सोमवार, जून 26, 2017

राष्ट्रपति का चुनाव और सामाजिक दशा के संकेत

राष्ट्रपति का चुनाव और सामाजिक दशा के संकेत
वीरेन्द्र जैन

              राष्ट्रपति पद के चुनाव परिणाम से देश की राजनीति पर सीधे सीधे कोई प्रभाव भले ही नहीं पड़े किंतु इससे देश और समाज की दशा को समझने में मदद जरूर मिलेगी क्योंकि इस चुनाव में व्हिप जारी नहीं हो सकता। स्मरणीय है कि 1969 में यह राष्ट्रपति का चुनाव ही था जिसके सहारे श्रीमती गाँधी ने अपनी सरकार पर अपने ही वरिष्ठ साथियों की कुदृष्टि के संकेत समझे थे और साहसपूर्ण फैसले लेकर अपनी पार्टी के उम्मीदवार को हरवाने के लिए आत्मा की आवाज पर वोट देने का आवाहन किया था। उसी चुनाव में पहली बार वामपंथियों के प्रस्ताव पर उम्मीदवार बने व्ही व्ही गिरि सत्तारूढ काँग्रेस के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को हरा कर विजयी हुये थे। इसी दौर में सरकार के अल्पमत में आने के खतरे को देख कर श्रीमती गाँधी ने वामपंथी पार्टियों से समर्थन मांगा था और उसके बदले में बड़े बैंकों व बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स व विशेषाधिकार को समाप्त करने की घोषणा की थी। यही वह समय था जब श्रीमती गाँधी को अपनी पार्टी की छवि बदलने के लिए समाजवाद और गरीबी हटाओ का नारा उछालना पड़ा था। इसी के बाद हुये लोकसभा चुनावों में उन्होंने काँग्रेस की गिर चुकी साख को फिर से प्राप्त कर अभूतपूर्व समर्थन पाया था। पाकिस्तान के विभाजन में भारत की भूमिका निभाने में सोवियत संघ का समर्थन व अमेरिका द्वारा सातवें बेड़े का भेजा जाना भी एक बड़ी घटना थी। इसी के बाद श्रीमती गाँधी के खिलाफ देश भर में दक्षिणपंथी शक्तियां सक्रिय हो गयीं थीं जिन्हें श्रीमती गाँधी ने अमेरिका के इशारे पर प्रेरित फासिस्ट ताकतें बताया था और उनके आन्दोलन को दबाने के लिए इमरजैंसी का सहारा लिया था। यह चुनाव भी जिन परिस्तिथियों में हो रहा है उसमें शक्तियों की पहचान, उनके नये गठबन्धनों का निर्माण और पुराने के विघटन देखने को मिल सकते हैं, जिससे शक्ति संतुलनों में उथल पुथल हो सकती है। यह चुनाव भी देश की राजनीति में परिवर्तन ला सकता है।
उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी पर समुचित विवाद रहा था और गहरा असंतोष पैदा हुआ था। अडवाणी इस पद के लिए भाजपा में सबसे वरिष्ठ, अनुभवी, सम्मानित व सुपात्र व्यक्ति थे इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी की छवि ऐसी थी कि दुनिया के प्रमुख देशों ने उन्हें वीजा देने तक से मना कर दिया था। अनेक विधायकों पर मुसलमानों के नरसंहार से लेकर हत्याओं तक के गम्भीर आरोप थे जिन्हें जानते समझते हुए भी उन्होंने टिकिट ही नहीं दिया था अपितु मंत्रिमण्डल में भी रखा था। दूसरी ओर औद्योगिक राज्य गुजरात के आर्थिक विकास से जुड़ा कार्पोरेट घरानों का समर्थन और उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई आरोप न होना उनके पक्ष में जाता था। हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित एक वर्ग उन्हें नायक की तरह देखता था। नरेन्द्र मोदी ने चुनाव में जीत का कुशल प्रबन्धन करके वह जीत दिलवा दी जिसके लिए भाजपा और उसकी मातृ संस्था आरएसएस बरसों से तरस रही थी। इस जीत के साथ साथ उन्होंने पार्टी की कमान भी सम्हाल ली और अनेक आरोपों से घिरे रहे अपने दाहिने हाथ अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनवा दिया। जीत के साथ ही उन्होंने भाजपा में पार्टी नाम के अलावा बहुत कुछ बदल दिया। वरिष्ठ नेताओं को मार्ग दर्शक मण्डल के नाम पर मुख्य धारा से किनारे कर दिया। पार्टी के नाम की जगह केवल मोदी मोदी होने लगा। अटल बिहारी वाजपेयी के कथित फील गुड को कभी याद नहीं किया गया और उसे भी काँग्रेस के सत्तर साला शून्य उपलब्धियों के काल में मिला कर प्रचारित किया। अटल अडवाणी के चित्रों को पोस्टर पर छापने की परम्परा समाप्त कर दी गयी। मीडिया को अपने प्रिय कार्पोरेट घरानों से खरीदवा दिया, बाहर वालों को सरकारी विज्ञापन प्रबन्धन से अनुकूल बनाया या साम दाम दण्ड भेद से उन्हें बाजार से बाहर करवा दिया। सोशल मीडिया पर ट्रालर बैठा दिये। विपक्षियों के स्कैम या उन्हें हास्यास्पद बना कर उनकी चरित्र हत्या की जाने लगी। 
 प्रबन्धन से अर्जित जीत में अनेक सदस्य दूसरे दलों से दल बदल करा के लाये गये थे, तो पुराने सदस्यों में से भी अनेक सत्ता का मतलब वैसा ही निजी आर्थिक हित मान कर चलते थे जैसा कि पिछली सरकारों में होता रहा था। समस्त प्रयासों से गढी गयी अपनी छवि को बचाना था इसलिए मोदी ने उस कीमत पर उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी। सांसद निधि को एक आदर्श गाँव तक सीमित करके उससे होने वाली कमाई पर नियंत्रण लगा दिया। सबको सम्पत्ति की जानकारी देने को कहा गया तथा मंत्रिमण्डल गठन में महात्वाकांक्षी लोगों को दूर रखा गया। जैटली जैसे अपवाद को छोड़ कर मंत्रिमण्डल के शेष सदस्य पीएम कार्यालय से नियंत्रित अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत फाइलों पर दस्तखत करने का कार्य करने को विवश हुये। विभाग के फैसले लेना उनका काम नहीं रह गया। नोटबन्दी का गलत फैसला, विदेश नीतियों की असफलता, साम्प्रदायिक तत्वों पर नियंत्रण न कर पाना, कश्मीर जैसी समस्याओं को ठीक से संचालित नहीं करना, तथा ढेर सारी चुनावी घोषणाओं की पूर्ति न होने से सांसदों को जनता से सामना करना कठिन लगने लगा। रोजगार के अवसर नहीं जुटाये जा सके, किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दिया गया। राज्यों में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं लगा जिससे केन्द्र की सावधानी निरर्थक हो गयी। इन सब को टालने के लिए भावुक मुद्दों को छोड़ा जाने लगा। सांसद अपनी सरकार से खुश नहीं हैं। उन्हें विश्वास में नहीं लिया जाता, इसलिए ऐसा लगता है कि केवल वेतन लेने और सदन में समर्थन करने से ज्यादा उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं है। उन्हें लगता है कि उनकी कोई विशिष्टता नहीं है।
राष्ट्रपति के उम्मीदवार के चयन में अनावश्यक गोपनीयता ही नहीं बरती गयी, अपितु किसी से सलाह ही नहीं ली गयी। नामांकन प्रस्ताव के खाली फार्मों पर दस्तखत करा के मंगा लिये गये। यही हाल नोटबन्दी से लेकर दूसरे अनेक फैसलों में भी किया गया जो असफल रहे। गोल्ड मोनेटाइजेशन स्कीम, वालंटरी डिस्क्लोजर स्कीम, विदेश में जमा धन की वापिसी आदि योजनाएं पूरी तैयारी के बिना लागू किये जाने से असफल हो गयीं। राष्ट्रपति के चयन में दलित उम्मीदवार के चयन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पिछले दिनों रोहित वेमुला की आत्महत्या, गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई का वीडियो, सहारनपुर की भीम सेना, आदि के कारण दलित उम्मीदवार उतारा गया है। आरक्षण के कारण दलित समुदाय के लोग सांसद और मंत्री भले ही हों किंतु उनकी नेतृत्व में भागीदारी नहीं है। इसी असंतोष प्रबन्धन के लिए ऐसा दलित उम्मीदवार उतारा गया जो औपचारिकता की पूर्ति तो करता है किंतु उस वर्ग का नेतृत्व नहीं करता, न ही पक्षधरता करके उनके मुद्दों को सम्बोधित करता रहा है।
1975 की इमरजैंसी के बारे में कहा गया था कि लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वे लेट गये। इस अघोषित इमरजैंसी में इसका पुनर्परीक्षण हो सकता है, चुप्पियों के अर्थ निकल सकते हैं। अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, येदुरप्पा, यशवंत सिन्हा आदि पद के लिए दुखी भले ही न हों किंतु अपने अपमान के लिए अवश्य ही दुखी हैं। आर के सिंह, भगीरथ प्रसाद, सत्यपाल सिंह, आदि दर्जन भर लोग सोचते ही होंगे कि क्या वे इसके लिए अपनी प्रशासनिक सेवाओं को छोड़ कर आये थे। राम जेठमलानी, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, भोला सिंह, आदि तो मुखर होने के बाद चुप्पी ओढे बैठे हैं पर क्या ये चुप्पी साधरण चुप्पी कही जा सकती है। समर्थन घोषित करने वाले दलों में क्या गुटबाजियां नहीं हैं? नवीन पटनायक के खिलाफ कितने षड़यंत्र हो चुके हैं, जेडीयू के अन्य वरिष्ठ नेताओं को नितिश का फैसला हजम नहीं हो रहा। शिवसेना ने नामांकन प्रक्रिया में भाग नहीं लिया। दल की गुटबाजियों में एक दूसरे से बदला लेने के मौके भी तलाशे जा सकते हैं।
ऊपर जमी पर्त के नीचे कितना लावा खदबदा रहा है यह इस चुनाव में सामने आ सकता है क्योंकि इससे सत्ता पर सीधे आँच आये बिना भी संकेत दिये जा सकते हैं। 1977 में बहती अंतर्धारा की पहचान किसने कर पायी थी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, जून 12, 2017

मध्य प्रदेश में एक अराजनीतिक हुड़दंग

मध्य प्रदेश में एक अराजनीतिक हुड़दंग
वीरेन्द्र जैन

मध्य प्रदेश में जून माह की प्रारम्भ से ही एक अलग तरह का हिंसक उत्पात देखने को मिल रहा है, जिसमें अब तक सात किसानों की दुखद मौत हो चुकी है सैकड़ों नागरिक घायल हैं व करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो चुकी है। पुलिस और प्रशासन के साथ आम लोग भी अपमानित हुये हैं। इस उत्पात को राजनीतिक दल और प्रैस किसान आन्दोलन का नाम देकर एक आकार देने की कोशिश कर रहे हैं, किंतु सच तो यह है कि यह हमारी राजनीतिक प्रणाली की कमियों और राजनीतिक दलों के नाम पर काम कर रहे गिरोहों के गैरजिम्मेवाराना व्यवहार का प्रतिफल है। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश उस गोबरपट्टी या बीमारू राज्यों में से एक है जहाँ राजनीतिक चेतना न्यूनतम है और सामंती मूल्यों के आधार पर सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं। यहाँ गरीबी और पिछड़ापन इतना अधिक है कि अज्ञानतावश इनके उन्मूलन के लिए प्रारम्भ की गई सशक्तीकरण योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाती हैं।
राजनीतिक दलों की संगठन प्रणालियों को निकट से देखने पर पता चलता है कि किसानों का संगठन बनाना सबसे कठिन काम होता है। मजदूर किसी भी फैक्ट्री आदि में एक साथ एकत्रित होते हैं और उनके वेतन आदि की समस्याएं भी एक जैसी होती हैं इसलिए उनका संगठन बनना सरल होता है। यही हाल छात्रों के संगठन का भी होता है, किंतु किसानों को किसान के रूप में एक साथ एकत्रित होने के अवसर कम ही आते हैं। उनके बीच संचार के साधन पहले ही कम थे और अब भी मोबाइल इंटरनेट जैसे साधन भी शिक्षा की कमी के कारण किसानों तक उस अनुपात में नहीं पहुँच सके हैं जिस अनुपात में अन्य वर्गों तक पहुँच गये हैं। वे अखबार कम पढ पाते हैं, बिजली की अनुपस्थिति के कारण टीवी भी नहीं देखते, जहाँ टीवी होता भी है, और बिजली आती है, वहाँ भी टीवी के मनोरंजन कार्यक्रमों को अधिक प्राथमिकता मिलती है। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र में जातिवादी संगठन अपेक्षाकृत अधिक आसानी से बन जाते हैं। जहाँ किसान संगठन बने भी हैं वे भी जातिवाद से प्रारम्भ हुये हैं। चरण सिंह, और महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसान संगठनों के नाम पर जाटों को एकत्रित कर लिया था। इसी तरह मध्य प्रदेश में पटेल या पाटीदारों सहित दूसरी जातियों के संगठनों को चुनावी सुविधा के लिए किसान संगठनो का नाम दे दिया गया था। कभी कभी जब गन्ना उत्पादकों को गन्ना का रेट नहीं मिलता तो गन्ना उत्पादक किसानों के नाम पर आन्दोलन रत हो जाते और इसी तरह प्याज, आलू, टमाटर, संतरा, सोयाबीन या दूसरी जिंस विशेष फसलों के उत्पादक तात्कालिक रूप से एकत्रित होते रहे हैं। कभी कभी सूखा या अतिवृष्टि के कारण भी लोग मांग अनुसार एकत्रित हो जाते हैं। पिछले वर्षों में देश भर में लाखों किसानों की आत्महत्या के बाबजूद भी कोई राष्ट्र या प्रदेश व्यापी आन्दोलन खड़ा नहीं हुआ और समाज ने सरकारों में बैठे नेताओं के उन बयानों को स्वीकार सा कर लिया कि उनकी आत्महत्या के कारण व्यक्तिगत थे। देश के कृषिमंत्री ने तो यहाँ तक कहने में संकोच नहीं किया था कि किसान प्रेम प्रसंगों के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।
गत लोकसभा चुनावों के दौरान और हाल के विधानसभा चुनावों के दौरान बिना दूरगामी सोच के विभिन्न तरह के वादे किसानों से किये गये थे जो पूरे नहीं किये गये किंतु हाल ही में उत्तर प्रदेश के चुनावों में कर्जमाफी का जो वादा किया गया था उसे नई व्याख्याओं के साथ काट छाँट कर घोषित कर दिया गया और पूरा करने के लिए संसाधन जुटाने की योजनाएं बनायी जा रही हैं। भाजपा पर हमेशा दबाव बना कर रखने वाली शिवसेना ने चुनावी वादों और यथार्थ के द्वन्द को पकड़ा और सवाल खड़ा किया कि यदि उत्तर प्रदेश के किसानों की कर्जमाफी की जा सकती है, तो सबसे अधिक आत्महत्याओं के लिए विवश महाराष्ट्र के किसान तो कर्जमाफी के अधिक सुपात्र हैं। भाजपा के रक्षात्मक होने से परोक्ष में सन्देश यह गया कि सरकार पर दबाव बनाने से ही अधिकार या सुविधाएं पायी जा सकती हैं। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश से पहले महाराष्ट्र के कुछ जिलों में आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जिसका प्रभाव बढते ही बाहुबली शिवसेना उसमें कूद पड़ी। दूसरी ओर भाजपा परिवार की ओर से गाय के नाम पर किसी की भी हत्या कर देने वालों का परोक्ष बचाव तथा पशु बिक्री कानून जैसे अव्यवहारिक अनावश्यक नियमों के बनाने से भी असहमत शिवसेना को और आक्रामक होने का अवसर मिला।
मध्यप्रदेश में आन्दोलन प्रारम्भ होने से पहले मालवा क्षेत्र में कुछ बड़े बड़े अफीम तस्कर पकड़े गये थे। स्मरणीय है कि तस्करी, हवाला, सट्टा आदि ऐसे अपराध हैं जो सरकारी नेताओं के सहयोग से ही सम्भव हो पाते हैं और इन अपराधों को जब भी पकड़ा जाता है तब सत्ता के अन्दर चल रहे आपसी द्वन्द का पता चलता है। उल्लेखनीय है कि किसान आन्दोलन के नाम की सारी हिंसा मालवा क्षेत्र में ही प्रारम्भ  हुयी है जहाँ अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न किसान हैं और जिनके अहं की लड़ाई उनकी रोजी की लड़ाई से अधिक तेज हो जाती है। पिछले दिनों गुजरात में पाटीदारों के आन्दोलन में हुयी हिंसा के पीछे भी आरक्षण से अधिक अहं था। दूसरी ओर मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड में किसानों की गरीबी और समस्याएं अधिक हैं किंतु वे व्यवस्था के खिलाफ कभी आक्रामक होने का साहस नहीं जुटा पाते।
म.प्र. भाजपा में आपसी गुटबाजी चरम पर है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी चुनावी सफलताओं के प्रभाव में पार्टी पर दबाव बना कर अनेक ऐसे नेताओं को प्रदेश से बाहर करा दिया जो उनके लिए खतरा पैदा कर सकते थे। उल्लेखनीय है कि सुश्री उमा भारती, नरेन्द्र सिंह तोमर, अनूप मिश्रा, प्रभात झा, कैलाश विजयवर्गीय, अरविन्द मेनन, कमल पटेल, बाबूलाल गौर आदि शिवराज की आँख की किरकिरी थे जिन्हें दूर कर दिया गया। इनके हितों को नुकसान पहुँचा है और ये सब किसी न किसी तरह शिवराज से बदला लेना चाहते हैं। इसके विपरीत पार्टी अध्यक्ष नन्द किशोर चौहान उनके अमित शाह हैं। इस गुटबाजी को भी इस हिंसा की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है।
काँग्रेस का नामपट उठाये नेता प्रदेश में कोई आन्दोलन खड़ा नहीं कर सकते। पार्टी में कार्यकर्ता के नाम पर नेताओं के व्यक्तिगत जयजयकारी भर हैं, काँग्रेस के लिए काम करने वाला कोई नहीं है। वे हिंसक तो क्या अहिंसक आन्दोलन या धरना प्रदर्शन भी नहीं कर सकते। काँग्रेस या किसी भी दूसरे दल पर हिंसा का आरोप लगाना सच्चाई से आँखें मूंद लेना है, क्योंकि वे चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते।
सच्चाई यह है कि सरकार सब कुछ जानती है किंतु कह नहीं सकती। कोई नेता सामने नहीं है जिससे समझौता किया जा सके, कोई मांगपत्र सामने नहीं है जिस को पूरा किया जा सके। पुलिस दमन का परिणाम हिंसा को और बढावा देना है, इसलिए समस्या को स्वतः ठंडी होने की नीति अपनायी जा रही है, इसमें जो नुकसान हो सकता है, वह होगा। सिद्धांतहीन, नेतृत्वहीन इस घटनाक्रम से कुछ भी नहीं बदलेगा।  
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जून 01, 2017

राष्ट्रपति चुनाव, भाजपा की राजनीतिक जीत और नैतिक हार सम्भव है

राष्ट्रपति चुनाव, भाजपा की राजनीतिक जीत और नैतिक हार सम्भव है
वीरेन्द्र जैन

विभिन्न राजनीतिक क्षेत्रों में राष्ट्रपति चुनाव की चर्चाएं गर्म हैं जबकि उसके आंकड़े स्पष्ट हैं। सत्तारूढ एनडीए के पास 48.64% वोट हैं तो यूपीए के पास 35.47% वोट हैं। शेष वोट उन दलों या निर्दलियों के हैं जो किसी भी गठबन्धन में सम्मलित नहीं हैं। अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए एनडीए को कुल 2% वोट जुटाने हैं, जिन्हें वह अपने सत्ता की दम पर जुटा सकती है। व्हिप जारी होने पर मान्यता प्राप्त किसी दल का न तो कोई सदस्य अनुपस्थित रह सकेगा और न ही क्रास वोटिंग कर सकेगा। दूसरी ओर लोकसभा चुनावों में डाले गये कुल मतों का 31% प्राप्त कर सरकार बना लेने वाली पार्टी ने अपने विशाल बहुमत के दम्भ में पिछले दिनों जो कुछ किया उससे उसकी विकास वाली छवि कलंकित होकर पुरानी साम्प्रदायिक छवि प्रकट हुयी है। यद्यपि यह छवि भी वोटों के बँटवारे से चुनाव जीतने में कोई वाधा नहीं बनती किंतु धर्मनिरपेक्ष विकासवादी लोगों, अंतर्राष्ट्रीय जगत, और स्वतंत्र प्रैस में निन्दा और घृणा का पात्र तो बनाती है। यही कारण है कि एनडीए गठबन्धन से बाहर का कोई दल उनका खुला समर्थन करके अपने ऊपर बिके होने का कलंक नहीं लेना चाहेगा। किसी ने अभी तक ऐसी घोषणा भी नहीं की है।
यदि एनडीए से बाहर के सभी दल मतभेद भुला, एकजुट होकर मतदान करते हैं तो एनडीए का उम्मीदवार हार भी सकता है, किंतु इस एकजुटता में बहुत अड़चनें भी हैं।  यूपीए को समर्थन देने वाले  सभी दल भी एक जुट नहीं हैं और उनके आपस में मतभेद हैं। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में व्यक्तिगत दुश्मनी है। डीएमके और एआईडीएमके भी शत्रुता भाव रखते हैं। तृणमूल काँग्रेस और वामपंथी दलों में तीव्र विरोध है। आम आदमी पार्टी भी भाजपा और काँग्रेस से बराबर की दूरी बना कर चलना चाहती है। यही हाल छोटे छोटे राज्य स्तर के अनेक दलों का है। भाजपा से मतभेदों के स्तर भी अलग अलग हैं। जेडीयू, नैशनल काँफ्रेंस, तृणमूल काँग्रेस, बीजू जनता पार्टी, एजीपी, एआईडीएमके, आदि वामपंथियों की तरह धुर विरोधी नहीं हैं, ये कभी एनडीए के साथ सरकार में रह चुके हैं। सोनिया गाँधी द्वारा बुलायी गयी बैठक में नीतिश कुमार सम्मलित नहीं हुये भले ही उन्होंने पार्टी की ओर से शरद यादव को भेजा था। लालू प्रसाद के यहाँ पड़े छापों के बाद से उनके नीतिश से सम्बन्ध खराब बताये जाते हैं। नीतिश कभी अटल बिहारी मंत्रिमण्डल के सदस्य रहे हैं और बिहार में पाँच साल तक भाजपा के साथ सरकार चलाते रहे हैं। बीजू जनता दल ने भी बैठक में भाग नहीं लिया। इसलिए भाजपा के खरीद फरोख्त के पुराने इतिहास को देखते हुए लगता है कि वह थोड़ी सी कमी सहजता से पूरी कर लेगी। मायावती, मुलायम परिवार, ममता बनर्जी., पटनायक आदि के नेताओं पर आय से अधिक सम्पत्ति आदि के प्रकरण दर्ज हैं। मुलायम सिंह का इतिहास ही धोखा देने का रहा है और वह हाथ से निकल चुकी अपनी पार्टी को अमर सिंह की सलाह पर भावनात्मक रूप से ब्लेकमेल कर सकते हैं। सावधानीवश  उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने वाले सांसद योगी, और केशव मौर्य से अभी तक लोकसभा से त्यागपत्र नहीं दिलवाया गया है।  
यद्यपि अंत अंत तक शिवसेना अपना विरोध समाप्त कर देगी किंतु अभी वह भाजपा को अपने तेवर दिखा रही है। वह केण्डीडेट आदि के नाम पर जितना दबाव डाल सकती है डालने की कोशिश करेगी। देखा गया है कि इस चुनाव में क्षेत्रीयता की भी एक भूमिका रहती है। जब ज्ञानी जैल सिंह को उम्मीदवार बनाया गया था तब काँग्रेस के धुर विरोधी अकाली दल ने समर्थन दिया था और जब प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को काँग्रेस का उम्मीदवार बनाया गया था तब शिव सेना ने भाजपा के उम्मीदवार का विरोध करते हुए उनका समर्थन किया था। यदि वंचित रहे जम्मू कश्मीर को प्रतिनिधित्व देने का वर्तमान में कोई कूटनीतिक महत्व हो तो कभी विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष रहे डा. कर्ण सिंह साझा उम्मीदवार हो सकते हैं, किंतु वे पूर्व महाराजा होते हुए भी अब कश्मीर का प्रतिनिधित्व नहीं करते।   
वैसे तो यूपीए की सरकार में कुछ समय तक गैर काँग्रेसी राष्ट्रपति रहा है और अब एनडीए के शासन काल में काँग्रेस के राष्ट्रपति होते हुए भी कोई टकराहट देखने में नहीं आयी फिर भी सत्तारूढ पार्टी के उम्मीदवार की पराजय से छवि को ठेस लगती है, इसलिए भाजपा हर हाल में अपना उम्मीदवार जिताना चाहेगी। देखना होगा कि गैर एनडीए दलों में कमजोर कड़ी कौन साबित होता है! देखा गया है कि मजबूत सरकार सरल राष्ट्रपति ही पसन्द करती है जैसे कि ज्ञानी जैल सिंह या प्रतिभादेवी सिंह पाटिल। भाजपा इसी कड़ी में अन्ना हजारेका नाम भी आगे कर सकती है। किसी पुराने भाजपाई को यह अवसर मिले इसकी सम्भावनाएं कम ही हैं क्योंकि विपक्ष के एक होने का खतरा भी तो टालना होगा।   
वीरेन्द्र जैन
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