शनिवार, अगस्त 26, 2023

श्रद्धांजलि / संस्मरण श्री आग्नेय

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण श्री आग्नेय

इकला चलने वाले

वीरेन्द्र जैन


मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना के अंतर्गत बैंक की नौकरी से सेवा निवृत्त होकर भोपाल रहने का फैसला लिया था तो सोच में साहित्य सृजन और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने का विचार था। इसी क्रम में साहित्यकारों से मुलाकात का सिलसिला प्रारम्भ हुआ और आग्नेय जी से मिलना हुआ जो उस समय साहित्य परिषद के सचिव और उसकी साक्षात्कार पत्रिका के सम्पादक थे। वे उस कविता के बड़े कवियों में गिने जाते थे जो कविता मेरी समझ में कम आयी किंतु साहित्य जगत की मान्यता के अनुसार सैकड़ों अन्य लोगों की तरह मैं इसमें अपनी समझ का ही दोष मानता था और सम्मान का भाव रखता था।

वे वामपंथी आन्दोलन से जुड़े रहे थे और किसी ने बताया था कि वे कम्युनिष्ट पार्टी के अखबार जनयुग में काम कर चुके थे किंतु अब आन्दोलन के प्रति क्रिटीकल थे। मैं जब उनसे मिला तब तक किसी ने मेरे बारे में उन्हें बता दिया था कि मैं मैंने कम्युनिष्ट पार्टी में काम करने के लिए बैंक की नौकरी छोड़ी है, जबकि सच यह था कि नौकरी छोड़ने के बाद मैंने कम्युनिष्ट पार्टी के समर्थक के रूप में कार्य करना चाहा था। किंतु ना तो उन्होंने कभी सीधे सीधे इस विषय में कभी पूछा और ना ही मैंने उनकी धारणा बदलने की कभी कोशिश की। वे जब भी मिलते थे तब वामपंथी आन्दोलन से अपनी सारी शिकायतें उड़ेल देते थे। मुझे इसमें उनकी आत्मीयता दिखती थी जो घटनाओं को विचलन मान कर शिकायत के रूप में सामने आती थी। मुझे इसी बात का संतोष रहता था कि वे मुझे पहचानते हैं। मिलने पर उपलब्ध होने पर अपनी पत्रिका ‘सदानीरा’ भेंट करते थे।

वे किसी भी तरह का विचलन सहन नहीं कर पाते थे व  अपनी बेलिहाज साफगोई के कारण ना तो  कोई गुट बना पाते थे और ना ही दोस्त। इस जमाने में एक दम परिपूर्ण लोग कहाँ मिलते हैं, जैसे वे चाह्ते थे। उनके व्यवहार से नाराज लोग तो बहुत मिले किंतु उन पर बेईमानी या पक्षपात का आरोप लगाने वाला कोई नहीं मिला। वे हमेशा मुझे अकेले मिले अकेले लगे। उनके निधन की खबर पर जब उनके वर्तमान पते की जानकारी चाही तो किसी को भी सही जानकारी नहीं थी। बाद में किसी ने बताया कि उनका बेटा विदेश में था और कुछ दिन उसके पास रहने के बाद वे लौट आये थे व किसी सुविधा सम्पन्न वृद्धाश्रम में रह रहे थे। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो –

उनने तमाम उम्र अकेले सफर किया

उन पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही

विनम्र श्रद्धांजलि।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

बुधवार, अगस्त 23, 2023

फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2

 

फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2

एक व्यावसायिक उत्पाद की नकल

वीरेन्द्र जैन



जब भी व्यावसायिक रूप से सफल किसी फिल्म के नाम को दूसरा क्रम देकर कोई मूवी बनाई जाती है तो वह पहली फिल्म से अच्छी नहीं होती। ऐसी फिल्म को दूसरा क्रम इसीलिए दिया जाता है ताकि पहली सफल फिल्म के प्रभाव का लाभ उठा कर व्यावसायिक लाभ उठाया जा सके। यह एक तरह से पहली फिल्म के दर्शकों के साथ ठगी होती है। अगर अच्छी होती तो उसे नये नाम से बनायी जा सकती थी। दृश्यम -2 आदि में हम ऐसी ही ठगी देख चुके हैं।

पहले फिल्में कहानियों पर बनती थीं, फिर घटनाओं व खबरों पर बनने लगीं और ‘ओह माई गाड -2” जैसी फिल्में किसी अखबार या पत्रिका में प्रकाशित लेखों पर बनने लगी हैं। इसमें कथानक नहीं है अपितु विचार और उसके पक्ष मे तर्क वितर्क होते हैं। फिल्म में पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा की जरूरत के पक्ष को रखने और उस विषय की पक्षधरता के लिए एक अदालती बहस खड़ी कर दी गयी है। यह फिल्म उन लोगों को कुछ जानकारी दे सकती है जो अखबारों के सम्पादकीय पेज नहीं पढते या पत्रिकाओं में सामाजिक विषयों पर प्रकाशित सामग्री नहीं देखते। फिल्म के अंत में जो जनमत बनता दिखाया गया है वह नकली लगता है क्योंकि सदियों से निर्मित धारणाओं को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता जितनी आसानी से इसे टूटता दिखाया गया है। बिना सामाजिक आन्दोलन चलाये हमने संविधान के सहारे जातिवाद, धार्मिक भेदभाव आदि बदलने की जो कोशिशें की हैं वे अदालती फैसलों तक सीमित होकर रह गयी हैं और उन्हें ज़मीन पर उतरना बाकी है। किशोर अवस्था में यौन शिक्षा की जानकारी केवल सूचना भर नहीं रह जाती अपितु यौन संवेदना भी पैदा करती है और उसके शमन का कोई उपाय नहीं सुझाया गया है।

फिल्म का विषय महत्वपूर्ण है जिसे और अच्छी तरह से कहानी में पिरो कर एक अधिक अच्छी फिल्म बनायी जाना चाहिए थी या कहें कि बनाई जा सकती थी किंतु निर्माता निर्देशक की दृष्टि एक धर्मस्थल पर जनता की आस्था को भुनाना, और इसी नाम से सफल हो चुकी फिल्म के दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचना भर थी। फिल्म पर विवाद खड़े करके उसे चर्चित कराना भी एक हथकंडा बन चुका है, जिसका स्तेमाल इस फिल्म के लिए भी किया गया था और सेंसर से ‘ए’ सार्टिफिकेट प्राप्त कर लिया गया था। इसमें कथा नायक के दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाने के बाद पुनर्जीवित होने को छोड़ दें तो दूसरा कोई चमत्कारी दृश्य नहीं है। बाल कलाकारों का अभिनय अच्छा है व सहयोगियों की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव व अरुण गोविल की भूमिकाएं संतोषजनक हैं। इसे कामेडी फिल्म की तरह प्रचारित किया गया है किंतु कामेडी ना के बराबर है। इस फिल्म में स्टार अक्षय कुमार का नाम प्रमुखता से दिया गया है किंतु फिल्म के नायक पंकज त्रिपाठी हैं, जो अक्षय कुमार की तुलना में अपेक्षाकृत अच्छे अभिनेता हैं। अक्षय कुमार की बहुत सीमित भूमिका है। वकील के रूप में यामी गौतम ने सुन्दर दिखने की भूमिका भर निभायी है।

किसी सन्देश को लेकर बनायी गयी फिल्मों को दर्शक तक पहुंचाने की योजना भी बनायी जाना चाहिए थी, जिससे सम्बन्धितों तक बात पहुंचे और कार्यांवयन हो सके।    

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

रविवार, अगस्त 13, 2023

संस्मरण / श्रद्धांजलि श्री एम एन नायर वे अफसर से ज्यादा जनता के दोस्त थे

 

संस्मरण / श्रद्धांजलि श्री एम एन नायर

वे अफसर से ज्यादा जनता के दोस्त थे

वीरेन्द्र जैन

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एक समय मैं कुछ पारिवारिक परेशानियों में फंस गया था और उसी समय [1985] मुझे बैंक में मैनेजर के पद से बदल कर आडीटर [इंस्पेक्टर] बना दिया गया था। तब मैं एक अराष्ट्रीयकृत ए क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में कार्य करता था। मानसिक दबाव बहुत ज्यादा था और मुझे आडिट हेतु नगर दर नगर भटकना पड़ रहा था। उन दिनों दैनिक भत्ता कुल बीस रुपये था जिसमें होटल का किराया और भोजन भी शामिल था। आम परम्परा यह थी कि जो आडीटर जिस शाखा का निरीक्षण करता था उसके प्रबन्धक द्वारा उसके रहने खाने की व्यवस्था की जाती थी, जो मुझे स्वीकार नहीं थी| हर स्थान पर उन दिनों रहने खाने के होटल नहीं पाये जाते थे। अपनी जिद के कारण कई बार मुझे भूखा भी रहना पड़ता था। बार बार नौकरी छोड़ने का विचार आता था किंतु परिस्तिथियों के दबाव ने इसे कार्यांवित नहीं होने दिया। संयोग से 1986 में मेरे बैंक का पंजाब नैशनल बैंक में विलय किये जाने का फैसला हुआ और मुझे यायावरी से मुक्ति मिली। किंतु उस समय पिछले बैंक में जो इंस्पेक्टर या मैनेजर थे उन्हें एक ग्रेड कम करके नियुक्ति दी गयी और अलग अलग जगह पोस्टिंग दी गयी। मुझे अमरोहा में पोस्टिंग मिली। पंजाब नैशनल बैंक में एक नियम था कि जब भी किसी को असिस्टेंट मैनेजर के रूप में पोस्ट किया जाता था तो उससे पोस्टिंग वाले स्टशन पर जाने की स्वीकृति ली जाती थी। मुझे अमरोहा में ही पोस्ट करने के बाद उसी शाखा में ही असिस्टेंट मैनेजर का पद स्वीकार करने के लिए पूछा गया और दूरदृष्टि से मैंने प्रस्ताव को नकार दिया। परिणाम स्वरूप मुझे जे एम जी –वन में ही आफीसर के रूप में वहीं पदस्थ कर दिया गया जिससे मैं चाबियां रखने के चक्कर से बच गया। अब सवाल दतिया ट्रांसफर का था। मैंने इसके लिए लगातार प्रयास करने शुरू किये और अपने सभी सम्पर्कों को पत्र लिखे। बड़े से बड़े लेखक सम्पादक राजनेता आदि जिनको मैं जानता था, सबको लिखा और सबने पंजाब नैशनल बैंक के प्रबन्धन को मेरे दतिया ट्रांसफर की अनुशंसा की। उस दौर के दो वित्त मंत्रियों, जनार्दन पुजारी, और नारायण दत्त तिवारी ने सांसद बालकवि बैरागी के पत्र के उत्तर में लिखा कि बैंक के विलय की शर्तों के अनुसार विलय के दो वर्ष बाद ही स्थानांतरण सम्भव है। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि दो वर्ष पूरे होते होते मेरा ट्रांसफर दतिया के लिए होगया और मुझे किसी शाखा की जगह लीड बैंक आफिस में पोस्ट किया गया। उस समय लीड बैंक आफीसर श्री एम एन नायर थे।

लीड बैंक आफिस का काम किसी जिले में कार्यरत समस्त बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों और सरकारी ऋण योजनाओं के लिए लक्ष्य निर्धारित करना और इसके कार्यांवयन की जानकारी जुटाना होता है। इस जानकारी को समन्वित करके विभिन्न बैठकों में इससे सम्बन्धित समिति के समक्ष प्रस्तुत करना और समीक्षा कर कम प्रगति वाले बैंकों की समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना होता है। इस कार्य सम्पादन के लिए जिले के सभी शासकीय वरिष्ठ अधिकारियों से और बैंक प्रबन्धकों के साथ सम्पर्क रखना होता है। इस आफिस में पोस्ट होने के बाद मुझे पहली बार बैंक की नौकरी में मुनीमगीरी से मुक्ति मिली थी। मैं अपने गृहनगर में आ गया था और आफिस में मन का काम मिला था। इसलिए मैंने अपने पूरे मन और क्षमताओं से काम शुरू कर दिया।

किसी शाखा की मैनेजरी करने के बाद मुझे जब भी जूनियर के रूप में कार्य करना पड़ा तो कार्यनीति पर मेरा अपने वरिष्ठों से टकराव होता रहा था। लीड बैंक आफिस में नायर साहब के साथ काम करने में कोई समस्या नहीं आयी। नायर साहब इतने लोकतांत्रिक व उदार विचारों के थे कि उनके स्वभाव में अफसरी दूर दूर तक नहीं थी। वे वरिष्ठ से कनिष्ठ सभी से दोस्ताना सम्बन्ध रखते थे, सभी की सुनते थे। उन दिनों निजी टेलीफोन मिलने में बहुत कठिनाइ होती थी। मैंने बरसों पहले आवेदन दे रखा था इसलिए सेवाओं का विस्तार प्रारम्भ होते ही मेरे घर पर टेलीफोन लग गया था, इससे मैं आफिस टाइम के अलावा भी सम्पर्क द्वारा काम कर सकता था। अपने गृह नगर दतिया में, मैं कभी लेखन, पत्रकारिता व छात्र राजनीति में सक्रिय रहा था इसलिए अपने नगर में मेरा परिचय क्षेत्र विस्तारित था। नायर साहब ने बहुत सारी जिम्मेवारी मुझे सौंप दी और अपने पद के अधिकारों का उपयोग करने की भी खुली छूट दे दी। हमारे साथ कार्यालय में एक और कुशल अधिकारी जुड़ गये थे श्री आर के गुप्ता जो आंकड़े जुटा कर उनको चार्ट का रूप देने में कुशल थे और समान रूप में निःस्वार्थ भाव से लगन पूर्वक काम करते थे। उनकी आंकड़ागत तैयारी के साथ मेरा काम पत्र व्यवहार और सम्पर्क कर नियत समय पर बैठकें आयोजित करना था। नायर साहब पूरी तरह से मुक्त हो अपनी जीप और ड्राइवर के साथ नगर के प्रमुख लोगों समेत अधिकरियों से मिलने जुलने, नगर भर के सरकारी, गैरसरकारी आयोजनों में भाग लेने के लिए स्वतंत्र थे। यह काम उन्हें अच्छा भी लगता था व बैंक के हित में भी था। वे हम दोनों लोगों पर इतना भरोसा करते थे कि उनकी दखलन्दाजी के बिना भी सारा काम सही और उचित समय पर हो जायेगा। ऐसा हुआ भी। हमें यह भी विश्वास था कि कभी कोई भूल हो जाने पर वे जिम्मेवारी खुद लेंगे, वैसे ऐसा अवसर कभी नहीं आया। इस दौरान जो भी जिलाधीश व अन्य उच्च अधिकारी जिले में थे वे नायर साहब के मुरीद थे। आफिस में पदस्थ हम दोनों ही अधिकारी मितव्ययी स्वभाव के थे और ऐसी युक्तियां तलाश लेते थे कि कम से कम खर्च में अपनी बैठकें कर लेते थे।

नायर साहब बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी थे और हर उम्र के लोगों के साथ खेलते हुए वे छात्रों के साथ भी खेल भावना से मित्रता कर लेते थे। उनका परिचय क्षेत्र इतना अधिक हो गया था कि हर कोई उनसे बैंकिंग काम में मदद मांगने आ जाता था और यथा सम्भव उसका काम कराने को तत्पर रहते थे। अनेक जिलाधीश गैर सरकारी कामों मे उनसे सहयोग की अपेक्षा करते थे और वे उनकी सहायता कर देते थे। एक बार अति वृष्टि के कारण निचले क्षेत्र के लोगों की मदद करने में उन्होंने अपने परिचय क्षेत्र से भरपूर सहयोग जुटाया। वे कुछ समाजसेवी संस्थाओं से भी जुड़ गये थे और स्वास्थ सम्बन्धी कैम्प लगाने में मदद करते थे और मुझे भी इन संस्थाओं से जोड़ लिया था। दतिया में मिले स्नेह के कारण उन्होंने दतिया में ही अपना मकान बनवा लिया था और यहीं बसने का इरादा था किंतु बड़े बेटे के आकस्मिक निधन के बाद उन्होंने इरादा बदल लिया। केरल लौटे किंतु वहाँ भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में उनके छोटे बेटे का निधन हो गया।

वे दतिया को हमेशा याद करते रहे और दतिया में साथ काम किये लोगों के साथ मिलते रहने के लिए एक ग्रुप बनाया था जो सोशल मीडिया के साथ साथ सम्मिलन भी आयोजित करता था। उसका तीसरा आयोजन इसी अक्टूबर में केरल में ही प्रस्तावित था जिसकी तैयारी चल रही थी कि यह दुखद घटना घट गयी। 11 अगस्त 2023 को नायर साहब नहीं रहे।

मेरी नौकरी के सबसे सुखद वर्ष वे ही रहे जो मैंने उनके नेतृत्व में बिताये। वे हमेशा याद रहेंगे। इकबाल मजीद साहब ने सही फर्माया है-

कोई मरने से मर नहीं जाता

देखना, वह यहीं कहीं होगा    

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023