बुधवार, अगस्त 23, 2023

फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2

 

फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2

एक व्यावसायिक उत्पाद की नकल

वीरेन्द्र जैन



जब भी व्यावसायिक रूप से सफल किसी फिल्म के नाम को दूसरा क्रम देकर कोई मूवी बनाई जाती है तो वह पहली फिल्म से अच्छी नहीं होती। ऐसी फिल्म को दूसरा क्रम इसीलिए दिया जाता है ताकि पहली सफल फिल्म के प्रभाव का लाभ उठा कर व्यावसायिक लाभ उठाया जा सके। यह एक तरह से पहली फिल्म के दर्शकों के साथ ठगी होती है। अगर अच्छी होती तो उसे नये नाम से बनायी जा सकती थी। दृश्यम -2 आदि में हम ऐसी ही ठगी देख चुके हैं।

पहले फिल्में कहानियों पर बनती थीं, फिर घटनाओं व खबरों पर बनने लगीं और ‘ओह माई गाड -2” जैसी फिल्में किसी अखबार या पत्रिका में प्रकाशित लेखों पर बनने लगी हैं। इसमें कथानक नहीं है अपितु विचार और उसके पक्ष मे तर्क वितर्क होते हैं। फिल्म में पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा की जरूरत के पक्ष को रखने और उस विषय की पक्षधरता के लिए एक अदालती बहस खड़ी कर दी गयी है। यह फिल्म उन लोगों को कुछ जानकारी दे सकती है जो अखबारों के सम्पादकीय पेज नहीं पढते या पत्रिकाओं में सामाजिक विषयों पर प्रकाशित सामग्री नहीं देखते। फिल्म के अंत में जो जनमत बनता दिखाया गया है वह नकली लगता है क्योंकि सदियों से निर्मित धारणाओं को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता जितनी आसानी से इसे टूटता दिखाया गया है। बिना सामाजिक आन्दोलन चलाये हमने संविधान के सहारे जातिवाद, धार्मिक भेदभाव आदि बदलने की जो कोशिशें की हैं वे अदालती फैसलों तक सीमित होकर रह गयी हैं और उन्हें ज़मीन पर उतरना बाकी है। किशोर अवस्था में यौन शिक्षा की जानकारी केवल सूचना भर नहीं रह जाती अपितु यौन संवेदना भी पैदा करती है और उसके शमन का कोई उपाय नहीं सुझाया गया है।

फिल्म का विषय महत्वपूर्ण है जिसे और अच्छी तरह से कहानी में पिरो कर एक अधिक अच्छी फिल्म बनायी जाना चाहिए थी या कहें कि बनाई जा सकती थी किंतु निर्माता निर्देशक की दृष्टि एक धर्मस्थल पर जनता की आस्था को भुनाना, और इसी नाम से सफल हो चुकी फिल्म के दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचना भर थी। फिल्म पर विवाद खड़े करके उसे चर्चित कराना भी एक हथकंडा बन चुका है, जिसका स्तेमाल इस फिल्म के लिए भी किया गया था और सेंसर से ‘ए’ सार्टिफिकेट प्राप्त कर लिया गया था। इसमें कथा नायक के दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाने के बाद पुनर्जीवित होने को छोड़ दें तो दूसरा कोई चमत्कारी दृश्य नहीं है। बाल कलाकारों का अभिनय अच्छा है व सहयोगियों की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव व अरुण गोविल की भूमिकाएं संतोषजनक हैं। इसे कामेडी फिल्म की तरह प्रचारित किया गया है किंतु कामेडी ना के बराबर है। इस फिल्म में स्टार अक्षय कुमार का नाम प्रमुखता से दिया गया है किंतु फिल्म के नायक पंकज त्रिपाठी हैं, जो अक्षय कुमार की तुलना में अपेक्षाकृत अच्छे अभिनेता हैं। अक्षय कुमार की बहुत सीमित भूमिका है। वकील के रूप में यामी गौतम ने सुन्दर दिखने की भूमिका भर निभायी है।

किसी सन्देश को लेकर बनायी गयी फिल्मों को दर्शक तक पहुंचाने की योजना भी बनायी जाना चाहिए थी, जिससे सम्बन्धितों तक बात पहुंचे और कार्यांवयन हो सके।    

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

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