वीरेन्द्र जैन
6 जून 2008 जब अमृतसर में खालिस्तानी आन्दोलन का समर्थन करने वाले लोग
तत्कालीन राज्य सरकार की शह पर सिमरन जीत
सिंह मान के नेतृत्व में अमृतसर मन्दिर में अलग खालिस्तान की वकालत कर रहे थे, और जब ताकतवर गुर्जरों के लाठीधारी
समूह राजस्थान में कई जगह रेल की पटरियों पर धरना देते हुये अपने को कमजोर वर्ग
में सम्मिलित करने की मांग पर रेल यातायात रोक कर बैठे हुये थे, तब भारत के तत्कालीन
विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी चीन के फौजी अस्पताल में एक 97 वर्षीय चीनी विद्वान को भारत के प्रथम चार सम्मानों में से
एक पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित कर रहे थे। सम्मानित होने वाले व्यक्ति का नाम जी
जियानलिन था, जो सारी दुनिया के लोगों के विचारों को अनुवाद के द्वारा फैलाने का
यथार्थवादी तरीका अपनाये जाने के पक्षधर रहे। हमारे प्राचीन ग्रन्थ ऋगवेद में जो
कहा गया है-
आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः(अच्छे विचार सारी दुनिया से आने दीजिये)। यह
अनुवाद के द्वारा ही संभव है।
भारत के गणतंत्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्रों में
काम करने वाली चुनिंदा हस्तियों को भारत के राष्ट्रपति की ओर से सम्मानों की घोषणा
की जाती है। सन 2008 की 26 जनवरी को भारत के राष्ट्रपति ने जिन लोगों को
पद्म सम्मानों की घोषणा की थी उनमें चीन के विद्वान जी जियानलिन का नाम भी
सम्मिलित था जिन्हें पद्मभूषण सम्मान के लिए चुना गया था। वे उन विरले विदेशी
व्यक्तियों में से एक थे जिन्हैं साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में इस सम्मान के लिए चुना गया था। इस चयन ने उनके व्यक्तित्व
और कृतित्व के प्रति बरबस ध्यान आकर्षित किया था।
जी जियानलिन की उम्र उस समय 97 वर्ष थी, और उस उम्र में भी वे
सक्रिय थे। इस सम्मान के अगले वर्ष 11जुलाई 2009 को 98 वर्ष की उम्र में उनका
देहांत हुआ। वे इतना जीवन से भरे हुए थे कि कहते थे कि असली उम्र तो सौवर्षों के
बाद ही प्रारंभ होती है। गत 6 अगस्त 2005 को जी के 94वें जन्मदिन पर चीन की कन्फयूसियस फाउन्डेशन ने बीजिंग में
जी जियानलिन रिसर्च इंस्टीट्यूट की शुरूआत की थी। यह संस्था जी के शोध कार्यों पर
काम करने के लिए बनायी गयी व जिसमें चीन के शीर्षस्थ विद्वान तंगयीज्जी, ले दियान, और ली मेंग्यस्की वरिष्ठ सलाहकार के रूप में सम्मिलित हैं।
जब सन 2006 में चीन की
सरकार द्वारा उनके अनुवाद कार्यों के लिए
लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया था तो उस अवसर पर जी ने कहा था कि गत
पांच हजार सालों से चीन की संस्कृति के सतत जीवंत और सुसम्पन्न बने रहने का कारण
यह है कि हम अनुवाद से जुड़े रहे। दूसरी संस्कृतियों से अनुवाद ने हमारी देह में
सदा नये रक्त का संचार किया है।
जी का एक स्थल पर कथन है कि ‘‘ चीन की नदियां घटती बढती रहती हें पर वे कभी
सूखती नहीं हैं क्योंकि उनमें सदा नया जल आता रहता है। इसी तरह हमारी संस्कृति की
नदी में भी भारत और पश्चिम से सदा नया जल आता रहता है इन दोनों ही स्थलों ने हमें
अनुवाद के माध्यम से धन्य किया है। यह अनुवाद ही है जिसने चीनी सभ्यता को सदा जवान
बनाये रखा है। अनुवाद बेहद लाभदायक है।’’
भारत के गणतंत्र दिवस पर जब जी को पद्मभूषण
सम्मान की घोषणा हुयी थी तब भारत चीन संस्कृतिक संबंधों के विशेषज्ञ जू के कियो ने
कहा था कि चीन के लोग भारत की परंपरा और संस्कृति के बारे में जो कुछ भी जानते हैं
वह जी के माध्यम से ही जानते हैं। उन्होंने भारत के प्राचीन ग्रन्थों को मूल
संस्कृत से अनुवाद करके उसे चीनी काव्य में रूपान्तरित किया है।
अपने नैतिक मूल्यों, उज्जवल चरित्र और व्यक्तित्व के लिए जी को चीन में बहुत आदर
प्राप्त है। चीनी प्रीमियर वेन जियाबों ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से
कहा था कि जी हमारे सर्वोत्तम सलाहकार हैं। परम राष्ट्रभक्त जी का कहना था कि जब
में राख में बदल जाऊॅंगा तब भी चीन के प्रति मेरा प्रेम कम नहीं होगा। उन्होंने अपने
छात्र जीवन में ही जापान द्वारा घुसपैठ करने पर च्यांग काई शेक के खिलाफ याचिका
दायर की थी।
खाकी पोशाक और कपड़ों के जूतेां में स्कूल बैग
लटकाये हुये जी एक ख्यात विद्वान से अधिक एक किसान और मजदूर नजर आते थे। वे सुबह
साढे चार बजे उठ जाते और पांच बजे नाश्ता
करने के बाद लिखना प्रारंभ कर देते थे। उनका कहना था कि लिखने के लिए ही सुबह मुझे
उठाती है। वे बहुत ही तेजी से लिखते थे पर विचारों के साथ भाषा पर मजबूत पकड़ होने
के कारण उनके लेखन में कहीं झोल नहीं आता था। कहा जाता है कि उन्होंने अपना
बहुप्रसि़द्ध निबंध ‘‘फारएवर रिग्रैट’’
कुछ ही घंटों में लिख लिया था, जिसे सदियों तक याद रखा जायेगा।
जी अपने विचारों की अभिव्यक्ति में निर्भयता के
लिए भी जाने जाते रहे। उन्होंने चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान ही रामायण के
चीनी अनुवाद का दुस्साहसपूर्ण काम किया था। 1986 में उन्होंने अपने दोस्तों की सलाहों के खिलाफ विवादास्पद
हू शी के बारे में लिखा ‘‘ फ्यिू वर्डस् फार
हूशी”’। हू उस समय चीन में
अनादर भाव से देखे जा रहे थे और उनके विचारों पर लिखने बोलने का कोई साहस नहीं कर
रहा था। तब जी का कहना था कि रचनात्मक कार्यों को पहचाना जाना चाहिये और न केवल
उनकी कमजोरियों को ही सामने आना चाहिये अपितु उनके आधुनिक साहित्य की अच्छाइयों को
भी जाना जाना चाहिये। उनके लिखे हुये का ही परिणाम था जो चीन ने हूशी के काम को
पुनः देखा और मान्यता दी।
जी का कहना था कि सांस्कृतिक आदानप्रदान ही मनुष्यता की बड़ी
संचालक शक्ति है। वे कहते हैं कि एक दूसरे से सीख कर और उनकी कमियों को ठीक करके
ही हम सतत प्रगति कर सकते हैं । उनका कहना था कि वैश्विक सद्भाव ही मानवता का
लक्ष्य है। जी मानव संस्कृति को दो भागों में बांट कर चलते रहे, एक चीन-भारत
अरब-इस्लामिक संस्कृति तथा दूसरी यूरोप-अमेरिकन पश्चिमी संस्कृति। वे पूरब और पश्चिम
की संस्क्तियों के बीच में निरंतर समन्वय और आदानप्रदान के पक्षधर रहे।
जी को सम्मानित करके भारत सरकार ने विश्वबंधुत्व के एक
प्रमुख यथार्थवादी घ्वजवाहक को सम्मानित करने का काम किया था। हजारों भाषाओं वाली
दुनिया को अनुवाद से ही समझा जा सकता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
फोन 9425674629
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