शनिवार, अगस्त 22, 2020

और अब बालीवुड में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास


और अब बालीवुड में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास
वीरेन्द्र जैन

सबसे पहले तो यह समझ लेना है कि लोकतंत्र के पहले की साम्प्रदायिकता और बाद की साम्प्रदायिकता अलग अलग है, भले ही वह हमेशा से ही सत्ता का औजार रही है। पहले जो धर्म के लक्ष्य होते थे, उन्हें प्राप्त करने के तरीकों में भेद होने व अपने तरीके को अधिक सही मानने के अहं के कारण टकराव होते थे। बाद में राजाओं ने प्रजा को अनुशासित करने के लिए पुरोहितों आदि के माध्यम से नियम बनवाये और पालन कराने के बदले में उन्हें दक्षिणाएं दीं। परिणाम यह हुआ कि जनता भगवान के डर से स्वतः अनुशासित हो कर रहती थी। राजा को भगवान का रूप मानती थी तथा उसी की न्ययिक व्यवस्था के अनुरूप ही मृत्योपरांत ईश्वर के न्याय की कल्पना रची गयी। लोकतंत्र में साम्प्रदायिक विभाजन से एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है जो चुनावों में बहुमत बनाने के काम आता है। किसी समाज में बहुसंख्यकों का दल इससे लाभ में रहता है इसलिए वह पहले तो बहुसंख्यकों के धर्म का सबसे बड़ा शुभचिंतक बना दिखता है और फिर स्वाभाविक रूप से विद्यमान न होने के बाबजूद समाज में साम्प्रदायिकता पैदा करने की कोशिश करता है। जब तनाव या हिंसा शुरू हो जाती है तो दोनों तरह के कट्टरवादी अवसर देख कर हमलावर या रक्षात्मक हो जाते हैं। इसका लाभ बहुसंख्यकों के दल को ही मिलता है इसलिए आमतौर पर इसकी शुरुआत बहुसंख़यकों के दलों की ओर से ही होती है। वे जरूरत के अवसर पर इनका उपयोग करने के लिए बारहों महीने अपने लठैत संगठनों की कक्षाएं लगाते रहते हैं। इतिहास और पुराणों को अपने अनुरूप ढालते हैं और उन्हें समाज में स्थापित कराने के लिए षड़यंत्र रचते रहते हैं। इसके लिए आजकल न केवल खरीदा हुआ मुख्य मीडिया अपितु सोशल मीडिया का प्रयोग बहुतायत में होने लगा है। 
साम्प्रदायिकता फैलाने के सुगठित संस्थान हैं जिन्हें उनसे लाभान्वित होने वाले दल और उन दलों से लाभान्वित होने वाले घराने पोषित करते रहते हैं। हमारे देश में सामंतवाद और पूंजीवाद का अनोखा गठजोड़ है और वे सिद्धांतों में विरोधी होने के बाबजूद एक जुट होकर काम कर रहे हैं। संघ और उसका आनुषांगिक संगठन भाजपा यही काम कर रहा है। बालीवुड में साम्प्रदायिकता फैलाना उसका नया पैंतरा है। स्मरणीय है कि हमारे देश का फिल्म उद्योग और उसमें विभिन्न स्तर पर काम करने वाले लोग मानक रूप से धर्मनिरपेक्ष रहे हैं और उन्होंने जो फिल्में बनायी हैं वे भी साम्प्रदायिकता और सामंती मूल्यों के खिलाफ समाज को सन्देश देती रही हैं। आजादी के बाद प्रगतिशीलों के नाट्य ग्रुप इप्टा के बहुत सारे सदस्य फिल्मों में अपनी प्रतिभा के लिए मशहूर हुये हैं। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी, साहिर, हसरत, शैलेन्द्र, ए के हंगल, से लेकर एक लम्बी श्रंखला है। ये हिन्दी फिल्में ही हैं जिनमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय मनभावन भजन शकील के लिखे, नौशाद के संगीतबद्ध किये और मुहम्म्द रफी के गाये हुये हैं। किसी आदर्श हिन्दू महिला की भूमिका निभाने के लिए मीना कुमारी की ही याद आती है जो मुस्लिम थीं जिनके घनिष्ठ मित्र अशोक कुमार, धर्मेन्द्र और गुलजार आदि रहे। एक बार मीना कुमारी बीमार थीं और डाक्टरों ने उन्हें रोजा न रखने की सलाह दी थी। उन्होंने अपना दुख गुलजार को बताया तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं आपकी जगह मैं रोजा रख लेता हूं। और उसके बाद सिख परिवार में जन्मे सम्पूर्ण सिंह कालरा अर्थात गुलजार वर्षों तक रोजा रखते रहे। साम्प्रदायिक सद्भाव पर ढेर सारी फिल्में ही नहीं बनीं उस विषय के गीत भी भरपूर लिखे गये हैं और वे जनमानस में अपना प्रभाव छोड़ते रहे हैं। दिलीप कुमार [यूसुफ खान ] आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान, कादर खान, मेहमूद आदि ने भारतीय चरित्रों की जो भूमिकाएं निभायी हैं वे अविस्मरणीय और भारतीय संविधान के आदर्शों को ही प्रस्तुत करती हैं। गीत संगीत निर्देशन और निर्माण में हर वर्ग के लोग मिल कर काम करते हैं, व निजी शादी ब्याह में भी धर्म को आड़े नहीं आने देते। वे वह समाज बना और उसमें जी रहे होते हैं, जैसे का सपना हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व संविधान निर्माताओं ने देखा था। हिन्दी फिल्मों और गीतों के माध्यम से उन्होंने हिन्दी भाषा को पूरे देश के स्तर पर फैला कर उसे सच्चे अर्थ में राष्ट्र भाषा बनाने का बड़ा काम किया है। यही बात साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों को हजम नहीं हो रही। आज़ादी के समय धर्म के आधार पर अलग पाकिस्तान बन जाने और तीन तीन युद्ध हो जाने से धर्मनिरपेक्ष हिन्दुस्तान के हिन्दुओं के बीच में मुसलमानों के प्रति नफरत बोना अपेक्षाकृत आसान हो गया है। साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की कुल पूंजी यही है, जिसके सहारे वे आज केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचने में सफल हो गये हैं, और इसको आगे के लिए भी बनाये रखना चाहते हैं।   
भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण अडवाणी भी पहले फिल्म पत्रकार रहे हैं और अटलबिहारी वाजपेयी भी दिलीप कुमार के फैन रहे हैं। ये लोग राजनीति में अपनी विचारधारा की अलोकप्रियता और समाज में फिल्मी अभिनेताओं की लोकप्रियता के महत्व को समझते रहे हैं इसलिए चुनाव जीतने के लिए इन्हें अनुबन्धित कर संसद में भेज कर बहुमत बनाने में सबसे आगे रहे हैं। हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, परेश रावल सनी देउल, से लेकर आज तक के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता, अभिनेत्रियों को चारा बना कर भीड़ जुटाने के लिए स्तेमाल करते रहे हैं। टीवी आने के बाद रामायण के कलाकार अरविन्द त्रिवेदी, दीपिका चिखलिया, दारा सिंह, किरण खेर या भोजपुरी और बंगाली फिल्मों के मनोज तिवारी, रविकिशन, रूपा गांगुली, बाबुल सुप्रियो या फिर दूसरी सर्वाधिक लोकप्रय सीरियलों में सास बहू की स्मृति ईरानी आदि को आगे करके उन्होंने इतना चुनावी लाभ उठाया है कि आज बुद्धिजीवी वर्ग में सबसे ज्यादा अलोकप्रिय सरकार को लोकप्रियता के आधार पर चुने गये सांसदों के बहुमत के सहारे वर्षों से चला रहे हैं। ये वे लोग हैं जो खुद् के विचार नहीं रखते अपितु दूसरों के लिखे डायलाग ही बोलने के आदी होते हैं, इसलिए संसद में चुप रहते हैं।
पिछले दो-एक सालों से फिल्म उद्योग में महात्वाकांक्षी किंतु वांछित सफलता पाने में असफल अभिनेता अभिनेत्रियों, व निर्माता निर्देशक गायकों संगीतकारों ने सरकार से सहयोग पाने के लिए एक गुट बना लिया है व उसके माध्यम से सफल लोगों पर भाई भतीजावाद चलाने के साथ साम्प्रदायिक विभाजन के आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं। अनुपम खेर जैसे दो एक सफल और अच्छे अभिन्नेता भी अपनी पत्नी को टिकिट मिलने और अपने लिए पद्म पुरस्कार से उपकृत होकर सरकार की वकालत करने लगे हैं। सच तो यह है कि कला के क्षेत्र में भाई भतीजावाद एकाध बार ही चल सकता है। हेमा मालिनी धर्मेन्द्र की बेटियों को एकाध फिल्म तो मिल गयी किंतु वे सफल नहीं हो सकीं। इसी तरह अमिताभ जया के पुत्र और ऐश्वर्या राय के पति अभिषेक बच्चन भी परिवार के सहारे खास कुछ नहीं कर सके।
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के सबसे ताजे उदाहरणों में सुशांत सिंह राजपूत का प्रकरण है जिनकी पिछले दिनों मृत्यु हो गयी जिसे आत्महत्या बताया गया। कोई सुसाइड नोट न मिलने और स्पष्ट कारण समझ में ना आने के कारण एक रहस्य सा बन गया। वे अच्छे कलाकार थे और सामान्य परिवार से उठकर उन्होंने युवा अवस्था में भरपूर धन कमाया जिससे उनकी एकाधिक महिला मित्र भी बनीं। वे परिवार से अपने धन और निजी जीवन को साझा नहीं करना चाहते थे इसलिए उन से दूर दूर रहने लगे थे। उनके निधन के बाद उनके वैधानिक उत्तराधिकारी उनके पिता को लगा कि उनके द्वारा कमाया गया धन उनकी कमाई से कम है तो पहले तो उन्होंने एक अनुमानित राशि को उनकी महिला मित्र द्वारा हड़प लिये जाने का आरोप लगाया और फिर सफलता के लिए बिहार सरकार का सहयोग चाहा, जो घटनाक्रम मुम्बई में घटित होने के कारण सम्भव नहीं था। बिहार में भाजपा गठबन्धन वाली सरकार है इसलिए उन्होंने उनका विशिष्ट सहयोग लेने के लिए मुस्लिम निर्माता निर्देशकों व कलाकारों पर भाई भतीजावाद चलाने व उन्हें काम न देने का आरोप लगा दिया। उन्होंने कहा कि इसी भाई भतीजावाद से निराश होने के कारण उन्होंने ऐसा कदम उठाया। ऐसा करते ही उन्हें बिहार सरकार का सहयोग मिल गया, उनकी रिपोर्ट दर्ज हो गयी व बाद में सीबीआई से जाँच की सिफारिश भेज दी गयी जो केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा मंजूर भी कर ली गयी।
सुशांत सिंह के पिता को न्याय मिलना चाहिए व अपराध की सही सही जांच भी होना चाहिए किंतु उसके लिए पूरे फिल्म उद्योग पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगा देना और उसे एक प्रकरण से जोड़ देना ठीक नहीं है। अपनी राजनीति के लिए राममन्दिर जैसा विषय उत्खनन करने वाली भाजपा से ऐसी उम्मीद अस्वाभाविक नहीं है किंतु कला के क्षेत्र के लोगों को सोचना  चाहिए कि किसी के राजनीतिक हितों के लिए फिल्मी दुनिया के सुन्दर वातावरण को विषाक्त न होने दें। दिलीप कुमार, नसरुद्दीन शाह, आमिर खान, जावेद अखतर जैसे लोग फिल्मी जगत और इस देश के कलाजगत के हीरे हैं। इन को नुकसान पहुंचाने की कोशिश देश को नुकसान पहुचाने के बराबर है। स्मरणीय है कि इसी तरह की हरकतों से हम लोगों ने पिछले दिनों एम एफ हुसैन को मौत की तरफ धकेल दिया। जिसका देश ने अभी तक प्रायश्चित नहीं किया। अब बकायदा अभियान चला कर मुस्लिम अभिनेताओं की फिल्मों का बहिष्कार करने की अपीलें की जाने लगी हैं।
वीरेन्द्र जैन
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