सोमवार, जून 27, 2011

संस्मरण -एस पी सिंह की याद में


एस पी सिंह की याद में

उन्होंने मेरे लेखन के लिए उत्प्रेरक का काम किया

वीरेन्द्र जैन

अगर आज एसपी सिंह होते तो 63 साल के हो गये होते और पता नहीं उनके चेहरे पर कैसी बुजर्गियत झलक रही होती, पर जो सक्रिय लोग युवा अवस्था में ही काल के गाल में समा जाते हैं वे हमेशा युवा की तरह ही याद किये जाते हैं।

एस पी से मेरा परिचय धर्मयुग के माध्यम से ही हुआ। 1972 में होली अंक के लिए धर्मयुग ने युवा रचनाकारों की व्यंग्य रचनाएं आमंत्रित की थी तथा प्राप्त लगभग ग्यारह सौ रचनाओं में से इकतीस रचनाओं और रचनाकारों का चयन किया था। इन इकतीस युवा रचनाकारों में मेरे साथ ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यबाला, सुरेश नीरव, आदि थे। इस चयन को मैंने किसी बड़े पुरस्कार की तरह लिया था, और धर्मयुग की जो स्थिति थी उसके अनुसार वह पुरस्कार जैसा ही था, क्योंकि धर्मयुग में भारतीजी के कठोर अनुशासन में रचनाओं का चयन बहुत ही निष्पक्ष ढंग से होता था। धर्मयुग में छपने का मतलब अखिल भारतीय हो जाना था। मैं इस चयन से इतना उत्साहित था कि प्रति सप्ताह एक रचना छपने के लिए भेजने लगा, पर पूरे वर्ष में कुल चार छह रचनाएं ही छप पाती थीं। एक दिन धर्मयुग से पत्र आया जिसे एस पी सिंह ने लिखा था और मुझे सलाह दी थी कि में धर्मयुग के छींटे और बौछार, जो चुटकलों का स्तम्भ था, के लिए चुटकले लिखूं। यद्यपि यह प्रस्ताव मुझे कुछ अटपटा तो लगा किंतु धर्मयुग में प्रकाशित होते रहने का मोह ऐसा ऐसा था कि मैंने पुराने रीडर्स डाइजेस्ट के तमाम पुरस्कृत चुटकलों को पचा कर उन्हें भारतीय समाज और परिवार की विसंगतियों से जोड़ कर लिखने लगा। उन दिनों एस पी सिंह ही वह स्तम्भ देख रहे थे, भरपूर परिश्रम से लिखे वे चुटकले उन्हें एकदम मौलिक लगे और मुझे निरंतर छापने लगे। बाद में एक बार व्यक्तिगत बातचीत में जब मैंने चुटकले लिखवाने की शिकायत जैसी की तो उन्होंने बताया कि काका हाथरसी को स्तम्भ के रूप में कई वर्ष छापने के बाद हिन्दी कवि सम्मेलनों के परिदृष्य में जो बदलाव आया था उससे भारतीजी ने नीति बना ली थी कि किसी को भी एक सीमा से अधिक नहीं छापेंगे, आपके निरंतर और प्रकाशन के उपयुक्त लेखन को देखते हुए मुझे लगता था कि आपका किसी तरह जुड़ाव बना रहना चाहिए। चूंकि चुटकलों पर कोई निर्देश नहीं थे इसलिए मैंने आप से चुटकले लिखवाये जो मुझे व्यंग्य कविताओं की तरह ही मौलिक और बजनदार लगते थे।

बाद में जब वे रविवार में गये तब भी उनसे सम्पर्क बना रहा, और वहाँ से जब बच्चों की पत्रिका मेला निकली तो उन्होंने उसमें भी मुझसे बाल गीत लिखवाये। मैंने जब संकोच व्यक्त किया तो योगेन्द्र कुमार लल्ला ने कहा कि भाई एसपी ने ही कहा है कि आपको अवश्य लिखना चाहिए और आप लिख सकते हैं। उनकी बात टालना मेरे लिए सम्भव नहीं था तथा मैंने मेला के लिए बाल कविताएं लिखीं। बाद में जब वे नवभारत टाइम्स में चीफ एक्ज्यीक्यूटिव हो गये तब एक बार उनसे भेंट हुयी तो मैंने पत्रकारिता की अपनी दबी आकांक्षा बतायी। उन्होंने कहा कि अगर तुम बैंक की नौकरी छोड़कर आ सकते हो तो आ जाओ, प्रवेश तो मैं दिला सकता हूं, पर खड़े अपने पैरों पर ही होना पड़ेगा। उन्होंने ही हरिवंशजी को प्रेरित किया था और बैंक आफ इंडिया की नौकरी छुड़वाकर अपने पास रविवार में ले गये थे। मैं उस समय दुस्साहस नहीं कर सका।

आज जब पिछले दस साल से बैंक की नौकरी छोड़कर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा हूं तो एस पी सिंह की उत्प्रेरणा याद आती है।

वीरेन्द्र जैन

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