क्या राजनीतिक दलों में द्रोह काल चल रहा है?
वीरेन्द्र जैन
हम अपनी जनसंख्या की दम पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दम्भ भरते हैं, किंतु हमारे मुख्य धारा के राजनीतिक दलों का इन दिनों जो हाल चल रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इन दलों के आंतारिक लोकतंत्र में कमी आयी है इसलिए बाहर आकर आलोचनाएं ज्यादा होने लगी हैं। ये आलोचनाएं और उनसे जुड़ी घटनाएं बताती हैं कि अन्दर कोई आलोचनाओं को सुनने के लिए तैयार नहीं है।
मुख्य धारा के दलों में भाजपा को अपेक्षाकृत अधिक सुसंगठित और अनुशासित समझा जाता था किंतु अब कोई सा भी राज्य ऐसा नहीं बचा जहाँ उसके संगठन में आपसी मतभेद नहीं हों और वे मतभेद बाहर अकर व्यक्त न हो रहे हों। अभी हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय पदाधिकारी और कर्नाटक के प्रभारी शांता कुमार ने सार्वजनिक रूप से अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष से मार्मिक अपील करते हुए कहा था कि कृपा करके अब तो येदुरप्पा को निकालो। उनका कहना था कि येदुरप्पा के कारनामे लोकायुक्त हेगड़े अब बता रहे हैं किंतु मैं तो पहले से जानता था और पार्टी आलाकमान को इसकी सूचना दी थी। अफसोस कि मेरी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। उन्होंने तो आलाकमान से यह भी कहा था कि अगर येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करना है तो उन्हें राज्य के प्रभारी पद से मुक्त कर दिया जाये। इतना ही नहीं उन्होंने संगठन के कार्यों पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि कभी भाजपा एक अलग तरह की पार्टी के रूप में सामने आयी थी, पर बाद में यहाँ भी परिवार तंत्र ने लोकतंत्र की जगह ले ली। पार्टी पहले कार्यकर्ताओं की पार्टी हुआ करती थी, लेकिन अब हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक यह बेटे बेटियों और रिश्तेदारों की पार्टी बनती जा रही है। श्री शांता कुमार भाजपा के बहुत वरिष्ठ नेता हैं और उनका असंतोष पार्टी के अन्दर गहराई तक चलने वाली हालचल का संकेत देता है। स्मरणीय है कि कर्नाटक में भाजपा विधायक दल का बड़ा हिस्सा येदुरप्पा को हटाने के पक्ष में बार बार आलाकमान से गुहार कर चुका है और दल से बाहर चले गये विधायकों का प्रबन्धन किस साम दाम दंड भेद से किया गया वह जग जाहिर है। हिमाचल के मुख्य मंत्री रहे शांता कुमार के बयान से हिमाचल में संगठन की दशा के भी संकेत मिलते हैं। राजस्थान में वसुन्धरा राजे ने जिस राजशी हठ के साथ आलाकमान के आदेशों को ठुकराया और फिर उस हठ के आगे झुक कर उन्हीं को विपक्ष का नेता बनाना पड़ा जिससे राजस्थान में साफ साफ विभाजन हो गया है। प्रधानमंत्री पद के लिए अपने को अगला प्रत्याशी मानते हुए नरेन्द्र मोदी गुजरात को अपनी जागीर समझते हैं जहाँ उन्होंने भाजपा को मजबूत बनाया हुआ है, किंतु उनके कारण पूरे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में भाजपा की जो थू थू हुयी है, और उसे अछूत मान लिया गया है उसकी उन्हें कोई परवाह नहीं है। वे अपने आप में स्वयंभू हैं और गुजरात को एक अलग देश मानते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ की स्वतंत्र सत्ता है, संघ की ही तरह उसके दर्जनों स्वतंत्र संगठन हैं तथा भाजपा नेता उसके पास झुक कर जाते हैं। महाराष्ट्र में तो मुण्डे द्वारा पार्टी छोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रह गयी थी जिनका सारा झगड़ा राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी से ही है। उमाभारती के प्रवेश ने तो तलवारें खींच ही दी हैं जो कभी भी बाहर आ सकती हैं। सुषमास्वराज और अरुण जैटली भी कर्नाटक के मामले पर सार्वजानिक रूप से टकरा ही चुके हैं।
कांग्रेस में तो आपस में जूतम पैजार तक सार्वजनिक होती है किंतु सोनिया गान्धी का लिहाज बचा हुआ था। उनके नाम की ढाल से तलवारें म्यानों में चली जाती थीं, पर पिछले दिनों मणिशंकर अय्यर ने पूरी कांग्रेस को सरकस ही नहीं कह दिया अपितु यह भी कह दिया कि 10 जनपथ [सोनिया गान्धी का निवास] और अहमद पटेल का आवास आल इंडिया कांग्रेस कमेटी से ज्यादा पावरफुल है। कमजोर पार्टी कार्यकर्ता कांग्रेस कार्यालय के चक्कर लगाते हैं किंतु पावर वाले लोगों की पहुँच सीधे 10 जनपथ और 23 विलिंगडन क्रिसेंट तक है। यह कथन कांग्रेस की परम्परा की दृष्टि से एक बड़ा दुस्साहस है। पिछले ही दिनों जब राज्य के एक मंत्री ने श्रीमती प्रतिभा पाटिल की ओर संकेत करते हुए कह दिया था कि वे इन्दिरा गान्धी की रसोई बनाते बनाते उक्त पद पर पहुँच गयीं तो उसे त्यागपत्र ही देना पड़ा था। यह दुस्साहस कांग्रेस के अन्दर चल रही हलचल का संकेत देता है।
बिहार में रामविलास पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी दल के तीनों विधान परिषद के सदस्य जेडी[यू] में शामिल हो गये। लालू प्रसाद के जहाज को डूबता मानकर उसमें से प्रतिदिन लोग बाहर निकल रहे हैं पर पिछले दिनों उनके खासम खास शकील अहमद खान के छोड़ने का संकेत मिलते ही पार्टी महासचिव ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। वे पिछले पाँच महीनों पूर्व चुनाव के भितरघातियों पर कार्यवाही किये जाने के अपने अनुरोध पर विचार न होने से दुखी थे। डीएमके को मजबूरी में ही 86 वर्षीय करुणानिधि को अध्यक्ष बनाये रखना पड़ा है बरना उनके बेटे आपस में ही मार काट मचा देते। ए. राजा मारन को नहीं चाहते और कनुमौझी को बचाने के लिए ए राजा की बलि देने को पूरी डीएमके तैयार दिखती है। मुलायम सिंह कभी भी अमर सिंह से दूर नहीं होना चाहते थे पर उनके पूरे परिवार ने उन्हें अमर सिंह का स्तीफा मंजूर करने के लिए बाध्य कर दिया था, पर वोट के बदले नोट काण्ड ने मुलायम सिंह के मन में जो डर पैदा किया है उससे लगता है कि उनके मन से अपने भाई भतीजों का भय जाता रहा है और वे अमर सिंह के पक्ष में खड़े होकर उनसे विद्रोह करने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री का आदेश पालन न करने वाले मुकुल राय के खिलाफ ममता बनर्जी एक शब्द भी नहीं बोल सकीं हैं।
मतभेदों के बाहर आने से केवल बामपंथी दल ही बचे दिख रहे हैं, पर चुनावों में पराजय के बाद अन्दर क्या चल रहा है यह प्रतीक्षित है। लोग निगाहें लगाये बैठे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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सब एक जैसे है, कोई दूध का धूला नहीं है।
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