शनिवार, अगस्त 29, 2020

मासिक पत्रिका कादम्बिनी को श्रद्धांजलि


संस्मरण
मासिक पत्रिका कादम्बिनी  को श्रद्धांजलि 

आपकी सबसे पसंदीदा पत्रिका कौन सी है या थी और क्यों ? - Quora
वीरेन्द्र जैन
हिन्दुस्तान टाइम्स प्रकाशन समूह अर्थात बिड़ला ग्रुप की दो और पत्रिकाएं बन्द होने का समाचार आया है। उनमें मासिक कादम्बिनी भी एक है। उनके लिए सब कुछ व्यवसाय है, वे केवल फायदा देखते हैं।  इस पत्रिका के बन्द होने की खबर ने मेरी स्मृतियों में हलचल मचा दी है। व्यक्तिगत रूप से तो यह वह राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका थी जिसमें बीस वर्ष की उम्र में मेरी पहली रचना छपी थी, और इसके प्रकाशन के साथ ही नगर के साहित्यकारों के बीच मेरा कद बढ गया था। यह कद सच में बढा था या यह मेरी धारणा भी हो सकती है क्योंकि दतिया के बुन्देलखण्डी लोग किसी भी स्थानीय व्यक्ति को अपनी आँखों के सामने अपने सिर पर नहीं बैठने दे सकते, पर गिरने का मजा भरपूर लेते हैं। बहरहाल  इस हल्दी की गांठ के सहारे मैं खुद को पंसारी समझने लगा था। भविष्य में पत्रिकाओं में मेरे खूब सारा लिखने की नींव भी इसी से पड़ी थी। आज याद करता हूं तो हँसी आती है कि कैसे उस अंक को लम्बे समय तक सम्हाल के और सहेज कर रखा गया था। ये चाहता भी था कि मिलने वाले इसे देखें और यह भी कि इसकी रंगत खराब न हो। जैसे कि कोई माँ अपने शिशु को सम्हालती है।
मेरी जिन्दगी में कादम्बिनी का महत्व केवल मेरी पहली रचना के प्रकाशन से ही नहीं है अपितु साहित्य की गहराई भी इसी पत्रिका को पढ पढ कर जानी थी। जिन लोगों ने कादम्बिनी को 1973 के बाद पढा है उन्हें मेरी बात समझ में नहीं आयेगी किंतु जिन्होंने उससे पहले की कादम्बिनी को पढा होगा वे इसे समझ सकते हैं। मैं कादम्बिनी के इतिहास को दो भागों में बांट कर देखता हूं, एक रामानन्द दोषी के निधन से पहले दूसरा रामानन्द दोषी के बाद। इस मासिक के मुकाबले में दूसरी कोई पत्रिका याद नहीं आती जिसने आम मध्यम वर्ग में बिना साहित्यिक गरिमा से समझौता किये लोकप्रियता बनाये रखी हो। मुझे यह पत्रिका जिला पुस्तकालय / वाचनालय में पढने को मिलती थी। यह मेज पर रस्सी से बंधी रहती थी और निश्चित स्थान पर बैठ कर ही पढनी पड़ती थी। महीने के प्रारम्भिक दिनों में वाचनालय खुलने से पहले ही इसी के कारण पहुंचना होता था। यह बात बाद में समझ में आयी कि कादम्बिनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली रीडर्स डाइजेस्ट के जैसी थी। जापानी हाइकू जैसी रचनाओं का प्रकाशन सबसे पहले कादम्बिनी में ही प्रारम्भ हुआ था, जिनका नाम क्षणिकाएं रखा गया था। ये रचनाएं तीन चार पंक्तियों में गहरी सम्वेदनाओं का स्पर्श करा देती थीं। मेरी पहली रचना भी इसी स्तम्भ में प्रकाशित हुयी थी। उचित महत्व के साथ नवगीत भी कादम्बिनी में ही प्रकाशित होना शुरू हुये थे।  रामानन्द दोषी भी श्रेष्ठ गीतकार थे, और आज के जाने माने नवगीतकारों में से नईम, विनोद निगम, माहेश्वर तिवारी, कुंवर बेचैन आदि के गीतों का परिचय यहीं से मिला था। दोषी जी के सम्पादकीय जो बिन्दु बिन्दु विचार के नाम से आता था, में किसी ललित निबन्ध के तत्व रहते थे। दुनिया की श्रेष्ठ पुस्तकों का हिन्दी में संक्षिप्तीकरण ‘सार संक्षेप’ के नाम से कादम्बिनी में प्रकाशित होता था जिन्हें पढ कर कम समय, और कम श्रम में दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य को पढे होने की शेखी बघारी जा सकती थी। जार्ज आरवेल का 1984 मैंने इसी सार संक्षेप के माध्यम से पढा था। जीवन की सहज घटनाओं के प्रति उठती घटनाओं के वैज्ञानिक कारण बताने का भी एक स्तम्भ होता था जो प्रश्नों के उत्तर के रूप में होता था। इससे चीजों को मान लेने की जगह जान लेने की जिज्ञासा जागती थी। मैंने पहली बार यह सवाल और उनके उत्तर पढे थे कि साबुन में झाग क्यों उठते हैं और वे कपड़े का मैल कैसे साफ करते हैं, अथवा गर्म कढाही के तेल में पानी के छींटे पड़ने से छनाका क्यों होता है। ये केवल प्रश्नोत्तर ही नहीं थे अपितु प्रश्नाकुलता भी बोते थे। पर्यटन, पुरातत्व, और विदेश की घटनाओं पर भी दो एक लेख होते थे। कथा, कहानी, गीत कविता के साथ व्यंग्य भी छपते थे और मैंने साहित्य में जगह बनाते शरद जोशी व के पी सक्सेना को पहली बार इसी में पढा था। लेखक का पता भी छपता था जिसके सहारे पाठक और लेखक के बीच सीधा सम्वाद बन सकता था। अनेक लेखकों से मेरे पत्र व्यवहार के सम्बन्ध इसी कारण से सम्भव हुये थे। सबसे बड़ी बात थी कि रचना छपने के बाद जो फुटनोट की जगह बचती थी उसको चुनिन्दा चुटकलों से भरा जाता था। उन दिनों रीडर्स डाइजेस्ट में दुनिया भर के पाठकों के भेजे मौलिक लतीफों का एक स्तम्भ हुआ करता था जिसमें श्रेष्ठ लतीफे पर भारत में पचास रुपये का पारिश्रमिक मिलता था जो उस समय पाठकों के लिए बड़ी राशि थी। कादम्बिनी की रचनाओं के फुटनोट्स में भी उसी स्तर के लतीफे छपते थे। मैंने बाद में धर्मयुग माधुरी, रंग, आदि पत्रिकाओं में जो वर्षों लतीफे लिखे उसकी प्रेरणा और फार्मूला मुझे कादम्बिनी के लतीफे पढ कर ही मिला था। अनेक लतीफों की आत्मा को ग्रहण करके उसे ताजा घटनाक्रम के साथ नया शरीर देता था और प्रशंसा खुद पाता था।
पहले कादम्बिनी में राशिफल भी छपता था किंतु एक बार बनारसीदास चतुर्वेदी ने अपने भविष्य फल को पढने के बाद दोषी जी को पत्र लिखा था कि मुझ विधुर के भविष्यफल में दाम्पत्य सुख की भविष्यवाणी की गयी है, इसे किस तरह लूं। इशारा समझ कर दोषीजी ने यह स्तम्भ बन्द कर दिया था।
पुस्तकालय अपनी पुरानी पत्रिकाएं एक समय के बाद रद्दी में बेच देता था। ऐसी ही एक बिक्री में किराना के एक दुकानदार ने उसकी सारी पत्रिकाएं खरीदी ली थीं जो उन्हें रद्दी से अधिक दरों पर बेच रहा था। मैं तब कालेज में पढ रहा था, संयोग से मैं किसी काम से उसकी दुकान पर पहुंच गया था और कादम्बिनियों के एक ढेर को उस समय जेब में जितने पैसे थे उतनी खरीद लीं।  दूसरे ढेर को लेने जब दूसरे दिन गया तो दुकानदार को लगा कि जाने इनमें क्या है जो ये इतने उत्साह से इसी ढेर को खरीद रहे हैं,  हो सकता है कि इनका ज्यादा दाम मिले, सो उसने देने से मना कर दिया। बहरहाल जो खरीदीं थीं उनको ही काफी लम्बे समय तक पढता गुनता रहा, और ज्ञान सम्पन्न होता रहा। वे मेरे पांच राज्यों में हुये पन्द्रह स्थानांतरणों में साथ गयीं और अब भी मेरे संग्रह का हिस्सा हैं। 
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दोषी जी के असामायिक निधन के बाद यह जिम्मेदारी राजेन्द्र अवस्थी जी को मिली थी, जिन्होंने पत्रिका को ज्योतिष तंत्र मंत्र से लेकर सस्ती बाजारू पत्रिका बना कर रख दिया था, भले ही उसकी बिक्री बढ गयी हो। इससे मुझे इस पत्रिका से अरुचि हो गयी थी। उन्होंने अपने पहले ही सम्पादकीय में दोषी जी के खिलाफ विषवमन किया था और लिखा था कि उन्हें पोर्क्स्ंस की बीमारी हो गयी थी जो सुअर के मांस खाने से होती है। इमरजैंसी का समर्थन करने वाले लेखकों में उनका नाम प्रमुख रूप से समाचारों में आया था। इस सब के बाद मैंने कादम्बिनी की तरफ देखा भी नहीं। सम्भवतः 2005 के आसपास विष्णु नागर के आने के बाद केवल एक व्यंग्य लेख लिखा था, पर उसके बाद उन्होंने भी पत्रिका छोड़ दी थी।
एक बार दिल्ली प्रैस प्रकाशन के डायरेक्टर परेशनाथ ने जो भारतीय भाषा समाचार पत्र प्रकाशन संगठन के अध्यक्ष भी रहे हैं, ने अपने भोपाल प्रवास के दौरान लेखकों को मिलने के लिए बुलाया था। इस दौरान उन्होंने अपनी पत्रिका सरिता जो किसी समय धार्मिक पाखंडों के खिलाफ खुल कर तर्क करने के लिए मशहूर थी के बारे में बताया था कि कादम्बिनी और धर्मयुग सरिता का मुकाबला करने के लिए और कथित भारतीय संस्कृति के बचाव के लिए ही निकाली गयी थीं। कलकत्ता में बिड़ला के निवास पर उनकी हर बहू के कमरे में सरिता की प्रति देखी जाती थी। सो उन्होंने कादम्बिनी निकलवायी व साहू शंति प्रसाद ने धर्मयुग निकलवाया जो उसके नाम से ही स्पष्ट है।  
वैसे तो मुझे पता ही नहीं था कि कादम्बिनी अब भी निकल रही है, किंतु उसके बन्द होने की खबर ने यादों को कुरेद दिया और भूला हुआ सब कुछ याद आ गया। रामानन्द दोषी और उनका वह आखिरी नवगीत ‘ बस री पुरवैया, अब और नहीं बस ‘ मुझे रह रह कर याद आता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
  
     

बुधवार, अगस्त 26, 2020

आमिर खान पर संघी हमला तर्कहीनता की सीमा लांघ रहा है


आमिर खान पर संघी हमला तर्कहीनता की सीमा लांघ रहा है
Being tolerant? Twitterati slams Aamir Khan, wants to boycott ...


वीरेन्द्र जैन
यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का युग है और यह अधिकार होना भी चाहिए। किंतु अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब कल्पनाओं को सच बताने या झूठ बोलने की आज़ादी नहीं होता। इस आज़ादी में यह निहित है कि विचार को विचार की तरह सामने लाया जाये, न कि आँखों देखे समाचार की तरह। सूत्रों से प्राप्त बतायी गयी जानकारियों में, जब तक स्पष्ट खतरा न हो, सूत्रों के नाम सामने आने चाहिए और विचारों के साथ विमर्श की गुंजाइश व उसकी जिम्मेवारी लेने का साहस होना चाहिए। उक्त गुणों के बिना कही हुयी बातें अभिव्यक्ति की आज़ादी के जुमले का गलत स्तेमाल हैं। अभिव्यक्ति की ऐसी आज़ादी नहीं है, ना ही होना चाहिए।  
भाजपा का मुखपत्र अंग्रेजी में आर्गनाइजर के नाम से व हिन्दी में वह पांचज्न्य के नाम से छपता है। मुख पत्रमें कही गयी किसी भी बात को पार्टी की आधकारिक अभिव्यक्ति माना जाता है और अगर किसी त्रुटिवश कुछ प्रकाशित हो जाता है तो तुरंत दूसरे माध्यमों और अखबार के अगले अंक में भूल सुधार छपता है, छपना भी चाहिए। गत दिनों पांचजन्य [24 अगस्त 2020] में किन्हीं विशाल ठाकुर का एक लेख छापा गया जिसका शीर्षक है ‘ ड्रैगन का प्यारा खान’। यह लेख देश के शिखर के अभिनेता निर्माता आमिर खान की छवि को नुकसान पहुंचाने की दृष्टि से रचा गया है जिसमें कुतर्कों की भरमार है। इसकी खबरें देश और दुनिया के मीडिया में छपीं किंतु भाजपा के नेताओं ने 48 घंटे बीत जाने के बाद भी इसका खंडन नहीं किया। इतना ही नहीं विभिन्न टीवी चैनलों पर भाजपा के पक्ष में जोड़े गये उसके प्रवक्ता, संघ विचारक, स्वतंत्र विश्लेषक आदि के श्रीमुख से उक्त लेख के कथ्यों का अग्निधर्मा शब्दों से बचाव किया गया। यह स्पष्ट करता है कि इसके पीछे संघ व अमित शाह की डिजाइन पर काम करने वाली भाजपा नीति ही है।
आमिरखान को दुनिया भर में भारत के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, निर्माता, निर्देशकों में गिना जाता है जिन्होंने विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रभावी व प्रेरक फिल्में बनायी हैं, जो मनोरंजन से भरपूर होने के कारण जन जन तक पहुंचती भी हैं। उनकी इस पहुंच से वह सन्देश भी समाज तक पहुंचता है जो बहुत जरूरी है। उन्होंने शिक्षा व्यवस्था पर ‘तारे जमीं पर’ और ‘थ्री ईडियट’ जैसी फिल्में बनायीं तो नारी सशक्तिकरण पर ‘दंगल’ और सीक्रेट सुपर स्टार’ जैसी फिल्म बना कर दुनिया में देश का नाम बढाया। अन्ध विश्वासों के खिलाफ ‘पीके’ जैसी फिल्म बना कर युवाओं को सावधान किया तो ‘लगान’ और ‘मंगल पांडे’ जैसी स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी फिल्में बनायीं। ‘रंग दे बसंती’ जैसी फिल्में बना कर एक ऐसा प्रयोग किया जो भगत सिंह के आन्दोलन की भावना को वर्तमान की राजनीतिक स्थितियों से जोड़ता है और भटक रही युवा पीढी में चेतना का संचार करता है। ‘पीपली लाइव’ बना कर मीडिया की भेड़ चाल की जम कर खिल्ली उड़ायी तो स्पाट पर शूटिंग कर के गाँवों में किसान की वास्तविक दुर्दशा भी दर्शायी। उनके अन्दर एक राजकपूर बैठा है जो सामाजिक सन्देश देते समय हमेशा यह ध्यान रखता है कि मनोरंजन के लिए आये दर्शक को मनोरंजन भी मिलना चाहिए। इसलिए वे सन्देश और मनोरंजन के बीच जो समन्वय बनाते हैं वह श्रद्धा पैदा करता है और वही उनकी फिल्मों को सफल बनाता है। आमिरखान की फिल्में केवल व्यावसायिक स्तर पर ही सफल नहीं होतीं अपितु पारखियों के निगाह में भी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। देश विदेश का ऐसा कौन सा पुरस्कार है जो उन्हें नहीं मिला हो या उनकी फिल्में उसके लिए नामित न हुयी हों।
‘रजनी’ के बाद प्रशासनिक सामाजिक समीक्षा और उनके हल हेतु प्रेरित करने के लिए किये गये प्रयासों पर बने सीरियलों में ‘सत्यमेव’ जयते का ऎतिहासिक महत्व रहा है। इस सीरियल में जिस करुणा और संवेदनशीलता के साथ घटनाओं को पिरोया गया है वे भीतर तक भेदती रही हैं। इस से ही समाज के वास्तविक नायकों को सम्मानित करने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ, जिसे बाद में भी दुहराया गया। उस दौरान अनेक निजी संस्थानों द्वारा  समाज सेवा के कई प्रोजेक्टों की स्थापना भी हुयी और उनसे हजारों जरूरतमन्दों को सहायता मिली। 
कला की दुनिया के माध्यम से इतना बड़ा काम करने वालों से समाज की ज्वलंत समस्याओं के प्रति विचार निरपेक्ष रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती। समाज को कलंकित करने वाली घटनाओं पर उनका ध्यान जाना और उस पर प्रतिक्रिया आना भी स्वाभाविक है। किंतु, फिल्मी दुनिया भले ही कला की दुनिया हो, पर वह एक बड़ी लागत का व्यवसाय भी है जिस पर बहुत सारे नियंत्रक कानून भी लागू होते हैं, जिनका सरकार दुरुपयोग कर के अपना राजनीतिक हित साध सकती है। यही कारण होता है कि फिल्मी दुनिया के सभी लोग मुखर होकर अपनी प्रतिक्रिया नहीं देते। मोदी सरकार के आने के बाद कुछ साम्प्रदायिक संगठन जिस तरह से हत्याओं पर उतर आये वह खतरनाक है। न केवल गौ हत्या का आरोप मढ कर मुसलमानों व दलितों की हत्याएं हुयीं अपितु देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों की भी हत्याएं हुयीं जिनमें वैज्ञानिक गोबिन्द पंसारे, दाभोलकर,  कलबुर्गी, गौरी लंकेश, आदि की नृशंस हत्याएं हुयीं। खेद रहा कि सरकार ने अपराधियों को पकड़ने में कोई रुचि नहीं दिखायी, ना ही दुख प्रकट किया। आतंकवाद के खिलाफ अपनी जान न्योछावर कर देने वाले पुलिस अधिकारी करकरे को गद्दार बताया जाने लगा व नेहरू गांधी मौलाना आज़ाद आदि की चरित्र हत्याएं की जाने लगीं। तब देश के अनेक लेखकों ने इस असहिष्णुता पर सरकार द्वारा दिये अपने सम्मान पुरस्कार लौटा दिये। कुछ लोगों ने दबे स्वर में सरकार की इस सोच का विरोध किया जिनमें आमिर खान भी उनमें से एक थे। जो जिस तरीके से दब सकता था, सरकार ने उसे उस तरह से दबाने की कोशिश की। आमिर आदि की फिल्मों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गयी। उनकी सम्वेदनशीलता और लोकप्रियता से ज्यादा बड़ा खतरा था इसलिए वे निशाने पर रहे।
पांचजन्य के चार पेजों में प्रकाशित लेख में आमिर की आलोचना को कुछ मामूली कारणों में केन्द्रित किया गया है। उनमें से एक यह है कि उन्होंने अपनी आगामी फिल्म की शूटिंग तुर्की में करने का विचार किया है और वे इसके लिए तुर्की की प्रथम महिला एमिन एरदुगान से मिले। इसमें अपराध यह माना गया कि तुर्की कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के पक्ष को सही मानता है, इसलिए दुश्मन देश है। इस लेख पर चर्चा होने से पहले शायद ही किसी को पता हो कि तुर्की को दुश्मन देश माना जाता है और वहाँ पर शूटिंग करने से देश की जनता की भावनाएं आहत होती हों। इस लेख के अनुसार यह काम आमिर खान की जेहादी मानसिकता दर्शाताहै। दूसरा गम्भीर आरोप यह है कि चीन में सलमान खान की फिल्म तो नहीं चली जो सिर्फ 40 करोड़ रुपये कमा पायी किंतु आमिरखान की दंगल ने 1400 करोड़ का कारोबार किया। इसके साथ ही वे चीनी मोबाइल फोन वीवो के विज्ञापन को आमिर खान का देशद्रोह बता रहे हैं। अभी बहुत दिन नहीं बीते जब भारत के प्रधानमंत्री चीन के प्रधानमंत्री को झूल झुला कर चाय पिला रहे थे, तामिलनाडु घुमा रहे थे और भी असंख्य समझौते कर रहे थे। अभी भी उससे व्यापारिक सम्बन्ध समाप्त नहीं किये गये हैं किंतु वीवो का विज्ञापन करने से आमिर खान को देश द्रोही बताया  जाता है और अन्धभक्तों के सहारे सोशल मीडिया पर उसकी फिल्मों के बहिष्कार की अपीलें की जाने लगती हैं।
ये सरकार और इसके संगठन जिस तरह से कुछ लोगों को साम्प्रदायिकता के आधार पर एकत्रित कर उन्हें अन्धभक्त बना रहे हैं व उसी गिरोह के सहारे अपना एजेंडा चलाते हैं, वैसी ही तार्किकता के सहारे वे पूरे देश को हांकना चाहते हैं। सरकार के विरोध को देश का विरोध बताया जाने लगता है। पांचजन्य के ऐसे लेखों से तो हो सकता है कि आमिर खान की फिल्म और अधिक चल जाये किंतु यह साफ हो जाता है कि ये आम जनता को नासमझ समझते हैं। शायद इसी बात का परीक्षण कभी थाली और कभी ताली या दिया जलवा कर बार बार करते रहते हैं।  
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, अगस्त 25, 2020

निबन्ध एक उत्तर भारतीय ड्रामे का समापन


निबन्ध
एक उत्तर भारतीय ड्रामे का समापन
How to deal with post-festival waste – The Earthbound Report
वीरेन्द्र जैन
      क्लाईमेक्स तक उठाया गया झाग तलछट में बाकी कुछ मैल और गन्दा पानी छोड़ कर बैठ चुका है नशा उतरने के बाद वाली स्थिति जैसे सूजे हुये चेहरों पर एक बासीपन सा छा गया है।
       दीवाली के त्योहार का समापन हो गया है।
            जिस कचरे को घरों के कोने कोने से बुहार कर सड़क पर फेंक दिया गया था और जिसे समेटने में नगर निगम, या नगर पालिकाओं में कार्यरत एक खास जाति के लोग त्योहर की तिथि के  दस दिनों पहले से निरंतर जुटे हुये थे वे अब उन्हीं मार्गों पर नया कचरा देख रहे हैं। एक ऐसा कचरा जिसमें धू मिट्टी तो कम है पर पटाखों की बारूद से चिन्दी चिन्दी हुये कागजों की भरमार है। इसमें मिठाई के भाव तौले हुये डिब्बों के गत्ते भी शामिल हैं। नये नये इलोक्ट्रोनिक आइटमों को सम्हालने के लिए प्रयुक्त हुये थर्मोकौल के सांचे हैं, बेचने वाली दुकान या सामग्री के ब्रांड नेम मुद्रित पालिथिन थैले हैं जो प्रतिबन्ध के बाद भी धड़ल्ले से कानून का धुआँ उड़ाते हुए उपयोग में रहे हैंतेल सोख कर जल चुके मिट्टी के कुछ दिये हैं, बच्चों वाले घरों में टूट फूट गयी कच्ची मिट्टी और कच्चे रंगों से पुती ग्वालिनें हैं। अपनी हैसियत को बढा-चढा कर दिखाने के लिए मेहमानों को पिलायी जा चुकी अच्छी पैकिंग में बन्द अंग्रेजी शराब की खाली बोतलें हैं। एक आवेशित उत्साह में पैदा किये गये कचरे की और भी नई नई किस्में हैं जिन्हें कचरे में से बीन कर कबाड़ वाले को बेचने वाले बच्चे अधिक जानते हैं हमने त्योहार के नाम पर पिछले दिनों जो कुछ  किया है उसके लिए तो जीसस का वह अंतिम वचन याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि - हे प्रभो, इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
            पिछले एक महीने से चारों ओर जोर शोर से यह फैलाया जा रहा था कि खुशी का त्योहार रहा है। खुशी, खुशी, खुशी, खुशी खुशी हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबिल्स के झूठ को फैलाने की तरकीब का अनुशरण करके  फैलायी जा रही थी। केवल खुशी खुशी जैसे कि और कुछ हो ही नहीं। नये विदेशी बाजार के वाहक प्रिंट और दृश्य मीडिया ने एक आभासी खुशी की बाढ ला दी थी और उसमें सब डिग्री धारी मध्यम वर्गीय कुशिक्षित डूब गये थे। खुशी का यह दुष्प्रचार अपने दुखों को तलाशने और सहलाने का अवसर ही नहीं दे रहा था। परम्परा से जोड़ कर बाजार ने एक सामूहिक सम्मोहन का जाल डाल दिया था। बहुत सारे लोगों को तो पता ही नहीं है कि खुशी कैसी होती है, इसलिए उसे चीख चीख कर बताया जा रहा था तथा दुखी आदमी को भी उसमें खींचा जा रहा था। टीवी के सारे चैनल और एफ एम बैंड की महिला उदघोषिकाएं अपनी खनकती आवाज में बता रही थीं कि [अबे अन्धो] चारों ओर खुशी उल्लास का वातावरण छाया हुआ है। दूसरों, तीसरों की तरह तू भी उठ और जेब में डेबिट क्रेडिट कार्ड डाल अपने घर के लिए नये से नया मँहगे से मँहगा चमकीला पेंट लेकर आ। इस पेंट किये हुए घर को चीन से आयी हुयी सजावटी सामग्री से सजा। कभी दीपों के कारण इस त्योहार का नाम दीपावली पड़ा था, पर अब उसकी जगह बिजली की झालरों और दूसरे रंग बिरंगे विद्युत उपकरणों से सजा। प्लास्टिक के बन्दनवार, प्लास्टिक के गमलों में प्लास्टिक के फूल लगे प्लास्टिक के पौधे सजा। मँहगी साड़ियां, सूटों, और बच्चों के कपड़ों से पूरे परिवार को तैयार कर। सौन्दर्य प्रसाधनों से भरपाई [मेक-अप] करके अपनी त्वचा, केश आदि को मानक सौन्दर्य में ढाल ले। परम्परागत हाजोड़ने की मुद्रा से लेकर हाथ मिलाने और गले मिलने के साथ एक झूठी मुस्कान ओढ ले। उपहार दे, उपहार पा। उपहार के बारे में जो तुम्हें नहीं पता है उसे चैनल वाले बताने में लगे हुए हैं। नये से नये माडल की कारें, बाइकें, स्कूटर, छरहरे होते जाते टीवी, कम्प्यूटर, लैपटाप, आईपैड, टूजी थ्रीजी, फोर जी, सोने चाँदी के गहने, बगैरह बगैरह। ये किश्तों में भुगतान की सुविधा के साथ साथ बैंक ऋण से भी उपलब्ध हैं। तू हो या हो पर तुझे ये सामान खरीदकर खुश दिखना है, ताकि तुम्हारा प्रतियोगी पड़ोसी यह नहीं कह सके कि वो तुम से ज्यादा खुश है।
            जिनको ये सब कुछ करने में जेब परेशान करती हो उन्हें भी करना है। इस अवसर पर तुम्हारा दायित्व है कि खुश दिखो।
            खुशी कभी स्वाभाविक होती थी, और तिजोरी या बक्से में आयी रकम , मौसम, फसल, या स्वास्थ के आधार पर व्यक्त होती थी, उसे। अब एक सभ्यता अर्थात झूठ का हिस्सा बना दिया गया है। कभी लोग खुशी में गा उठते थे या नाचने लगते थे, पर अब महौल बदल गया है। अब गाने के लिए गाने वाली मशीनें हैं जो हमारे दैनिन्दन उपयोग की वस्तुओं तक में फिट हो गयी हैं। हमारे भजनों से लेकर मण्डलियों तक को इन मशीनों ने स्थगित कर दिया है। मन्दिरों में मशीनें लगा दी गयी हैं जो गाती रहती हैं जिससे पता ही नहीं चलता कि हमारे अन्दर भक्तिभाव है या नहीं। इनके चक्कर में हम गाना भूल गये हैं। बहुत सारी नकली हँसी खुशी में हम असली खुश होना ही भूल गये हैं। पूजा पाठ का तय समय और महूर्त होना एक बात थी पर खुश होने का समय तय कर देना बिल्कुल ही दूसरा मामला है।
            जिस तरह नाटक के खत्म होते ही सब अपनी अपनी पोषाकें उतार कर रख देते हैं, ठीक उसी तरह खुशी के मुखौटे उतार कर रख दिये गये हैं। भ्रष्ट नेता, रिश्वतखोर अधिकारी, कमीशनबाज ठेकेदार, और टैक्सचोर व्यापारियों की योजना में इस खुशी का बजट होता है। पर जो लोग इस नकल में कूद पड़ते हैं, उनके झल्लाने चिड़चिड़ाने  का भी समय है। लाखों लोग जबरदस्ती ट्रैनों, बसों, में ठुसे यहाँ से वहाँ होते हैं। ऊपर से पैसे देकर भी गिड़गिड़ा कर जगह पाते हैं और समय से वापिस पँहुचने के लिए इसी प्रक्रिया को दुहराते हैं।
            यह नकलीपन उत्तरोत्तर वृद्धि पर है और एक भी हाथ अस्वीकृति में नहीं उठ रहा। कोई नहीं कह रहा कि हे चैनलो, हमें मत सिखाओ कि हमें अपनी परम्परा को कैसे निभाना है।
वीरेन्द्र जैन
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