गुरुवार, जुलाई 30, 2020

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और उससे उठे सवाल


सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और उससे उठे सवाल  
Sushant Singh Rajput Suicide Case SIT can arrest Riya Chakraborty ...
वीरेन्द्र जैन
बालीवुड के एक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत, जिन्होंने पिछले दिनों अनेक सफल फिल्में की थीं, ने अचानक आत्महत्या कर ली, और पीछे कोई सुसाइड नोट भी नहीं छोड़ा। इस घटना को लेकर लगातार अनेक तरह की कहानियां चर्चा में रहीं। ये चर्चाएं इस बात का संकेतक हैं कि हमारे समाज, राजनीति और व्यवस्था में क्या चल रहा है। हम कितने दोगले समाज को ढो रहे हैं।
कहने को हमारे यहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था है, किंतु सच तो यह है कि हमारे समाज ने अभी उस व्यवस्था को आत्मसात नहीं किया है। स्वतंत्रता संग्राम से उभरे नेताओं के आभा मन्डल के अस्त होने के बाद सत्ता का लाभ लेने के लिए सामंती समाज से जन्मे लोगों ने अपनी चतुराइयों से सारे संस्थानों पर अधिकार कर लिया और दिखावे के लिए कथित लोकतंत्र का मुखौटा भी लगा कर रखा। वैचारिक राजनीति ही लोकतंत्र की आत्मा होती है जिसे पनपने ही नहीं दिया और उसके छुटपुट अंकुरों को खरपतवार की तरह मिटा दिया गया। अब सत्ता पर अधिकार जमाने के लिए धार्मिक आस्थाओं का विदोहन करने वाली साम्प्रदायिकता, जातियों में बंटे समाज में जाति गौरव को उभारना, सामंती अवशेषों की शेष लोकप्रियता भुनाना, पूंजी की मदद से अभावग्रस्त व लालची लोगों से वोट हस्तगत कर लेना, पुलिस और दूषित न्यायव्यवस्था के सहारे बाहुबलियों की धमकियां, साधु वेषधारियों समेत कला और खेल के क्षेत्र में अर्जित लोकप्रिय सितारों का उपयोग किया जाता है। इसमें नीलाम होने वाला मीडिया अधिक बोली लगाने वाले के पक्ष में बिक जाता है। सारी राजनीति राजनीतिक रूप से निष्क्रिय नागरिकों को उत्प्रेरित कर मतदान के दिन वोट गिरवा लेने तक सीमित होकर रह गयी है। दलों के बीच की सारी प्रतियोगिता सत्ता और उसके लाभों के लिए नये नये हथकण्डे अपनाने में होने लगी हैं। मुख्यधारा के सभी प्रमुख दलों का कमोवेश यही स्वरूप है। समाज के अच्छे परिवर्तन और तेज विकास के लिए किसी भी दल की सरकार के कोई प्रयास नहीं होते। भूल चूक से या दिखावे के लिए हो भी जायें तो स्थास्थिति से लाभ उठाने वाली ताकतें उन्हें अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर कर देती हैं।
युवा अभिनेता सुशांत कुमार की आत्महत्या एक लोकप्रिय स्टार की ध्यानाकर्षक खबर थी। वह बिहार का रहने वाला था और बिहार में इस साल चुनाव होने वाले हैं इसलिए लोकप्रिय व्यक्ति के साथ घटी अस्वाभाविक घटना और सुसाइड् नोट न छोड़ जाने के कारण पैदा रहस्य की अपने अपने हिसाब से मनमानी व्याख्या हुयी। उसका भरपूर राजनीतिक लाभ लेने के लिए उसे और विवादास्पद बनाया गया व सनसनी बेच कर धनोपार्जन करने वाले मीडिया ने जरूरी सवालों से कन्नी काटते हुए इसी पर सारी चर्चाएं केन्द्रित कीं।
सुशांत एक महात्वाकांक्षी और लगनशील युवा था जिसने अपनी इंजीनियरिंग की पढाई छोड़ कर फिल्मी कैरियर अपनाया। उसकी मेहनत और लगन से उसे सफलता भी मिली व उसने भरपूर धन भी कमाया। युवा अवस्था में कमाये गये धन से युवा अवस्था के सपने ही पूरे किये जाते हैं व सुशांत बिहार जैसे राज्य के एक बन्द समाज से खुली हवा में आया था। उसके द्वारा अर्जित धन, व लोकप्रियता ने उसे अनेक युवतियों का चहेता बनाया होगा जिसमें से दो की चर्चा हो रही है क्योंकि वह खुद भी क्रमशः इनके निकट आया। एक से दूरी होने, जिसे आज की भाषा में ब्रेकअप कहा जाता है, के बाद वह जिस दूसरी युवती के निकट आया तो दोनों के बीच प्रतिद्वन्दिता स्वाभाविक है।
एक और बात पर ध्यान दिया जाना भी जरूरी है कि अपनी सफलता और सम्पन्नता के बाद उसने  अपने परिवार के साथ दूरी सी बना कर रखी। अपने धन को उनके बीच नहीं बांटा। अपने जीवन जीने के तरीके में उनका कोई अनुशासन नहीं चाहा व अपना सुख दुख उनके साथ नहीं बांटा। वह अपने तरीके से मकान और मित्र बदलता रहा। वह ना तो किसी राजनीतिक दल का प्रचारक बना, ना उसने शिवसेना द्वारा बिहारियों के खिलाफ किये गये विषवमन के खिलाफ कोई बयान दिया। यहाँ तक कि प्रवासी कहे जाने वाले मजदूरों पर जो संकट आया उसमें भी उसका बिहारी प्रेम या मजदूरों के साथ सहानिभूति नहीं जगी। उसने सोनू सूद की तरह अतिरिक्त रूप से आगे आकर उनके लिए कुछ नहीं किया, या करना चाहा। उसकी मृत्यु के बाद उससे सहानिभूति रखने वाले जो लोग पैदा हुये वे पहले उसके साथ नहीं दिखे। अगर किसी माफिया गिरोह द्वारा भाई भतीजावाद करते हुए उसके साथ कोई पक्षपात किया जा रहा था तो ये लोग तब कहाँ थे। एक सुन्दर अभिनेत्री तो विवादों से ही अपना स्थान बनाने व बनाये रखने के लिए बहुत दिनों से इसी तरह के भागीरथी प्रयास कर रही है। कला जगत में फिल्मी क्षेत्र ज्यादा लागत का क्षेत्र है और मुनाफे के साथ अपनी लागत वसूलने के लिए निवेशक प्रतिभाओं को बिना भेदभाव के स्थान देते हैं। उनकी चयन समिति में अगर फिल्मी दुनिया के लोग होते हैं तो वे कभी कभी अपने रिश्तेदारों को प्राथमिकता दिला देते होंगे। पर टिका वही रह सकता है। हेमा मालिनी व धर्मेन्द्र की बेटियों को अवसर तो मिला पर वे अपना स्थान नहीं बना सकीं। कला के क्षेत्र में सफलता में प्रतिभा और सम्पर्क दोनों की भूमिका रहती है। राजनीति में तो यह बात फिल्मी दुनिया से कई गुना अधिक है, व व्यापार में तो विरासत ही चलती है। किंतु बिहार के चुनावों को देखते हुए साम्प्रदायिक राजनीति खेलने वालों ने सुशांत की दुखद मृत्यु को एक साम्प्रदायिक मोड़ देने की कोशिश की और उसकी आत्महत्या को कुछ मुस्लिम कलाकारों की उपेक्षा को जिम्मेवार ठहराने का प्रयास किया। करणी सेना जैसे लोगों से प्रदर्शन करवाया।  चिराग पासवान जैसे लोग देश की सबसे अच्छी महाराष्ट्र पुलिस की तुलना में बिहार पुलिस को उतारने की बात पर बल देने लगे व बिहार सरकार से चुनावी सौदेबाजी के उद्देश्य से बिहार सरकार की आलोचना करने लगे।
एक कलाकार के भावुक फैसले के बाद असली सवाल उसके द्वारा अर्जित धन के खर्च या निवेश का है।  यह धन जरूर किसी ना किसी के पास होगा और उसके विधिवत विवाह न करने के कारण परिवार के सदस्यों का कानूनी अधिकार बनता है, जिन्हें उसने जीते जी नहीं दिया था और अपने मित्रों या महिला मित्रों की मदद से खर्च या विनियोजित किया होगा। एक खबर यह भी चल रही थी कि वह उसे केरल में किसी खेती में निवेश करना चाहता था जिसको न करने के लिए उसकी महिला मित्र ने विपरीत सलाह देकर रुकवा दिया था।
समाज बदल रहा है तो सामाजिक सम्बन्धों पर भी उसका प्रभाव पड़ेगा। कुछ को वह अच्छा लगेगा व कुछ परम्परावादियॉं को नहीं लगेगा। विरासत का कानून परम्परावादी रिश्तों को ही मान्यता देता है। कथित दिल और आत्मा के रिश्तों को ना तो मापा जा सकता है और ना ही उनका कोई स्थान है। दुखद यह है कि इसके लिए दोनों तरफ से ही अनावश्यक कथाएं गढी जाती हैं, फैलायी जाती हैं। कुछ के लिए तो आपराधिक षड़यंत्र भी रचे जाते हैं। संजय गाँधी की मृत्यु के बाद इन्दिरा गाँधी और मनेका गाँधी के बीच सम्पत्ति के हक के लिए मुकदमेबाजी भी हुयी थी व मुकदमा जीतने के बाद इन्दिरा गाँधी ने वह सम्पत्ति वरुण गाँधी के नाम कर दी थी। रोचक यह है कि उस समय तक वरुण गाँधी वयस्क नहीं हुये थे इसलिए वह फिर से उनकी नेचरल गार्जियन मनेका गाँधी के हाथों में पहुंच गयी थी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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सोमवार, जुलाई 20, 2020

पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित चीनी विद्वान जी जियानलिन



हमारे पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित चीनी विद्वान जी जियानलिनRenowned Chinese scholar Ji Xianlin dies in Beijing - China News ...
वीरेन्द्र जैन
                6 जून 2008 जब अमृतसर में खालिस्तानी आन्दोलन का समर्थन करने वाले लोग तत्कालीन  राज्य सरकार की शह पर सिमरन जीत सिंह मान के नेतृत्व में अमृतसर मन्दिर में अलग खालिस्तान की वकालत कर  रहे थे, और जब ताकतवर गुर्जरों के लाठीधारी समूह राजस्थान में कई जगह रेल की पटरियों पर धरना देते हुये अपने को कमजोर वर्ग में सम्मिलित करने की मांग पर रेल यातायात रोक कर बैठे हुये थे, तब भारत के तत्कालीन विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी चीन के फौजी अस्पताल में एक 97 वर्षीय चीनी विद्वान को भारत के प्रथम चार सम्मानों में से एक पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित कर रहे थे। सम्मानित होने वाले व्यक्ति का नाम जी जियानलिन था, जो सारी दुनिया के लोगों के विचारों को अनुवाद के द्वारा फैलाने का यथार्थवादी तरीका अपनाये जाने के पक्षधर रहे। हमारे प्राचीन ग्रन्थ ऋगवेद में जो कहा गया है-
आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः(अच्छे विचार सारी दुनिया से आने दीजिये)। यह अनुवाद के द्वारा ही संभव है।
                भारत के गणतंत्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली चुनिंदा हस्तियों को भारत के राष्ट्रपति की ओर से सम्मानों की घोषणा की जाती है। सन 2008 की 26 जनवरी को भारत के राष्ट्रपति ने जिन लोगों को पद्म सम्मानों की घोषणा की थी उनमें चीन के विद्वान जी जियानलिन का नाम भी सम्मिलित था जिन्हें पद्मभूषण सम्मान के लिए चुना गया था। वे उन विरले विदेशी व्यक्तियों में से एक थे जिन्हैं साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में इस सम्मान  के लिए चुना गया था। इस चयन ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति बरबस ध्यान आकर्षित किया था।
                जी जियानलिन की उम्र उस समय 97 वर्ष थी, र उस उम्र में भी वे सक्रिय थे। इस सम्मान के अगले वर्ष 11जुलाई 2009 को 98 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हुआ। वे इतना जीवन से भरे हुए थे कि कहते थे कि असली उम्र तो सौवर्षों के बाद ही प्रारंभ होती है। गत 6 अगस्त 2005 को जी के 94वें जन्मदिन पर चीन की कन्फयूसियस फाउन्डेशन ने बीजिंग में जी जियानलिन रिसर्च इंस्टीट्यूट की शुरूआत की थी। यह संस्था जी के शोध कार्यों पर काम करने के लिए बनायी गयी व जिसमें चीन के शीर्षस्थ विद्वान तंगयीज्जी, ले दियान, और ली मेंग्यस्की वरिष्ठ सलाहकार के रूप में सम्मिलित हैं।
जब सन 2006 में चीन की सरकार द्वारा उनके अनुवाद कार्यों के लिए  लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया था तो उस अवसर पर जी ने कहा था कि गत पांच हजार सालों से चीन की संस्कृति के सतत जीवंत और सुसम्पन्न बने रहने का कारण यह है कि हम अनुवाद से जुड़े रहे। दूसरी संस्कृतियों से अनुवाद ने हमारी देह में सदा नये रक्त का संचार किया है।
                जी का एक स्थल पर कथन है कि ‘‘ चीन की नदियां घटती बढती रहती हें पर वे कभी सूखती नहीं हैं क्योंकि उनमें सदा नया जल आता रहता है। इसी तरह हमारी संस्कृति की नदी में भी भारत और पश्चिम से सदा नया जल आता रहता है इन दोनों ही स्थलों ने हमें अनुवाद के माध्यम से धन्य किया है। यह अनुवाद ही है जिसने चीनी सभ्यता को सदा जवान बनाये रखा है। अनुवाद बेहद लाभदायक है।’’

                भारत के गणतंत्र दिवस पर जब जी को पद्मभूषण सम्मान की घोषणा हुयी थी तब भारत चीन संस्कृतिक संबंधों के विशेषज्ञ जू के कियो ने कहा था कि चीन के लोग भारत की परंपरा और संस्कृति के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह जी के माध्यम से ही जानते हैं। उन्होंने भारत के प्राचीन ग्रन्थों को मूल संस्कृत से अनुवाद करके उसे चीनी काव्य में रूपान्तरित किया है।
                अपने नैतिक मूल्यों, उज्जवल चरित्र और व्यक्तित्व के लिए जी को चीन में बहुत आदर प्राप्त है। चीनी प्रीमियर वेन जियाबों ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कहा था कि जी हमारे सर्वोत्तम सलाहकार हैं। परम राष्ट्रभक्त जी का कहना था कि जब में राख में बदल जाऊॅंगा तब भी चीन के प्रति मेरा प्रेम कम नहीं होगा। उन्होंने अपने छात्र जीवन में ही जापान द्वारा घुसपैठ करने पर च्यांग काई शेक के खिलाफ याचिका दायर की थी।
                खाकी पोशाक और कपड़ों के जूतेां में स्कूल बैग लटकाये हुये जी एक ख्यात विद्वान से अधिक एक किसान और मजदूर नजर आते थे। वे सुबह साढे चार बजे उठ जाते और  पांच बजे नाश्ता करने के बाद लिखना प्रारंभ कर देते थे। उनका कहना था कि लिखने के लिए ही सुबह मुझे उठाती है। वे बहुत ही तेजी से लिखते थे पर विचारों के साथ भाषा पर मजबूत पकड़ होने के कारण उनके लेखन में कहीं झोल नहीं आता था। कहा जाता है कि उन्होंने अपना बहुप्रसि़द्ध निबंध ‘‘फारएवर रिग्रैट’’ कुछ ही घंटों में लिख लिया था, जिसे सदियों तक याद रखा जायेगा।
                जी अपने विचारों की अभिव्यक्ति में निर्भयता के लिए भी जाने जाते रहे। उन्होंने चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान ही रामायण के चीनी अनुवाद का दुस्साहसपूर्ण काम किया था। 1986 में उन्होंने अपने दोस्तों की सलाहों के खिलाफ विवादास्पद हू शी के बारे में लिखा ‘‘ फ्यिू वर्डस् फार हूशी”। हू उस समय चीन में अनादर भाव से देखे जा रहे थे और उनके विचारों पर लिखने बोलने का कोई साहस नहीं कर रहा था। तब जी का कहना था कि रचनात्मक कार्यों को पहचाना जाना चाहिये और न केवल उनकी कमजोरियों को ही सामने आना चाहिये अपितु उनके आधुनिक साहित्य की अच्छाइयों को भी जाना जाना चाहिये। उनके लिखे हुये का ही परिणाम था जो चीन ने हूशी के काम को पुनः देखा और मान्यता दी।
जी का कहना था कि सांस्कृतिक आदानप्रदान ही मनुष्यता की बड़ी संचालक शक्ति है। वे कहते हैं कि एक दूसरे से सीख कर और उनकी कमियों को ठीक करके ही हम सतत प्रगति कर सकते हैं । उनका कहना था कि वैश्विक सद्भाव ही मानवता का लक्ष्य है। जी मानव संस्कृति को दो भागों में बांट कर चलते रहे, एक चीन-भारत अरब-इस्लामिक संस्कृति तथा दूसरी यूरोप-अमेरिकन पश्चिमी संस्कृति। वे पूरब और पश्चिम की संस्क्तियों के बीच में निरंतर समन्वय और आदानप्रदान के पक्षधर रहे।
जी को सम्मानित करके भारत सरकार ने विश्वबंधुत्व के एक प्रमुख यथार्थवादी घ्वजवाहक को सम्मानित करने का काम किया था। हजारों भाषाओं वाली दुनिया को अनुवाद से ही समझा जा सकता है।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जुलाई 03, 2020

म.प्र. में अस्थिर सरकारों का दौर


म.प्र. में अस्थिर सरकारों का दौर


Madhya Pradesh cabinet expansion: Jyotiraditya Scindia has become ...

वीरेन्द्र जैन 
गत दिनों म.प. में एक अंतराल के बाद भाजपा सरकार के पुनरागमन के सौ दिन पूरे होने के उपलक्ष्य में एक सभा आयोजित की गयी।यह सभा सौ दिन से प्रतीक्षित मंत्रिमण्डल विस्तार के दूसरे दिन ही आयोजित की गयी जिसमें ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने प्रमुख वक्ता की तरह भाषण दिया।
उल्लेखनीय है कि पूरे देश की तरह मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस गुटों में विभक्त है और विधानसभा व लोकसभा चुनाव में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य व दिग्विजय सिंह के गुटों ने एकजुट होने के दिखावे के साथ चुनावों में भाग लिया था। दिग्विजय सिंह ने अपनी राजनीतिक सूझ बूझ से प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए कमलनाथ के नाम पर सहमति दे दी, व स्वयं अपने अनुभवों व सम्बन्धों का लाभ नेपथ्य में रह कर देने लगे। विरोधियों ने आरोप तो यह भी लगाया कि वे परदे के पीछे रह कर सरकार चला रहे हैं। ज्योतिरादित्य ने समझौते में अपने क्षेत्र के अनेक लोगों को विधानसभा का टिकिट दिलवाया जिनमें से अनेक जीत भी गये और उचित संख्या में मंत्री भी बनाये गये। ऐसे सब लोग सिन्धिया परिवार के बफादार थे। कठिन समय में भी जिस सीट से सिन्धिया परिवार के लोग लगातार जीतते रहे थे उस सीट से गत लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य अपने ही एक समर्थक से हार गये। इसे उन्होंने काँग्रेस के दूसरे गुटों का षड़यंत्र माना और एक आखिरी कोशिश के रूप में राज्यसभा के लिए प्रयास किया, पर काँग्रेस के सदस्यों की जितनी संख्या थी, उतने में केवल एक सदस्य ही जीत सकता था, जिस पर दिग्विजय सिंह की हर तरह से उचित दावेदारी थी।
अतः अपनी राजनीतिक हैसियत को बचाने के लिए ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने आखिरी दाँव खेला। उन्होंने अपने समर्थक विधायकों से त्यागपत्र दिलवा दिया जिससे कमलनाथ की सीमांत समर्थन वाली सरकार अल्पमत में आ गयी। निर्दलीय व अन्य छोटे दलों के साथ सौदेबाजी करके भाजपा ने सरकार बना ली। सिन्धिया समेत सभी त्यागपत्र दिये विधायकों ने भाजपा की सदस्यता ले ली और ज्योतिरादित्य भाजपा के टिकिट पर राज्यसभा में पहुंच गये। अगली चुनौती त्यागपत्र दिये हुए व खाली सीटों पर होने वाले उपचुनावों की थी, जिसका गणित बैठाने के लिए मंत्रिमण्डल का विस्तार रोके रखा गया। जब उपचुनाव सिर पर ही आ गये तब विस्तार किया गया जिसमें वादे के अनुसार काँग्रेस से त्यागपत्र देकर आये सिन्धिया समर्थकों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया जिनमें से अधिकतर चम्बल क्षेत्र के थे। वैसे काँग्रेस के पक्ष में कोई स्पष्ट माहौल तो नहीं है किंतु सिन्धिया की बफादारी में इनका पाला बदल कर भाजपा में जाना ना तो क्षेत्र के कांग्रेस के परम्परागत वोटरों को हजम होगा और ना ही अपने ऊपर वरीयता दिये जाने के कारण भाजपा के परम्परागत वोटरों को हजम होगा। सरकार और मंत्री पद की चाशनी ही एक मात्र आकर्षण हो सकता है।
उपरोक्त सौ दिन वाले आयोजन के अवसर पर ज्योतिरादित्य सिन्धिया का भाषण उत्कृष्ट चापलूसी का निकृष्टतम उदाहरण था। स्मरणीय है कि श्री सिन्धिया काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में प्रमुख नेता राहुल गाँधी के हम उम्र और निजी मित्रों में थे। लोकसभा की चुनिन्दा बहसों में श्री गाँधी ने उन्हें महत्वपूर्ण वक्तव्य देने का अवसर दिया था। वे काँग्रेस के प्रमुख नेताओं में गिने जाते थे। उल्लेखनीय है कि जब एक दिन अचानक लोकसभा में राहुल गाँधी ने नरेन्द्र मोदी को गले लगा लिया था व उसके बाद ज्योतिरादित्य सिन्धिया की ओर देख कर ही आँख मार कर संकेत दिया था कि यह दोनों की योजना थी। उपरोक्त भाषण उनके अभी तक के भाषणों के ठीक विपरीत था और किसी सामंत के चारण गान जैसा था। सीधा प्रसारण बता रहा था कि वह भाषण भाजपा के कार्य परिषद के सदस्यों को भी बचकाना व अविश्वसनीय लग रहा था और पच नहीं पा रहा था।
गत पन्द्रह वर्षों तक भाजपा के पूर्ण बहुमत की सरकारें रही थीं भले ही शुरू में उन्हें दो मुख्यमंत्री बदलना पड़े हों किंतु स्थिरिता पर फर्क नहीं पड़ा। अब ऐसी स्थिति नहीं है। मध्य प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय है और 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद दोनों दलों को पूर्ण बहुमत नहीं था व निर्दलीय बसपा, सपा, आदि से समर्थन लेने के बाद ही सरकार बन सकती थी। यह समर्थन हथियाने में काँग्रेस ने बाजी मार ली और भाजपा पीछे रह गयी। इन पन्द्रह सालों में भाजपा ने अपनी एकता के खोल में कई टकराव देखे किंतु वे सतह पर प्रभाव नहीं दिखा सके। 2003 में उमा भारती को इसलिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था क्योंकि भाजपा को जीतने की उम्मीद नहीं थी व उसके पास दिग्विजय सिंह की टक्कर का कोई उम्मीदवार नहीं था। संयोग से काँग्रेस हार गयी और भाजपा ने अप्रत्याशित मुख्यमंत्री उमा भारती पर नियंत्रण लगा कर उन्हें संचालित करना चाहा जिसके खिलाफ कुछ समय बाद उन्होंने विद्रोह कर दिया। संयोग से एक प्रकरण में घोषित सजा के बाहने उन्हें बाहर करने का मौका मिल गया। उस समय भी अरुण जैटली के साथ शिवराज सिंह चौहान को शपथ लेने के लिए दिल्ली से भेजा गया था किंतु उमा भारती ने उन्हें पदभार ट्रांसफर करने से इंकार करते हुए अपनी पसन्द के सीधे सरल महात्वाकांक्षा न पालने वाले बाबूलाल गौर को पद दिया ताकि मौका आने के बाद वे पद खाली कर दें। जल्दी ही ऐसा मौका भी आ गया किंतु भाजपा ने यह कह कर रोक दिया कि इतनी जल्दी जल्दी मुख्यमंत्री नहीं बदले जाते। बाद में उनकी तिरंगा यात्रा, के बाद पार्टी छोड़ने और दूसरा दल बनाने का दौर चला। शिवराज नामित कर दिये गये थे। 2008 के चुनावों में उन्होंने अलग दल से चुनाव लड़ कर भाजपा को नुकसान पहुंचाया। पर अन्दर से चतुर शिवराज ने उन्हें न केवल पराजित कराया अपितु जब उन्होंने वापिस आना चाहा तो दो तीन साल तक उनकी वापिसी को रोके रहे। वापिस भी इसी शर्त पर होने दिया कि वे मध्य प्रदेश में प्रवेश नहीं करेंगी। उन्हें उत्तर प्रदेश से विधायक का चुनाव लड़वाया गया और उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें उत्तर प्रदेश में भी मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किया गया क्योंकि पार्टी को सरकार बना लेने की उम्मीद नहीं थी। हुआ भी ऐसा ही, वे शपथ ग्रहण के बाद दुबारा उत्तर प्रदेश विधान सभा में नहीं गयीं। बाद में 2014 में लोकसभा चुनाव भी उन्हें उ.प्र. से लड़वाया गया। इस बीच में उनके पक्षधर नेताओं को राजनीतिक रूप से निर्मूल कर दिया गया जब तक कि वे शिवराज के आगे समर्पित नहीं हो गये। इस मंत्रिमण्डल विस्तार के बाद भी उमा भारती ने अपना असंतोष व्यक्त किया था कि उनके समर्थकों को उचित स्थान नहीं मिला।
शिवराज ने अपने कार्यकाल के दौरान अपने सारे विरोधियों को बहुत कुशलता से बाहर करवा दिया। कैलाश विजयवर्गीय को संगठन में पदोन्नति के बहाने, प्रभात झा और अरविन्द मेनन आदि को कार्यकाल पूरा होने के बहाने दूर कर दिया। अब तक वे सर्वे सर्वा बने रहे, किंतु अब उन्हें उन  सिन्धिया की चुनौती झेलना पड़ेगी जिनमें बाल हठ जैसा राजहठ है। सरकार उन की इच्छा पर ही टिकी है क्योंकि जो विधायक उनके कहने पर त्यागपत्र दे सकते हैं वे उन्हीं के आदेश का पालन करेंगे। भाजपा ने सरकार बनाने और मंत्रिमण्डल विस्तार में तो झुक कर समझौता कर लिया किंतु  एक सीमा से अधिक वह समझौता नहीं कर सकेगी। अगर इन विधायकों में एक सुनिश्चित संख्या हार जाती है तो भी सरकार बदलेगी। संसाधनों की बहुलता के कारण खरीद फरोख्त में कोई दल पीछे नहीं है। इसलिए अस्थिर सरकारों का दौर शुरू हो सकता है। जिस तरह की राजनीतिक जोड़ तोड़ चल रही है उसमें सोशल डिस्टेंस, मास्क आदि के प्रति कोई सावधान नहीं दिख रहा है।   
वीरेन्द्र जैन
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