शनिवार, दिसंबर 31, 2011

दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर और् शिक्षा माफिया,


राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर, और शिक्षामाफिया
                                                               वीरेन्द्र जैन
      कोई भी भारतीय नागरिक देश में चुनाव आयोग के पास  पंजीकृत डेढ हजार दलों में से [कैडर आधारित एक बामपंथी दल को छोड़ कर] किसी भी दल की सदस्यता सरलता पूर्वक ग्रहण कर सकता है और शायद ही किसी दल ने सदस्यता के लिए आवेदन करने वाले नागरिक को साधारण सदस्य बनाने से इंकार किया हो। जो दल साम्प्रदायिक समझे जाते हैं वे भी दूसरे समुदाय के सदस्य मिलने पर अपने ऊपर लगे दाग को धोने का नमूना बनाते हुए उसे खुशी खुशी सदस्यता देते हैं, और अन्यथा न जीतने की सम्भावना वाली सीटों से टिकिट भी देते हैं।
      पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने स्वच्छ चुनाव कराने की दृष्टि से कुछ  नियमों का पालन करना अनिवार्य तो किया है पर दलों पर ऐसी कोई आचार संहिता लागू नहीं की गयी है जिससे वे हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों के अनुसार ही आचरण कर के एक आदर्श लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करें। आज हमारे अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल अनेकानेक विकृत्तियों के शिकार हैं और ऎन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने व उसका दुरुपयोग करने का प्रयास करने वालों के गिरोह बन गये हैं। किसी दल का व्यय कैसे चलता है इसकी जानकारी ना तो चुनाव आयोग को होती है और ना ही यह जानकारी सार्वजनिक  होती है। आज जब चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी सम्पत्ति घोषित करना और चुनाव खर्च का दैनिक अडिट होना अनिवार्य कर दिया गया है तो उन उम्मीदवारों को टिकिट देने वाले राजनीतिक दलों के आय व्यय को गोपनीय क्यों रहना चाहिए। जो दल देश के शासक बन सकते हैं उन्हें पारदर्शी होना चाहिए।
      किसी उद्योग द्वारा किसी दल को चन्दा देना कहाँ तक उचित है? यह काम अगर कोई व्यक्ति करता है तो एक मतदाता के रूप में यह उसकी व्यक्तिगत पसन्दगी नापसन्दगी का सवाल होता है किंतु प्रतिष्ठान के रूप में किसी कम्पनी द्वारा किसी दल को चन्दा देने का सीधा सीधा मतलब होता है कि वह एक अनुचित पक्षधरता की चाह में दी गयी रिश्वत है, ताकि सरकार बनने की स्तिथि में उक्त दल उनका मददगार हो। ऐसा होता भी है। रोचक यह है कि एक ही औद्योगिक संस्थान एक से अधिक दलों को चुनावी चन्दा देते हैं जो निश्चित रूप से चुनावी चन्दा नहीं हो सकता क्योंकि एक वोट देने की क्षमता रखने वाला कोई व्यक्ति या कम्पनी का निदेशक भिन्न विचारधारा वाले एक से अधिक दलों में विश्वास कैसे व्यक्त कर सकता है। यह परोक्ष में एक व्यापारिक सौदेबाजी ही होती है। नीरा राडिया के टेप्स और जनार्दन रेड्डी द्वारा अपनी जेब का मुख्य मंत्री बनवाने के बाद वैसे ही प्रधानमंत्री बनवाने का सपना देखने की खबरें इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह बात आज पूरा देश जानता है कि भूमाफिया. खननमाफिया, बिल्डर, शिक्षामाफिया, शासकीय सप्लायर, ठेकेदार, आयातक निर्यातक, उद्योगापति आदि ही सरकारें बनवाने में भूमिकाएं निभा रहे हैं अपने पक्ष में नीतियां बनवा रहे हैं। मंत्री और जनप्रतिनिधि इनसे घिरे रहते हैं तथा उनके दस्तखत किये हुए खाली लैटरहैड उनके ब्रीफकेस में पड़े रहते हैं।
      आम तौर पर दल अपने सिद्धांत और घोषणाएं कुछ और बताते हैं तथा चुनाव के बाद आचरण कुछ और करते हैं। जब कोई छोटी मोटी चीज बेचने वाला अपने पैकिट पर  लिखी सामग्री से कुछ भिन्न बेचती पाया जाता है तो अपराधी माना जाता है किंतु पूरे देश की जनता को धोखा देने वाला किसी कानून के अंतर्गत नहीं आता। चुनाव आयोग के पास दलों को अपने चुनावी लाभ के लिए अपने घोषित सिद्धांतों से विचलित होने को रोकने के कोई अधिकार नहीं हैं और न ही इसके लिए ऐसी ही कोई अन्य संस्था या विभाग कार्यरत है। कुछ दलों को छोड़ कर अधिकतर दल किसी नेता की अपनी महात्वाकांक्षा, उसके जातीय, क्षेत्रीय सम्पर्क या गैर राजनैतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को भुनाने के उद्देश्य से बना लिए जाते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है कि चुनाव आयोग में पंजीकृत कराते समय उसके कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर आयोग द्वारा उससे पूछा जाये कि जब उसके दल के घोषणा पत्र में वे ही सारे विन्दु हैं जो पहले से पंजीकृत दूसरे दल में भी हैं तो वह उस दल के साथ मिलकर काम क्यों नहीं कर सकता! बहुत सारे छोटे दल दूसरे बड़े दलों को चुनावी नुकसान पहुँचाने अर्थात लोकतंत्र की भावना को विचलित करने के लिए बना लिये जाते हैं, जिन्हें परोक्ष में उनके विपक्षी मदद कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर सारी कवायद लोकतंत्र के नाम पर शासन को कुछ निहित स्वार्थों तक केन्द्रित कर देने के लिए होती है। यह बात पहले कभी दबी छुपी रहती थी पर अब जग जाहिर हो चुकी है। किसी भी व्यवस्था में अगर समय रहते सुधार नहीं होते हैं तो फिर विकृतियों से जनित दुर्व्यवस्था के खिलाफ कभी भी अचानक गुस्सा फूट पड़ता है जो सुधार तो नहीं कर पाता पर स्थापित व्यवस्था को नुकसान अवश्य पहुँचा देता है। इसलिए जरूरी है कि उभरती विकृतियों के समानांतर उसके उपचार भी किये जायें। कुछ उपाय निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित किये जा सकते हैं-
  • राजनीतिक दलों और उनके सदस्यों को एक घोषित आचार संहिता में बाँधा जाये, तथा उस का पालन अनिवार्य किया जाय।
  • दलों की सदस्यता को बेकामों, बेरोजगारों की फौज बनाने की जगह अपने दल की घोषणाओं के लिए काम करने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं के रूप में अनिवार्य बनाये जाने के उपाय किये जायें। इसके लिए दलों में पदोन्नति के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण की कक्षाओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
  • दलों द्वारा अपनाये गये सामाजिक सुधार के कुछ निर्देशों का पालन सुनिश्चित कराया जाना चाहिए, जैसे कि सक्षम सदस्यों द्वारा रक्तदान, नेत्र दान, परिवार में टीकाकरण, परिवार नियोजन के आदर्शों का पालन, अपने द्वारा पालित बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, सती प्रथा, दहेज प्रथा, साम्प्रदायिकता का सक्रिय विरोध आदि
  • प्रत्येक सदस्य से आय के अनुपात में लेवी तय की जाना चाहिए।
  • चुनाव के लिए टिकिट दिये जाने के सम्बन्ध में कुछ न्यूनतम पात्रताएं तय की जाना चाहिए। इसमें दल में सदस्यता की अवधि भी एक प्रमुख पात्रता होना चाहिए।
  • किसी दल का सदस्य यदि कोई अपराध करता है तो उसके मूल में दल की सामूहिकता का बल भी उसके ध्यान में रहता है। इसलिए आरोप लगने पर दल द्वारा तुरंत जाँच और उसके अनुसार कार्यवाही का किया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि उसकी आँच दल तक न पहुँचे और कोई दल के भरोसे अपराध करने से बचे।
सभी पंजीकृत दलों में आंतरिक लोकतंत्र को बढावा देकर भी दलों और परोक्ष में देश की शासन व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। इससे कुकरमुत्तों की तरह उग आये जेबी दल भी कम हो कर सच्चे लोकतंत्र को स्थापित होने में सहयोग करेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

गुरुवार, दिसंबर 22, 2011

विचारों की अस्थिरिता से अन्ना हजारे की चमक खो रही है


विचारों की अस्थिरता से अन्ना की चमक खो रही है
वीरेन्द्र जैन
      कवि मुकुट बिहारी सरोज ने कभी कहा था-            
अस्थिर सब के सब पैमाने
तेरी जय जय कार जमाने
बन्द किवार किये बैठे हैं
अब कोई आये समझाने
फूलों को घायल कर डाला
कांटों की हर बात सह गये
कैसे कैसे लोग रह गये
      भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनभावनाओं के प्रतीक बन गये  अन्ना हजारे की अस्थिर मानसिकता पर सरोजजी की यह कविता याद आनी स्वाभाविक है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार देश में एक बड़ी समस्या है और देश की दूसरी बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए उठाये कदम भी इसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ कर भटक जाते हैं, जिससे वांछित लक्ष्य नहीं मिल पाते। अन्ना हजारे और गिने चुने लोगों की उनकी टीम के पास न तो न तो कोई सुचिंतित विचारधारा है और न ही वह जनतांत्रिक ढंग से काम करती है। वे अपने आप में एकांगी होने के कारण यह भी नहीं सोचना चाहते कि किसी बड़ी और व्यापक बुराई को दूर करने के लिए उससे भी बड़े और अधिक शक्तिशाली संगठन तथा परिवर्तन की एक बेहतर कार्य प्रणाली की जरूरत होती है, जिसके अभाव में जेपी और वीपी का आन्दोलन अपने ऐसे ही लक्ष्य नहीं पा सका था। अन्ना हजारे की टीम ने अपनी मनमानी करके सामाजिक परिवर्तन के एक सम्भावनाशील आन्दोलन को उभार कर भटका दिया है।
      भावनाओं के ज्वार में बिना उचित विमर्श के लिये गये फैसले और असफलताओं के बाद ठुकरायी गयी सलाहों को मानने पर विवश होने से उनके नेतृत्व की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
      आन्दोलन के अपने प्रारम्भिक दौर में उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से दूरी बनायी और एक सिरे से सबको अपराधी व चोर कहा। रोचक यह है कि उन्होंने इसी संसदीय व्यवस्था और चुनाव प्रणाली में पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए सारे सुधारों को संवैधानिक ढंग से लागू करने के लिए नया कानून बनवाना चाहा। इसकी दूसरी तरफ कानून बनाने वाली संसद को चोर ठहराते रहे। इसका मतलब साफ था कि वे किसी एक जगह झूठ या नासमझी को प्रकट कर रहे थे। उनके सदस्यों ने जनलोकपाल के प्रस्ताव को रखते हुए कहा भी था कि अगर संसद इसे पास कर देगी तो अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारेगी। अर्थात उनका विश्वास इस संसद से इसे पास कराने में नहीं था और वे संभवतः पूरी संसदीय प्रणाली को परोक्ष में बदनाम करने का खेल खेल रहे थे।
      भीड़ को भुनाने वाले राजनीतिक दलों को उनका करिश्मा आकर्षक लगा तो उन्होंने उनके मंच को हथियाना चाहा पर उन्होंने सबसे पहले पहुँचने वाले ऐसे नेताओं उमा भारती, ओमप्रकाश चौटाला, अरुण जैटली आदि को मंच तक फटकने नहीं दिया था तथा संघ के राम माधव को भी मंच से उतार दिया था। दूसरे अनशन के समय भी जब भाजपा के अनंत कुमार और गोपीनाथ मुंडे ने प्रयास किया था तो उन्हें दूर रहने के लिए कहा गया था। जब किसी भी राजनीतिक दल ने उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन नहीं किया तो अपने आन्दोलन के अगले चरण में उन्होंने अपने एनजीओ नुमा समर्थकों से क्षेत्रीय विधायक और सांसदों का घेराव करने का आवाहन किया था ताकि वे संसद में जनलोकपाल बिल का समर्थन करें। उनका यह आवाहन सफल नहीं हुआ और उनके द्वारा जुटायी गयी भीड़ का उत्सवधर्मी चरित्र प्रकट हो गया, जो हवाई फायर तो कर सकती है पर मैदान में नहीं लड़ सकती। बाद में संघ के नेताओं की खुली घोषणा से यह तथ्य भी प्रकट हो गया कि उनके अनशन तमाशे को न केवल संघ ने परोक्ष में पूरा सहयोग दिया था अपितु अनशन के साथ चलने वाले लंगर को भी उन्होंने ही चलवाया था। अपने नकार में कमजोर अन्ना टीम यह नहीं बता सकी कि यदि संघ के नेताओं की बात झूठी थी, तो सत्य क्या था!
      हरियाणा के हिसार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का विरोध करते हुए उन्होंने दूसरे दो जिन दलों को चुनावी लाभ देने का दावा किया वे किसी भी तरह से अपने चरित्र में कांग्रेस से भिन्न नहीं थे। उनकी इस गलत चाल ने उनके मेधा पाटकर सन्दीप पाण्डे सहित दो प्रमुख समर्थकों को उनसे विमुख कर दिया। जबकि कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े, और स्वामी अग्निवेश पहले से ही अलग हो चुके थे। अरुन्धति राय तो वैसे भी उनके समर्थन में नहीं थीं।
      अपने पिछले तौर तरीके को पलटते हुए 11 दिसम्बर 2011 के धरने पर अन्ना ने सारे राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने मंच पर बुलवाया जो राजनीतिक कारणों से वहाँ गये पर उनमें से किसी ने भी उनके जनलोकपाल बिल का पूरा समर्थन नहीं किया। जब इन नेताओं की उपस्थिति में केजरीवाल ने उनसे लोकपाल के गठन, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति, और शिकायत निवारण तंत्र आदि पर रुख स्पष्ट करने को कहा तो  सीपीआई के डी राजा ने उनके हाथों से माइक छीन कर कहा कि ये बहस की जगह नहीं है, इस विषय पर जो भी बहस होगी वह संसद में होगी। भाजपा के राज्य सभा में नेता वकील अरुण जैटली ने कहा कि बुनियादी मुद्दों पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी राय पहले ही सार्वजनिक कर दी है और विशिष्ट मुद्दों पर बहस का जिम्मा संसद का है। माकपा की नेता वृन्दा करात ने भी कहा कि मजबूत लोकपाल के लिए जो भी जरूरी होगा वह संसद करेगी, लोकपाल के दायरे में निजी कारोबारी घरानों को लाये जाने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि ये लोग देश को लूट रहे हैं। सीपीआई के महासचिव एबी वर्धन ने तो साफ साफ कहा कि अन्ना की टीम के नौ दस लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हीं के पास सारी बुद्धि है और वे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो लोग इनकी बातों से सहमत नहीं हैं, उसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि वे भ्रष्ट लोगों के समर्थक हैं। एक सौ बीस करोड़ के देश में विद्वानों की कमी नहीं है। अन्ना को यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि जन लोकपाल बिल का एक एक शब्द मान लिया जायेगा। आपको राजनीतिक दलों के नेताओं को बुलाने की समझ आयी यह अच्छी बात है- कभी नहीं से देर भली। राजनीतिक वर्ग की प्रासंगिकता को कम करके मत आँकिए। अकेले जनलोक पाल बिल के पास हो जाने से भ्रष्टाचार नहीं मिट जायेगा। समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने हजारे टीम से संयम बरतने की सलाह दी, जो यहाँ आकर तिरंगा लहराते हैं वे इटावा में भ्रष्टाचार करते हैं। शरद यादव ने तो अन्ना पक्ष को सीधे उपेक्षित करते हुए कहा कि वे चाहेंगे कि सदन की भावना के अनुरूप जो प्रस्ताव पास किया गया था उसमें तनिक भी बदलाव न हो।
      राजनीतिक दलों के नेताओं के भाषण से यह साफ हो गया कि वे कानून बनाने के मामले में अन्ना को कोई श्रेय या दखल देने को तैयार नहीं हैं। वहीं अन्ना ने अपने समर्थकों के लिए कुछ सूत्र घोषित किये जो 1-शुद्ध आचरण, 2- शुद्ध विचार, 3- निष्कलंक जीवन, 4- अपमान सहने की ताकत,। रोचक यह है कि अन्ना की टीम में से शायद ही कोई इन पर खरा उतरे।   
      अन्ना ने स्वयं भी जिस तरह से सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी पर व्यक्तिगत हमले किये हैं वे शुद्ध आचरण और शुद्ध विचारों को प्रकट नहीं करते क्योंकि ये हमले भाजपा के तौर तरीकों के निकट हैं। भाजपा जानती है कि कांग्रेस की एकता के सूत्र नेहरू परिवार में केन्द्रित हैं और उन्हें बदनाम करने से कांग्रेस कमजोर होगी। यही कारण है कि वे सच जानते हुए भी सरकार और कांग्रेस को छोड़ कर सरकार से बाहर रहने वाले राहुल गान्धी को लक्ष्य बना रहे हैं। यह संघी तरीका है जो सोनिया गान्धी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद धर्मांतरणों के बहाने ईसाइयों तक पर इसीलिए हमले करने लगा है ताकि उन को किसी तरह साम्प्रदायिक दायरे में लाया जाये। वे उनके कुम्भ स्नान या किसी हिन्दू समारोह में भाग लेने पर भी आपत्ति करने से नहीं चूकते। शरद पवार पर पड़े थप्पड़ के मामले में दी गयी अपनी प्रतिक्रिया पर वे अपने गान्धीवाद की कलई खोल ही चुके हैं। विवादस्पद मुद्दे के समय मौन धारण कर वे किसी बेहद साधारण राजनेता की तरह प्रकट हो चुके हैं।
      अन्ना को आत्ममंथन के बाद अपने दर्शन और कार्यक्रम को तैयार करना चाहिए, उस पर देश के प्रमुख व्यक्तियों से सलाह करना चाहिए और फिर परिणाम की चिंता किये बिना अपना कार्यक्रम घोषित करना चाहिए। यदि वे दिन प्रति दिन अपने विचार और कार्यक्रम बदलते रहे तो जल्दी ही वे अपनी चमक खो देंगे जो पिछले दिनों से काफी कम हो चुकी है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, दिसंबर 17, 2011

राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर और शिक्षा माफिया


राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर, और शिक्षामाफिया
                                                               वीरेन्द्र जैन
      कोई भी भारतीय नागरिक देश में चुनाव आयोग के पास  पंजीकृत डेढ हजार दलों में से [कैडर आधारित एक बामपंथी दल को छोड़ कर] किसी भी दल की सदस्यता सरलता पूर्वक ग्रहण कर सकता है और शायद ही किसी दल ने सदस्यता के लिए आवेदन करने वाले नागरिक को साधारण सदस्य बनाने से इंकार किया हो। जो दल साम्प्रदायिक समझे जाते हैं वे भी दूसरे समुदाय के सदस्य मिलने पर अपने ऊपर लगे दाग को धोने का नमूना बनाते हुए उसे खुशी खुशी सदस्यता देते हैं, और अन्यथा न जीतने की सम्भावना वाली सीटों से टिकिट भी देते हैं।
      पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने स्वच्छ चुनाव कराने की दृष्टि से कुछ  नियमों का पालन करना अनिवार्य तो किया है पर दलों पर ऐसी कोई आचार संहिता लागू नहीं की गयी है जिससे वे हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों के अनुसार ही आचरण कर के एक आदर्श लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करें। आज हमारे अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल अनेकानेक विकृत्तियों के शिकार हैं और ऎन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने व उसका दुरुपयोग करने का प्रयास करने वालों के गिरोह बन गये हैं। किसी दल का व्यय कैसे चलता है इसकी जानकारी ना तो चुनाव आयोग को होती है और ना ही यह जानकारी सार्वजनिक  होती है। आज जब चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी सम्पत्ति घोषित करना और चुनाव खर्च का दैनिक अडिट होना अनिवार्य कर दिया गया है तो उन उम्मीदवारों को टिकिट देने वाले राजनीतिक दलों के आय व्यय को गोपनीय क्यों रहना चाहिए। जो दल देश के शासक बन सकते हैं उन्हें पारदर्शी होना चाहिए।
      किसी उद्योग द्वारा किसी दल को चन्दा देना कहाँ तक उचित है? यह काम अगर कोई व्यक्ति करता है तो एक मतदाता के रूप में यह उसकी व्यक्तिगत पसन्दगी नापसन्दगी का सवाल होता है किंतु प्रतिष्ठान के रूप में किसी कम्पनी द्वारा किसी दल को चन्दा देने का सीधा सीधा मतलब होता है कि वह एक अनुचित पक्षधरता की चाह में दी गयी रिश्वत है, ताकि सरकार बनने की स्तिथि में उक्त दल उनका मददगार हो। ऐसा होता भी है। रोचक यह है कि एक ही औद्योगिक संस्थान एक से अधिक दलों को चुनावी चन्दा देते हैं जो निश्चित रूप से चुनावी चन्दा नहीं हो सकता क्योंकि एक वोट देने की क्षमता रखने वाला कोई व्यक्ति या कम्पनी का निदेशक भिन्न विचारधारा वाले एक से अधिक दलों में विश्वास कैसे व्यक्त कर सकता है। यह परोक्ष में एक व्यापारिक सौदेबाजी ही होती है। नीरा राडिया के टेप्स और जनार्दन रेड्डी द्वारा अपनी जेब का मुख्य मंत्री बनवाने के बाद वैसे ही प्रधानमंत्री बनवाने का सपना देखने की खबरें इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह बात आज पूरा देश जानता है कि भूमाफिया. खननमाफिया, बिल्डर, शिक्षामाफिया, शासकीय सप्लायर, ठेकेदार, आयातक निर्यातक, उद्योगापति आदि ही सरकारें बनवाने में भूमिकाएं निभा रहे हैं अपने पक्ष में नीतियां बनवा रहे हैं। मंत्री और जनप्रतिनिधि इनसे घिरे रहते हैं तथा उनके दस्तखत किये हुए खाली लैटरहैड उनके ब्रीफकेस में पड़े रहते हैं।
      आम तौर पर दल अपने सिद्धांत और घोषणाएं कुछ और बताते हैं तथा चुनाव के बाद आचरण कुछ और करते हैं। जब कोई छोटी मोटी चीज बेचने वाला अपने पैकिट पर  लिखी सामग्री से कुछ भिन्न बेचती पाया जाता है तो अपराधी माना जाता है किंतु पूरे देश की जनता को धोखा देने वाला किसी कानून के अंतर्गत नहीं आता। चुनाव आयोग के पास दलों को अपने चुनावी लाभ के लिए अपने घोषित सिद्धांतों से विचलित होने को रोकने के कोई अधिकार नहीं हैं और न ही इसके लिए ऐसी ही कोई अन्य संस्था या विभाग कार्यरत है। कुछ दलों को छोड़ कर अधिकतर दल किसी नेता की अपनी महात्वाकांक्षा, उसके जातीय, क्षेत्रीय सम्पर्क या गैर राजनैतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को भुनाने के उद्देश्य से बना लिए जाते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है कि चुनाव आयोग में पंजीकृत कराते समय उसके कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर आयोग द्वारा उससे पूछा जाये कि जब उसके दल के घोषणा पत्र में वे ही सारे विन्दु हैं जो पहले से पंजीकृत दूसरे दल में भी हैं तो वह उस दल के साथ मिलकर काम क्यों नहीं कर सकता! बहुत सारे छोटे दल दूसरे बड़े दलों को चुनावी नुकसान पहुँचाने अर्थात लोकतंत्र की भावना को विचलित करने के लिए बना लिये जाते हैं, जिन्हें परोक्ष में उनके विपक्षी मदद कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर सारी कवायद लोकतंत्र के नाम पर शासन को कुछ निहित स्वार्थों तक केन्द्रित कर देने के लिए होती है। यह बात पहले कभी दबी छुपी रहती थी पर अब जग जाहिर हो चुकी है। किसी भी व्यवस्था में अगर समय रहते सुधार नहीं होते हैं तो फिर विकृतियों से जनित दुर्व्यवस्था के खिलाफ कभी भी अचानक गुस्सा फूट पड़ता है जो सुधार तो नहीं कर पाता पर स्थापित व्यवस्था को नुकसान अवश्य पहुँचा देता है। इसलिए जरूरी है कि उभरती विकृतियों के समानांतर उसके उपचार भी किये जायें। कुछ उपाय निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित किये जा सकते हैं-
  • राजनीतिक दलों और उनके सदस्यों को एक घोषित आचार संहिता में बाँधा जाये, तथा उस का पालन अनिवार्य किया जाय।
  • दलों की सदस्यता को बेकामों, बेरोजगारों की फौज बनाने की जगह अपने दल की घोषणाओं के लिए काम करने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं के रूप में अनिवार्य बनाये जाने के उपाय किये जायें। इसके लिए दलों में पदोन्नति के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण की कक्षाओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
  • दलों द्वारा अपनाये गये सामाजिक सुधार के कुछ निर्देशों का पालन सुनिश्चित कराया जाना चाहिए, जैसे कि सक्षम सदस्यों द्वारा रक्तदान, नेत्र दान, परिवार में टीकाकरण, परिवार नियोजन के आदर्शों का पालन, अपने द्वारा पालित बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, सती प्रथा, दहेज प्रथा, साम्प्रदायिकता का सक्रिय विरोध आदि
  • प्रत्येक सदस्य से आय के अनुपात में लेवी तय की जाना चाहिए।
  • चुनाव के लिए टिकिट दिये जाने के सम्बन्ध में कुछ न्यूनतम पात्रताएं तय की जाना चाहिए। इसमें दल में सदस्यता की अवधि भी एक प्रमुख पात्रता होना चाहिए।
  • किसी दल का सदस्य यदि कोई अपराध करता है तो उसके मूल में दल की सामूहिकता का बल भी उसके ध्यान में रहता है। इसलिए आरोप लगने पर दल द्वारा तुरंत जाँच और उसके अनुसार कार्यवाही का किया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि उसकी आँच दल तक न पहुँचे और कोई दल के भरोसे अपराध करने से बचे।
सभी पंजीकृत दलों में आंतरिक लोकतंत्र को बढावा देकर भी दलों और परोक्ष में देश की शासन व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। इससे कुकरमुत्तों की तरह उग आये जेबी दल भी कम हो कर सच्चे लोकतंत्र को स्थापित होने में सहयोग करेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

लोकतंत्र का स्वरूप बदलने की जरूरत तो है पर अवसर नहीं




           लोकतंत्र का स्वरूप बदलने की जरूरत तो है पर अवसर नहीं
                                                             वीरेन्द्र जैन
            केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला का कहना है कि अब देश में नियंत्रित लोकतंत्र अपनाने का समय आ गया है। उनका कहना एक ओर तो समस्याओं की ओर उनकी चिंताओं को दर्शाता है किंतु दूसरी ओर ऐसा हल प्रस्तुत करता है जिसकी स्वीकार्यता बनाने के लिए एक तानाशाही शासन स्थापित करना होगा। स्मरणीय है कि लोकतंत्र का सुख भोग चुके समाज में अब यह सहज सम्भव नहीं है। श्रीमती इन्दिरागान्धी ने एमरजैंसी लगाने के बाद चुनाव हारा था और दुबारा चुन कर आने के बाद कहा था कि वे अब दुबारा कभी एमरजैंसी नहीं लगायेंगीं।
      असल में हमारे देश में जो लोकतंत्र है, उसमें आदर्श घोषणाएं तो बहुत हैं पर व्यवहार में सक्षम द्वारा निर्बल का शोषण सम्भव है। कमजोर न्याय व्यवस्था के कारण सबल और शोषक द्वारा निर्बल के शोषण के खिलाफ दोषियों को दण्डित करना सम्भव नहीं हो पाता, भले ही इसके लिए हमने अच्छे अच्छे कानून बना रखे हैं। प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण विकास और सशक्तीकरण के कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते। इसी भ्रष्टाचार से जनित ताकत का प्रभाव चुनावी व्यवस्था पर भी पड़ता है परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में शोषकों के प्रतिनिधि वहाँ बैठ जाते हैं और संसदीय सुधार द्वारा परिवर्तन को सम्भव नहीं होने देते। राष्ट्र के प्रति चिंतित प्रत्येक व्यक्ति के मन में इस दुष्चक्र को तोड़ने की चिंता स्वाभाविक है किंतु यह उन लोगों द्वारा सम्भव नहीं है किंतु जो स्वयं भी इस तंत्र की कमजोरियों से लाभान्वित हो रहे हैं।
      लोकतंत्र से मिले मानव अधिकारों का सर्वाधिक उपयोग भी शोषकवर्ग कर रहा है और मानव अधिकार की ओट में सुरक्षा प्राप्त कर रहा है। न्याय व्यवस्था के छिद्रों के कारण अधिकांश सक्षम लोग दण्ड से बच जाते हैं और घटित अपराध की किसी को भी सजा न मिलने के कारण समाज में कानून के शासन के प्रति अविश्वास बढता जा रहा है, जिससे जंगली न्याय बढता जा रहा है। अदालत से अपने पक्ष में लम्बे समय के लिए स्टे [यथास्थिति] ले लेना और मुकदमों को लम्बा खींचना आम बात हो गयी है। झूठी गवाही से गलत फैसला होने और लालच के आधार पर गवाही से मुकर जाने वालों को जब दण्ड नहीं मिल पाता तो न्याय मजाक सा लगने लगता है। सक्षम लोग इसीलिए अपना फैसला अपनी लाठी से आप ही करने लगे हैं।
      जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में पचास प्रतिशत से अधिक लोग मतदान ही नहीं करते हों और दिये गये मतों में असली नकली का प्रतिशत निकालना कठिन होता हो तो उस लोकतंत्र पर सन्देह होना स्वाभाविक है। लगातार किये गये विभिन्न चुनाव सुधारों के आते रहने से पता चलता है कि हम पिछले दिनों किस तरह के विकृत चुनावी तंत्र से स्थापित शासनों द्वारा शासित होते रहे हैं। राजनीतिक रूप से अशिक्षित मतदाताओं के डाले गये मत भी उस भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करते जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना होती है। वे मत तो दबाव से, लालच से, भटका के, साम्प्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी भावनाएं उभारकर भी डलवा लिये जाते हैं। अपने स्वार्थों के लिए सत्ता हथियाने के प्रयास करने वाले गलत तुष्टीकरण से लेकर गैरकानूनी काम करने वालों को मदद करने तक के हथकण्डे अपनाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप अपराधी तत्व राजनेताओं पर दबाव बना कर रहते हैं। जो तंत्र स्वयं के बनाये कानून के खिलाफ काम करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं के दबाव में काम करने को विवश हो उसे कितना सफल कहा जा सकता है! जिन परम्पराओं, रूढियों, और अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए नेतृत्व को काम करना चाहिए था वही वोटों की लालच में उन्हें बढाने में लग गया है। एक तरह की साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए दूसरे तरह की साम्प्रदायिकता से आँखें मूंद ली जाती हैं जिससे साम्प्रदायिकता का उन्मूलन होने की जगह उनमें प्रतियोगिताएं बढ रही हैं।  
      पुलिस तो अपने विशेष अधिकारों और शक्तियों के कारण पहले ही से बदनाम थी पर नौकरशाही और सेना में भी जिस तरह के भ्रष्टाचार उजागर हुये हैं वे हतप्रभ कर देने वाले हैं। जिस मीडिया को लोकतंत्र के हित में वाचडाग की तरह काम करना चाहिए था, वह बिकाऊ बन चुका है जिसका मतलब है कि चौकीदार चोरों से कमीशन ले रहा है। वह चुनावी नेताओं की वैसी छवि बनाने का धन्धा करने लगा है जैसे वे नहीं हैं, किंतु  वैसी बनावटी छवि से उन्हें चुनावी सफलता मिलना सम्भव हो सके।
      कुल मिला कर कहा जा सकता है कि हम जिसे लोकतंत्र मान रहे हैं वह लोकतंत्र है ही नहीं। जरूरत इस बात की है कि लोकतंत्र जिस स्वरूप में होना चाहिए था और नहीं हो पा रहा है उसकी बाधाओं को दूर किया जाये व इसके लिए न्याय व्यवस्था में उचित संशोधन किया जाये। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद के सुर में सुर मिलाते हुए केंद्रीयमंत्री फारुख अब्दुल्ला जिस मर्यादित लोकतंत्र की बात करने लगे हैं वह इस व्यवस्था में गैर कानूनी लोगों से ज्यादा उन लोगों को नियंत्रित करने लगेगी जो सच्चे लोकतांत्रिक हैं और सार्थक ढंग से असहमति व्यक्त करते हैं। फारुख अब्दुल्ला साहब ने यह नहीं बतलाया कि कथित मर्यादित लोकतंत्र की जिम्मेवारी जिन लोगों के कन्धों पर आयेगी वे किस आधार पर चुने गये होंगे। इसलिए पहली आवश्यकता है जनता को जागरूक बनाना और चुनावी प्रणाली मैं सुधार में सुधार किया जाना।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, दिसंबर 06, 2011