रविवार, फ़रवरी 28, 2016

गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नाम एक खुला खत

गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नाम एक खुला खत
वीरेन्द्र जैन

गृहमंत्री जी,
पिछले दिनों लोकसभा में मानव संसाधन के पद पर सुशोभित सुश्री स्मृति ईरानी के उपयुक्त अभिनय के साथ दिये गये बहुचर्चित बयान पर आपने जिस मुग्ध्भाव से उनके बयान को परिपूर्ण बताते हुए कहा था कि उसके बाद आपको कहने के लिए कुछ नहीं रह जाता है, इससे यह स्पष्ट हो गया था कि उनका कथन ही आपका कथन है। प्रधानमंत्री के पद सुशोभित कर रहे श्री नरेन्द्र मोदी ने भी उनके बयान को सुन कर उन्हें ट्वीट करके बधाई दी थी जिससे यह साफ हो गया था कि वे भी उनके बयान को समर्थन दे रहे हैं, अर्थात यह बयान सरकार का बयान बन गया है।
अब जब उस पूरे बयान की धज्जियां उड़ गयी हैं और वह अतिरंजना व सफेद झूठ का एक पुलिन्दा सिद्ध हो गया है, तब क्या आपकी सरकार उसकी उसी तरह सामूहिक जिम्मेवारी लेगी जिस तरह से वह प्रशंसा में सम्मलित हो गयी थी व अन्धभक्त जय जयकार करने लगे थे। इस दौरान देखा गया है कि तथ्यों के गलत सिद्ध होने पर सुश्री मायावती ने उसी सामंती काल की तरह स्मृति ईरानी का सिर मांग लिया जिस फिल्मी अन्दाज़ में उन्होंने कहा था कि अगर मेरे कथन से आप संतुष्ट न हों तो आपके चरणों में सिर काट कर डाल दूंगी। मुझे स्मृति ईरानी से सहानिभूति है क्योंकि उन्होंने सदन में जो भी ड्रामा किया वह उनका मूल भाव है और उसी गुण के कारण वे इस महान देश के इतने बड़े पद पर विराजमान हैं। मोदी उनके आदर्श बन चुके हैं और चरणों में सिर डालने वाली बात वैसी ही थी जैसी कि सौ दिन में काला धन न लाने की स्थिति में उन्होंने फाँसी पर चढा देने की शर्त रखी थी। वैसे भी सिर घुटाने, चने खाने, फर्श पर सोने के सुषमा स्वराज और उमा भारती के इसी श्रेणी के बयान पहले भी आ चुके हों। पालटिकल पार्टी की जगह रामलीला पार्टी।
भाजपा अभिनेता अभिनेत्रियां को हमेशा आमंत्रित करती रही है, और वह इकलौती ऐसी पार्टी है जो सबसे अधिक कलाकारों, खिलाड़ियों, मंच के मसखरों, पूर्व राज परिवार के सदस्यों के सहारे संसद में संख्याबल बनाती रही है। हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, स्मृति ईरानी, दीपिका चिखलिया, अरविन्द त्रिवेदी, दारा सिंह, किरन खेर, अनुपम खेर, परेश रावल, मनोज तिवारी, बाबुल सुप्रियो, कीर्ति आज़ाद, नवजोत सिंह सिद्धु, चेतन चौहान, आदि छोटे बड़े पचास से अधिक गैर राजनीतिक सैलिब्रिटीज का सहारा लेकर विभिन्न समयों में अपना अस्तित्व बनाये रख सकी है और विस्तार कर सकी है। कहने की जरूरत नहीं कि इन सब में स्मृति ईरानी ही वह कलाकार हैं जो राजनीति के साथ रुचिपूर्वक जुड़ी हैं, भले ही कभी कभी शत्रुघ्न सिन्हा और अनुपम खेर अपनी विवादास्पद बातों से चुनाव के बाद भी फुलझड़ी छोड़ कर चर्चा में बने रहे हैं।
स्मृति ईरानी ने मोदी केबिनेट की जिस स्क्रिप्ट पर नथुने फुला, आँखें निकाल, उँगली तान कर, सफल अभिनय करते हुए जो भावुकता की चाशनी में डुबो कर जो भाषण झाड़ा उसका सारा झाग बैठ गया है। कौन नहीं जानता कि प्रत्येक विभाग के मंत्री को अधिकांश सांसद पत्र लिखते हैं, और उनको मिले वीआईपी स्टेटस के अनुसार प्रत्येक सरकार के प्रत्येक विभाग के मंत्री उनको उत्तर देते हैं किंतु मंत्रीजी ने अपने उत्तर को विस्तार देने के लिए एक एक पत्र का जो अहसान सा बताया उसकी निरर्थकता उसी समय स्पष्ट हो गयी थी, क्योंकि विपक्ष की तुलना में सत्तारूढ दल के सांसद अधिक पत्र लिखते हैं जो पक्षपातपूर्ण कामों के लिए होते हैं। बंगारू दत्तात्रेय के पत्र पर जो हैदराबाद विश्वविद्यालय पर तेज गति से आक्रामक पत्र हमला हुआ था वह प्रशासनिक से ज्यादा राजनीतिक था और सत्तारूढ दल के अल्पसंख्यक छात्र संगठन के हित में सरकारी पद का दुरुपयोग अधिक था। रोहित वेमुला की आत्महत्या जो हत्या के समतुल्य मानी गयी है के बारे में बड़े भावुक ढंग से जिस झूठ को बोला गया वह चौबीस घंटे भी नहीं टिक सका जब सम्बन्धित डाक्टर ने कह दिया कि सूचना मिलने के पाँच मिनिट के अन्दर ही वह पहुँच गयी थीं व पुलिस अधिकारियों के साथ उनके फोटो सामने आ गये। भावुकता जगाने के लिए मोदी के लखनऊ में बहाये गये नकली आँसुओं की तरह 28 साल के जिस नौजवान को ‘बेचारा बच्चा’ बताया उसी के बारे में इनके प्रचारक पहले ‘याकूब मेनन की फाँसी को गलत मानने वाला देशद्रोही’ बता रहे थे तथा उसे दलित मानने से इंकार कर रहे थे। पिछले दिनों दिल्ली में उसकी माँ ने साफ कहा कि स्मृति ईरानी पूरी तरह गलत बयानी कर रही हैं।
स्मृति ईरानी ने कहा था कि देश के अधिकांश कुलपति पिछली सरकार के चुने हुए हैं और अगर एक भी कुलपति उनपर संघ का एजेंडा लागू करने का आरोप लगाए तो वे इस्तीफ़ा दे देंगी. शायद वे भूल गईं कि उनकी कार्यप्रणाली के ही ख़िलाफ़ मशहूर परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर आइआइटी मुंबई के अध्यक्ष पद से और शिवगांवकर आइआइटी दिल्ली के निदेशक के पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। आपको इमरजैंसी के बाद वाला वह वाक्य भी याद होगा कि कुछ लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वो लोग लेट गये।
अगर स्मृति ईरानी के बयान की स्क्रिप्ट मोदी मन्त्रिमण्डल ने नहीं लिखी होती तो उन्हें जे एन यू वाले मामले में महिषासुर की पूजा और दुर्गा के बारे में कथित अपशब्द की चर्चा की कोई जरूरत नहीं थी और आगामी पश्चिम बंगाल में गलतफहमी पैदा करने व उसे पूरे बामपंथियों के ऊपर थोप देने षड़यंत्र नहीं रचा गया होता।
स्मृति ईरानी ने टीवी सीरियलों से मिली लोकप्रियता को अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं भुनाने में देर नहीं की। महत्वपूर्ण लोगों के खिलाफ चुनाव लड़ने से मिलने वाली लोकप्रियता के हर अवसर को भुनाया। भले ही उन्हें चुनावों में कभी सफलता नहीं मिली पर लोकप्रियता में वृद्धि तो हुयी। इसी क्रम में उन्होंने अपने आज के आदर्श नरेन्द्र मोदी को 2004 में अटल बिहारी सरकार को मिली पराजय के लिए जिम्मेवार ठहराया था और उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने तक आमरण अनशन की घोषणा की थी। अपने इसी प्रयास के कारण उन्हें महत्व मिला और आज वे चुनावों में मिली हार और कम औपचारिक शिक्षा के बाबजूद केन्द्र में मानव संसाधन विकास मंत्री हैं, व मध्यम सवर्ण वर्ग में लोकप्रिय प्रधानमंत्री को वरिष्ठ और अनुभवी लोगों से अधिक प्रिय हैं।
जे एन यू में लगे देश विरोधी नारों के बारे में हाफिज सईद की भूमिका वाले  आपके बयान पर दुनिया काफी हँस चुकी है जिसे आप गोपनीयता के नाम पर छुपा गये हैं। अभी तक उमरखालिद के आठ सौ फोन कालों का सत्य सामने नहीं आ सका है और आशंका है कि भविष्य में कसाव को बिरयानी खिलाने जैसा झूठा न सिद्ध हो। एडवोकेट निकम को पद्मश्री और ज़ी टीवी के आरोपी पत्रकार को एक्स श्रेणी की सुरक्षा भी जुगुप्सा जगाती है।   
महानुभाव, जब सरकार को जनता चुनती है तो सरकार की बदनामी में कहीं उसे चुनने वाली जनता की बदनामी भी छुपी होती है, भले ही आपकी सरकार को इकतीस प्रतिशत जनता का ही समर्थन प्राप्त हो. फिर भी  उसे और ज्यादा शर्मिन्दा होने से बचायें। मारपीट करने वाले आपके प्रिय वकील व आपके ज्ञानदेव आहूजा आपको ही मुबारक हों, ये भविष्य में आपको भी तकलीफ देंगे। आपकी पार्टी भारतीय परम्परा की दुहाइयां देने में सबसे आगे रहती है पर भूलों के लिए क्षमा मांगना भी भारतीय परम्परा ही है। कभी मांग कर देखें, शायद लोग क्षमा कर दें।  
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 24, 2016

झूठ और पाखण्ड भाजपा की रणनीति है

झूठ और पाखण्ड भाजपा की रणनीति है
वीरेन्द्र जैन

क्या आपको याद है कि अफज़ल गुरू की फाँसी से उपजे जिस विवाद पर आज देश गर्म है उससे सम्बन्धित  अपराध अर्थात आज़ाद भारत में संसद पर हमला इससे पहले भी हो चुका है। यह हमला 1966-67 में हुआ था और गौरक्षा के नाम पर चलाये गये उस आन्दोलन में भारतीय जनसंघ भी शामिल था। चिमटाधारी साधु भेषधारी हमलावरों ने सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हुए सदन में घुसने का प्रयास किया था व संसद की सुरक्षा में सुरक्षाकर्मियों को गोली चलाना पड़ी थी। उस समय साधु सन्यासियों के भक्त माने जाने वाले गुलजारी लाल नन्दा गृहमंत्री थे जो सैनिकों को गोली न चलाने की अपील करते हुए सदन से दौड़ कर बाहर आये थे किंतु उनकी सुरक्षा के लिए सैनिकों को उन्हें जबरदस्ती अन्दर ले जाना पड़ा था। आज भारतीय जन संघ का नया संस्करण भाजपा उस घटना को याद भी नहीं करना चाहती।
भाजपा का सबसे बड़ा दुर्गुण उसका दोहरापन है। वे जानते हैं कि उनके लक्ष्यों और कार्यप्रणाली के प्रति देश की जनता का समर्थन नहीं है इसलिए वे येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर सत्ता पर अधिकार कर लेना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें निरंतर झूठ बोलना पड़ता है या अपने वक्तव्यों को गोलमोल और अस्पष्ट बनाना पड़ता है। सत्ता से अर्जित शक्ति और संसाधनों का प्रयोग संघ के दूसरे 62 संगठन करते हैं। इन संगठनों के ऊपर संकट आने पर ये दूरी बना लेते हैं, और उन्हें अपने से अलग बतलाने लगते हैं। सत्ता के संसाधनों से जिन संगठनों का ये पोषण करते हैं उनसे अलग होने का झूठ इन्हें बहुत अविश्वसनीय व हास्यास्पद बना देता है।
सत्ता पाने के लिए लोहिया के गैर काँग्रेसवाद की मूल भावना से असहमत होते हुए भी ये उसका समर्थन करने वालों में सबसे आगे रहे व संविद सरकारों का युग प्रारम्भ होने के बाद ये सभी संविद सरकारों में सम्मलित हुए भले ही उनके घटक दलों का मूल चरित्र कुछ भी रहा हो और इन्हें कैसी भी हैसियत में रखा गया हो। राज्यों के सभी संविद सरकारों में सम्मलित रहने के बाद 1977 में जब केन्द्र में गैर काँग्रेस सरकार का पहला प्रयोग हुआ तो उसमें सबको अपने अपने दल को जनता पार्टी में विलीन करने के लिए कहा गया। इस अवसर पर मार्कसवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ऐसा करने से मना कर दिया और केवल सीटों का चुनावी समझौता किया किंतु भारतीय जनसंघ ने सत्ता में साझेदार होने के लिए अपनी पार्टी को विलीन करने का दिखावा दिया। इस मामले में जल्दी ही उनका झूठ पकड़ा गया क्योंकि उनके लोग अभी भी जनता पार्टी के नहीं अपितु संघ के आदेशों पर काम कर रहे थे और उसके प्रति ही बफादार थे। देश की पहली गैरकाँग्रेस सरकार इनके इस झूठ के कारण ही भंग हुयी थी। 1989 में जब वी पी सिंह ने काँग्रेस से अलग होकर जनमोर्चा बनाया था तब उनका झंडा लेकर सबसे पहले ये ही आगे निकले थे किंतु चुनाव के बीच ही उन्हें इनकी योजना की भनक मिल गयी थी और उन्होंने इनसे किनारा कर लिया था। बाद में जीत के आँकड़े ऐसे आये कि उन्हें भाजपा और सीपीएम दोनों के समर्थन की जरूरत थी जिससे उत्साहित होकर ये फिर से सत्ता में सम्मलित होने के लिए उतावले हो गये। किंतु सीपीएम ने अपनी नीतियों के अनुसार सरकार में सम्मलित होने से इंकार कर दिया और समर्थन के लिए शर्त रख दी कि वह तभी दिया जायेगा जब भाजपा को सरकार में सम्मलित न किया जाये। तब इन्हें मजबूरन सत्ता से बाहर रहना पड़ा था। यही समय था जब इन्होंने मंडल कमीशन का विरोध करने के लिए एक ओर काँग्रेस से हाथ मिला लिया व दूसरी ओर राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर रथयात्राओं की योजना बनायी।
राम जन्मभूमि मन्दिर की याद इन्हें न तो उत्तर प्रदेश में संविद सरकारों के दौर में आयी थी और न ही केन्द्र में जनता पार्टी में सम्मलित रहते हुए ही आयी थी। बाद में भी अटलबिहारी की केन्द्र में सरकार के समय व उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ सरकार बनाने के बाद इन्होंने मुद्दे को फिर दबा कर रखा। इससे स्पष्ट हो गया कि ये मुद्दा उनकी आस्था का नहीं अपितु चुनावी कूटनीति का था। वोटों के लिए उन्होंने जब भी सम्भव हुआ इस मुद्दे से लोगों की आस्थाओं का विदोहन किया और कभी भी अपनी नीति स्पष्ट नहीं की। रथयात्रा से पूरे देश में घूमते हुए जब अडवाणी जी अपने पीछे एक रक्तरंजित लकीर छोड़ते आ रहे थे और उनके कार्यकर्ताओं के उत्तेजक नारे बाबरी मस्ज़िद को तोड़ने का वातावरण बनाते आ रहे थे तब उसे तोड़ने के बाद उन्होंने साफ झूठ कहा कि हमारा कोई इरादा मस्ज़िद तोड़ने का नहीं था और मैं [अडवाणी] तो उन्हें वापिस बुला रहा था, किंतु वे मराठीभाषी होने के कारण मेरी बात समझ नहीं पाये।
      इससे पूर्व राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने आश्वासन दिया था कि मस्ज़िद की रक्षा की जायेगी किंतु मस्ज़िद गिरने के बाद में कहा कि राष्ट्रीय एकता परिषद की कोई संवैधानिक भूमिका नहीं है। इस मामले में इन लोगों ने न केवल देश को धोखा दिया अपितु अपने आस्थावान कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी धोखे में रख कर अपनी सुविधानुसार मुद्दे को भुनाया या भुलाया। राम के नाम पर अपने अन्दोलन चलाने के बाद भी वचनों के प्रति दृढ नहीं रहे।
अन्ना के भ्रष्ट्राचार विरोधी आन्दोलन के समय इन्होंने उसे हथियाने की कोशिश की, आन्दोलनकारियों के भोजन की व्यवस्था की, किंतु इनके सत्तालोलुपता के इतिहास को देखते हुए जब इन्हें किनारे कर दिया गया तब इन्होंने अन्ना का साथ छोड़ दिया व उस आन्दोलन के घटकों के विरोधी हो गये।
गुजरात 2002 में किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आक्रोश से उपजी आगजनी की घटना को साम्प्रदायिक उन्माद में बदलकर भयानक नरसंहार होने दिया और पूरे प्रदेश को साम्प्रदायिक आग में झौंक दिया। सूचना माध्यमों पर सबसे पहले अधिकार करने वाले इनके संगठन ने जब जनता पार्टी में मौका मिला था तब सूचना प्रसारण मंत्रालय उनकी पहली पसन्द थी जिस दौरान अडवाणीजी ने सारे सूचना माध्यमों में अपने लोग भर डाले थे। 2002 में साबरमती एक्सप्रैस के ‘एक डिब्बे में लगी आग’ को उन्होंने ‘कार सेवकों से भरी ट्रैन’ में आग लगाना बताया। जबकि सच यह था कि इस दुखद घटना में जो 59 लोग जल कर मरे थे उनमें कार सेवक केवल दो थे। शेष मृतकों में मासूम बच्चे और महिला यात्री थीं। इतने बेगुनाग लोगों का मारा जाना भी बेहद दुखद और दिल दहला देने वाली घटना है किंतु घटना का मूल चरित्र उस तरह से साम्प्रदायिक व राम मन्दिर आन्दोलन से जुड़ा नहीं था जिस तरह से उसे प्रचारित करके उन्माद पैदा किया गया। जिन लोगों पर आरोप लगाया गया उनमें से आधे से अधिक लोगों को अदालत ने निर्दोष पाकर छोड़ दिया किंतु उनकी ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण बीस बरस जेल में ही कट गये। इन निर्दोषों में से दो की मृत्यु तो जेल में ही हो गयी थी। बाद में हरेन पंड्या की हत्या से लेकर गवाहों को बदलने आदि की सैकड़ो कहानियां स्टिंग आपरेशन में सामने आयीं।
इसी तरह छोटे मोटे स्तर पर ‘कैश फार वोट’, राम सेतु, रोहित वेमुला, आदि की हजारों कहानियां इनसे जुड़ी हैं। जे एन यू का ताज़ा विवाद भी देश की राजधानी में मीडिया के सहारे एक ज्वलंत सच को झुठलाने का घृणित उदाहरण है जो देश की राजधानी की इलैक्ट्रोनिक पारदर्शिता व सोशल मीडिया के कारण सच जल्दी सामने आ गया। नारेबाजी की इस घटना को राष्ट्रद्रोह से जोड़ कर अपने ही लाखों समर्थक लोगों को भ्रमित करके उत्तेजित किया है। अभी तक पीड़ित पक्ष अपने लिए राहत पाकर चुप हो जाता था किंतु अब समानांतर मीडिया और सोशल मीडिया के साथ साथ लगभग प्रत्येक व्यक्ति के पास मौजूद मोबाइल कैमरा झूठ को ज्यादा चलने नहीं दे सकता। जिस व्यक्ति या संस्था ने देश की सुरक्षा से जुड़ी इतनी बड़ी घटना में के मूल स्वरूप को अपने टुच्चे राजनीतिक स्वार्थ के लिए बदला है व जिस मीडिया ने जान बूझ कर उसे चलाया है उसे माफ करना भी देशद्रोह है। जरूरत पड़ने पर उनसे सख्त पूछ्ताछ होना चाहिए भले ही नार्को टेस्ट का सहारा क्यों नहीं लेना पड़े। भाजपा में जो लोग षड़यंत्र रचने में लगे हैं वे अपने विरोधियों से ज्यादा तो अपने मासूम समर्थकों के साथ धोखा करते हैं जो इनके दुष्प्रचार से प्रभावित होकर हिंसा में उतर जाते हैं। आई टी सैल के प्रद्योत बोरा के साथ जे एन यू के एबीवीपी के तीन पदाधिकारियों का त्यागपत्र कुछ बोलता है, भले ही रामजेठमलानी, कीर्ति आज़ाद, शत्रुघ्न सिंहा, भोला सिंह, आर के सिंह, शांता कुमार आदि की मुखर और मार्गदर्शक मंडल की मौन असहमति को अब तक उपेक्षित रखा जा रहा हो।  
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, फ़रवरी 09, 2016

निदा फाज़ली, बच्चे और भगवान

निदा फाज़ली, बच्चे और भगवान
वीरेन्द्र जैन

बाइबिल में कहा गया है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं। इंसान का असली सौन्दर्य उसके बच्चे होने में ही झलकता है। रजनीश कहते हैं कि ‘प्रत्येक बच्चा चाहे वह किसी पशु का ही क्यों न हो सुन्दर लगता है, इसका कारण उसका सच्चा होना होता है’। विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों के उदय के पूर्व तक हमारे जिन महापुरुषों, देवी देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया है उनका सौन्दर्य उनकी सौम्यता में ही प्रकट होता है। वे कहते हैं कि ‘बच्चा जैसा जैसा बड़ा होता जाता है वह दुनियादार होता जाता है और उसकी मासूमियत के साथ साथ उसका सौन्दर्य भी घटता जाता है’। साम्प्रदायिक संगठनों के फैलाव के पूर्व तक महापुरुषों के चित्र और उनकी मूर्तियां ‘बड़े बच्चों’ की मूर्तियां होती थीं जिनका सौन्दर्य देख कर अच्छा लगता था। निदा फाजली की शायरी के आस पास हमेशा एक बच्चा रहा है जिसकी निगाह से दुनिया को दिखा कर उन्होंने समाज की समीक्षा की है।
बच्चा बोला देख कर मस्ज़िद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इत्ता बड़ा मकान
अगर हम शब्दों के चयन को देखें तो ‘इतना’ शब्द में भी वही वज़न है पर वे इतना की जगह ‘इत्ता’ शब्द का प्रयोग करते हैं। इस एक शब्द से जो मासूमियत प्रकट होती है उससे काव्य का सौन्दर्य कई कई गुना बढ जाता है।
उनकी एक नज़्म है- ‘कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं’
हुआ सवेरा 
ज़मीन पर फिर अदब 
से आकाश 
अपने सर को झुका रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
नदी में स्नान करने सूरज
सुनारी मलमल की 
पगड़ी बाँधे 
सड़क किनारे 
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में 
दुआओं के गीत गा रही हैं 
महकते फूलों की लोरियाँ 
सोते रास्तों को जगा रही 
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने 
हिला रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
फ़रिश्ते निकले रोशनी के 
हर एक रस्ता चमक रहा है 
ये वक़्त वो है 
ज़मीं का हर ज़र्रा 
माँ के दिल सा धड़क रहा है 
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 

ये नज़्म केवल स्कूल जाने वाले बच्चों की ओर ही नहीं अपितु स्कूल न जा पाने वाले बच्चों के प्रति हो रही समाजिक निर्ममता की भी याद दिला देती है। उनकी चिंता उस बच्चे के लिए भी है जो रो रहा है और उसे हँसाने के लिए मस्ज़िद जाना छोड़ा जा सकता है।
घर से मस्ज़िद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
जिस छवि को देख कर सूरदास और रसखान दुनिया भर की दौलत न्योछावर कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं, उसे देख कर निदा फाज़ली की यशोदा कैसे मुग्ध होती है -
घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कराती है
मुझको हैरत है जाने क्यों दुनिया
काबा ओ सोमनाथ जाती है।
उनके काव्य दर्शन में भी जो प्रतीक आते हैं वे भी बच्चों की दुनिया के होते हैं-
दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है
मिल जाये तो माटी है, खो जाये तो सोना है
या
गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़ धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
      उनकी शायरी में जो माँ है वह भी बच्चों की माँ है, जवानों और प्रौढों की माँ नहीं है।
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बच्चों, खास तौर पर लड़कियों की शिक्षा के लिए मलाला यूसुफ जई के संघर्ष की तरीफ में लिखी एक नज़्म में वे कहते हैं-
.....स्कूलों को जाते रस्ते ऊंचे नीचे थे
जंगल के खूंख्वार दरिन्दे आगे पीछे थे
मक्के का एक उम्मी* तेरी लफ़्ज़ों का रखवाला....मलाला मलाला.........
बच्चों को जल्दी बड़े होने की दुआ देने की परम्परा के विपरीत उनका मानना था कि बच्चों के बचपन को जितना अधिक से अधिक बचा कर रखा जा सके, उतनी ही ये दुनिया सुन्दर बनी रह सकेगी।
बच्चों के नाजुक हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबे पढ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे
      बच्चों में बचपन को बचा कर रखना और उसे बड़ों तक ले जाने के हर प्रयास में सहयोग करके ही  निदा फाज़ली जैसे खूबसूरत शायर को  श्रद्धा सुमन अर्पित किये जा सकते हैं।  
वीरेन्द्र जैन
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