रविवार, अप्रैल 15, 2012

और वे जो मूर्ख नहीं हैं काटजू साहब .............


और वे जो मूर्ख नहीं हैं काटजू साहब ....                   
वीरेन्द्र जैन
                मैं आदरणीय मार्कण्डेय काटजू साहब के दृढ व्यक्तित्व और निर्भीक फैसलों का प्रशंसक रहा हूं। मैंने अपने ब्लाग पर उनके फैसलों के सम्बन्ध में जो लेख लिखा था वह मेरी अब तक की पोस्टों में सबसे अधिक पढी जाने वाली पोस्ट है। वे बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात साफ साफ कहते हैं और यह मुखरता लोगों को आकर्षित करती है। इस मुखरता से ऐसा लगता है कि वे अपनी लोकप्रियता की चिंता किये बिना अपने विचार से समाज को मथना चाहते हैं। आज के दुहरे चरित्र वाले समाज में ऐसे नेतृत्वकारी लोगों की सबसे अधिक जरूरत है।
      एक लोकतांत्रिक समाज में यह भी जरूरी है कि हम दूसरे के विचारों को भी सुनने और समझने के लिए उतना ही स्थान दें जितना कि हम अपने विचारों के लिए चाहते हैं। दुनिया में कोई पुस्तक अंतिम पुस्तक नहीं हो सकती और कोई विचार अंतिम विचार नहीं हो सकता। देश और काल के अनुसार विचारों में सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। भारत में जन्म लेने वाले धर्म इसीलिए दूसरे धर्मों से अधिक लोकतांत्रिक हैं क्यों कि उनके यहाँ कोई पुस्तक अंतिम पुस्तक नहीं है और कोई अवतार, तीर्थंकर अंतिम नहीं है अपितु एक के विचारों को सुधारते हुए दूसरे अनेक लोग क्रमशः आते रहे हैं और अपनी बात रखते रहे हैं। महावीर स्वामी का अनेकांत तो लोकतंत्र का मूलमंत्र है जिसमें सत्य को देखने वाले के दृष्टिकोण पर ही निर्भर माना गया है और किसी एक विचार पर जोर नहीं दिया गया है। मैं उम्मीद करता हूं कि काटजू साहब जिस दृड़ता के साथ अपनी बात रखते हैं उतनी ही उदारता से दूसरे की बात भी सुनना पसन्द करते होंगे।
      सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अपने फैसलों और प्रैस परिषद के अध्यक्ष के रूप में प्रैस, प्रैस मालिकों, और सरकारों के सम्बन्ध में निर्भीक  समीक्षात्मक बयानों के बाद अब उनका कहना है कि भारत के नब्बे प्रतिशत लोग मूर्ख हैं, क्योंकि उनके दिमाग में अन्धविश्वास, साम्प्रदायिकता और जातीयता भरी हुयी है। वे इसी आधार पर वोट देते हैं, ऐसे ही लोगों ने फूलन देवी तक को लोकसभा में इसलिए पहुँचा दिया था कि वह पिछड़ी जाति की थी।  उनका यह बयान वोटों से जुड़ा है इसलिए यह लोकतांत्रिक पद्धति से भी जुड़ा है, और उस पद्धति से चुनी गयी हमारी विभिन्न सरकारों पर भी टिप्पणी करता है। परोक्ष में यह बयान एक राजनीतिक बयान है। हमने जब लोकतांत्रिक पद्धति पर विचार किया था तब भी यह प्रश्न उठा था कि एक सुशिक्षित और एक कम पढे या निरक्षर को भी उसी ताकत के एक वोट का अधिकार देना कितना उचित है। याद कीजिए अकबर इलाहाबादी का वह शेर जिसमें उन्होंने कहा था कि-
जम्हूरियत वो तर्जे हुकूमत है कि जिसमें
बन्दों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।
      भले ही उन्होंने अपने बयान को केवल एक उदाहरण तक ही सीमित रखा है पर उनके बयान की सीमा दूर तक जाती है। उसमें सबसे अधिक विकासशील होने का दावा करने वाला राज्य गुजरात और वहाँ के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आते हैं। बिहार जैसे सम्भावनाशील राज्य में दो बार मुख्यमंत्री बनने वाली राबड़ी देवी भी आती हैं। झारखण्ड के निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कौड़ा भी आते हैं और आजन्म कारावास की सजा पाये केन्द्रीय मंत्री भी आते हैं। साम्प्रदायिकता के आधार पर चुने जाने वालों में भाजपा, शिव सेना, अकाली दल, मुस्लिम लीग, जातीय आधार पर चुनाव जीतने वालों में मायावती, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, से लेकर सैकड़ों छोटे छोटे दल आते हैं। जो इन घेरों में सीधे सीधे नहीं आते उनमें से भी कितने लोग ऐसे हैं जो ढोंगी बाबा, वैरागियों, गुरुओं. मठों, मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, से आशीर्वाद लेकर चुनाव के मैदान में उतरते हैं। ऐसे लोग जीतने के बाद तथा धर्म निरपेक्ष संविधान की शपथ लेने से पहले और बाद में अपनी जीत के लिए इन्हीं अवैज्ञानिक धर्मस्थलों की कृपा और बाबाओं के आशीर्वाद को जिम्मेवार बतलाते हैं। ऐसा करते समय वे उन्हें समर्थन देने वाली जनता और चुनाव प्रचार करने वाले कार्यकर्ताओं तक को भूल जाते हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि काटजू साहब का बयान हमारी लोकतांत्रिक पद्धति को उसकी कमजोरियों के कारण खारिज करता है और परोक्ष में उस पद्धति से चुनी गयी सरकारों को भी खारिज करता है। उनकी इन पंक्तियों के बीच में छुपी पंक्तियों से ध्वनि निकलती है कि इस देश के बहुमत को धन व बाहुबल से प्रभावित करके व धोखों से भ्रमित करके वोट गिरवा लिये जाते हैं। इस तरह से जुटाये गये समर्थन से चुने गये दलों [गिरोहों] द्वारा फौज और पुलिस के बल से नियंत्रित किया जा रहा है और जो कुछ निहित स्वार्थों के लिए काम कर रहा है। न्याय व्यवस्था में आयी कमजोरियों पर तो काटजू साहब पहले ही कठोर टिप्पणियां कर चुके हैं।
      बिडम्बना यह है कि काटजू साहब जिस दस प्रतिशत को साम्प्रदायिकता, जातिवाद, और अन्धविश्वास से मुक्त मान कर सही मतदाता मानते हैं, उनमें से अधिकांश इस मतदान की निरर्थकता से अवगत हैं और इसीलिए मतदान करने ही नहीं जाते हैं। जो जाते हैं उनमें से भी बड़ी संख्या में लोग खुद भी अन्धविश्वास, जातिवाद और साम्प्रदायिकता के दुष्प्रभाव में हैं। हमने जिस राज्यसभा को कथित दस प्रतिशत मतदाताओं के मतों से चुनवाने की व्यवस्थाएं की हैं उनमें कैसे कैसे लोग कैसे कैसे चुने जाते हैं इसका नमूना तो अभी झारखण्ड में स्थगित किये गये राज्यसभा चुनाव में देख ही चुके हैं या शाहों के शासन के बिना भी शाही इमाम बने घूमते इमाम बुखारी द्वारा अपने रिश्तेदारों को राज्यसभा और विधान परिषद में भेजने के लिए की गयी कवायद से चल जाता है। वैसे भी ऐसा कौन सा बड़ा उद्योग समूह नहीं है जिसके दो चार लोग राज्यसभा या लोक सभा में नहीं हों। झारखण्ड जैसे छोटे राज्य तो इसकी मण्डी बन चुके हैं जहाँ सेदूर दूर से आकर उद्योगपति स्वयं या अपने पालतू लोगों को चुनवा देते हैं। किसी भी दल में उम्मीदवारी के लिए कोई तयशुदा घोषित आचार संहिता नहीं है और हाईकमान के नाम पर सौदेबाजों को भेज दिया जाता है व प्राप्त धन को चुनावों में झौंका जाता है। विजय माल्या जैसे धन कुबेरों को कर्नाटक में सक्रिय सभी प्रमुख राजनीतिक दलों का समर्थन मिल जाता है।
      काटजू साहब के बयान से जो स्वर निकलता है वह व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन की माँग करता है। पिछले कुछ चुनाव आयुक्तों के सतत सफल प्रयासों के बाद भी चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है जो लोगों को राजनीतिक रूप से चेतना सम्पन्न करके ही किया जा सकता है पर तात्कालिक व्यवस्था से लाभांवित होने वाले व्यवस्था नहीं बदलवाना चाहते हैं। जिन साम्प्रदायिक और जातीय दलों को जनता की राजनीतिक चेतना से नुकसान की सम्भावना है वे इसे विकसित ही नहीं होने देना चाहते।
      हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चुनौती आने पर इसी नब्बे परसेंट ने  जातीयता और साम्प्रदायिकता को भुला कर तानाशाही को परास्त किया था। इसके लिए 1977 में और 1989 को याद किया जा सकता है जब इसने कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया था और साम्प्रदायिक दलों को अवसर नहीं दिया था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जातिवाद, साम्प्रदायिकता, और अन्धविश्वास, सही राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में स्थान बनाते हैं। ये ही क्यों इस अभाव में तो पुराने राजे महराजे, राजमाताएं, राज पुत्रियां, लोकप्रिय फिल्मी कलाकार, मशहूर क्रिकेट या हाकी खिलाड़ी, साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले राजनेता भी चुनावों की दिशा को मोड़ देते हैं।
      काटजू साहब की चिंताएं सही हैं पर उन्हें निर्धनों की मजबूरियों को भी समझना चाहिए। गान्धीजी के बाद कोई भी राजनीतिक दल या नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राजनीति के साथ साथ सामाजिक सुधार के अलोकप्रिय काम को हाथ में लिया हो। जातिवाद या अन्धविश्वास के सहारे सत्ता से जुड़ने का प्रयास करने वाले ही नब्बे प्रतिशत को ऐसा ही बनाये रखना रखना चाहते हैं, अपितु उन्हें अधिक से अधिक इसमें उलझाना चाहते हैं। वैसे यह सूचना का युग है और अगर काटजू जैसे लोगों का समूह सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुमत तक अपना सन्देश पहुँचा सका तो बेचैन जनता तो बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की टीम तक को समर्थन देने के लिए उतावली देखी गयी है।
वीरेन्द्र जैन
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