मंगलवार, फ़रवरी 09, 2016

निदा फाज़ली, बच्चे और भगवान

निदा फाज़ली, बच्चे और भगवान
वीरेन्द्र जैन

बाइबिल में कहा गया है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं। इंसान का असली सौन्दर्य उसके बच्चे होने में ही झलकता है। रजनीश कहते हैं कि ‘प्रत्येक बच्चा चाहे वह किसी पशु का ही क्यों न हो सुन्दर लगता है, इसका कारण उसका सच्चा होना होता है’। विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों के उदय के पूर्व तक हमारे जिन महापुरुषों, देवी देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया है उनका सौन्दर्य उनकी सौम्यता में ही प्रकट होता है। वे कहते हैं कि ‘बच्चा जैसा जैसा बड़ा होता जाता है वह दुनियादार होता जाता है और उसकी मासूमियत के साथ साथ उसका सौन्दर्य भी घटता जाता है’। साम्प्रदायिक संगठनों के फैलाव के पूर्व तक महापुरुषों के चित्र और उनकी मूर्तियां ‘बड़े बच्चों’ की मूर्तियां होती थीं जिनका सौन्दर्य देख कर अच्छा लगता था। निदा फाजली की शायरी के आस पास हमेशा एक बच्चा रहा है जिसकी निगाह से दुनिया को दिखा कर उन्होंने समाज की समीक्षा की है।
बच्चा बोला देख कर मस्ज़िद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इत्ता बड़ा मकान
अगर हम शब्दों के चयन को देखें तो ‘इतना’ शब्द में भी वही वज़न है पर वे इतना की जगह ‘इत्ता’ शब्द का प्रयोग करते हैं। इस एक शब्द से जो मासूमियत प्रकट होती है उससे काव्य का सौन्दर्य कई कई गुना बढ जाता है।
उनकी एक नज़्म है- ‘कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं’
हुआ सवेरा 
ज़मीन पर फिर अदब 
से आकाश 
अपने सर को झुका रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
नदी में स्नान करने सूरज
सुनारी मलमल की 
पगड़ी बाँधे 
सड़क किनारे 
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में 
दुआओं के गीत गा रही हैं 
महकते फूलों की लोरियाँ 
सोते रास्तों को जगा रही 
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने 
हिला रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
फ़रिश्ते निकले रोशनी के 
हर एक रस्ता चमक रहा है 
ये वक़्त वो है 
ज़मीं का हर ज़र्रा 
माँ के दिल सा धड़क रहा है 
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 

ये नज़्म केवल स्कूल जाने वाले बच्चों की ओर ही नहीं अपितु स्कूल न जा पाने वाले बच्चों के प्रति हो रही समाजिक निर्ममता की भी याद दिला देती है। उनकी चिंता उस बच्चे के लिए भी है जो रो रहा है और उसे हँसाने के लिए मस्ज़िद जाना छोड़ा जा सकता है।
घर से मस्ज़िद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
जिस छवि को देख कर सूरदास और रसखान दुनिया भर की दौलत न्योछावर कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं, उसे देख कर निदा फाज़ली की यशोदा कैसे मुग्ध होती है -
घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कराती है
मुझको हैरत है जाने क्यों दुनिया
काबा ओ सोमनाथ जाती है।
उनके काव्य दर्शन में भी जो प्रतीक आते हैं वे भी बच्चों की दुनिया के होते हैं-
दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है
मिल जाये तो माटी है, खो जाये तो सोना है
या
गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़ धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
      उनकी शायरी में जो माँ है वह भी बच्चों की माँ है, जवानों और प्रौढों की माँ नहीं है।
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बच्चों, खास तौर पर लड़कियों की शिक्षा के लिए मलाला यूसुफ जई के संघर्ष की तरीफ में लिखी एक नज़्म में वे कहते हैं-
.....स्कूलों को जाते रस्ते ऊंचे नीचे थे
जंगल के खूंख्वार दरिन्दे आगे पीछे थे
मक्के का एक उम्मी* तेरी लफ़्ज़ों का रखवाला....मलाला मलाला.........
बच्चों को जल्दी बड़े होने की दुआ देने की परम्परा के विपरीत उनका मानना था कि बच्चों के बचपन को जितना अधिक से अधिक बचा कर रखा जा सके, उतनी ही ये दुनिया सुन्दर बनी रह सकेगी।
बच्चों के नाजुक हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबे पढ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे
      बच्चों में बचपन को बचा कर रखना और उसे बड़ों तक ले जाने के हर प्रयास में सहयोग करके ही  निदा फाज़ली जैसे खूबसूरत शायर को  श्रद्धा सुमन अर्पित किये जा सकते हैं।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

  

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