सोमवार, अप्रैल 30, 2012

क्या बंगारू लक्षमण अकेले जिम्मेवार हैं?


क्या बंगारू लक्षमण अकेले जिम्मेवार हैं?
वीरेन्द्र जैन
                भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री बंगारु लक्षमण एक बार फिर जेल में हैं। इससे पहले वे 1975 में इमरजैंसी में जेल में थे और जेल से वैसे ही बाहर आये थे जैसे कि संघ परिवार से जुड़े दूसरे लोग बाहर आये थे भले ही बाद में वे लोग अपने को दूसरी आजादी के सेनानी बतलाने लगे हों, और भाजपा शासित राज्यों में इस बात की पेंशन भी डकार रहे हों। पर देवरसजी द्वारा जेल से लिखी हुयी चिट्ठियाँ आज भी मौजूद हैं जिनमें श्रीमती इन्दिरा गान्धी की प्रशंसा करते हुए उनसे संघ की सेवाएं लेने का अनुरोध किया गया था। उत्तर भारत के हिन्दीभाषी क्षेत्रों तक केन्द्रित इस पार्टी की जन्मजात आकांक्षा अखिल भारतीय होकर देश पर राज्य करने की रही है इसलिए इसने समय समय पर पार्टी के अध्यक्ष का पद का मुकुट अपने चुनिन्दा नेताओं के सिर से उतार कर दक्षिण के नेताओं के सिर पर रखने की कोशिश की है। यह उनका दुर्भाग्य ही रहा है उनका यह प्रयोग सदैव ही असफल रहा है। बंगारू लक्षमन, वैंक्य्या नाइडू, जे एन कृष्णमूर्ति, आदि सभी न केवल असफल रहे हैं, अपितु अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर सके हैं। वैंक्य्या नायडू को भी बड़े अपमान जनक तरीके से पद छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था क्योंकि साध्वी की वेषभूषा धारण कर विचरण करने वाली सुश्री उमा भारती उनके साथ चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से भी बुरा व्यवहार करती रहती थीं जिससे व्यथित होकर ही उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़कर भागने में ही अपने सम्मान की सुरक्षा समझी थी। बिडम्बना यह रही कि पार्टी की इज्जत का ख्याल करते हुए उन्होंने अपने त्यागपत्र का कारण अपनी पत्नी की बीमारी बतलाया था पर इस झूठ का मखौल उड़ाते हुए अति मुखर उमाभारती ने पार्टी को पत्र लिखा था कि वैंक्य्या ने अपनी पत्नी की रजोनिवृत्ति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया। हास्यास्पद यह भी रहा कि लाल कृष्ण अडवाणी के हनुमान कहलाने वाले वैंक्य्या नायडू ने अगले अध्यक्ष की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार कर लिया। लोग उनकी पत्नी की बीमारी की खबर ही पूछते पूछते रह गये।
      बंगारू लक्षमण का स्टिंग आपरेशन किया गया था जिसमें उन्होंने ऐसे रक्षा उपकरण की आपूर्ति के लिए एक लाख रुपये ग्रहण किये जो उपकरण अस्तित्व में ही नहीं था। राष्ट्रभक्ति का चन्दन माथे पर लगाये फिरने वाली और बड़े बड़े मौखिक दावे करने वाली पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यह भी जानने की जरूरत नहीं समझी थी कि कथित उपकरण से कहीं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कोई खतरा तो नहीं होगा। रुपयों के लिए बिना कोई रसीद जारी किये हुए वे अगली बार डालरों में देने का आग्रह करते देखे गये। उक्त राशि उन्होंने पार्टी के कार्यालय में राष्ट्रीय अध्यक्ष के कक्ष में बैठकर स्वीकार की इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि यह उनका व्यक्तिगत मामला है। जब कोई मीडियावाला किसी को स्टिंग आपरेशन के लिए चुनता है तो इतना तो तय होता है कि उसके पास इस तरह के लेन देन की सूचनाएं पहले से ही रहती हैं अर्थात यह बंगारू लक्षमन की कोई पहली घटना नहीं रही होगी, अपितु वे इसके लिए चर्चित रहे होंगे। उल्लेखनीय है कि वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल राज्य मंत्री हुआ करते थे और तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री से उनकी शिकायत करते हुए कहा था कि वे अपने कार्यालय में बैठ कर दस पाँच हजार जैसी मामूली राशि की रिश्वत भी लेने में संकोच नहीं कर रहे थे।           उसके बाद ही उन्हें उक्त पद से मुक्त करके राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया था।
      क्या भाजपा के पास पार्टी संचालन और चुनाव कोष की कोई घोषित नीति या आय अधारित लेवी प्रणाली है? और यदि है तो क्या उसका पालन करते हुए ही कोष एकत्रित किया जाता है? यदि नहीं तो क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि पार्टी पदाधिकारी इसी तरह काला सफेद करके पार्टी कोष एकत्रित करते होंगे। यह भी सम्भव है कि इस बेतरतीब ढंग से कोष संचयन की प्रक्रिया में संचयनकर्ता पार्टी के नाम पर अपने लिए भी कुछ कर लेने से पीछे नहीं हटते होंगे।
      जब श्री बंगारू लक्षमन को सजा हुयी तो भाजपा ने कहा कि इससे पार्टी का कुछ भी लेना देना नहीं है क्योंकि ये बंगारू के निजी आचरण का मामला है, किंतु साक्ष्य उनकी बात के खिलाफ हैं। स्मरणीय है तहलका के स्टिंग आपरेशन के बाद हुयी भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद तत्कालीन पार्टी प्रवक्ता वीके मल्होत्रा ने कहा था बैठक में पार्टी सांसदों और घटक दलों के सदस्यों को कहा गया है कि उन्हें इस मामले में रक्षात्मक[डिफेंसिव] होने की जरूरत नहीं है, उन्हें इससे आक्रामक रूप से निपटना होगा क्योंकि न तो कोई रक्षा सौदा हुआ है और न ही किसी मंत्री पर इसमें शामिल होने का आरोप लगा है। जब उनको ध्यान दिलाया गया कि उन्होंने स्वयं ही धन लेने की बात स्वीकारी है तो श्री मल्होत्रा ने कहा था कि यह धन पार्टी कोष के लिए लिया गया था। पर इसी समय जब उनसे पूछा गया था कि क्या उक्त राशि को पार्टी कोष में जमा कर दिया गया है तो उन्होंने कोई जबाब देना उचित नहीं समझा था। स्मरणीय है पिछले दिनों जब पार्टी कार्यालय से डेढ करोड़ रुपये गायब पाये गये थे तब उन्होंने एक प्राइवेट एजेंसी से उसकी जाँच करायी थी पर पुलिस में रिपोर्ट लिखाना जरूरी नहीं समझा था। स्पष्ट है कि पार्टी में इसी तरह से बेनामी कोष तैयार होता होगा किंतु जब कोई ऐसे किसी अपराध में पकड़ा जाता है तो पार्टी तुरंत अपना पल्ला झाड़ लेती है। कर्नाटक के खनन माफिया रेड्डी बन्धुओं को गिरफ्तार किया गया था तब उन्हें आशीर्वाद देते रहने वाली सुषमा स्वराज ने उनसे अपना पल्ला झाड़ लिया था और गेंद दूसरों के पाले में फेंक दी थी। ठीक इसी तरह मध्य प्रदेश के एक अधिकारी की सन्दिग्ध मृत्यु के मामले में भोपाल के एक विधायक पर छींटे आते ही उन्होंने उससे कोई सम्बन्ध न होने की घोषणा करके सबको आश्चर्य चकित कर दिया था जबकि मध्य प्रदेश में उनका स्थायी पता उसी विधायक के मकान का दिया गया था। उल्लेखनीय यह भी है कि इसे व्यक्तिगत मामला बतलाने वाली पार्टी ने इस दौरान सेना के पदाधिकारियों पर तो तुरंत कार्यवाही की थी किंतु श्री बंगारू लक्षमन पर कोई कार्यवाही नहीं की थी। यह कार्यवाही पर एफआईआर घटना के तीन साल बाद यूपीए सरकार ने दर्ज करायी जिस पर उक्त फैसला आया है।
      स्मरणीय यह भी है कि इस घटना के लिए जिस व्यक्ति को दोषी बताया जा रहा है उस व्यक्ति के तुष्टीकरण के लिए उसकी पत्नी को राजस्थान की एक सुरक्षित सीट से टिकिट देकर सांसद चुनवा दिया जाता है जबकि उक्त सम्मानीय महिला ने इससे पहले पार्टी में कोई भूमिका नहीं निभायी थी और श्रीमती सुशीला लक्षमन बंगारू सिकन्दराबाद के स्कूल में अध्यापन का कार्य कर रही थीं। खेद है कि देश पर शासन करने का सपना देखने वाली यह पार्टी एक ओर तो यह कह रही है कि ये मामला उनका व्यक्तिगत है वहीं दूसरी ओर कह रहे हैं कि फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील करने का अधिकार है अर्थात यदि कानून के रन्ध्रों से निकलने का मौका मिल जाये तो उन्हें कोई नैतिक परेशानी नहीं है।
      सच तो यह है इस मामले में श्री बंगारू लक्षमन अकेले दोषी नहीं हैं अपितु पूरी पार्टी ही इसमें सम्मिलित है। इस फैसले में विद्वान न्यायाधीष ने अपनी टिप्पणी में न केवल व्यक्ति बंगारू को सजा सुनायी है अपितु भ्रष्टाचार को सहज स्वीकृति देने वाले समाज के सभी हिस्सों को झकझोरा है और यह फैसला न केवल भाजपा अपितु भ्रष्टाचार में लिप्त सभी क्षेत्रों के लिए है।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

ममता बनर्जी की सनक और देश का भविष्य


ममता बनर्जी की सनक और देश का भविष्य
वीरेन्द्र जैन
      श्री आर के लक्ष्मण दुनिया के ऐसे अनोखे कार्टूनिस्टों में से एक हैं जिन्होंने लगातार 60 सालों से अधिक एक अखबार के प्रथम पृष्ठ पर कार्टून बनाने का रिकार्ड कायम किया है। जब उनके इस काम के पचास साल पूरे हुए थे तब एक पत्रकार ने उनका साक्षात्कार लिया था। इस साक्षात्कार में अन्य प्रश्नों के अलावा जब उन्होंने राजनीतिज्ञों के साथ उनके अनुभवों के बारे में प्रश्न किये तब उनका कहना था कि हमारे काम में बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु बहुत मनहूस साबित हुए हैं। जब पत्रकार ने प्रश्न किया कि वो कैसे, तो उनका उत्तर था कि उन्होंने मुझे आज तक कार्टून बनाने का मौका नहीं दिया।
      आज उसी बंगाल राज्य के उसी पद पर सुश्री ममता बनर्जी बैठी हैं जो पिछले महीने भर से अपनी अजब अजब सनकों के कारण न केवल अखबारों की सुर्खियों में हैं अपितु उनके बारे में कार्टूनों की बाढ आ गयी है। उल्लेखनीय यह है कि उनकी चुनावी विजय का मूल आधार तत्कालीन सत्त्तारूढ गठबन्धन के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी और कांग्रेस से उनका गठबन्धन हो जाना था। इस चुनाव के दौरान जिन बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, ने उनका समर्थन किया था वे सब या तो विरोध में बोल रहे हैं या अपना मुँह छुपाते फिर रहे हैं। बाममोर्चे की खिलाफत करने के लिए उन्होंने जिन तस्लीमा नसरीन की पक्षधरता की थी उन्हीं की पुस्तक का लोकार्पण उन्होंने कोलकता पुस्तक मेले में नहीं होने दिया। बलात्कार की सच्ची घटना को प्रतिपक्ष का षड़यंत्र बताने जैसा बेतुका बयान दिया और जब पुलिस अफसर ने उसकी जाँच कर उसे सत्यापित किया तो उस अफसर का तबादला कर दिया। अपनी ही पार्टी के रेल मंत्री को बजट पेश करने के बाद हटने के लिए मजबूर किया व गठबन्धन की मजबूरी के कारण केन्द्र सरकार को इस बात के लिए विवश किया कि वे उनके द्वारा नामित व्यक्ति को रेलमंत्री बनायें। स्मरणीय है कि कथित सांसद जब रेल मंत्रालय में उपरेलमंत्री था तब असम में घटित एक रेल दुर्घटना के बाद उसने दुर्घटना स्थल पर जाने के प्रधानमंत्री के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था। एक प्रोफेसर को ममता बनर्जी के खिलाफ कार्टून बनाने पर गिरफ्तार कर लिया गया व तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा उसके साथ मारपीट की गयी जिसका पुलिस ने कोई नोटिस नहीं लिया।
      ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी के सदस्यों को आदेशित किया कि माकपा सदस्यों के परिवार में वैवाहिक रिश्ते न जोड़ें और न ही उनके यहाँ आयोजित वैवाहिक कार्यक्रमों में शामिल हों। सरकारी सहायता प्राप्त पुस्तकालयों को आदेशित किया है कि वे उनके द्वारा बताये हुए अखबार और पत्र पत्रिकाएं ही मंगायें।बंगाल की जनता को वे फतवा जारी करती हैं कि वे टीवी पर समाचार नहीं केवल गीत सुनें। समाचारों के लिए वे अपना अखबार और टीवी चैनल प्रारम्भ करने जा रही हैं। पाठ्यक्रमों से दुनिया के प्रमुख दार्शनिक मार्क्स को हटाये जाने की हास्यास्पद घोषणा करती हैं। वे आतंकवाद के खिलाफ राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में नहीं आयीं और केन्द्र सरकार को अल्टीमेटम दे रही हैं कि उनके राज्य पर जो कर्ज है उसके ब्याज के 2400 करोड़ रुपये माफ कर दें। ऐसा न करने पर वे प्रत्यक्ष में सरकार और परोक्ष में देश को अस्थिरता की ओर धकेल सकती हैं। अपनी सरकार पर लगे प्रत्येक आरोप का दोष वे पिछली बाम मोर्चा सरकार पर मढती हैं, यहाँ तक कि एक अस्पताल में आग लग जाने की घटना की जिम्मेवारी भी वे सीपीएम पर डालते हुए कहती हैं कि यह वही अस्पताल है जिसमें ज्योति बसु का इलाज हुआ था।
      आज बिना कारण हटाये गये रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ही नहीं अपितु नक्सली पृष्ठभूमि से उनकी पार्टी में आये हुए सांसद कबीर भी उनके खिलाफ गीत लिख रहे हैं। बंगाल के बुद्धजीवी और लेखक कलाकार महाश्वेतादेवी, शंख घोष, शुभ प्रसन्न, जोगेन चौधरी, सांवली घोष जैसे बड़े नाम वाले ही नहीं अपितु चुनाव में उनका समर्थन करने वाले हजारों की संख्या में दूसरे लेखक भी ममता बनर्जी से उम्मीदें छोड़ विरोध में उतर आये हैं। ममता के समर्थन में एक ओर तो बंगाल का पूंजीपति जमींदार तबका था तो दूसरी ओर माओअवादियों का समर्थन था पर माओवादियों के नेता किशनजी के मारे जाने के बाद और पूंजीपति वर्ग की उम्मीदें जल्दी पूरी न होने के कारण उनके दोनों ही आधार खिसक रहे हैं। कांग्रेस को धमकाते रहने के कारण उनका स्थानीय  गठबन्धन सदा खतरे में रहता है और केन्द्र सरकार पर बेतुका दबाव बनाने के कारण केन्द्र सरकार भी परेशान है।
      ममता बनर्जी की ये हरकतें वैसे कुछ नयी नहीं हैं। उनके राजनीतिक जीवन का पूरा कार्य ही ऐसी ही सनकों से भरा पड़ा है। स्मरणीय है कि ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति बंगाल में काँग्रेस पार्टी की छात्र शाखा की सदस्यता से ही शुरू की थी तथा अपने जुझारूपन से पायी लोकप्रियता के आधार पर उन्होंने उस समय के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को भी जादवपुर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया था। 1991 की नरसिंहराव की सरकार में उन्हें मानव संसाधन विकास, युवामामले और खेल मंत्रालयों में राज्यमंत्री बनाया गया था। बाद में बंगाल के नेताओं के साथ मतभेदों के चलते केन्द्र की खेल विभाग की मंत्री होते हुये भी कलकता के ब्रिग्रेड मैदान में उस रैली का नेतृत्व किया था जो केन्द्र सरकार द्वारा खेलों के विकास पर ध्यान देने के विरोध में बुलायी गयी थी, इसी कारण 1993 में उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर देना पड़ा था। वे बंगाल के काँग्रेस नेताओं को वहाँ की सीपीएम सरकार का पिछलग्गू बता कर सार्वजनिक निंदा करती थीं। उनके जीवन का इकलौता लक्ष्य बंगाल की सीपीएम सरकार का तीव्र विरोध करना रहा है और कांग्रेस के जिम्मेवार नेतृत्व को वे हमेशा कमजोर बताती रही हैं। 1996 में उन्होंने नारा दिया कि वे बंगाल में विरोध की इकलौती आवाज हैं तथा एक साफसुथरी काँग्रेस चाहती हैं। 1996 में उन्होंने कलकता में अलीपुर में आयोजित एक रैली में एक काले शाल को अपने गले में कस लिया था और फाँसी लगा लेने की धमकी दी थी। जुलाई 96 में पैट्रोलियम पदार्थों की दरों में वृद्धि के खिलाफ वे गर्भगृह में उतर आयी थीं जबकि उस समय वे सरकार चलाने वाली पार्टी में ही थीं। इसी तरह महिला आरक्षण विधेयक के सवाल पर उन्होंने लोकसभा के गर्भगृह में जाकर समाजवादी पार्टी के एक सांसद का गला पकड़ लिया था। फरबरी 1997 में उन्होंने रेलवे बजट में बंगाल के लिए रेल की समुचित सुविधाएं देने के आरोप में तत्कालीन रेल मंत्री रामविलास पासवान पर अपना शाल फेंक कर मारा था और अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी थी। लोकसभा अध्यक्ष पी संगमा ने उनका स्तीफा स्वीकार नहीं किया था तथा माफी मांगने को कहा था बाद में संतोषमोहन देव की मध्यस्थता पर वे वापिस लौटी थीं। अंतत: 1997 में उन्होंने बंगाल की काँग्रेस पार्टी में विभाजन करके आल इंडिया तृणमल काँग्रेस बना ली थी। इतना ही नहीं 1999 में कॉग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की विरोधी भाजपा सरकार में सम्मिलित हो गयीं रेल मंत्री ही बन कर रहीं। समर्थन के लिए मजबूर अटल बिहारी की सरकार को उनकी शतें माननी ही पड़ीं। मंत्री बनते ही उन्होंने अपने पहले रेल बजट में बंगाल के लोगों से किये बहुत सारे वादे पूरे कर दिये जबकि देश के दूसरे हिस्से कुछ जरूरी मांगों की पूर्ति से वंचित रह गये। उन्होंने बंगाल के लिए नई दिल्ली सियालदहा राजधानी एक्सप्रैस, हावड़ा पुरलिया, सियालदहा न्यूजलपाईगुड़ी, शालीमार बांकुरा, पुणे हावड़ा आदि गाड़ियां चलायीं अनेक के क्षेत्र में विस्तार किया। 2001 में भाजपा पर आरोप लगाते हुये उन्होंने राजग सरकार छोड़ दी। बाद में 2004 में वे फिर से सरकार में सम्मिलित हो गयीं कोयला मंत्रालय स्वीकार कर लिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में वे तृणमूल काँग्रेस की ओर से जीतने वाली इकलौती सांसद थीं। अक्टूबर 2006 में उन्होंने बंगाल में घुसपैठियों की पहचान के सवाल पर अपना स्तीफा लोकसभा के उपाध्यक्ष चरण सिंह अटवाल के मुंह पर दे मारा था। देश के सबसे गम्भीर नेता ज्योति बसु उन्हें नौटंकी कहते थे।
चिंता का विषय यह है कि गठबन्धन के दूसरे दलों के सदस्यों के नेताओं पर की जा रही भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाही से वे दल भी बेचैन हैं और ऐसे में ममता पर केन्द्र सरकार की निर्भरता बढ गयी है। यदि वे बार बार बचकाने दबाव डालती रहीं तो मध्यावधि चुनाव के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचेगा जो देश पर अनावश्यक बोझ होगा। यदि तृणमूल कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र विकसित हो तो वो ममता की मनमानी पर अंकुश लगा कर देश का नुकसान बचा सकती है।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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