सोमवार, जून 27, 2011

संस्मरण -एस पी सिंह की याद में


एस पी सिंह की याद में

उन्होंने मेरे लेखन के लिए उत्प्रेरक का काम किया

वीरेन्द्र जैन

अगर आज एसपी सिंह होते तो 63 साल के हो गये होते और पता नहीं उनके चेहरे पर कैसी बुजर्गियत झलक रही होती, पर जो सक्रिय लोग युवा अवस्था में ही काल के गाल में समा जाते हैं वे हमेशा युवा की तरह ही याद किये जाते हैं।

एस पी से मेरा परिचय धर्मयुग के माध्यम से ही हुआ। 1972 में होली अंक के लिए धर्मयुग ने युवा रचनाकारों की व्यंग्य रचनाएं आमंत्रित की थी तथा प्राप्त लगभग ग्यारह सौ रचनाओं में से इकतीस रचनाओं और रचनाकारों का चयन किया था। इन इकतीस युवा रचनाकारों में मेरे साथ ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यबाला, सुरेश नीरव, आदि थे। इस चयन को मैंने किसी बड़े पुरस्कार की तरह लिया था, और धर्मयुग की जो स्थिति थी उसके अनुसार वह पुरस्कार जैसा ही था, क्योंकि धर्मयुग में भारतीजी के कठोर अनुशासन में रचनाओं का चयन बहुत ही निष्पक्ष ढंग से होता था। धर्मयुग में छपने का मतलब अखिल भारतीय हो जाना था। मैं इस चयन से इतना उत्साहित था कि प्रति सप्ताह एक रचना छपने के लिए भेजने लगा, पर पूरे वर्ष में कुल चार छह रचनाएं ही छप पाती थीं। एक दिन धर्मयुग से पत्र आया जिसे एस पी सिंह ने लिखा था और मुझे सलाह दी थी कि में धर्मयुग के छींटे और बौछार, जो चुटकलों का स्तम्भ था, के लिए चुटकले लिखूं। यद्यपि यह प्रस्ताव मुझे कुछ अटपटा तो लगा किंतु धर्मयुग में प्रकाशित होते रहने का मोह ऐसा ऐसा था कि मैंने पुराने रीडर्स डाइजेस्ट के तमाम पुरस्कृत चुटकलों को पचा कर उन्हें भारतीय समाज और परिवार की विसंगतियों से जोड़ कर लिखने लगा। उन दिनों एस पी सिंह ही वह स्तम्भ देख रहे थे, भरपूर परिश्रम से लिखे वे चुटकले उन्हें एकदम मौलिक लगे और मुझे निरंतर छापने लगे। बाद में एक बार व्यक्तिगत बातचीत में जब मैंने चुटकले लिखवाने की शिकायत जैसी की तो उन्होंने बताया कि काका हाथरसी को स्तम्भ के रूप में कई वर्ष छापने के बाद हिन्दी कवि सम्मेलनों के परिदृष्य में जो बदलाव आया था उससे भारतीजी ने नीति बना ली थी कि किसी को भी एक सीमा से अधिक नहीं छापेंगे, आपके निरंतर और प्रकाशन के उपयुक्त लेखन को देखते हुए मुझे लगता था कि आपका किसी तरह जुड़ाव बना रहना चाहिए। चूंकि चुटकलों पर कोई निर्देश नहीं थे इसलिए मैंने आप से चुटकले लिखवाये जो मुझे व्यंग्य कविताओं की तरह ही मौलिक और बजनदार लगते थे।

बाद में जब वे रविवार में गये तब भी उनसे सम्पर्क बना रहा, और वहाँ से जब बच्चों की पत्रिका मेला निकली तो उन्होंने उसमें भी मुझसे बाल गीत लिखवाये। मैंने जब संकोच व्यक्त किया तो योगेन्द्र कुमार लल्ला ने कहा कि भाई एसपी ने ही कहा है कि आपको अवश्य लिखना चाहिए और आप लिख सकते हैं। उनकी बात टालना मेरे लिए सम्भव नहीं था तथा मैंने मेला के लिए बाल कविताएं लिखीं। बाद में जब वे नवभारत टाइम्स में चीफ एक्ज्यीक्यूटिव हो गये तब एक बार उनसे भेंट हुयी तो मैंने पत्रकारिता की अपनी दबी आकांक्षा बतायी। उन्होंने कहा कि अगर तुम बैंक की नौकरी छोड़कर आ सकते हो तो आ जाओ, प्रवेश तो मैं दिला सकता हूं, पर खड़े अपने पैरों पर ही होना पड़ेगा। उन्होंने ही हरिवंशजी को प्रेरित किया था और बैंक आफ इंडिया की नौकरी छुड़वाकर अपने पास रविवार में ले गये थे। मैं उस समय दुस्साहस नहीं कर सका।

आज जब पिछले दस साल से बैंक की नौकरी छोड़कर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा हूं तो एस पी सिंह की उत्प्रेरणा याद आती है।

वीरेन्द्र जैन

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मो. 9425674629

गुरुवार, जून 23, 2011

मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना


मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना

वीरेन्द्र जैन

अब मुंडे की बारी है। मुझे लगता है कि भाजपा एक बेरी का पेड़ है, जिसके पास थोड़ी थोड़ी देर बाद कोई न कोई बच्चा आता है, पेड़ को हिलाता है व अपने हिस्से के बेर बटोर कर चल देता है। वसुन्धरा राजे ने पार्टी के पेड़ को हिलाया था और अपना विपक्षी नेता का पद सुरक्षित बनाये रखा, अभी अभी उमा दीदी हिला कर गयी थीं और यूपी की दीवान बना दी गयीं थीं, अब मुंडे की बारी थी।

किसी फिल्म में एक डायलोग था- रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं। अगर इसी अन्दाज में देखा जाये तो गोपी नाथ मुंडे को भाजपा में जीजाजी का रिश्ता हासिल होना चाहिए अर्थात वे पिता तुल्य लोगों के दामाद की तरह हैं, क्योंकि वे दिवंगत प्रमोद महाजन के बहनोई हैं। अगर अटलजी की तरह आप की स्मृति लोप नहीं हुयी है तो आपको बता दें कि ये वही प्रमोद महाजन हैं जो उसी विभाग के मंत्री थे जिस विभाग में सेवाएं देते देते ए राजा तिहाड़ में हैं और कनमौझी मोमबत्तियां बनाना सीख रही हैं। ये वही प्रमोद महाजन हैं जिन्हें नागपुर अधिवेशन के दौरान अटलजी ने अपनी रामलीला पार्टी का लक्षमण बताया था। जिनके निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि देते समय उनके चित्र के नीचे लिखा गया था कि- तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें।

हाँ वैसे तो ये पंक्तियां देश के लिए शहीद हुये लोगों के सम्मान में लिखी जाती हैं, पर प्रमोद महाजन जी को तो उनके भाई ने ही गोली मार दी थी व रामकथा में सुग्रीव बाली और रावण विभीषण के सम्बन्धों की याद दिला दी थी। बाद में कातिल का कहना था कि मृतक भाई दो हजार करोड़ के मालिक थे और वह भूखों मर रहा था। यूं तो प्रमोद महाजन ने रिलायंस में उसकी नौकरी लगवा दी थी, पर उससे क्या होता है क्योंकि उसे कुल मिलाकर सिर्फ 75000/- रुपये महीना वेतन मिल रहा था। इतनी सी मामूली राशि से कहीं परिवार को पाला जा सकता है, वह जरूर भूखों मर रहा होगा। विभुक्षं किं न करोति पापं।

उसके बाद उसे जरूर अपराध बोध हुआ होगा, इसलिए वह जेल से बाहर नहीं आया जब तक कि उसकी आत्मा देह से बाहर आने के लिए दरवाजे तक नहीं आ गयी। जेल जाने से पहले वह स्वस्थ था और शायद लाइसेंसी पिस्तौल रखता था। अगर वह लाइसेंसी थी तो उसे लाइसेंस अवश्य ही प्रमोद महाजन की सिफारिश से मिला होगा। कई बार सिफारिशें कितनी खतरनाक होती हैं। वह अदालत के सामने अपनी गलती मानना चाहता होगा, और सम्भव है कि मानी भी हो पर मृतक के वकील ने उसके बयान सार्वजनिक न किये जाने का अनुरोध किया था जिसे माननीय अदालत ने स्वीकार कर लिया जिससे उसके बयान हमेशा के लिए गुमनाम होकर रह गये तथा उसका पश्चाताप सामने नहीं आ पाया।

वंशवाद के नाम पर दिन में तीन बार नियमपूर्वक गालियां निकालने वाली पार्टी ने प्रमोदजी के पुत्र को तुरंत उनकी विरासत देने की तैयारी कर ली तथा उसे पार्टी के मुख्यालय में बुला कर राजकुंवरों की तरह स्वागत किया। पर दुखद कि उसी दिन दिवंगत के सपूत ने पिता के गम से दुखी माहौल में कुछ जवानी की भूल कर दी जिससे प्रमोदजी के सचिव रहे व्यक्ति की मृत्यु हो गयी और सपूत कई दिन तक होश में आकर भी होश में नहीं आये, जब तक कि वकीलों द्वारा तैयार बयान देने लायक नहीं हो गये। अपनी जवानी की भूल में साथ देने के लिए जिन लड़कों को बुलाया गया था उनका क्या हुआ उसके प्रति मीडिया ने ध्यान नहीं दिया इसलिए इतिहास मौन हो गया है और भविष्य में भी रहेगा। बहरहाल इस पूरे एपीसोड को जिन मित्तल जी ने हैंडिल किया था उन्हें भारतीय संस्कृति पर गर्व करने वाली पार्टी ने राज्यसभा में अपने नेता के मुखर विरोध के बाद भी उत्तरपूर्व के राज्यों का प्रभार दिया हुआ है। अभी पिछले दिनों यही मित्तल दिल्ली में धरने के दौरान राज्यसभा में पार्टी के नेता को सोया समझ कर उनके पास सो गये थे किंतु जब नेता की आँख खुली तो उन्होंने अपने पड़ोस में सोये व्यक्ति की शकल देख कर अपने सोने की जगह बदल ली।

अपने दिवंगत नेता की संतानों के लिए दुबली हो रही पार्टी ने सपूत से निराश होने के बाद उसकी लाड़ली लक्ष्मी को विरासत सौंपने की कोशिश की और गोवा विधान सभा के चुनाव में टिकिट देने की कोशिश की, किंतु विधानसभा में पहुँचना उसकी किस्मत में नहीं था सो उसे युवा मोर्चे का पदाधिकारी बना दिया गया। उसके बाद उसे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान आखिरकार घाटकोपर से टिकिट देकर ही पार्टी ने चैन की साँस ली। पर हाय रे दुर्भाग्य कि इन मतदाताओं ने उसे हरा दिया और पार्टी अपने अहसानों का प्रतिफल नहीं दे सकी। इसी बीच प्रचार के लिए जोड़े गये शाटगन अर्थात शत्रुघ्न सिन्हा ने सवाल उठा दिया कि अगर पूनम महाजन को टिकिट दिया जा सकता है तो पूनम सिन्हा, अर्थात उनकी पत्नी को टिकिट क्यों नहीं दिया जा सकता! सितारे कभी कभी विचित्र तर्कों से सितारों की चाल खराब कर देते हैं।

मुंडे इसी गौरवशाली परिवार से जुड़े हैं और पार्टी उनसे बिछुड़ कर चैन कैसे पा सकती है। रिश्तों को दूर तक निभाने वाली यह पार्टी, कांग्रेस की तरह नारायन दत्त तिवारी, सुरेश कलमाड़ी व सहयोगी दल के राजा की तरह पकड़ में आने पर पीछा नहीं छुड़ा लेती है। अगर बंगारू कैमरे के सामने गिड्डियां दराज में डालते और डालरों में मांगते पकड़े जाते हैं तो कोई बात नहीं उनकी पत्नी को लोकसभा का टिकिट देकर उसकी भरपाई की जा सकती है, भले ही वे पहले पार्टी से कभी जुड़ी न रही हों। अगर जूदेव खुदा को ग्रहण करते हुए कैमरे में कैद हो जाते हैं तो भी भ्रष्टाचार विरोध की बारात में बेंड बजाने वाली पार्टी की ओर से राज्यसभा में भेज दिये जाते हैं। जय हो!

बुलबुल को गुल पसन्द है गुल को है बू पसन्द

मेरी पसन्द ये है कि मुझको है तू पसन्द

मुंडे ने पहले ही महाराष्ट्र राज्य के चुने हुए पार्टी अध्यक्ष को बदलवाकर पार्टी को झुका लिया था, बाद में लोकसभा के उपनेता के बदले ही गडकरी को पार्टी अध्यक्ष स्वीकारा था। बहरहाल मुंडे की नाराजी दूर हो गयी है। अब यह मत पूछिए कि कैसे दूर हुयी है, आपको आम खाने हैं कि पेड़ गिनने हैं?

वीरेन्द्र जैन

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शनिवार, जून 18, 2011

अब आपका स्वास्थ कैसा है उमाजी


अब आपका स्वास्थ कैसा है उमाजी? वीरेन्द्र जैन
अंततः उमा भारती को भाजपा में सम्मलित कर लिया गया है।
वे 2008 में मध्यप्रदेश का विधानसभा चुनाव हारने के बाद हिम्मत भी हार गयी थीं। भारतीय जनशक्ति, जो उनकी पार्टी का नाम था, पर कुछ दिनों से ऐसा लगने लगा था जैसे वह किसी उस आयुर्वेदिक दवा का ब्रांड नेम हो, जो भरपूर प्रचार के बाद भी बाजार में नहीं चल पायी। भारतीय जनशक्ति प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश और कुछ दूसरे राज्यों के उन लोगों का प्लेटफार्म बनी जिन्हें भाजपा में वह स्थान नहीं मिल सका था जो स्थान वे चाहते थे। मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केन्द्रीय मंत्री उमाभारती के पास समुचित संसाधन थे इसलिए वे स्वाभाविक रूप से पदवंचितों की इस भीड़ की नेता हो गयी थीं। उनके पास गोबिन्दाचार्य जैसा सलाहकार था जिनके बारे में प्रचारित है कि भाजपा के थिंकटैंक के रूप में उसको लोकसभा की दो सीटों से दो सौ तक पहुँचाने में उनके निर्देशों की बड़ी भूमिका रही। उमाजी को भरोसा था कि राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर बनायी गयी कूटनीतिक योजनाओं के कार्यांवयन में उनकी भूमिका विशिष्ट थी और बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में उनके वादा माफ गवाह बन जाने पर कई बड़े बड़े नेता संकट में आ सकते हैं, अतः न्यायालय से मुक्त होने तक वे उनके दबाव में रहेंगे। वे रहे भी, और उन्होंने उमाभारती की प्रत्येक जिद को पूरा किया। यह पुनर्वापिसी भी उसी दबाव का हिस्सा है। जो लोग यह प्रचारित कर रहे हैं कि उन्हें यूपी के चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सम्मलित किया गया है वे अपने समर्थकों को बहला रहे हैं। यूपी के चुनावों में भाजपा अपनी हैसियत से पूर्ण परिचित है किंतु उमाभारती को मध्य प्रदेश में प्रवेश करने से रोकने के लिए यह बहाना बनाया जा रहा है। यदि उन्हें इतना ही महत्वपूर्ण समझा जाता तो इस महत्व को और बढाने के लिए मध्य प्रदेश के 2003 के विधानसभा चुनावों की तरह पहले से मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया गया होता।
जब दूसरी बार खजुराहो लोकसभा क्षेत्र में उमाजी को अपनी जीत सन्दिग्ध लगी तो उन्होंने भोपाल जैसे सुरक्षित क्षेत्र से अपनी जिम्मेवारी ठोक दी व चुनाव समिति को दबाव में उन्हें भोपाल लोकसभा क्षेत्र से टिकिट देकर लोकसभा में भेजना पड़ा। सार्वजनिक रूप से उमाभारती ने क्षेत्र परिवर्तन का जो कारण बताया था वह यह था कि उस क्षेत्र में उनका स्वास्थ ठीक नहीं रहता। यह चिकित्साशास्त्र और पर्यावरण की खोज का विषय हो सकता था, किंतु किसी सजग पत्रकार ने भी चुनाव क्षेत्र और स्वास्थ के इस सम्बन्ध की खोज नहीं की।
वे केन्द्र में मंत्री बनीं या कहें कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को उन्हें मंत्री बनाना पड़ा। केन्द्र में मंत्री रहते हुए वे भोपाल में दिग्विजय सिंह सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठीं। इसी दौरान यह आरोप उछला कि कुछ लोग अनशन स्थल पर चाकू छुरे लेकर उनकी जान लेने के लिए घूम रहे थे। उत्तर में दिग्विजय सिंह ने कहा कि वे उनकी सुरक्षा के लिए चिंतित हैं, व सरकारी चिकित्सकों से उनके स्वास्थ की जाँच कराये देते हैं, पर सरकारी डाक्टरों की जाँच से पहले ही वे अनशन से उठ गयीं और केन्द्रीय मंत्री पद से त्यागपत्र देते हुए सीधे अज्ञातवास के लिए रवाना हो गयीं। ऐसा बताया गया था कि वे अपना स्वास्थ ठीक करने के लिए तप कर रही हैं। उनके अज्ञातवास का पता उनके कुछ समर्थकों को था जिन्होंने निश्चित समय पर अज्ञातवास से बाहर आने का अनुरोध किया जिसे उन्होंने मान लिया। अज्ञातवास से वापिसी पर एक अंग्रेजी अखबार द्वारा उनके बारे में कुछ तथ्यहीन लिख दिये जाने के बाद वे उस अखबार के दरवाजे अनशन पर बैठ गयीं। इस घटना में ऎतिहासिक यह है कि इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के घुटनों का आपरेशन एक विदेशी डाक्टर ने किया था और आपरेशन की बेहोशी से बाहर आने के बाद अटलजी ने पहला सवाल उमा भारती के अनशन और स्वास्थ के बारे में ही पूछा था।
सन 2003 में विधानसभा का चुनाव भाजपा ने उनकी साध्वी छवि की ओट में लड़ा, जबकि वे केन्द्र सरकार में रहते हुए मंत्री पद पर दिल्ली निवास में अधिक स्वस्थ महसूस कर रही थीं। पार्टी के दबाव को मानकर उन्होंने भी खुद टिकिट बाँटने से लेकर जीतने पर उन्हें ही मुख्य मंत्री बनाये जाने की शर्त रखी जिसे जीत के प्रति नाउम्मीद पार्टी ने मान ली थी। बाद में पहला अवसर मिलते ही उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने में देर नहीं की और दुबारा बनाने का वादा नहीं निभाया, फिर मुख्यमंत्री का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से कराने की उनकी माँग को दरकिनार किया, जिससे उन्हें पार्टी छोड़ देनी पड़ी व अपनी ही सरकार, जिसे वे अपना बच्चा कहती थीं, के खिलाफ रामरोटी पदयात्रा करना पड़ी। इस पदयात्रा से कुछ ही दिनों में उनके पाँवों में छाले पड़ गये तो स्वास्थ सम्बन्धी कारणों से उन्हें पद यात्रा को छोड़ नई पार्टी बनाने की ओर बढना पड़ा। पिछले तीन चार साल से वे लगातार भाजपा में पुनर्वापिसी के लिए प्रयत्न करती रही थीं किंतु यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकारती नहीं थीं। इस बारे में साध्वी वेशभूषा धारी इस महिला ने जो सच बोला उसे अखबारों की कतरनें बताती हैं कि सत्ता से दूर रहकर वे कितनी अस्थिर चित्त होकर सोचती हैं-
• भोपाल\ उन्होंने भाजपा में वापिसी से इंकार करते हुए कहा कि अभी उनकी आयु कम है और अराजनीतिक मुद्दों पर काम कर देश हित में वे कुछ योगदान दे सकती हैं। राम मन्दिर निर्माण के लिए सर्वानुमति बनाना, महिला आरक्षण में पिछड़ी जाति की महिलाओं का कोटा तय करना, अमीर गरीब के बीच बढती खाई को पाटना, घुसपैठ, राजनीति का अपराधीकरण जैसे विषयों पर काम करना चाहती हैं।
• भोपाल\ उमाजी ने कहा कि न तो उनका राजनीति से मोह भंग हुआ है और न ही वे कभी राजनीति छोड़ेंगीं। उ.प्र. से म.प्र. छ्ग, और विदर्भ तक राम मन्दिर निर्माण, पिछड़े वर्ग की महिलाओं को विशेष आरक्षण, गरीबी जैसे मुद्दों पर जनमानस टटोलने के बाद अगले दो तीन माह में वे अपनी राजनीतिक दशा तय करेंगीं।
• भोपाल\ आडवाणी द्वारा ब्लाग पर लिखी बातों को सत्य बताते हुए उमा भारती ने अभी भाजपा में लौटने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा कि अपने राजनीतिक जीवन की दिशा और दशा तय करने के लिए उन्हें कुछ और वक़्त चाहिए। तब तक वे अराजनीतिक तौर पर राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों पर काम करेंगीं।
• नागपुर। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने खुद को वर्तमान राजनीति में मिसफिट बताते हुए कहा कि आज की राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है और राजनीति बुरी तरह से थैलीशाहों के कब्जे में है। ...शायद ही कोई दल ऐसा बचा हो जिस पर भ्रष्टाचार के मामले में उंगली न उठी हो। राष्ट्रीय स्वय़ं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत से मिलने के बाद मीडिया के सामने उन्होंने भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक दलों पर प्रहार किये। उन्होंने कहा कि बहुत जल्दी वह समय आयेगा जब देश की जनता भ्रष्ट नेताओं को खदेड़ेगी, उस समय हमारे जैसे लोग सामने खड़े होंगे। मैं भविष्य के लिए अपने आप को सुरक्षित रखे हुए हूं।
• नई दिल्ली\ भाजपा का अध्यक्ष पद ग्रहण करने के बाद नितिन गडकरी ने पार्टी से दूर हुए नेताओं को वापिस लाने की इच्छा जतायी थी,। उसी परिप्रेक्ष्य में श्री गडकरी से मुलाकात के बाद उमा भारती ने ऎलान किया कि उन्होंने भाजपा में वापिसी का इरादा छोड़ दिया है। उन्होंने कहा कि उनका स्वास्थ इसकी प्रमुख वजह है।
• ग्वालियर। साध्वी उमा भारती का मन राजनीति से उचट गया है। एक साल राजनीति से दूर रहकर वे पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करना चाहती हैं। वे एक साल तक अपने भतीजे भतीजी की देखभाल करेंगीं।
• नई दिल्ली\ उमा भारती ने स्वगठित भारतीय जनशक्ति के अध्यक्ष पद से गुरुवार को स्तीफा दे दिया। सुश्री भारती ने पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संघ प्रिय गौतम को भेजे एक पत्र में खराब सेहत तथा आत्म निरीक्षण एवं आत्म चिंतन के लिए अध्यक्ष पद छोड़ने की बात कही है।
• भुवनेश्वर। नितिन गडकरी ने कहा कि उमा भारती जब चाहें पार्टी में लौट सकती हैं पर उन्होंने बताया है कि स्वास्थ के कारणों से वे अभी पार्टी में शामिल होने में सक्षम नहीं हैं। वे अभी चिंतन मनन के लिए कुछ और समय चाहती हैं।
अब यह उमा भारती को दुबारा से सोचना है कि नई जिम्मेवारी उठाने के लिहाज से उनका स्वास्थ अब कैसा है, वे जो अराजनीतिक काम करना चाह्ती थीं, क्या वह पूरा हो चुका है, क्या देश के राजनीतिक दलों से भ्रष्टाचार खत्म हो चुका है और क्या उनके पारिवारिक दायित्व पूरे हो चुके हैं?


वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जून 15, 2011

भाजपा में सुषमा स्वराज भी आयतित मुखौटा हैं


भाजपा में सुषमा स्वराज भी आयतित मुखौटा हैं
वीरेन्द्र जैन
सुषमा स्वराज जी भाजपा जैसी परम्परा से सवर्ण प्रभुत्व, और पुरुष वर्चस्ववाली पार्टी में एक अपवाद की तरह शिखर नेतृत्व पर प्रतिष्ठित की गयी महिला नेता हैं। स्वाभाविक ढंग से उभरे महिला नेतृत्व के अभाव में उन्हें उनकी क्षमताओं से भी बड़ी जिम्मेवारी सौंपी गयी है जिसकी रक्षा में वे प्राणप्रण से प्रयास रत रहती हैं। लोकसभा में विपक्ष की नेता बना दिये जाने के बाद स्वाभाविक रूप से उनकी महात्वाकांक्षाएं बेहद बढ गयी हैं, और वे अपने कैरियर के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग हो अपना स्थान बनाने में लग गयी हैं। अब वे अटलजी की तरह समस्त नकारात्मक परिणामों की जिम्मेवारी से अपने को दूर करने की कोशिश करती हैं। उन्हें पार्टी के भविष्य की जगह अपने भविष्य की चिंता अधिक रहती है। कर्नाटक में रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनवाने के सवाल पर उठे विवाद में उन्होंने जो निरपेक्षता का रुख लिया उससे इस बात की पुष्टि होती है।
सुषमाजी ने भारतीय जनता पार्टी का चुनाव नहीं किया अपितु भारतीय जनता पार्टी ने सुषमा स्वराज का चुनाव वैसे ही किया था जैसे उसने आवश्यकतानुसार हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, दीपिका चिखलिया, अरविन्द त्रिवेदी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र, दारा सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू मनेका गान्धी, वरुण गान्धी उमाभारती आदि सैकड़ों उन सितारों का चुनाव किया था जिनकी लोकप्रियता को वोटों में भुनाया जा सकता है। वे 1970 में हरियाणा में एक छात्र नेता की तरह उभरी थीं जिनकी पृष्ठभूमि समाजवादी थी। इमरजैंसी लगने के बीस दिन के अन्दर विवाह बन्धन में बँध जाने वाली सुषमाजी हरियाणा हिन्दी साहित्य सम्मेलन की चार वर्ष तक अध्यक्ष रहीं और 1980 में आग्रहपूर्वक भाजपा में सम्मिलित किये जाने तक वे गैरकांग्रेसवाद के आधार पर गठित दल जनता दल में रहीं। इस दौरान वे अपने स्तर तक स्वनिर्मित नेता रहीं।
जब दोहरी सदस्यता के आरोप में पूर्व जनसंघ के सदस्यों को जनता दल छोड़ने को कहा गया तो उन सदस्यों ने बाहर आकर उस भारतीय जनता पार्टी का गठन किया जिसमें भारतीय जनसंघ का भारतीय था और जनता पार्टी की तत्कालीन लोकप्रियता को भी समाहित करने का प्रयास था। यह श्रीमती इन्दिरा गान्धी की पुनर्वापिसी का समय था और भाजपा के पास कोई जुझारू राष्ट्रीय महिला नेतृत्व नहीं था। इसी दौरान उनकी नजर कुशल वक्ता सुषमा स्वराज पर पड़ी जिन्हें भाजपा ने पूरे सम्मान के साथ आयात कर लिया। उस समय भाजपा के पास उच्च स्तरीय महिला नेतृत्व के नाम पर केवल विजया राजे सिन्धिया थीं जो देश की आजादी के बाद भी स्वयं को सदैव ही राजमाता समझती रहीं यहाँ तक कि भाजपा की बैठकों में उनकी सीट पर जो नेमप्लेट लिखी जाती थी उसमें भी उनके नाम के आगे राजमाता लिखा जाता था। कांग्रेस और श्रीमती गान्धी से व्यक्तिगत रंजिश मानने वाली विजया राजे सिन्धिया ने अपने राजशी दौलत का बड़ा हिस्सा भाजपा के लिए अर्पित कर दिया था। इस पर उनके अपने इकलौते पुत्र से भी मतभेद हो गये थे जो बाद में कांग्रेस में सम्मलित हो गये। श्रीमती सिन्धिया को पूरे संघ परिवार में बेहद सम्मान दिया जाता था और वे अपने पिछड़े हुये पूर्व राज्य की सीमा में एक राजमाता की तरह ही मानी जाती थीं। वे चुनाव में वोट जुटाने और सीटें जीत लेने के लिए तो उपयुक्त थीं किंतु उन्हें संसदीय नेता नहीं कहा जा सकता था। अपने क्षेत्र से सदा जीतने वाली श्रीमती सिन्धिया को 1980 में जब श्रीमती गान्धी के खिलाफ राय बरेली से चुनाव में उतारा गया था तो वे बुरी तरह पराजित हुयी थीं। सुषमाजी को इन्हीं परिस्तिथियों में भाजपा की एक महिला नेता के रूप में राज्य से केन्द्र की ओर प्रमोशन दिया गया था। हरियाणा में विधायक और मंत्री रह चुकी सुषमाजी को भाजपा ने हरियाणा से तीन बार लोकसभा का चुनाव लड़वाया और वे लगातार 1980, 1984, और 1989 के चुनावों में श्री चिरंजीलाल शर्मा से हारती रहीं। 1080 से 1990 तक हरियाणा में विधायक और 1987 से 1990 तक मंत्री रही सुषमाजी विधानसभा में तीन साल तक श्रेष्ठ वक्ता के रूप में सम्मानित हुयीं। 1989 में राजीव गान्धी के निधन के बाद जब भाजपा को यह लगने लगा कि कांग्रेस की परम्परा के अनुसार सोनिया गान्धी कांग्रेस की ओर से नेतृत्व सम्हालेंगीं तो मुखौटों के सहारे राजनीति करने वाली पार्टी ने सुषमाजी को केन्द्र में लाने का फैसला कर लिया। 1990 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुनवा दिया गया, तथा 1996 में दक्षिण दिल्ली की सुरक्षित सीट से लोकसभा में भेजा गया। 1999 में जब श्रीमती सोनिया गान्धी ने कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा तो भाजपा ने सुषमाजी का कद बढाने के लिए उन्हें ही चुनाव में उतारा। यह वही समय था जब कर्नाटक में आज के बदनाम रेड्डी बन्धु सुषमा जी के सहयोगी और कृपा पात्र बने व तब से लगातार बने रहे। स्मरणीय है कि उनके सहयोग के कारण ही सुषमाजी को 44.7 प्रतिशत मत मिले जबकि सोनियाजी को कुल 51.7% वोट ही मिले। 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में मदनलाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के मतभेदों के बीच सुषमा जी को मुख्यमंत्री बनाकर चुनाव लड़ा गया किंतु भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा। हारने के बाद वे फिर केन्द्र की राजनीति में लौट गयीं। राष्ट्रीय नेतृत्व में बनाये रखने के लिए सन 2000 में उन्हें उत्तराखण्ड से चुनवा कर राज्यसभा में लाया गया, तथा केन्द्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार रहने तक वे मंत्री पद पर रहीं। 2006 में उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुनवा दिया गया। तथा 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें मध्य प्रदेश के सबसे सुरक्षित क्षेत्र विदिशा से लोकसभा में भिजवाया गया जहाँ से कांग्रेस के उम्मीदवार ने फार्म भरने में भूल कर दी जिसे एक प्रबन्धन मान कर कांग्रेस ने उस उम्मीदवार को दण्डित किया था। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि सुषमाजी के पास लोकसभा में पहुँचने के लिए अपना कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र नहीं है व उनका कैरियर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की क्रपा दृष्टि पर निर्भर है। संघ उन्हें कम पसन्द करता है और उमा भारती को उनकी नापसन्दगी के बाद भी फिर से भरती कर के उनको मर्माहत किया है। विपक्ष के नेता के रूप में उनका भविष्य अब अनिश्चित सा है। आज सुषमाजी जिस पद पर हैं उससे वे मौका मिलने पर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी हो सकती हैं क्योंकि उनका रिपोर्ट कार्ड अरुण जैटली की तुलना में अधिक साफ सुथरा है, या दूसरे शब्दों में कहें तो वे भाजपा की अपेक्षाकृत एक बेहतर महिला मुखौटा हैं। यही कारण है कि वे अपनी ओर उछाले गये हर छींटे को नकारती हैं। सभी जानते हैं कि ढाई करोड़ की कुर्सी पर बैठने वाल रेड्डी बन्धुओं के मामले में उनके पास एक नरम कोना होना स्वाभाविक है तथा उनके कारण ही कर्नाटक सरकार बची हुयी है, फिर भी वे इससे साफ इंकार कर रही हैं। मध्य प्रदेश में चुनाव के दौरान जिस विधायक के निवास को अपना निवास बताया था व उनके कारण ही उस विधायक को विधानसभा का टिकिट मिला था, उसके एक मामले में फँसने पर सुषमाजी ने तुरंत बयान दिया कि उनका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। आज सुषमाजी के पास एक बड़ा कद तो है किंतु उनके पास अपना कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र नहीं है। उन्हें हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखण्ड, कर्नाटक और मध्य प्रदेश से चुनाव लड़वाया गया है किंतु उनकी जीत राष्ट्रीय और उक्त क्षेत्रों के स्थानीय नेताओं की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर रहती है। संघ की पृष्ठभूमि से न आने के कारण संघ उनके पक्ष में नहीं रहता। उमा भारती से उनकी दिली तकरार है तथा वे एक दूसरे की टांग खींचने का कोई अवसर नहीं चूकतीं। गडकरी समेत मध्य प्रदेश के कुछ लोग उमाजी को पार्टी में वापिस ले आये हैं। सम्भव है कि उनके आने से सुषमाजी को मध्य प्रदेश छोड़ना पड़े। वे दल में एक आयतित मुखौटा भर हैं और अभी भी दल के अन्दर उनके इतने समर्थक नहीं हैं जो उन्हें उस पद पर बनाये रख सकें जो उन्हें कृपापूर्वक मिला हुआ है। हमारे लोकतंत्र की बिडम्बना है कि उनकी पार्टी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, जून 10, 2011

श्रद्धांजलि एम. एफ. हुसैन


श्रद्धांजलि एम.एफ हुसैन
दो गज जमीन भी न मिली कूए यार में
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों जब हम लोग 1857 की एक सौ पचासवीं जयंती मना रहे थे तब मित्रों ने बड़े जोर शोर से बहादुर शाह ज़फर की कब्र को म्यांमार से भारत लाने की भावुक माँग की थी। बहादुर शाह जफर को तो विदेशी सरकार ने म्यांमार में दफन होने के लिए मजबूर किया था किंतु किंतु आज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार एम.एफ हुसैन को कुछ विद्वेषी साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा एक सोची समझी रणनीति से विदेश में रहने, मरने और दफन होने के लिए विवश कर दिया। विचारणीय यह है कि देश में सत्तारूढ दल, समाजवादी और साम्यवादी विचार के लोग हुसैन पर कला के क्षेत्र से बाहर के लोगों द्वारा लगाये गये आरोपों से सहमत नहीं थे फिर भी उन्हें दूसरे देश की नागरिकता लेनी पड़ी। खेद है कि आज लोहियावादी उन्हीं साम्प्रदायिक तत्वों के साथ इमरजैंसी में जेल यात्रा की पैंशन ले रहे हैं, जो इन्दिरा गान्धी से माफी माँग कर जेल से बाहर आये थे।
कला के क्षेत्र से बाहर के इन तत्वों ने विवादत्मक बनायी गयी कलाकृतियों को छोड़ कर न तो हुसैन की अन्य कलाकृतियां देखी हैं और न ही दूसरे गैर मुस्लिम चित्रकारों की वैसी ही कलाकृतियां देखी हैं जैसी कृतियों पर विवाद खड़ा किया गया था, क्योंकि वे बहकाये हुए लोग सामन्यतयः माडर्न आर्ट के दर्शक और उन्हें समझने वाले लोग नहीं हैं। यदि हुसैन के पूरे जीवन दर्शन को देखा जाये तो उन पर साम्प्रदायिक दृष्टि का आरोप नहीं लगाया जा सकता। वैसे भी इस देश में माडर्न आर्ट को देखने और समझने वाले लोग दसमलव जीरो जीरो एक प्रतिशत भी नहीं होंगे इसलिए भी इस तरह की कलाओं पर भावना भड़काने का आरोप हास्यास्पद ठहरता है। उल्लेखनीय यह भी है कि इन्हीं तत्वों द्वारा हुसैन ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के नाटककार, हबीब तनवीर, फिल्म कलाकार दिलीप कुमार, आमिर खान, शबाना आजमी, आदि को भी इसी तरह के विवादों में फँसाने की कोशिशें की जाती रही हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि कलात्मक न होकर साम्प्रदायिक होती है।
कलाओं पर विवाद हो सकते हैं, और स्वस्थ आलोचना पर सहमतियां असहमतियां होना चाहिए किंतु किसी गैरकलात्मक संस्था या व्यक्ति द्वारा कलाकार की कृति पर वाद कायम करने से पहले कला सुधी कला समीक्षकों की राय भी ली जानी चाहिए, अन्यथा देश में कला के नाम पर जो कुछ बचेगा वह या तो ऐतिहासिक होगा या शर्मनाक। हुसैन को श्रद्धांजलि देने वाले राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को प्रायश्चित भी करना चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629

बुधवार, जून 08, 2011

रामदेव का रामलीला मैदान काण्ड- एक भिन्न दृष्टिकोण्


रामदेव का रामलीला मैदान काण्ड – एक भिन्न दृष्टिकोण
वीरेन्द्र जैन
योग प्रशिक्षक बाबा रामदेव द्वारा अठारह करोड़ के पण्डाल में जो अनशन, तप या अष्टांग योग किया जा रहा था और सरकार ने उनसे उच्च स्तरीय बात करने, समझौता करने और बाबा द्वारा समझौते का उल्लंघन करने के बाद आधी रात में जो कुछ भी किया उस पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। चौबीस घंटे के चैनलों, और सनसनीखेज समाचारों के लिए उत्सुक अखबारों ने पूरे घटनाक्रम को अति नाटकीय रूप प्रदान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
सच तो यह है कि इस सारे घटनाक्रम के मूल में हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की वे अपरिपक्वताएं हैं जिनके कारण हमारे राजनीतिक दल अपने सिद्धांतों, घोषणाओं, और कार्यक्रमों की जगह शगूफों, नारों या वादों का प्रयोग कर के वोट निकलवा लेने व किसी भी तरह बहुमत पाकर सत्ता का भरपूर दोहन करने के लक्ष्य हेतु काम करते हैं। उल्लेखनीय है कि 1967 के आम चुनावों में हेलीकाप्टर से चुनाव प्रचार ने भारी संख्या में मतों का हेर फेर किया था। जब 1969 में पूर्व राजा रानियों के प्रिवीपर्स व विशेष अधिकार समाप्त किये गये थे तब ग्वालियर के एक पूर्व राजपरिवार ने पूरे देश की रियासतों में घूम घूम कर निष्क्रिय हो चुके राजपरिवारों को तत्कालीन सरकार के खिलाफ राजनीति में उतरने के लिए सक्रिय किया था और तब से वे अपनी अपनी पूर्व रियासतों में अपना जनाधार बनाये हुये हैं। कभी गौ हत्या के भावनात्मक नाम पर चुनाव हो जाते हैं तो कभी शरीयत या रामजन्म भूमि मन्दिर के नाम पर। भूमि सुधार, मँहगाई, बेरोजगारी, जनवितरण प्रणाली, शिक्षा, स्वास्थ आदि आर्थिक सामजिक सवालों को चुनावों का मुख्य मुद्दा बनना अभी शेष है। भले ही ये मुद्दे घोषणापत्रों के कागजों पर नकल कर लिए जाते हों, पर न तो ये उम्मीदवारों को ही पता होते हैं और ना ही ये जनता के बीच में उतारे जाते हैं। गत लोक सभा चुनावों के दौरान विदेशों में जमा काले धन का मुद्दा बामपंथी दलों के घोषणा पत्रों में हमेशा की तरह सम्मलित था व जनता दल [यू] ने भी उसका जिक्र किया, पर भाजपा ने ज्यादा मुखर हो कर उस पर जोर दिया था, पर चुनाव परिणामों के बाद इन दलों में से कोई भी सत्ता में नहीं आया किंतु विपक्षी दलों के रूप में भी बाद में इस पर कोई बड़ा आन्दोलन नहीं किया गया। आन्दोलन के रूप में इस सवाल को आरटीआई कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के सहयोग से उठाया।
सातवें दशक से देश में मुख्य रूप से दो राजनीतिक धाराएं सक्रिय हुयीं जिनमें से एक तो कांग्रेस थी जो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की विरासत का लाभ लेते हुए गान्धीजी के दलित उत्थान से जागृत जातियों को मिले आरक्षण और बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता से भयभीत अल्पसंख्यकों की संरक्षक बन कर चुनाव जीतती रही थी। दूसरी ओर विभिन्न गैर कांग्रेसी दल थे जिनमें हिन्दूवादी भारतीय जनसंघ, कम्युनिस्ट दल, और विभिन्न नामों से कार्यरत समाजवादी दल थे जो आपस में एक नहीं थे। परम्परागत रूप से सुरक्षित वोट बैंक के कारण कांग्रेस ने राजनीतिक काम न करके शासन पाने और उसे चलाने पर पूरा जोर लगाया तो भारतीय जनसंघ ने साम्प्रदायिकता को उभारने की ओर जोर दिया ताकि वे बहुसंख्यक मतों के सहारे सत्ता पा सकें। समाजवादियों और कम्युनिष्टों ने कुछ राजनीतिक चेतना के काम किये किंतु समाजवादियों की आपसी फूट के साथ साथ चीन से सीमा विवाद के बाद कम्युनिष्टों के दो चुनावी पार्टियों और कुछ गैर चुनावी ग्रुपों में बिखर जाने से उनके काम हाशिये पर चले गये। परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनसंघ जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाना गया, विपक्ष के बड़े हिस्से को हड़प कर एक बड़ा दल बन गया। चुनाव जीतने और सत्ता में आने के लिए इसने सभी सम्भव हथकण्डे अपनाये। वे हर तरह के गैर कांग्रेसी गठबन्धन में सम्मलित होने के लिए सबसे आगे रहे। उन्होंने भावुक मुद्दों से वोटरों को फुसलाने के साथ साथ किसी भी तरह के लोकप्रिय व्यक्तियों को अपने साथ जोड़ने के सौदे करने शुरू किये। फिल्मी सितारे, क्रिकेट खिलाड़ी, साधु वेषभूषाधारी, पूर्व राज परिवार के सदस्यों, दलबदलुओं के साथ साथ क्षेत्र के जातिवादी अनुपात के अनुसार टिकिट वितरण पर भी पूरा ध्यान दिया। रंगीन टीवी पर प्राइवेट चैनल आने के बाद योग प्रशिक्षण के कार्यक्रमों से बाबा राम देव ने लोकप्रियता और धन कमाया तथा अपने एक सहयोगी की मदद से आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण का एक बड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया। उन से जुड़ा हालिया घटनाक्रम भी योग प्रशिक्षक के रूप में लोकप्रिय हो गये बाबा की लोकप्रियता को भुनाने से जुड़ा है। बाबा रामदेव एक अति महात्वाकांक्षी व्यक्ति हैं और जैसे जैसे उन्हें सफलताएं मिलती गयीं वैसे वैसे उनकी भूख बढती गयी। वे यज्ञ कर्मी से योग प्रशिक्षक बने, फिर आयुर्वेदाचार्य के नाम से आयुर्वेद का उद्योग खड़ा कर लिया, योग शिविरों के नाम पर मोटी मोटी फीसें ही नहीं वसूलीं अपितु अपना जनसम्पर्क बढा कर नेताओं और अधिकारियों से ढेर सारे सरकारी लाभ व धनिकों से मोटे मोटे चन्दे लिये। देश भर में आश्रमों के नाम पर औने पौने दामों में जमीनें हथियायीं। यादव जाति के नाम पर मुलायम सिंह यादव और लालू यादव को भी फुसलाया, तथा रुतबा बढाने के लिए सरकार से मिली एक्स श्रेणी की सुरक्षा को वाय श्रेणी की सुरक्षा में बदलवाने के लिए झूठी परिस्तिथियां पैदा करने की कोशिशें कीं। उनकी इस लोकप्रियता को देखते हुए शगूफेबाज राजनीतिक दलों ने उनका उपयोग करना चाहा तो परम अतृप्त रामदेव की राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं भी भड़कीं। उन्होंने सोचा कि क्यों न वे अपनी लोकप्रियता को राजनीतिक सत्ता में बदलें इसलिए उन्होंने विदेशों में जमा धन को वापिस लाने के जनरुचि वाले सवाल को अपना प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाया व अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाने का इरादा घोषित कर दिया। स्मरणीय है कि इस इरादे का विरोध भाजपा ने किया और उनके सारे नेताओं ने उनसे पार्टी न बनाने का अनुरोध किया। भाजपा के लोग तब से उनसे लगातार दूरी बनाये रहे, बाबा ने भी पलट के उत्तराखण्ड के भाजपा शासन के एक मंत्री द्वारा उनसे दो लाख रुपये की रिश्वत मांगने का आरोप लगाया पर उसका नाम उजागर नहीं किया। कहा जाता रहा कि बाद में नाम उजागर न करने का भी बाबा ने सौदा किया। ताजा घटनाक्रम में जब अन्ना हजारे ने जनलोकपाल विधेयक के नाम पर अनशन किया तो उस आन्दोलन में भी बाबा सम्मलित हो गये पर अन्ना के समर्थकों ने इस आन्दोलन को राजनीतिक दलों के नेताओं से मुक्त रखने का फैसला किया और उमाभारती ओम प्रकाश चौटाला, अरुण जैटली समेत वहाँ पहुँचने वाले अनेक नेताओं को मंच तक नहीं जाने दिया। इनमें अपना राजनैतिक दल बनाने की घोषणा कर चुके रामदेव भी थे जिन्होंने स्वय़ं को अपमानित महसूस किया। इस उपेक्षा के बदले में बाबा ने दो दिन तक लगातार संघ प्रमुख मोहन भागवत और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ चार चार छह छह घंटे तक बैठकें कीं। इसी दौरान यह भी तय हुआ कि बाबा अपना अलग दल बनाने का इरादा छोड़ देंगे व संघ परिवार उन्हें अन्ना के मुकाबले खड़ा होने में अपना पूरा समर्थन देगी। उन्होंने अपना वादा पूरा किया पर बाबा ने पता नहीं किस अपराधबोध में सरकार के मंत्रियों के साथ लिखित में समझौता कर लिया और जब भाजपा ने अपने समझौते के कारण दबाव डाला तो वो द्वन्द में फँस कर समय से अपना वादा पूरा नहीं कर सके। एक व्यक्ति के समक्ष देश की सरकार के शरणगत होने के आरोपों से व्यथित सरकार ने देर होने की स्तिथि में पत्र को सार्वजनिक कर दिया जिससे बाबा की असलियत सबके सामने आ गयी। बाद में बाबा के समर्थन में भी संघ परिवार अकेला खड़ा नजर आया जिससे पूरी स्तिथि साफ हो गयी। कम समय में बड़ी दौलत तभी खड़ी हो पाती है जब कानूनों की अवहेलना की जाये और बाबा की दौलत के पीछे भी कुछ न कुछ कमियां रही ही होंगीं। यही कारण है कि उनके साथी बालकिशन को तंबू उखड़ने के तुरंत बाद गुप्त अभियान पर अंतर्ध्यान हो जाना पड़ा जिनकी नागरिकता की गलत घोषणा के बारे में भी सवाल उठाये जा रहे हैं। जब तक हम अपने लोकतंत्र में एक स्वस्थ राजनीतिक चेतना का विकास और जनता का राजनीतिक शिक्षण नहीं कर लेते इस तरह की घटनाएं होती ही रहेंगीं। केंट वाटर प्यूरीफायर बेचने का प्रचार करने वाली हीरोइनें को जब तक प्रमुख दल की वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाये जाने की मजबूरी रहेगी तब तक रामदेव रामलीला मैदान काण्ड होते ही रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जून 04, 2011

न्यायपालिका को गुस्सा क्यों आता है?


आखिर न्यायपालिका को गुस्सा क्यों आता है!
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों देश और समाज के प्रति चिंतित न्यायपालिका ने दण्ड के जो नये नये सुझाव दिये हैं, उससे लगता है कि वह अपनी जिम्मेवारियां पूरी कर पाने में आ रही अड़चनें व उससे हो रही आलोचनाओं को कितनी गम्भीरता से ले रही है।
• नईदिल्ली। 16 जनवरी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि देश में अपराध न्याय प्रणाली उचित तरीके से काम नहीं कर रही है। दुष्कर्म और अपहरण के एक आरोपी को बरी करने में इलाहाबाद हाई कोर्ट के नजरिये से नाराज अदालत ने यह टिप्पणी की। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति आरएम लोढा की एक खण्डपीठ ने अफसोस जताते हुए कहा कि वे यह देखने को विवश हैं कि देश में अपराध न्याय प्रणाली वैसा काम नहीं कर रही है जैसा कि उसे करना चाहिए। उन्होंने सलाह दी कि राज्य के खिलाफ अपराध, भ्रष्टाचार, दहेज के लिए मौत, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, और साइबर अपराध के मामलों में मुकदमा त्वरित गति से चलना चाहिए। अच्छा हो कि तय समय सीमा के भीतर फैसला हो जाये। यह समय अधिकतम तीन साल हो सकता है। सर्वोच्च न्यायलय ने पुलिस सुधारों के सम्बन्ध में 2006 में जो निर्देश दिये थे वे लागू किये जाने अभी तक शेष हैं।
• नई दिल्ली। इलाहाबाद हाई कोर्ट पर गंभीर आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वहाँ कुछ गड़बड़ है। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञानसुधा मिश्रा की पीठ ने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से कहा कि वह सुधारे न जा सकने वाले जजों के तबादले की अनुशंसा समेत कुछ कठोर उपाय करें। जज सिंड्रोम के तहत जज उन पक्षों के अनुकूल आदेश पारित कर रहे हैं, जिन केसों को उनके जान पहचान वाले वकील देख रहे हैं।
• नई दिल्ली। जेसिकालाल हत्याकांड मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने उन सभी 32 गवाहों पर मुकदमा चलाने का फैसला किया जो सुनवाई के दौरान अपने बयान से पलट गये थे। जस्टिस एस. रविंद्र भट और जीपी मित्तल की बेंच ने ने स्वतः संज्ञान लेते हुए यह फैसला किया है। इस कांड के आरोपी एक मंत्रीपुत्र को ट्रायल कोर्ट ने गवाहों के पलट जाने की वजह से बरी कर दिया था।
• नई दिल्ली। 10 सितम्बर। मिर्चपुर कांड के आरोपियों की गिरफ्तारी में देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार को शुक्रवार को फिर फटकार लगायी। हिसार जिले के मिर्चपुर गाँव में दबंग सवर्णों ने एक दलित और उसकी विकलांग बेटी को जिन्दा जला दिया था, तथा साथ ही कई दलितों के घरों को आग लगा दी थी।
• सुप्रीम कोर्ट ने कथित ‘वोट के बदले धन’ घोटाले में सांसदों पर की गई कार्रवाई के बारे में केन्द्र सरकार से स्तिथि रिपोर्ट मांगी है। न्यायमूर्ति आफताब आलम और आरएम लोढा की पीठ ने केन्द्र सरकार और शहर पुलिस आयुक्त को नोटिस जारी किया है।
• नई दिल्ली। निचली अदालतों के लापरवाहीपूर्ण रवैये और भ्रष्टाचार में लिप्तता के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को जम कर बरसा। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने कहा कि भ्रष्ट जजों, वकीलों और अधिकारियों को उठा कर बाहर फेंक देना चाहिए। आप सुप्रीम कोर्ट को मजाक में नहीं ले सकते। आज लोग न्यायपालिका को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। निचली अदालतें अस्सी फीसदी तक भ्रष्ट हैं जो शर्मनाक है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध फैसला सुनाने के लिए अतिरिक्त जिला न्यायधीश अर्चना सिन्हा को फटकार लगाते हुए पीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट से जाँच करने और निर्णय मुख्य न्यायधीश को सौंपने का निर्णय सुनाया और उक्त न्यायधीश से कहा कि आपको सस्पेंड भी किया जा सकता है और जेल भी भेजा जा सकता है।
• नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने देश में कुपोषण के कारण होने वाली मौतों पर गम्भीर चिंता जताते हुए सरकार से सवाल किया कि सरकार सस्ती दर पर अनाज गरीबों परिवारों को क्यों वितरित नहीं कर रही है? जस्टिस दलबीर सिंह भंडारी और दीपक वर्मा की बेंच ने दोहराया कि यदि अनाज के गोदाम ओवरफ्लो हैं या किसी कारण से अनाज सड़ रहा है तो सरकार सस्ती दर पर बीपीएल और अंत्योदय योजना के तहत अनाज बाँटे।
• दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि किसी अपराधी को दिया जाने वाला दंड उसके अपराध के अनुरूप होने के सिद्धांत के अनुसार बलात्कारी को क्यों न उसके पुरुषतत्व से वंचित कर दिया जाये जिससे वह आगे से इस अपराध को दुहरा पाने लायक न रहे। उल्लेखनीय है कि इसी दौरान सऊदी अरब के एक जज ने सजा के तौर पर एक व्यक्ति की रीढ की हड्डी क्षतिग्रस्त करने के लिए अस्पताल से राय मांगी है। इस व्यक्ति को एक व्यक्ति पर हमला कर उसे लकवाग्रस्त करने का आरोप है। इस्लामिक कानून में आँख का बदला आँख होती है। इसी तरह ईरान के सुप्रीम कोर्ट ने एक आशिक की आँखों में तेजाब डालने के निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा है। 34 वर्षीय आमना को इकतरफा प्यार करने वाले माजिद ने 2004 में इंकार करने पर उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दिया था जिससे आमना की आँखों की रोशनी चली गयी थी।
इसी तरह लगातार हमारे न्यायालय ऐसे फैसले दे रहे हैं, जैसे उन्हें लग रहा हो कि हमारी न्याय व्यवस्था का दिन प्रति दिन मजाक बनाया जा रहा है और अपराधी बेखौफ होकर अपराध पर अपराध करते जा रहे हैं। देश की अदालतों में तीन करोड़ से भी अधिक मामले लम्बित हैं और यह अम्बार बढता ही जा रहा है। न्याय के बारे में आम आदमी की सोच कहाँ पहुँच रही है उसके लिए निम्नांकित खबरें उसकी सूचना दे रही है-
• मुम्बई। तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख, पेशी के लिए चार बार पुणे से मुम्बई का चक्कर लगाने से तंग आ चुके एक वृद्ध ने बाम्बे हाई कोर्ट से को बीस हजार रुपये का चेक भेज कर सुनवाई के लिए एक घंटे का समय मांगा ताकि उसे फालतू चक्कर लगाने मुक्ति मिल सके।
• जाँजगीर [छत्तीसगढ] की एक अदालत में दुखु राम नाम के व्यक्ति ने अपना केस जल्दी निपटाने के लिए जज की टेबुल पर तीन सौ रुपये रख कर कहा कि मेरा मुकदमा जल्दी निपटा दो। बाद में उसे गिरफ्तार कर लिया गया जहाँ उसने पुलिस को बताया कि गाँव में उसे बताया गया था कि पेशी में पैसे देने पर ही सुनवाई होती है।
• छिन्दवाड़ा। छिन्दवाड़ा की अतिरिक्त जज विभा जोशी की कोर्ट में हत्या के आरोपी अजय राजपूत नामक व्यक्ति ने सुनवाई पूरी होने के बाद रजिस्टर में दस्तखत कराये जाते समय जेब में पालीथिन में रखी गन्दगी जज पर उछाल दी। उसका कहना था कि वह निर्दोष है और पुलिस ने उसे झूठा फँसा दिया है।
सच तो यह है कि न्यायपालिका इस बात से चिंतित हो रही है कि वह लोगों को न्याय नहीं दे पा रही है, जिससे एक ओर तो अपराधियों के हौसले बुलन्द हो रहे हैं तो दूसरी ओर पूरी न्यायपालिका की बदनामी हो रही है। यदि यही दशा रही तो जनता अराजकता की ओर बढ जायेगी। गत दिनों अन्ना हजारे के आवाहन पर जितनी बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन दिया उससे लगता है कि जनता तंत्र के बारे में निरंतर असंतुष्ट होती जा रही है व किसी बदलाव की तलाश में है और कई बार इस बदलाव की तीव्र आँकाक्षा में गलत बदलाव की शिकार भी हो जाती है। अभी वे न्यायपालिका की ओर अंतिम उम्मीद की तरह देखते हैं, इसलिए न्याय को सक्रिय होना ही चाहिए।



वीरेन्द्र जैन
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