बुधवार, जून 15, 2011

भाजपा में सुषमा स्वराज भी आयतित मुखौटा हैं


भाजपा में सुषमा स्वराज भी आयतित मुखौटा हैं
वीरेन्द्र जैन
सुषमा स्वराज जी भाजपा जैसी परम्परा से सवर्ण प्रभुत्व, और पुरुष वर्चस्ववाली पार्टी में एक अपवाद की तरह शिखर नेतृत्व पर प्रतिष्ठित की गयी महिला नेता हैं। स्वाभाविक ढंग से उभरे महिला नेतृत्व के अभाव में उन्हें उनकी क्षमताओं से भी बड़ी जिम्मेवारी सौंपी गयी है जिसकी रक्षा में वे प्राणप्रण से प्रयास रत रहती हैं। लोकसभा में विपक्ष की नेता बना दिये जाने के बाद स्वाभाविक रूप से उनकी महात्वाकांक्षाएं बेहद बढ गयी हैं, और वे अपने कैरियर के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग हो अपना स्थान बनाने में लग गयी हैं। अब वे अटलजी की तरह समस्त नकारात्मक परिणामों की जिम्मेवारी से अपने को दूर करने की कोशिश करती हैं। उन्हें पार्टी के भविष्य की जगह अपने भविष्य की चिंता अधिक रहती है। कर्नाटक में रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनवाने के सवाल पर उठे विवाद में उन्होंने जो निरपेक्षता का रुख लिया उससे इस बात की पुष्टि होती है।
सुषमाजी ने भारतीय जनता पार्टी का चुनाव नहीं किया अपितु भारतीय जनता पार्टी ने सुषमा स्वराज का चुनाव वैसे ही किया था जैसे उसने आवश्यकतानुसार हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, दीपिका चिखलिया, अरविन्द त्रिवेदी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र, दारा सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू मनेका गान्धी, वरुण गान्धी उमाभारती आदि सैकड़ों उन सितारों का चुनाव किया था जिनकी लोकप्रियता को वोटों में भुनाया जा सकता है। वे 1970 में हरियाणा में एक छात्र नेता की तरह उभरी थीं जिनकी पृष्ठभूमि समाजवादी थी। इमरजैंसी लगने के बीस दिन के अन्दर विवाह बन्धन में बँध जाने वाली सुषमाजी हरियाणा हिन्दी साहित्य सम्मेलन की चार वर्ष तक अध्यक्ष रहीं और 1980 में आग्रहपूर्वक भाजपा में सम्मिलित किये जाने तक वे गैरकांग्रेसवाद के आधार पर गठित दल जनता दल में रहीं। इस दौरान वे अपने स्तर तक स्वनिर्मित नेता रहीं।
जब दोहरी सदस्यता के आरोप में पूर्व जनसंघ के सदस्यों को जनता दल छोड़ने को कहा गया तो उन सदस्यों ने बाहर आकर उस भारतीय जनता पार्टी का गठन किया जिसमें भारतीय जनसंघ का भारतीय था और जनता पार्टी की तत्कालीन लोकप्रियता को भी समाहित करने का प्रयास था। यह श्रीमती इन्दिरा गान्धी की पुनर्वापिसी का समय था और भाजपा के पास कोई जुझारू राष्ट्रीय महिला नेतृत्व नहीं था। इसी दौरान उनकी नजर कुशल वक्ता सुषमा स्वराज पर पड़ी जिन्हें भाजपा ने पूरे सम्मान के साथ आयात कर लिया। उस समय भाजपा के पास उच्च स्तरीय महिला नेतृत्व के नाम पर केवल विजया राजे सिन्धिया थीं जो देश की आजादी के बाद भी स्वयं को सदैव ही राजमाता समझती रहीं यहाँ तक कि भाजपा की बैठकों में उनकी सीट पर जो नेमप्लेट लिखी जाती थी उसमें भी उनके नाम के आगे राजमाता लिखा जाता था। कांग्रेस और श्रीमती गान्धी से व्यक्तिगत रंजिश मानने वाली विजया राजे सिन्धिया ने अपने राजशी दौलत का बड़ा हिस्सा भाजपा के लिए अर्पित कर दिया था। इस पर उनके अपने इकलौते पुत्र से भी मतभेद हो गये थे जो बाद में कांग्रेस में सम्मलित हो गये। श्रीमती सिन्धिया को पूरे संघ परिवार में बेहद सम्मान दिया जाता था और वे अपने पिछड़े हुये पूर्व राज्य की सीमा में एक राजमाता की तरह ही मानी जाती थीं। वे चुनाव में वोट जुटाने और सीटें जीत लेने के लिए तो उपयुक्त थीं किंतु उन्हें संसदीय नेता नहीं कहा जा सकता था। अपने क्षेत्र से सदा जीतने वाली श्रीमती सिन्धिया को 1980 में जब श्रीमती गान्धी के खिलाफ राय बरेली से चुनाव में उतारा गया था तो वे बुरी तरह पराजित हुयी थीं। सुषमाजी को इन्हीं परिस्तिथियों में भाजपा की एक महिला नेता के रूप में राज्य से केन्द्र की ओर प्रमोशन दिया गया था। हरियाणा में विधायक और मंत्री रह चुकी सुषमाजी को भाजपा ने हरियाणा से तीन बार लोकसभा का चुनाव लड़वाया और वे लगातार 1980, 1984, और 1989 के चुनावों में श्री चिरंजीलाल शर्मा से हारती रहीं। 1080 से 1990 तक हरियाणा में विधायक और 1987 से 1990 तक मंत्री रही सुषमाजी विधानसभा में तीन साल तक श्रेष्ठ वक्ता के रूप में सम्मानित हुयीं। 1989 में राजीव गान्धी के निधन के बाद जब भाजपा को यह लगने लगा कि कांग्रेस की परम्परा के अनुसार सोनिया गान्धी कांग्रेस की ओर से नेतृत्व सम्हालेंगीं तो मुखौटों के सहारे राजनीति करने वाली पार्टी ने सुषमाजी को केन्द्र में लाने का फैसला कर लिया। 1990 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुनवा दिया गया, तथा 1996 में दक्षिण दिल्ली की सुरक्षित सीट से लोकसभा में भेजा गया। 1999 में जब श्रीमती सोनिया गान्धी ने कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा तो भाजपा ने सुषमाजी का कद बढाने के लिए उन्हें ही चुनाव में उतारा। यह वही समय था जब कर्नाटक में आज के बदनाम रेड्डी बन्धु सुषमा जी के सहयोगी और कृपा पात्र बने व तब से लगातार बने रहे। स्मरणीय है कि उनके सहयोग के कारण ही सुषमाजी को 44.7 प्रतिशत मत मिले जबकि सोनियाजी को कुल 51.7% वोट ही मिले। 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में मदनलाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के मतभेदों के बीच सुषमा जी को मुख्यमंत्री बनाकर चुनाव लड़ा गया किंतु भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा। हारने के बाद वे फिर केन्द्र की राजनीति में लौट गयीं। राष्ट्रीय नेतृत्व में बनाये रखने के लिए सन 2000 में उन्हें उत्तराखण्ड से चुनवा कर राज्यसभा में लाया गया, तथा केन्द्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार रहने तक वे मंत्री पद पर रहीं। 2006 में उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुनवा दिया गया। तथा 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें मध्य प्रदेश के सबसे सुरक्षित क्षेत्र विदिशा से लोकसभा में भिजवाया गया जहाँ से कांग्रेस के उम्मीदवार ने फार्म भरने में भूल कर दी जिसे एक प्रबन्धन मान कर कांग्रेस ने उस उम्मीदवार को दण्डित किया था। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि सुषमाजी के पास लोकसभा में पहुँचने के लिए अपना कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र नहीं है व उनका कैरियर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की क्रपा दृष्टि पर निर्भर है। संघ उन्हें कम पसन्द करता है और उमा भारती को उनकी नापसन्दगी के बाद भी फिर से भरती कर के उनको मर्माहत किया है। विपक्ष के नेता के रूप में उनका भविष्य अब अनिश्चित सा है। आज सुषमाजी जिस पद पर हैं उससे वे मौका मिलने पर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी हो सकती हैं क्योंकि उनका रिपोर्ट कार्ड अरुण जैटली की तुलना में अधिक साफ सुथरा है, या दूसरे शब्दों में कहें तो वे भाजपा की अपेक्षाकृत एक बेहतर महिला मुखौटा हैं। यही कारण है कि वे अपनी ओर उछाले गये हर छींटे को नकारती हैं। सभी जानते हैं कि ढाई करोड़ की कुर्सी पर बैठने वाल रेड्डी बन्धुओं के मामले में उनके पास एक नरम कोना होना स्वाभाविक है तथा उनके कारण ही कर्नाटक सरकार बची हुयी है, फिर भी वे इससे साफ इंकार कर रही हैं। मध्य प्रदेश में चुनाव के दौरान जिस विधायक के निवास को अपना निवास बताया था व उनके कारण ही उस विधायक को विधानसभा का टिकिट मिला था, उसके एक मामले में फँसने पर सुषमाजी ने तुरंत बयान दिया कि उनका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। आज सुषमाजी के पास एक बड़ा कद तो है किंतु उनके पास अपना कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र नहीं है। उन्हें हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखण्ड, कर्नाटक और मध्य प्रदेश से चुनाव लड़वाया गया है किंतु उनकी जीत राष्ट्रीय और उक्त क्षेत्रों के स्थानीय नेताओं की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर रहती है। संघ की पृष्ठभूमि से न आने के कारण संघ उनके पक्ष में नहीं रहता। उमा भारती से उनकी दिली तकरार है तथा वे एक दूसरे की टांग खींचने का कोई अवसर नहीं चूकतीं। गडकरी समेत मध्य प्रदेश के कुछ लोग उमाजी को पार्टी में वापिस ले आये हैं। सम्भव है कि उनके आने से सुषमाजी को मध्य प्रदेश छोड़ना पड़े। वे दल में एक आयतित मुखौटा भर हैं और अभी भी दल के अन्दर उनके इतने समर्थक नहीं हैं जो उन्हें उस पद पर बनाये रख सकें जो उन्हें कृपापूर्वक मिला हुआ है। हमारे लोकतंत्र की बिडम्बना है कि उनकी पार्टी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है।
वीरेन्द्र जैन
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