शनिवार, जुलाई 30, 2011

क्या राजनीतिक दलों में द्रोहकाल चल रहा है?


क्या राजनीतिक दलों में द्रोह काल चल रहा है?

वीरेन्द्र जैन

हम अपनी जनसंख्या की दम पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दम्भ भरते हैं, किंतु हमारे मुख्य धारा के राजनीतिक दलों का इन दिनों जो हाल चल रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इन दलों के आंतारिक लोकतंत्र में कमी आयी है इसलिए बाहर आकर आलोचनाएं ज्यादा होने लगी हैं। ये आलोचनाएं और उनसे जुड़ी घटनाएं बताती हैं कि अन्दर कोई आलोचनाओं को सुनने के लिए तैयार नहीं है।

मुख्य धारा के दलों में भाजपा को अपेक्षाकृत अधिक सुसंगठित और अनुशासित समझा जाता था किंतु अब कोई सा भी राज्य ऐसा नहीं बचा जहाँ उसके संगठन में आपसी मतभेद नहीं हों और वे मतभेद बाहर अकर व्यक्त न हो रहे हों। अभी हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय पदाधिकारी और कर्नाटक के प्रभारी शांता कुमार ने सार्वजनिक रूप से अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष से मार्मिक अपील करते हुए कहा था कि कृपा करके अब तो येदुरप्पा को निकालो। उनका कहना था कि येदुरप्पा के कारनामे लोकायुक्त हेगड़े अब बता रहे हैं किंतु मैं तो पहले से जानता था और पार्टी आलाकमान को इसकी सूचना दी थी। अफसोस कि मेरी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। उन्होंने तो आलाकमान से यह भी कहा था कि अगर येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करना है तो उन्हें राज्य के प्रभारी पद से मुक्त कर दिया जाये। इतना ही नहीं उन्होंने संगठन के कार्यों पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि कभी भाजपा एक अलग तरह की पार्टी के रूप में सामने आयी थी, पर बाद में यहाँ भी परिवार तंत्र ने लोकतंत्र की जगह ले ली। पार्टी पहले कार्यकर्ताओं की पार्टी हुआ करती थी, लेकिन अब हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक यह बेटे बेटियों और रिश्तेदारों की पार्टी बनती जा रही है। श्री शांता कुमार भाजपा के बहुत वरिष्ठ नेता हैं और उनका असंतोष पार्टी के अन्दर गहराई तक चलने वाली हालचल का संकेत देता है। स्मरणीय है कि कर्नाटक में भाजपा विधायक दल का बड़ा हिस्सा येदुरप्पा को हटाने के पक्ष में बार बार आलाकमान से गुहार कर चुका है और दल से बाहर चले गये विधायकों का प्रबन्धन किस साम दाम दंड भेद से किया गया वह जग जाहिर है। हिमाचल के मुख्य मंत्री रहे शांता कुमार के बयान से हिमाचल में संगठन की दशा के भी संकेत मिलते हैं। राजस्थान में वसुन्धरा राजे ने जिस राजशी हठ के साथ आलाकमान के आदेशों को ठुकराया और फिर उस हठ के आगे झुक कर उन्हीं को विपक्ष का नेता बनाना पड़ा जिससे राजस्थान में साफ साफ विभाजन हो गया है। प्रधानमंत्री पद के लिए अपने को अगला प्रत्याशी मानते हुए नरेन्द्र मोदी गुजरात को अपनी जागीर समझते हैं जहाँ उन्होंने भाजपा को मजबूत बनाया हुआ है, किंतु उनके कारण पूरे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में भाजपा की जो थू थू हुयी है, और उसे अछूत मान लिया गया है उसकी उन्हें कोई परवाह नहीं है। वे अपने आप में स्वयंभू हैं और गुजरात को एक अलग देश मानते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ की स्वतंत्र सत्ता है, संघ की ही तरह उसके दर्जनों स्वतंत्र संगठन हैं तथा भाजपा नेता उसके पास झुक कर जाते हैं। महाराष्ट्र में तो मुण्डे द्वारा पार्टी छोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रह गयी थी जिनका सारा झगड़ा राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी से ही है। उमाभारती के प्रवेश ने तो तलवारें खींच ही दी हैं जो कभी भी बाहर आ सकती हैं। सुषमास्वराज और अरुण जैटली भी कर्नाटक के मामले पर सार्वजानिक रूप से टकरा ही चुके हैं।

कांग्रेस में तो आपस में जूतम पैजार तक सार्वजनिक होती है किंतु सोनिया गान्धी का लिहाज बचा हुआ था। उनके नाम की ढाल से तलवारें म्यानों में चली जाती थीं, पर पिछले दिनों मणिशंकर अय्यर ने पूरी कांग्रेस को सरकस ही नहीं कह दिया अपितु यह भी कह दिया कि 10 जनपथ [सोनिया गान्धी का निवास] और अहमद पटेल का आवास आल इंडिया कांग्रेस कमेटी से ज्यादा पावरफुल है। कमजोर पार्टी कार्यकर्ता कांग्रेस कार्यालय के चक्कर लगाते हैं किंतु पावर वाले लोगों की पहुँच सीधे 10 जनपथ और 23 विलिंगडन क्रिसेंट तक है। यह कथन कांग्रेस की परम्परा की दृष्टि से एक बड़ा दुस्साहस है। पिछले ही दिनों जब राज्य के एक मंत्री ने श्रीमती प्रतिभा पाटिल की ओर संकेत करते हुए कह दिया था कि वे इन्दिरा गान्धी की रसोई बनाते बनाते उक्त पद पर पहुँच गयीं तो उसे त्यागपत्र ही देना पड़ा था। यह दुस्साहस कांग्रेस के अन्दर चल रही हलचल का संकेत देता है।

बिहार में रामविलास पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी दल के तीनों विधान परिषद के सदस्य जेडी[यू] में शामिल हो गये। लालू प्रसाद के जहाज को डूबता मानकर उसमें से प्रतिदिन लोग बाहर निकल रहे हैं पर पिछले दिनों उनके खासम खास शकील अहमद खान के छोड़ने का संकेत मिलते ही पार्टी महासचिव ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। वे पिछले पाँच महीनों पूर्व चुनाव के भितरघातियों पर कार्यवाही किये जाने के अपने अनुरोध पर विचार न होने से दुखी थे। डीएमके को मजबूरी में ही 86 वर्षीय करुणानिधि को अध्यक्ष बनाये रखना पड़ा है बरना उनके बेटे आपस में ही मार काट मचा देते। ए. राजा मारन को नहीं चाहते और कनुमौझी को बचाने के लिए ए राजा की बलि देने को पूरी डीएमके तैयार दिखती है। मुलायम सिंह कभी भी अमर सिंह से दूर नहीं होना चाहते थे पर उनके पूरे परिवार ने उन्हें अमर सिंह का स्तीफा मंजूर करने के लिए बाध्य कर दिया था, पर वोट के बदले नोट काण्ड ने मुलायम सिंह के मन में जो डर पैदा किया है उससे लगता है कि उनके मन से अपने भाई भतीजों का भय जाता रहा है और वे अमर सिंह के पक्ष में खड़े होकर उनसे विद्रोह करने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री का आदेश पालन न करने वाले मुकुल राय के खिलाफ ममता बनर्जी एक शब्द भी नहीं बोल सकीं हैं।

मतभेदों के बाहर आने से केवल बामपंथी दल ही बचे दिख रहे हैं, पर चुनावों में पराजय के बाद अन्दर क्या चल रहा है यह प्रतीक्षित है। लोग निगाहें लगाये बैठे हैं।

वीरेन्द्र जैन

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मंगलवार, जुलाई 19, 2011

नैतिक धरातल पर बामपंथ विजेता की तरह उभर रहा है


बामपंथ विजेता की तरह उभर रहा है

वीरेन्द्र जैन

जब पूरे देश में बामपंथ की हार पर जश्न मनाये जा रहे हों और मर्सिये पढे जा रहे हों तब ये कहना कि बामपंथ जीत रहा है एक चौंकाने वाला वाक्य हो सकता है। भले ही हमें अपनी चुनाव प्रणाली पर कितना ही अविश्वास हो, और दिन प्रति दिन उसमें सुधार के लिए भाषण दिये जाते हों पर लोकतंत्र का मतलब इसी दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली के अंतर्गत होने वाले चुनावों को मान लिया गया है और इसमें दूसरों से अधिक मत जुटाने वालों को ही हम देश की आवाज और विजेता के तात्कालिक दल के घोषणा पत्र को ही पूरे देश का मत मान कर चलने लगे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विजेताओं में से अनेक ने अपने दल के घोषणापत्र को पढा भी नहीं होता है और जो दल उन्हें टिकिट दे देता है वे उसी दल के घोषणापत्र को अपना विचार घोषित कर देते हैं। ..... किंतु सच यह है निहित स्वार्थों ने इस चुनाव प्रणाली के नाम पर एक पाखण्ड विकसित किया है और उसे ही लोकतंत्र बताया जा रहा है।

सबसे पहले दलित और आदिवासियों के नाम पर अठारह प्रतिशत आरक्षण को लें। वर्ण भेद वाले समाज में सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए इस आरक्षण का अपना महत्व है, और यह इस खुशफहमीं में कुल दस साल के लिए दिया गया था कि इस दौरान सामाजिक समरसता स्थापित हो जायेगी। सदियों से वर्णभेद वाले समाज में उम्मीद की यह अति, एक बड़ी भूल थी। ऐसा करते समय हमने इस बात को भुला दिया कि आरक्षित वर्ग के लिए की गयी इस व्यवस्था से हमारी संसदीय प्रणाली लगभग इतने ही प्रतिशत ऐसे संसद सदस्यों से बनी होगी जो सदियों से वंचित होने के कारण कमजोर समझ और इच्छा शक्ति वाले होंगे तथा कुछ निहित स्वार्थों के इशारे पर चलने को विवश होंगे। इसके परिणामस्वरूप व्यवस्था पर उन निहित स्वार्थों का नियंत्रण होगा। इस आरक्षण से दलित और वंचित समाज के हित में एक ओर हम कुछ भलाई का काम कर रहे थे तो दूसरी ओर संसद के एक हिस्से को गलत हाथों में खेलने के लिए छोड़कर कुछ नुकसान भी कर रहे थे। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि हमारे पास इस का कोई बेहतर विकल्प भी नहीं था। शांतिपूर्वक सत्ता परिवर्तन से जनचेतना में परिवर्तन नहीं आया था और लोकतंत्र आने के बाद भी समाज पर सामंती नियंत्रण यथावत था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ओर तो अनेक पूर्व राजे महराजों ने अपना पदनाम सांसद रख लिया था, दूसरी ओर आरक्षण के बहाने उन्हीं के कर्मचारी उनकी मदद के लिए तैयार बैठे थे। बाद में साम्प्रदायिकता, जातिवाद, लोकप्रियतावाद, बाहुबल, वोट के लिए घूस, दुष्प्रचार, आदि के सहारे चुनाव लड़े और जीते जाने लगे। पहले आम चुनाव में 55 सीटें जीतने वाली कम्युनिष्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल थी जो बाद में सिमटती चली गयी। सबसे पहले केरल में गैर कांग्रेसी राज्य सरकार बनाने वाली उनकी सरकार को अकारण ही भंग कर दिया गया था। एक चौथाई शतक बीत जाने के बाद कुछ मामूली से चुनाव सुधार किये जाने लगे, तो दूसरी ओर प्रणाली में उतने ही दूसरे नये छिद्र बनते गये। बहरहाल ऐसी चुनाव प्रणाली में सबसे कम दोषों को अपनाने वाले बामपंथ को अपने समर्थक मत सुरक्षित रखने के बाद भी चुनावी पराजय को झेलना पड़ा और निहित स्वार्थों से नियंत्रित मीडिया ने उसे समाप्त ही घोषित कर दिया। बिडम्बनापूर्ण यह है कि जितने प्रतिशत मत पाकर बामपंथ कुछ राज्यों में विपक्ष में है उतने प्रतिशत मत अधिकांश राज्यों के सत्तारूढ दलों को भी नहीं मिले थे। ऐसे में बामपंथ की जीत की बात करना आंख बन्द कर धारा में बहते लोगों को चौंकायेगा नहीं तो क्या करेगा!

इस देश में कई बामपंथी दल हैं जिनमें से अनेक तो इस लोकतंत्र की इस चुनाव प्रणाली के अंतर्गत चुनाव लड़ने में ही भरोसा नहीं करते और चुनाव लड़ने वालों को बामपंथी ही नहीं मानते। चुनाव लड़ने वाले दल भी चुनावों को अपनी राजनीति के केन्द्र में नहीं रखते और जन आन्दोलनों और जनसंघर्ष में ही भरोसा रखते हैं, भले ही चुनावों में भाग लेने के कारण उनके कैडर के एक हिस्से के चरित्र में कुछ गिरावट आयी हो, जिसे वे समय रहते दूर नहीं कर पाये हों। आज उग्र बामपंथ देश के 139 जिलों में सक्रिय बताया जा रहा है और प्रधानमंत्री उसे सबसे बड़ा खतरा बतला रहे हैं।

बामपंथ को विजेता मानने के पीछे कारण यह है कि पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जिससे बामपंथी नीतियां सही साबित हुयी हैं। पिछली यूपीए सरकार को न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सहमति बनने के बाद बामपंथियों का बाहर से समर्थन प्राप्त था। अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में न्यूनतम साझा कार्यक्रम की शर्तों को इकतरफा ढंग से तोड़ते हुए कांग्रेस ने अमेरीका के साथ न्यूक्लीयर डील करने का फैसला कर लिया और देश के चालीस लाख लोगों ने दो दिन तक चली बहस को ही नहीं अपितु शर्मनाक दलबदल, पक्षबदल, के साथ संसद के पटल पर दलबदल के लिए मिले एक करोड़ रुपयों का रखा जाना देखा। समाजवादी पार्टी को अचानक ही अपना रुख पलटते हुए देखा। पूरे देश ने मुख्य विपक्षी दल के सांसदों को बिकते और कार्यवाही से गायब होते देखा तथा संसद से बाहर अमरीकी पूंजी का नंगा खेल देखा। बामपंथी दलों को अपना समर्थन वापिस लेना पड़ा था और अल्पमत की कांग्रेस सरकार दबाव में आकर छोटे छोटे दलों के ब्लेकमेल की शिकार हो गयी थी। डीएमके के दबाव और टूजी का बड़ा भ्रष्टाचार इसी ब्लेकमेलिंग के कारण सम्भव हो सका। वही न्यूक्लीयर डील अब अमरीका भंग करने जा रही है। गत 24 जून को 46 राष्ट्रों की लन्दन ग्रुप आफ सप्लायर्स की बैठक में जिन नये नियमों की घोषणा की गयी है उसके अनुसार कोई भी कोई भी सदस्य राष्ट्र किसी को भी परमाणु संवर्धन और पुनर्शोधन की कोई भी टेकनीक नहीं बेचेगा जब तक कि वह् परमाणु अप्रसार सन्धि का सदस्य न हो और अपनी परमाणु भट्टियों और सुविधाओं पर पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय निगरानी लागू न कराये। बामपंथियों ने इन्हीं आशंकाओं के आधार पर परमाणु सन्धि का विरोध किया था, तथा यूपीए सरकार ने प्रस्ताव पास कराते समय औपचारिक वादा किया था कि वो ऐसी शर्तें नहीं मानेगा। अब यूपीए सरकार शर्मिंदा होने की स्तिथि में है, और बामपंथ की गरदन ऊंची है।

इसी विषय से जुड़ी संसदीय बहस के दौरान वोट के बदले नोट के मामले में कांग्रेस भाजपा और समाजवादी तीनों कटघरे में हैं और उनके कारण से वह मामला भी दबा हुआ था, किंतु उच्च अदालत ने दिल्ली पुलिस पर दबाव बनाते हुए सख्त आदेश दिया था जिससे उसे सक्रिय होना पड़ा है व अमर सिंह के निकटतम संजीव सक्सेना से पूछताछ करनी पड़ी है। सही जाँच के बाद तीनों ही दलों के वरिष्ठ नेताओं पर छींटे आयेंगे जबकि राष्ट्रीय हित में न्यूक्लीयर सन्धि को विषय बनाने वाले बामपंथी कुन्दन की तरह प्रकट हों रहे हैं।

पिछले दिनों अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने देश के जनमानस में भ्रष्टाचार के खिलाफ उफन रही जनभावनाओं को अपनी अपनी तरह से एक आकार देने का प्रयास किया था और सरकार को एक लोकपाल बिल लाने को मजबूर कर दिया। यह बिल पिछले कई दशकों से ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था। भले ही जनलोकपाल बिल और सरकारी लोकपाल बिल के बीच कुछ मतभेद चल रहे हैं पर अंततः इससे कुछ न कुछ तो ऐसा निकलेगा जिससे भ्रष्टाचारियों की नींद हराम होगी, तथा गैरबामपंथी अधिकांश दल घेरे में आयेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बामपंथ ऐसे आरोपों से अछूता होने के कारण सहज रहने वाला है इससे उसकी कमीज अलग से सफेद दिखेगी।

संसद में सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय पूरी तैयारी के साथ उठाने के बाद भी बहस में संयत रहने वाले, सदन में सर्वाधिक उपस्तिथि दर्ज कराने वाले, अपनी बात को दृढता से रखने के बाद भी सदन की गरिमा को बनाये रखने वाले, कभी सदन के गर्भग्रह में न उतरने वाले सांसदों के रूप में भी बामपंथ अपने विरोधियों के खिलाफ जीतता रहा है। सदन के अन्दर संख्या में कमजोर होने के कारण ही जनता को पेट्रोलियम उत्पादों की दरों में जो वृद्धि देखने को मिली है, वह तब नहीं हो सकी थी जब उनके सहारे सरकार चल रही थी। इससे भी उनके महत्व का पता चला है। बंगाल में उनके सत्त्ता से हटते ही सीमा पर स्थित जिलों के बारे में गोरखालेंड पर किये गये अदूरदर्शी समझौता का क्या दुष्परिणाम होगा यह जल्दी ही पता चलेगा, तब बामपंथ की राजनीतिक समझ का पता चलेगा। तस्लीमा नसरीन भी अपने बंगाल में स्वतंत्र विचरण के लिए आती ही होंगीं। तब ममता बनर्जी की विचारहीन अवसरवाद की भूलों का पता चलने वाला है।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि देश में जो कुछ भी चल रहा है उसमें गैरबामपंथी दल ही नकारात्मक चर्चा में हैं जिससे प्रचारवंचित बामपंथ का सकरात्मक पक्ष उभर रहा है व भविष्य में उभरने वाला है। यह उभार उनकी गैरचुनावी जीत होगी जिसका प्रभाव अधिक टिकाऊ होता है और जो दिन प्रति दिन बढने ही वाला है।
वीरेन्द्र जैन

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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

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आज बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस है


आज बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस है

वीरेन्द्र जैन

उन्नीस जुलाई वह तिथि है, जिसने वर्ष 1969 में न केवल राजनीति के क्षेत्र में अपितु आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र में भी अपने निशान छोड़े है, यह वह दिन था जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने संसद में अपना बहुमत बनाने के लिए वामपंथी दलों से समर्थन प्राप्त करने हेतु 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था, इस अवसर पर उन्होने कहा था कि ' भारत में निर्मित हो रहे नये सामाजिक संबंधो को सुदुढ़ करने में वित्तीय और इसके नीति निर्धारक संस्थानों पर सरकारी क्षेत्र का अधिकार और नियंत्रण बहुत महत्वपूर्ण धुरी है। किसी भी समाज के सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वित्तीय संस्थानों का संचालन बहुत केंन्द्रीय महत्व का होता है, जनता की बचत को उचित दिशा देने व उसे उत्पादक कार्यो में लगाने में बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकारण महत्वपूर्ण कदम है, सरकार का विश्वास है कि यह कदम देश के संसाधनों को प्रेरित करने व उनके ऐसे प्रभावशील विनियोजन में उपयोगी होगा, जिससे राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिलेगी।'' उनका भरोसा सही साबित हुआ था।

हमारे देश में संगठित बैकिंग उद्योग को दो शतक से अधिक हो चुके हैं। सन् 1955 तक सारे बैंक प्राइवेट हाथों में ही थे। वे या तो व्यक्तियों द्वारा स्थापित थे अथवा औद्योगिक घरानों द्वारा स्थापित थे। सेंन्ट्रल बैक ऑफ इंण्डिया टाटा का था, तो यूको बैक बिड़ला का, बैक ऑफ बड़ौदा, बालचंद हीराचंद का था और ओरियंटल बैक ऑफ कामर्स करमचंद्र थापर का इण्डियन बैक चेटियार का था, सिंडीकेट बैक पईयों का था और दूसरे भी इसी तरह थे, वे लोगों का पैसा जमा करते थे व उसे अपने कामों में लगाते थे। उनके कई काम तो बहुत नासमझी के होते थे, क्योंकि उन पर नियंत्रण के लिए कोई संस्था नही थी, जो जमाकर्ताओ के हितों की रक्षा करती। बैको के मालिक बैक में जमा धन को अपनी मर्जी के अनुसार उपयोग के लिए स्वतंत्र थे, द्वितीय विश्व युद्व के बाद में अविभाजित और विभाजित बंगाल तथा केरल में दर्जनों बैकों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया, जिससे आम जनता बैकों में पैसा करने से घबराने लगी। यही कारण था कि आजादी के बाद सन् 1949 में सरकार को बैकिंग कंपनी नियामक कानून बनाना पड़ा। यह हस्तक्षेप इसलिए अनिवार्य हो गया था क्योंकि निरतंर घटती घटनाओं ने आम आदमी के हितों पर भारी कुठाराघात किये। सन् 1951 में व्यावसायिक बैकों की संख्या 566 थी, जो 1969 में 89 पर आ चुकी थी, अठारह वर्षो में 477 बैक दृश्य से बाहर हो चुके थे। आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने असमानता दूर करने और निचले स्तर पर जीवन जीने वालों को अवसरों की समानता पर लाने का सपना देखा था। उन्हें उम्मीद थी कि बैंक इस सपने को पूरा करने में मदद करेंगे, किन्तु प्रायवेट क्षेत्र के बैकों ने इस ओर निगाह ही नही की। तब ग्रामीण बैकिंग जॉच समिति ने इम्पीरियल बैंक से ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रो में 114 नई शखाएं खोलने को कहा जो पॉच वर्ष के अंदर खुलनी थी, किन्तु 1 जुलाई 1951 से 30 जून 1955 तक कुल 63 शाखाएं ही खोली जा सकीं।

ग्रामीण क्षेत्रो में ऋणों का वितरण शून्य था, इन परिस्थितियों में अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति की सिफारिों पर 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट लागू किया गया और इम्पीरियल बैंक को स्टेट बैक ऑफ इंडिया बना दिया गया। रिजर्व बैक ने इसमें 97 प्रतित पूंजी लगायी। इसके बाद पॉच वर्षो के अंदर ही चार सौ शाखाऐ खोलने के लक्ष्य के समक्ष स्टेट बैंक ने 415 खाऐं खोल दीं। यह देखकर 1959 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (सहयोगी बैक) कानून पास किया गया जिसमें स्टेट बैक ने आठ बैकों को अपने सहयोगी बैकों का दर्जा प्रदान किया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि सन् 1955 से 1959 के बीच ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों का जन्म हुआ यह वही समय था जब बैंक ऋणों का प्रसार ग्रामीण क्षेत्र में हुआ। इसके साथ ही बैंक शाखाओं का विस्तार भी हुआ। इसी उपलब्धि के प्रका में 1968 में सरकार को बैकों के सामाजिक नियंत्रण (सोल कंट्रोल) के लिए विव होना पड़ा। बाद में 19 जुलाई 1969 को 14 बड़े बैकों के राष्ट्रीयकरण की ओर जाने का मार्ग प्रस्त करने में इसी आधार ने विपक्षियों का मुंह बंद किया था। बैकिंग कंपनी बिल (अधिग्रहण एव उपक्रम स्थानातरंण) 1969 अपने उद्देय को स्पष्ट करते हुए कहता है कि ''हमारा बैकिंग तंत्र लाखों लोगों के जीवन से जुड़ा है और इसे बडे सामाजिक उद्देयों के लिए काम करना चाहिए जिससे कृषि के तीव्र विकास, लघु उद्योग और निर्यात के साथ साथ रोजगार के अवसरों में वृद्वि तथा पिछड़े क्षेत्रों में विकास की नई गतिविधियॉ संचालित करने जैसे राष्ट्रीय प्राथमिकता के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके इस उद्दे के लिए यह आवश्यक हो गया है कि सरकार बैकों के प्रसार और कामों में विविधता की दृष्टि से इसकी सीधी जिम्मेवारी अपने हाथ में ले।

राष्ट्रीयकरण के बाद तीन दकों में हुई प्रगति के आंकडे चौकाने वाले है, जहॉ 1969 में कुल बैंक खाएं 8262 थीं वहीं आज बैंकों की ाखाओं की संख्या 70000 से अधिक है ग्रामीण क्षेत्र की शाखाओं की संख्या 1833 से बढ़कर 35000 से अधिक हो गयी है। अर्धहरी क्षेत्र की खाएं भी 3342 से बढ़कर 16000 से अधिक हो गयी है।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैकों की शाखाओं को सम्मिलित किये बिना ही शाखाओं की संख्या सात गुना बढ़ गयी है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैक को मिला लेने के बाद तो यह विकास सारी दुनिया में अनूठा है। जहॉ पहले 65000 की आबादी पर एक बैंक खा हुआ करती थी, वहॉ आज प्रत्येक 15000 की आबादी पर एक शाखा है जबकि आबादी में भी बेतरह बढोत्तरी हुई है। शाखाओं का अधिकतम विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है। इस विस्तार ने ग्रामीणजनों का भाग्य ही बदल कर रख दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर विकास के समान अवसर उपलब्ध होने से राष्ट्रीय एकता में बहुत मदद हुई है। 1969 के पूर्व जहॉ अमरीका से गेंहू आयात करना पड़ता था, वहीं आज हमारे गोदाम अनाज के भंडारों से भरे हैं। कृषि के क्षेत्र में यह विकास केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों द्वारा दिये गये बैक ऋणों की दम पर ही संभव हो सका है। सिचाई, कृषि उपकरणों और खाद के लिए दिए गए ऋण के सहारे किसानों ने पूरे दे को हरा-भरा कर दिया है। इस उपलब्धि के पीछे बैकों के राष्ट्रीयकरण की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, जो हर हालत में कुल ऋणों का 16 प्रतित कृषि के लिए देते हैं।

यद्यपि यह सच है कि बाद में बैंकों का राजनीतिक उद्देशयों के लिए दुरूपयोग किया गया एंव अव्यवहारिक प्रचारत्मक सरकारी योजनाओं में धन और श्रम शक्ति का अपव्यय हुआ, फिर भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक लाभ में रहे, बाद में नयी एकाउंटिंग व्यवस्था लागू कर दी गई, जिससे कुछ बैंको की तत्काल नुकसान दुष्टिगोचर हुआ पर एक-दो वर्ष में ही ये बैंक पुन: लाभ की स्थिति में आ गये। नई आर्थिक नीति में राष्ट्रीयकरण से विनेवेशीकरण की ओर बढा गया। 1998 से 2004 के बीच देश में दल की सरकार रही जिसने बैंको के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था, इसलिए वह इस फैसले को उलटने के लिए पूरा प्रयास कर रही थी। ब्याज की दरें निरंतर घटायी जा रही थी बैकों के बोर्डो में राजनीतिक नियुक्तियॉ की जा रही थीं। उनके कार्यो में राजनीतिक उद्देशयों के लिए अनुचित हस्तक्षेप किया जा रहा था तथा बडे औद्योगिक घरानों से वसूली के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाये गये। वर्तमान सरकार भी बैंकों के प्राइवेटीकरण की दिशा में तेजी से कदम बढा चुकी है। यदि राष्ट्रीयकरण को उलटने का फैसला किया किया गया तो यह देश के लिए और इसके जमाकर्ताओं के लिए बेहद घातक कदम होगा।

वीरेन्द्र जैन

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शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

आतंकी हमले और धर्मनिरपेक्ष समाज


आतंकी हमले और धर्मनिरपेक्ष समाज

वीरेन्द्र जैन

मुम्बई में हुए दुखद बम विस्फोटों पर संघ परिवारियों की बाछें खिल गयीं हैं, और उनके बयान वीरों ने ही नहीं अपितु इंटरनैटियों ने भी अपने अपने हिस्से की राजनीति खेलना शुरू कर दी। लाशों पर राजनीति करने वाले इन बयानबाजों ने गोयबल्स के सिद्धांत के अनुसार बहुत जोर शोर से वे कहानियां बनानी और फैलानी शुरू कर दीं जिससे जाँच या किसी स्वीकारोक्ति से पहले ही लोग एक खास गुट और वर्ग को अपराधी मानना शुरू कर दें। मालेगाँव, अजमेर, हैदराबाद,.समझौता एक्सप्रैस बगैरह के जिन मामलों में जाँच के बाद असली संदिग्ध पकड़ में आये हैं, उन मामलों में भी पहले दुष्प्रचार के कारण कतिपय कट्टरवादी आतंकी मुस्लिम संगठनों को दोषी समझा गया था और नाकारा पुलिस भी बाहरी तत्वों के सिर पर इसका ठीकरा फोड़ कर चैन करना चाहती थी। भले ही लोग मरते रहें, और आपस में कट मरें, पर आंतरिक सुरक्षा की एजेंसियां सरल लक्ष्य तलाश कर अपनी जाँचें बन्द कर देती हैं। यह प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है। यदि करकरे की लगन नहीं होती तो सारे लोग मेहनत से बचने वाली प्रैस को पहुँचा दी गयी पकी पकायी कहानी से गलत निष्कर्ष निकाल कर, साम्प्रदायिकों के उद्देश्यों को मदद पहुँचा रहे होते। पर एएसटी की जाँच ने दृष्य ही उलट दिया था।

पिछले दिनों देर शाम को मुम्बई में घटी बम विस्फोट की घटना में तुरंत केवल इतने संकेत मिले थे कि ये बम विस्फोट उसी तरह की आई ई डेवाइस से किये गये हैं जैसे पिछले वर्षों में हुये थे जिनमें इंडियन मुजाहिदीन का हाथ पाया गया था, किंतु घटना की कुछ ही घंटों के अन्दर भोपाल में बैठे मध्यप्रदेश के भाजपा पदाधिकारी इस तरह से बयान दे रहे थे जैसे कि किसी अदालत ने फैसला सुना कर किसी को दोषी साबित कर दिया हो। उनके संकेत मिलते ही संघ परिवार के प्रचार से जुड़ी सारी एजेंसियां इसी काम में जुट गयी थीं। आतंकी घटनाएं अनजान और अज्ञात लोगों को मारने की दृष्टि से नहीं की जाती हैं अपितु इनका उद्देश्य समाज में डर और अविश्वास पैदा करके पहले से पैदा कर दिये गये मनमुटाव को दंगों में बदल देने का होता है। जाँच से पूर्व ही एक आतंकी गुट और वर्ग को नामित करके जोर शोर से उसके विरुद्ध जुट जाने वाले आतंकियों के काम में मदद कर रहे होते हैं।

अनुभवी पत्रकार रहे मध्यप्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने तुरंत बयान दिया कि बुधवार को कसाव का जन्मदिन है इसलिए आतंकियों ने उसे ये बर्थडे गिफ्ट दी है। कसाव और अफजल गुरू को सजा होने के बाद भी आजतक फांसी पर नहीं लटकाया गया इससे आतंकियों के हौसले बुलन्द हैं। मुम्बई में बम धमाकों की घटना इसी का नतीजा है। कहना न होगा कि उन्होंने योजनाबद्ध ढंग से माहौल बनाना और जाँच से पहले ही निष्कर्ष थोपना शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप प्रैस ने भी उसी लीक पर दौड़ना शुरू कर दिया। इंडियन मुजाहदीन भी एक धार्मिक कट्टरतावादी आतंकी संगठन है और उसके भी हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता, किंतु आतंकी संगठन अपना दबदबा बनाने के लिए घटना के बाद अपना दावा भी कर देते हैं। बिना किसी दावे और जाँच निष्कर्ष के जोर शोर से एक संगठन विशेष को इंगित कर देने से जाँच की दिशा भटक भी सकती है और असली अपराधी को लाभ मिल सकता है। यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि कसाव का जन्मदिन 13 जुलाई नहीं अपितु 13 सितम्बर को पड़ता है, किंतु राजनीतिक दुष्प्रचारकों ने विकीपेडिया पर दो बार उसकी जन्मतिथि बदल कर उसे 13 जुलाई करने का प्रयास किया। इससे संकेत मिलता है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण अमानवीय घटना से लाभ उठाने के इरादे किसके हैं।

आतकियों का लक्ष्य चन्द जानें लेना नहीं होता है अपितु इससे वे पूरे समाज के बीच डर और टकराव पैदा करना चाहते हैं, यदि लोग डरना और आपस में अविश्वास करना छोड़ देते हैं तो कुछ अनजान लोगों को मारकर, जिनमें किसी भी समुदाय के सदस्य हो सकते हैं, उनका लक्ष्य पूरा नहीं होता। मुम्बई वालों ने एक बार फिर संकेत दिया है कि वे आतंकियों के मंसूबों को पूरा नहीं होने देंगे।

इस अवसर पर सत्तारूढ दल के नेताओं के बयान बेढंगे, बेडौल, बेहूदे रहे। भले ही इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस इतने बड़े बहुसंस्कृतियों वाले विकासशील लोकतांत्रिक देश में अकेले पुलिस के सहारे ऐसी आतंकी घटनाओं का स्थायी तौर पर रोकना कभी भी सम्भव नहीं हो सकता फिर भी उसके आगे हार भी स्वीकार नहीं की जा सकती। आपत्ति काल में तात्कालिक मरहम की जरूरत होती है न कि विश्लेषण की। सच तो यह है कि कट्टरता किसी भी किस्म की हो वह खतरनाक होती है और एक धार्मिक कट्टरता का जबाब दूसरी धार्मिक कट्टरता से नहीं दिया जा सकता अपितु उसका जबाब होता है एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष समाज। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ यह समाज कमजोर है और इस पर हर तरह की कट्टरता के हमले होते रहते हैं। जिस दिन धर्मनिरपेक्ष समाज मजबूत हो जायेगा उस दिन आतंकियों को ऐसी घटनाओं का लाभ नहीं मिलने के कारण ये हमले बन्द हो जायेंगे। इसके विपरीत जब तक कट्टरवादी धार्मिक समाज फलते फूलते रहेंगे तब तक आतंकी हमलों को रोकना कठिन रहेगा।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मोबाइल 9425674629

रविवार, जुलाई 10, 2011

धार्मिक संस्थाओं के खजाने का उपयोग


धार्मिक संस्थाओं के खजानों का उपयोग

वीरेन्द्र जैन

धन, जिसकी मुद्राओं, मूल्यवान धातुओं, और प्रकृति से प्राप्त हीरे मोती रत्नों आदि के रूप में रखे जाने की विश्वव्यापी परम्परा है, आखिर क्या होता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह श्रम के मूल्य का हस्तांतरणीय [ट्रांसफरेबिल] प्रमाण पत्र है जो अपनी जरूरत और सुविधानुसार उपयोग करने के लिए मुद्राओं आदि के रूप में जारी किया जाता है। जब यह उसके उचित पात्र तक नहीं पहुँचता है तो वह संचय हो जाता है और पूंजी का निर्माण करता है। इस का कुछ भाग धर्मस्थलों को अर्पित करके संचयी द्वारा अपने अपराधबोध से मुक्ति पाने का प्रयास किया जाता है। जब यह धन उन धर्मस्थलों के व्यय या उसके व्यय की भावी योजनाओं से भी अधिक हो जाता है तो वह वहाँ भी संचय किया जाने लगता है। पुराने समय में आम तौर पर इन स्थलों के प्रति एक अदृष्य भय होने के कारण उस धर्म से जुड़े लोग उसे चुराने या लूटने की कोशिश नहीं करते थे किंतु दूसरे धर्म वाले ऐसे भय से मुक्त होते थे इसलिए धर्मस्थलों में चोरी डकैती और लूट करते रहते थे। अब इतिहास ने सिद्ध कर दिया है कि धर्मस्थलों पर जो हमले होते रहे हैं उन हमलों के कारणों में धार्मिक असहमतियां न होकर धन को लूटने का लालच ही प्रमुख रहा है। जिन राजाओं पर धर्मस्थल तोड़ने के आरोप हैं उन्हीं के द्वारा उसी धर्म के पूजा स्थलों को स्थायी सहायता देने के भी प्रमाण हैं। कई धर्मस्थलों की मूर्तियों और कंगूरों आदि में हीरे मोती छुपा कर रखे जाने के भ्रम में लुटेरों द्वारा उन मूर्तियों और कंगूरों को भी तोड़ कर देखे जाने के उदाहरण मिलते हैं। एक पुराने महल की छज्जों में लगे खम्भों की एक हजार से अधिक मुठियाएं टूटी हुयी देखी गयी हैं जबकि उनका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं था। बताया गया है कि ये टूटफूट इसी भ्रम का परिणाम था।

धर्मस्थलों को दिया गया दान उसके उपयोग के लिए ही चढाया जाता रहा है और राजतंत्र में उस पर उसी धर्मस्थल व उसके पदाधिकारियों का हक होता रहा है, किंतु जब उस धर्मस्थल की आवश्यकता से अधिक धन संचय हो जाये तो उसका क्या उपयोग हो इस बारे में कोई नियम नहीं मिलते। ऐसा इसलिए है कि प्रत्येक धर्म ने अपनी आवश्यकता से अधिक पूंजी संचय को पाप माना है और उसका विरोध किया है। धन का यह संग्रह धर्म विरोधी कर्म माना जाता रहा है तथा धार्मिक कथाओं के नायकों ने हमेशा ही धन और राज्य के प्रति निर्लिप्तता दिखायी है। भारतीय संस्कृति में महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, शिव आदि जितने भी पौराणिक या ऎतिहासिक नायक हुए हैं सब के जीवन के वे ही भाग स्तुत्य माने गये हैं जिनमें त्याग छुपा है। इसी त्याग से जो विमुख हुआ है उसे पद प्रहार से लेकर अनेक आक्षेप झेलने पड़े हैं, जिसे उन्होंने सिर झुका कर स्वीकार किये हैं। धर्मस्थलों को जो दान दिये जाते रहे हैं वे उन्हें आर्थिक रूप से सम्पन्न बना कर धन जोड़ने के लिए नहीं दिये जाते रहे हैं अपितु त्याग के सन्देश का प्रसार करने हेतु अधिक सक्षम बनाने के लिए दिये जाते रहे हैं। ये बाद की विकृत्तियां हैं जिनमें धर्मस्थलों को दिये गये दान का संचय किया जाने लगा। इसी संचय ने बाद में धर्मस्थलों में अधार्मिक बुराइयों को पैदा किया जिसका नमूना आज के वे सैकड़ों संस्थानों में देखने को मिल रहे हैं जिनमें अनापशनाप ढंग से धन का संचय हो गया है। हमारे भक्त कवियों ने कहा है-

पानी बाढो नाव में, घर में बाढे दाम

दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानों काम

जब वे आम गृहस्थ को यह सन्देश दे रहे हैं कि ये धन बढ कर तुम्हारी जीवन रूपी नाव को डुबो देगा, इसलिए इसे घर से बाहर निकालते रहना चाहिए, तो वे धर्मस्थलों में धन के संचय के पक्ष में कैसे हो सकते हैं! यह कितना बड़ा सच है कि जिन धर्मस्थलों में धन बढ रहा है वह उन धर्मस्थलों को डुबोने का ही काम कर रहा है।

महात्मा गान्धी के नेतृत्व में अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिलने के पूर्व दुनिया में जहाँ जहाँ सत्ता परिवर्तन हुआ है वह हिंसक ही हुआ है। या तो नये शासकों ने पिछले शासकों के सिर कलम कर दिये हैं या उन्हें जेल में डाल दिया है। उसके बाद राज्य और राज्य की कुल सम्पत्ति और साधनों पर नये शासकों का अधिकार हो गया। किंतु हमारे यहाँ न केवल हाथ मिला कर सत्ता परिवर्तन हुआ अपितु जिन राजे रजवाड़ों के द्वारा अंग्रेज अपना शासन चला रहे थे उन रजवाड़ों के पास उनके महल, वाहन और सम्पत्तियां यथावत बनी रहीं। इतना ही नहीं आजादी के एक लम्बे समय बाद तक उनको प्रिवी पर्स के रूप में मोटी रकम दी जाती रही व उन्हें आम नागरिकों की तुलना में विशेष अधिकार प्राप्त रहे। सम्पूर्ण आजादी के बाद स्थापित लोकतंत्र की सफलता के लिए यह जरूरी था कि सारे नागरिक समान हों और सामंती काल के रजवाड़ों के पास संचयित राज्य की सम्पत्ति पर देश के नये गणतांत्रिक शासन का अधिकार हो। इस सम्पत्ति में रजवाड़ों से जुड़े धर्मस्थल और उनकी सम्पत्ति भी सम्मिलित होगी। यदि यह सम्पत्ति गणतांत्रिक राज्य के पास नहीं जायेगी तो निश्चित रूप से निहित स्वार्थ इसका दुरुपयोग करेंगे। धर्मस्थलों के पास उतनी ही सम्पत्ति होनी चाहिए जितने से उनकी जरूरतें पूरी होती रहें। उन्हें जब भी अतिरिक्त जरूरत होगी तो उनके आस्थावान भक्त उसे पूरी करने में कभी भी देर नहीं करेंगे, इसलिए इसके कारण से उन पर कोई भी संकट नहीं आयेगा। धर्मस्थल और धार्मिक संस्थानों के धन से छोटे छोटे बाँध बनाये जा सकते हैं नये नये जलाशय बनाये जा सकते हैं, वृक्षारोपण करके स्मृति वन विकसित किये जा सकते हैं, पवित्र सदानीरा नदियों को स्वच्छ रखने की योजनाओं को पूरा किया जा सकता है, प्रकृति का विनाश रोका जा सकता है।

धर्म केवल पूजा पाठ ही नहीं होता अपितु अधिक से अधिक प्रकृति के निकट जाना भी होता है। ब्रेख्त ने कहा है कि सुन्दरता संसार को बचायेगी। जरूरी है कि संसार को असुन्दर बनाये जाने के प्रयासों पर रोक लगा कर न केवल उसकी सुन्दरता को बचाया जाये अपितु उसे और अधिक सुन्दर और प्राकृतिक बनाये रखने के प्रयास किये जायें। जब धर्म प्रक्रति से जुड़ता है तो साम्प्रदायिक होने से बचता है। शायर सीताराम कटारिया साबिर लिखते हैं-

पहले धूप हवा को बांटो

उसके बाद खुदा को बांटो

जब हम क्षिति, जल, पावक, गगन, और समीर से जुड़ेंगे तब ही हम एक जीवंत संसार को बचा पाने में सफल होंगे। इसलिए जरूरी है कि या तो सारे धर्मस्थल स्वयं ही अपने संचयित धन से प्रकृति को समृद्ध करने के पुनीत काम में जुट जायें या सुप्रीम कोर्ट इस धन को इन कामों में उपयोग करने के लिए सेवानिवृत्त समाजसेवी न्यायधीशों और प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्त वरिष्ठ सचरित्र अधिकारियों की समिति गठित करके उक्त प्रकृति व पर्यावरण हितैषी काम के लिए नियुक्त करे। धर्मस्थलों के पास संचयित धन का यही सर्वोत्तम उपयोग हो सकता है।

वीरेन्द्र जैन

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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629

शनिवार, जुलाई 09, 2011

देहली वैली - हिन्दी फिल्म उद्योग और राजनीति पर तेज प्रहार

देहली वैली- हिन्दी फिल्म उद्योग और राजनीति पर तेज प्रहार

वीरेन्द्र जैन

किसी फिल्म पुरस्कार समारोह में आमिर खान ने बरसात फिल्म के गाने पर अभिनय करके राज कपूर को जीवंत कर दिया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आमिर खान इस युग के राज कपूर हैं जो समकालीन विषयों पर यथार्थवादी, मनोरंजक, और राजनीतिक सामाजिक विसंगतियों पर तेज प्रहार करने वाली फिल्में बनाते हैं। इन फिल्मों में अंतर्निहित व्यंग्य बिना किसी मुखर नारे के समाजिक यथार्थ के ऐसे दृष्य बिम्ब सामने लाता है जो हमको समाज के प्रति बढती उदासीनता के कारण उपेक्षित होते जा रहे विषयों पर विचार करने के लिए विवश कर देते हैं। खेद है कि इस फिल्म में पात्रों द्वारा प्रयुक्त गालियों से विचलित अनेक समीक्षक फिल्म के मूल विषय, उसके सन्देश और प्रभाव की उपेक्षा कर गये।

फिल्म का नाम देहली वैली है। कश्मीर वैली[घाटी] शब्द हमारे समाचार माध्यमों में इतना अधिक आया है कि वैली शब्द से ही एक ऐसे क्षेत्र की ध्वनि निकलती है जहाँ पिछले कई दशकों से क्षेत्र के निवासियों का एक वर्ग अलगाववादी हिंसक आन्दोलन चला रहा है, जिसके प्रति पूरा देश चिंतित है। देहली वैली[घाटी] नहीं है, किंतु असामाजिक तत्वों के काम, उनकी स्वतंत्र सत्ता, उनके उत्पीड़न, आदि इसे एक वैली ही बना देते हैं, जिसके प्रति एक दिशाहीन असंतोष मौजूद रहता है। देहली के राजधानी होने के कारण इसकी दशा पूरे देश की दशा का प्रतिनिधित्व करती है। फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसे केवल देहली शहर की फिल्म बताता हो, इस के जैसे कोलकता, मुम्बई और दूसरे साठ बड़े शहर भी हो सकते हैं। पुराने शहर के वही पुराने जर्जर मकान, तथा वैसे ही मकान मालिक, झरते चूने की दीवारें, शौचालय जीने, और जिन्दा रहने के लिए दिन प्रतिदिन झूझते निम्न मध्यमवर्गीय किरायेदार, उनके घिसटते पुराने वाहन, भी सभी जगह हैं। कलाएं ऐसे प्रतीक चुनती हैं जिससे किसी एक चावल को परख कर पूरी हंड़िया का पता चल सके। संघर्ष के कई रूप होते हैं, जिनमें से जीवन संघर्ष भी एक है।

आम हिन्दी फिल्मों की करीने से सजी साफ सुथरी गरीबी से अलग आमिर की फिल्में शायद पहली बार सच्चे मध्यम वर्ग को केन्द्र में रख कर बनायी जा रही हैं, और उसमें यथार्थ जगत से ही चुनकर ऐसे रोचक प्रसंग जोड़े जाते हैं कि फिल्म व्यावसायिक स्तर पर भी दूसरी सफल फिल्मों को पीछे छोड़ देती है। दर्शक इन फिल्मों में अपना घर परिवेश और खुद को देख कर इसी तरह हँसता है जैसे होली खेल कर आने के बाद हम आप आइने में अपनी शक्ल देख कर हँसते रहे हैं। व्यंग्य का एक सजग पाठक और छोटा मोटा लेखक होने के कारण मैं जानता हूं कि व्यंग्य की धार तेज करने के लिए उसमें अतिरंजना डालना पड़ती है। वह अतिरंजना उस मूल प्रवृत्ति को बहुत साफ साफ रेखांकित कर देती है जिस पर व्यंग्य किया जा रहा हो। यह वैसा ही है जैसे हम अपने लेखन में कुछ पंक्तियों को बोल्ड कर देते हैं।

एक पत्रकार, एक प्रैस फोटोग्राफर, और एक व्यावसायिक कार्टूनिस्ट एक साथ रहते हैं, और हास्टल के छात्रों की तरह एक साथ रहने, खाने पीने, आलस करने व अपना काम एक दूसरे पर टालने, आपस में गाली गलौज करते करते साथ जीवन गुजार रहे हैं, क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इस तरह के रहन सहन में वह बनावट नहीं होती, जिसे तथाकथित सभ्यता कहा जाता है। जिनसे आप अपनी सभ्यता की उम्मीद करते हैं, पहले उन्हें अपने जैसे संसाधन तो उपलब्ध कराइए। यह अ-सभ्यता जब रहन सहन में है तो भाषा और व्यवहार में होगी ही होगी। फिल्म में पात्रों द्वारा प्रयुक्त गालियां उनके रहन सहन के साथ इतनी एकाकार हैं कि उनके मुँह से अस्वाभाविक और यौनिक नहीं लगतीं। आमिर की फिल्मों से पहले बोलचाल की यह स्वाभाविकता तो बड़े बड़े नामी यथार्थवादी हिन्दी फिल्म निर्माता भी नहीं ला सके थे। परोक्ष में यह फिल्म व्यावसायिक फिल्म निर्माताओं पर वैसा ही कटाक्ष भी है जैसा कि पीपली लाइव में विजुअल मीडिया पर किया गया है। फिल्म की ग्लैमर केन्द्रित हीरोइन के नाज नखरे, फूहड़ स्वर में बेहूदे ढंग से गाने की कोशिश, अपने चित्रों को पत्रकारों को जबरदस्ती देना, नकली ढंग से शरमाते शरमाते अपनी मेक-अप करने वाली के इशारे पर गा कर दिखाना उस फिल्म जगत पर कटाक्ष है। समाज में अपसंस्कृति का फैलाव ऐसा हो गया है कि वही फूहड़ गाना एल्बम के रूप में सामने आकर एक महिला फिल्म पत्रकार की अच्छी कमाई करा देता है किंतु इस फिल्म के दर्शकों को संगीत के आनन्द की जगह हँसी आती है। दूसरी ओर परम्परागत संगीत की कक्षाएं ऐसे जर्जर भवन में चल रही हैं जहाँ नर्तकी के पाँव की धमक से फर्श नीचे चला जाता है व उसका पाँव शास्त्रीय कलाओं की तरह अधर में लटक जाता है जो न नीचे जा रहा होता है और न ऊपर आ रहा होता है।

फिल्म में बाजारू खाने की गन्दगी से उपजे पेट के रोगों, पानी की कमी और डिब्बा बन्द जूसों का आधिक्य आदि की दशा बताने के लिए इतनी बार शौचालय प्रसंग लाये गये हैं कि आम दर्शक घिना सकता है पर दूसरी ओर यही घृणास्पद स्थितियां एक बड़े समाज का यथार्थ भी हैं जिन्हें हम चाहे अनचाहे झेल रहे हैं। फिल्म में कानून व्यवस्था की खराब हालत, लोगों का पुलिस के पास जाने से बचना, अपराधियों का इस तरह व्यवहार करना जैसे कि उन्हें किसी से कोई भय ही नहीं है, असीमित समय तक बेबकूफ प्रबन्धक के नीचे काम करने वाले कार्टूनिस्ट की मजबूरी, फोटोग्राफर को मकान किराया चुकाने के लिए ब्लेकमेलिंग के लिए विवश होना तथा पत्रकार को बेहद निजी क्षणों में भी काम पर जाने की गुलामी को भी दर्शा कर असंगठित क्षेत्र में चल रहे शोषण की ओर संकेत किये गये हैं। कुल मिला कर यह चाशनी में मिला कर दी गयी कढुवी औषधि है। जो चाशनी के स्वाद में अटक कर रह गये हैं उन्हें भी इसमें छुपी दवा असर करेगी क्योंकि हम दूसरों पर हँसते समय यह तय कर लेते हैं कि हमें ऐसा कुछ नहीं करना है जिससे हम पर कोई हँस सके। जो लोग भी इसका विरोध कर रहे हैं वे दर्शकों का ध्यान खींच कर परोक्ष में निर्माता की व्यावसायिक मदद ही कर रहे हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि इस फिल्म के साथ रिलीज अमिताभ बच्चन की फिल्म बुड्ढा होगा तेरा बाप पीछे छूट गयी जबकि इसके विज्ञापन में अमिताभ को सबका बाप बताया जा रहा था।

वीरेन्द्र जैन

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