजय प्राप्त की। मौका देख कर बहुत सारे काँग्रेसी भाजपाई हो गये और उनके लक्ष्य को देखते हुए ऐसा करने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुयी।  2024 से 2019 का समय राहुल गाँधी द्वारा भाषण देना और किताबी नेतृत्व को सीखने का समय था। मोदी व संघ परिवार द्वारा किये गये कारनामे जनता व साम्प्रदायिक सद्भाव के विरुद्ध थे, वे कोई वादा पूरा नहीं कर सके थे, इसलिए काँग्रेसी नकारात्मक समर्थन मिलने की उम्मीद में सत्ता के सपने देखने लगे। कुछ राज्यों में मामूली अंतर से राज्य सरकारें बदल जाने से भी उन्हें गलतफहमी हुयी। परिणाम यह हुआ कि मोदी शाह के प्रबन्धन वाली भाजपा भावुक नारों के आधार पर चुनाव जीत गयी व काँग्रेस अपनी उम्मीदों से बहुत पीछे रही।
अभी उसमें सत्ता सुख व लाभ के लिए चुनाव जीतने को उतावले नेता हैं और उनका गिरोह है। पर, इन्हें काँग्रेस के उद्देश्यों का पता नहीं है इसलिए किसी त्याग का तो सवाल ही नहीं उठता। इसकी रैली जलूसों में जाने वाले या तो क्षेत्रीय नेता से उपकृत भक्त लोग होते हैं या पैसा देकर जुटाये गये दिहाड़ी मजदूर होते हैं।  
भाजपा ने काँग्रेस मुक्त भारत की जो कल्पना की है, उस ओर काँग्रेस स्वयं बढ रही है। भारतीय विश्वासों में दूसरा जीवन मृत्यु के बाद ही प्राप्त होता है। काँग्रेस बच सकती है अगर वह अपने को भंग कर दे और उचित कार्यक्रम के साथ कठोर अनुशासन वाले नये संगठन के साथ उभरे। काँग्रेस का नया कार्यक्रम बनाया जा सकता है  और उस कार्यक्रम पर सहमत लोगों को संगठन के नियमों व अनुशासन के पालन की शर्त पर ही सदस्य बनाया जा सकता है। काँग्रेस चलाने के लिए धन की कमी नहीं है स्वतंत्रता आन्दोलन वाले त्याग की कमी है।
 वीरेन्द्र जैन
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