रविवार, मार्च 27, 2011

क्या यह साध्वी शब्द का अपमान नहीं है?


क्या यह साध्वी शब्द का अपमान नहीं है? वीरेन्द्र जैन
आज के हिन्दी मीडिया में तकनीकी ज्ञान से सुसज्जित जो नई फौज भरती हुयी है वह भाषा प्रयोग के प्रति लापरवाह है जिसके परिणाम स्वरूप उनके कहे का वही मतलब सम्प्रेषित नहीं होता जिसे वे सम्प्रेषित करना चाहते हैं। दूसरी ओर कुछ गैरईमानदार संगठन अनजाने में ही उन्हें वे शब्द थमा देते हैं जिससे उनके पक्ष का मतलब निकलता है। वे शब्दों की ऐसी लकीर पीटते हैं जैसे कि उन शब्दों के कुछ अर्थ ही नहीं होते हों। लम्बे समय तक महिला दस्युओं को दस्यु सुन्दरी शब्द से विभूषित किया जाता रहा जबकि फूलन देवी समेत अनेक महिला दस्यु जिस संघर्षमय परिवेश में विकसित हुयी थीं उसमें उनका स्वरूप एक जुझारू श्रमिक महिला से मिलता था और परम्परागत रूप से प्रयुक्त होने वाला सौन्दर्य शब्द का विशेषण उनके लिए फिट नहीं बैठता। इसी तरह पीले कपड़ों में रहने वाली महिला को साध्वी कहने का चलन चल पड़ा है, भले ही उसके धार्मिक ज्ञान या दीक्षा की कोई जानकारी किसी को न हो। इस शब्द के प्रयोग से सम्बन्धित के प्रति एक सहज श्रद्धा का भाव आमजन के मन में पैदा हो जाता है, जिसकी ओट में कई तरह के अपराध लम्बे समय तक छुपे रहते हैं। इसी भ्रम का प्रभाव था कि प्रज्ञा ठाकुर को साध्वी की तरह सम्बोधित करने का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ वह अभी तक जारी है, भले ही समाचार पत्रों में ही प्रकाशित समाचारों से यह सुस्पष्ट हो गया हो कि पीले कपड़ों की ओट में रहने वाली यह युवती भाजपा के छात्र संगठन से निकल, किसी व्यक्तिगत कुंठा का शिकार हो एक उग्रवादी बन गयी व इसने साम्प्रदायिक दंगे भड़काने के लिए न केवल मुस्लिम समूहों के बीच बम विस्फोट कराये अपितु हिन्दू समूहों को उत्तेजित करने के लिए उनके बीच भी बम विस्फोट कराये और इसे मुस्लिम उग्रवादियों द्वारा किये गये बतलाने के लिए नकली सबूत भी छोड़े। इसका परिणाम यह हुआ कि शार्टकट से काम चलाने वाला मीडिया उनके द्वारा वांछित राग अलापने लगा। उसके सहयोगियों द्वारा की गयी स्वीकरोक्ति से सामने आया है कि नफरत की आग से धधकती इस युवती ने न केवल अपने ही साथियों की हत्या कराने में गुरेज नहीं किया अपितु सन्देह के आधार पर अपने पितृ संगठन आर एस एस के पदाधिकारियों की हत्या कराने की योजना भी बनायी। बम विष्फोटों के बाद इस युवती का अपने साथियों से यह सवाल करना कि इतने कम लोग क्यों मरे, अपने आप में उसके निर्मम और अमानवीय सोच की कहानी कहता है।
इस युवती को राजद्रोही जैसे शब्दों से भी नहीं पुकारा जा सकता क्योंकि इसने अभी तक सीना ठोक कर अपने कृत्यों को स्वीकार करने का साहस भी नहीं दिखाया है, जैसा कि नक्सलवादी जैसे उग्रवादी संगठन करते हैं। ऐसी दशा में उसकी छवि एक ऐसे अपराधी की बन रही है जो बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी अदालत से बचने के लिए हर हथकण्डा अपनाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो बहुत सम्भव था कि कम से कम हिन्दू साम्प्रदायिकता के दुष्प्रभाव में आये लोग ही उसे नायकत्व दे देते। दूसरी ओर उसका संगठन, उसमें सम्मलित विभिन्न त्तरह के लोग, और उन्हीं में से कुछ के कबूलनामों से यह साफ है कि वह एक हिन्दू साम्प्रदायिकता से दुष्प्रभावित उग्रवादी के रूप में पहचानी जा रही है, और दर्जनों निरपराध लोगों की मौतें उस पर लगे आरोपों के खाते में दर्ज हैं। जेल में उससे मुलाकात करने के लिए कोई भक्त नहीं अपितु हिन्दूवादी दल भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ही पहुँचते हैं। ऐसी दशा में मीडिया द्वारा उसके नाम के आगे साध्वी शब्द का प्रयोग करना उसके मुखौटे को बल प्रदान करना है, जिससे जनित श्रद्धा की ओट में उसके जनविरोधी काम छुप सकते हैं।
जन आस्था से जुड़े शब्द सुपरिभाषित होने चाहिए और उनके प्रयोग के कुछ नियम होने चाहिए। पीले कपड़ों को छोड़कर प्रज्ञा ठाकुर को साध्वी पुकारे जाने का कोई आधार न पहले था और न अब बचा है। उसके एक साध्वी के रूप में किये जाने वाले कार्यों और आचरण के बारे में कोई इतिहास नहीं मिलता, न ही उसके धार्मिक ज्ञान या पुराणकथाओं पर आधारित प्रवचनों का कोई अता पता है, पर फिर भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और उनके परिवार के साथ उसके फोटो अखबारों में छपे हैं। आडवाणीजी ने भी अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मन्दिर बनवाने के लिए जो यात्रा निकाली थी उसमें प्रयुक्त डीजल चलित वाहन डीसीएम टोयटा को रथ कहलवाया था। रथ एक पौराणिक काल का घोड़ों से चलने वाला वाहन होता था इस एक शब्द ने ऐसा प्रचार पाया कि उनकी राजनीतिक यात्रा धार्मिक यात्रा की तरह लगने लगी। यह भाषा से दिया गया धोखा था। अपात्र और आचरण विमुख लोगों को साधु या साध्वी के नाम से पुकारा जाना भी कुछ कुछ ऐसा ही है। कबीर दास ने बहुत पहले यह कह कर सावधान किया था-
मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा............. शब्द के इसी दुरुपयोग के कारण साम्प्रदायिक लोग इस आधार पर वैमनस्य फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकारी जाँच एजेंसी बेचारी साध्वी को सींखचों में बन्द करके उससे कठोर पूछताछ कर रही है, जिसके कारण वह अस्वस्थ हो गयी है। इस आधार पर कुछ लोगों के मन में उसके प्रति सहानिभूति भी पैदा हो रही है। भ्रष्टाचार के निरंतर हो रहे खुलासों से प्रभावित लोग उपरोक्त दुष्प्रचार के आधार पर गलत फैसले भी ले सकते हैं, जिससे देश अपने मार्ग़ से भटक सकता है। जरूरत इस बात की है धर्म की ओट में छुपे अपराधियों की पहचान की जाये और इन्हें अलग थलग किया जाये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, मार्च 25, 2011

श्रद्धांजलि कमला प्रसाद


एक कार्यकर्ता के प्रतिमान बने रहेंगे कमला प्रसादजी
वीरेन्द्र जैन
भोपाल में यह कामरेड प्रकाश करात की सभा थी जिसमें से अचानक उठ कर कमला प्रसादजी घर चले गये थे और हमारे सामने एक प्रश्न वाचक सवाल छोड़ गये थे। अगले दिन भी जब उन्हें केदारनाथ अग्रवाल के कृतित्व पर आयोजित एक साहित्य सभा में मुख्य भाषण देना था और उसमें भी नहीं आये थे तब जानकारी करने पर पर पता चला था कि उस दिन उन्हें अचानक ही कुछ ऐसा मानसिक झटका लगा था और उनकी बाँयीं आंख में कुछ ऐसा दोष उभर आया था कि उन्हें एक से अधिक छवियाँ दिखने लगी थीं। बाद में पता चला था कि उन्हें ब्लड कैंसर है। कुछ दिनों बाद जब उन्हें दुबारा देखने का अवसर आया था तो डाक्टरों ने उनकी बाँयीं आँख पर काला शीशा लगवा दिया था व वे यथावत उसी लगन और उत्साह से काम कर रहे थे। अपने स्टेनो से उन्होंने पत्र लिखवाये थे जिन्हें डिस्पैच करने का अंतिम समय था अतः उन्होंने हम लोगों से बात करने से पहले तेजी में लिफाफों पर पते लिखे और पत्रों को डिस्पेच के लिए समय से दे दिये। बाद में उन्होंने बताया कि वे अब ठीक हैं और कैंसर की जिस बीमारी की आशंका थी वह प्रथम स्टेज में ही सामने आ जाने के कारण ठीक हो रही, कैमीथेरेपी से कुछ कमजोरी आती है, पर चिंता की कोई बात नहीं। अपने स्वास्थ से सम्बन्धित इतनी सी बात करने के बाद वे बाद साहित्य, संगठन और विभिन्न समकालीन घटनाओं के बारे में चर्चा करने लगे थे, जैसे कि उन्हें केवल जुकाम हुआ हो और जो ठीक होने वाला हो। चलते चलते उन्होंने खुद उठ कर वसुधा के ताजा अंक हमें भेंट किये। उनकी जीवट को देख कर हमें सन्देह हुआ कि कहीं हमारी सूचना में ही कोई कमी रही है अन्यथा ऐसी बीमारी की सूचना ही आदमी को आधा मार देती है। अगले पखवाड़े अखबार में उनका नियमित स्तम्भ यथावत छपा था और पता चला था कि वे प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने के लिए केरल भी होकर आ गये हैं। उसके बाद वे विनोद तिवारी जी की अंतिम किताब के विमोचन के अवसर पर स्वयं आये थे और उस पर अपने विचार व्यक्त किये थे। कुछ ही दिन बाद विनोदजी के अंतिम संस्कार के दिन भी वे सुभाषनगर विश्राम घाट पर आये थे और बातचीत में पुनः दुहराया था कि थोड़ी कमजोरी जरूर है पर कैंसर का कोई दुष्प्रभाव नहीं है।
कमला प्रसादजी ने जब से पहल का सयुंक्त सम्पादन और प्रगतिशील लेखक संघ के संगठन का काम हाथ में लिया तो फिर पूरी तरह से समर्पित होकर किया। पहल के बाद वसुधा के सम्पादन से लेकर प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव बनने तक वे शायद इससे बाहर कुछ सोचते ही नहीं थे। आपसी बातचीत का सिलसिला कहीं से शुरू हो समाप्त उनके संगठन की चिंता से ही होती थी। समर्पित भाव से किये गये इस काम से वे हजारों लोगों से जुड़े और उतने ही शत्रु भी बनाये जो उन्हें अपने लक्ष्य से डिगा नहीं सके। अपने विचार से जुड़े सैकड़ों प्रतिबद्ध रचनाकारों और नवोदितों को उन्होंने पुरस्कारों और सम्मानों से प्रोत्साहित किया। जब भी इसका इतिहास लिखा जायेगा तो पता लगेगा कि देश में जिन महत्वपूर्ण हिन्दी लेखकों ने अपना स्थान बनाया है उसमें से कितने उनके कन्धों पर खड़े होकर शिखर को छू सके थे। किसी भी संगठन के कार्यकर्ता के लिए कमला प्रसादजी का जीवन एक प्रतिमान हो सकता है।
बाद में पता चला कि उन्हें चिरायु अस्पताल में भरती करना पड़ा है और आईसीयू में हैं। लोगों ने वहाँ बात करने से मना किया और बात नहीं हो सकी। होती तो शायद वे यही कह रहे होते कि कोई गम्भीर बात नहीं है और में ठीक हो रहा हूं, फिर अपुन मीटिंग करेंगे।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, मार्च 14, 2011

विवाह की परम्पराओं में व्यापक सुधार की जरूरत

विवाह की परम्पराओं में व्यापक सुधार की जरूरत
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों में हरियाणा के पूर्व विधायक सुखवीर सिंह जौनपुरिया की बेटे की शादी दिल्ली के कांग्रेस के नेता कंवर सिंह तंवर के बेटे ललित कंवर से हुयी और इस शादी में व्यय किये गये धन ने इसे देश के अखबारों की प्रथम पृष्ठ की घटना बना दिया। इस शादी में कुल 250 करोड़ रुपये खर्च किये गये। बारात में आये 18 प्रमुख बारातियों का टीका एक एक करोड़ से किया गया और दूसरे 2000 बरातियों को 30-30 ग्राम के चांदी के बिस्कुट और नैनो कार भेंट में दी गयी। राजस्थान के सालासर बालाजी मन्दिर को 71 लाख रुपयों का दान दिया गया। इस को देखते हुए बारातियों के लिए की गयी शेष व्यवस्था की बात करना ही फिजूल होगी।
हमारे समाज में जब पुत्रियों को पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता था इसलिए उनके विवाह के अवसर पर उनके हिस्से की राशि एक नये परिवार के काम आने वाली दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं, और गहनों के रूप में दहेज की तरह दे दी जाती थी। यह एक स्वीकार्य प्रथा थी जो बाद में सम्भवतः कन्या पक्ष के पक्षपात आदि के कारण वर पक्ष द्वारा पहले से तय की जाने वाली राशि में बदल दी गयी व बाद में तो यह एक सौदेबाजी की बुराई में बदल गयी। इस बुराई में दहेज में नकदी भी ली जाने लगी। इस तरह की माँग कन्या के पिता की हैसियत देखे बिना भी की जाने लगी जिससे अनेक लड़कियां दहेज की कारण कुँवारी रह जाती रहीं या उनके पिता को कर्ज लेना पड़ा जो परोक्ष में उनके घर-जमीनें बिकने और आत्म हत्याओं तक का कारण भी बना। प्रकारांतर में दहेज का कागजी विरोध भी होता रहा किंतु पूंजीवादी समाज, जिसे प्रेमचन्द ने महाजनी सभ्यता कहा है, के विकास ने धन प्राप्त होने वाली इस परम्परा को दूर होने नहीं दिया। भले ही बेमन से इसके लिए कानून बने और सामाजिक सुधारों की बातें होती रहीं, पर सुधार कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि इसकी जड़ पर कभी प्रहार ही नहीं किया गया। धर्म जाति, उपजाति और गोत्र के अनुसार विवाह की परम्परा ने वर वधू के चयन के क्षेत्र को सिकोड़ दिया जिससे दहेज माँगने वालों को अनुकूलता हुयी। स्वतः चयन पर समाज के ठेकेदारों ने न केवल ऐसे विवाहों को अस्वीकार करते हुये नवदम्पति के साथ असहयोग किया अपितु कई मामलों में इन नवविवाहितों की हत्याएं तक कर दी गयीं।
पिछले दो तीन दशकों से हमारे देश में किसी भी तरह के कोई बड़े आन्दोलन नहीं हुये। ये न तो राजनीति के क्षेत्र में हुये और ना ही समाज सुधार के क्षेत्र में। राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता में इस तरह की कमी आयी है कि लोगों ने उनसे किसी सुधार की उम्मीद करना ही छोड़ दी है। किसी भी दल की रैली या विरोध प्रदर्शन में केवल उस दल के बँधुआ कार्यकर्ता, झूठे आश्वासनों से बहकाये मजबूर लोग या किराये से ले जाये गये लोग ही सम्मलित होते हैं। जनता का कोई व्यक्ति स्वतःस्फूर्त ढंग से इन दलों के आवाहन पर रैलियों में नहीं जाता भले ही वह कितनी भी जनहितैषी माँग के लिए बुलायी गयी हो। इसी तरह सामाज सुधार आन्दोलन तो सिरे से गायब हो गये। शायद जयप्रकाश नारायण राजनीतिक क्षेत्र के राष्ट्रीय आन्दोलनों वाले अंतिम नेता थे और समाज सुधार के आन्दोलनों के लिए तो महात्मा गान्धी के बाद कोई नहीं हुआ। काँशीराम जी ने संगठन तो बड़ा खड़ा किया किंतु उसका उपयोग केवल धन और राजनैतिक सत्ता हासिल करने के लिए किया, जिससे सम्बन्धित समाज का कोई भला नहीं हुआ। एकाध सफल किसान आन्दोलन के बाद महेन्द्र सिंह टिकैत ने शादी में कुल ग्यारह बाराती ले जाने और मामूली राशि से रस्में पूरी करने के आदेश निकाले थे किंतु उनको आर्थिक माँगों पर समर्थन देने वालों की भीड़ ने उनके सुझावों की बुरी तरह उपेक्षा कर दी थी, जिससे बाद में उभोंने ऐसे कोई प्रयास नहीं किये। संघ के सर संघ चालक बनते ही मोहन भागवत ने हिन्दुओं में अंतर्जातीय विवाह हेतु अभियान शुरू करने की बात की थी पर अपने राजनीतिक दल पर पड़ने वाले प्रभाव को अनुमानित कर जल्दी ही वे भी पूंछ दबा कर चुप बैठ गये।
सवाल यह है कि ऐसा दूध का धुला कौन है जो जनता को आवाज दे और उसकी आवाज का असर हो। यही सवाल शायद कभी भवानी प्रसाद मिश्र के मन में घुमड़ रहा होगा जब उन्होंने लिखा- कोई है? कोई है ? कोई है? जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है।
संस्था के रूप में राष्ट्रव्यापी आज कुछ राजनीतिक दल हैं जिनकी आवाज उनके सदस्यों के लिए बाध्यकारी हो सकती है, किंतु सीपीएम को छोड़ कर कोई भी अन्य दल सामाजिक कुरीतियों को पार्टी अनुशासन का दोषी नहीं मानती। अधिकांश राजनीतिक दलों के सदस्य कुरीतियों से घिरे होते हुए भी उस दल के सदस्य रह सकते हैं। दहेज शादी से जुड़ी कुरीतियों का एक हिस्सा बन गया है और इसके कारण भी समाज में बहुत सारी बुराइयाँ पैदा होती हैं। धन संग्रह की वृत्तियों को बढाने में इसका बहुत बड़ा हाथ है और प्रशासनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार का कारण बनता है। इसके कारण ही लड़की के जन्म को बुरा माना जाता है और भ्रूण हत्या से लेकर बाल विवाह और बहू दहन के पीछे भी इसी का हाथ होता है। लड़कियों में हीनता बोध और कुपोषण आदि के पीछे भी इसकी भूमिका है और यही हमारे समाज में नारी को दोयम दर्जे का नागरिक माने जाने का एक कारण बनता है।
जनता के लिए बड़े बड़े वादे करने वाले राजनीतिक दल यदि अपने सदस्यों को सदस्य बनाते समय सामाजिक सुधारों की कुछ शर्तें अनिवार्य कर दें एक बहुत बड़ी आबादी सामाजिक बुराइयों से दूर हो सकेगी। राजनीतिक दलों को यह समझना पड़ेगा कि सभी दल सत्ता में नहीं आ सकते और ना ही सत्तारूढ दलों के सभी सदस्य मंत्री, सांसद, या विधायक या पंचायती राज नगर निगमों के पदाधिकारी बन सकते हैं, किंतु उन्हें बिना पद पाये हुए भी समाज के लिए कुछ तो करना पड़ेगा अन्यथा वे फिर कभी भी सत्ता में नहीं आ सकेंगे। आज जब भ्रष्टाचार के खुलासों के कारण पूरा देश आन्दोलित है और सुप्रीम कोर्ट को अपने क्षेत्र से बाहर निर्देश देने को विवश होना पड़ रहा है, तब यह सही समय है जब राजनीतिक दल एक साझी आचार संहिता लागू करें और सामाजिक कुरीतियों को अपनाने वाले व्यक्तियों को सदस्यता देने से इंकार कर दें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

जाति समुदाय के संगठनों की हैसियत

जाति समुदायों के संगठनों की हैसियत
वीरेन्द्र जैन
यद्यपि हमने अपने संविधान में रंग धर्म लिंग जाति भाषा क्षेत्र आदि के भेद भाव के बिना सभी नागरिकों को समान अधिकार का वादा किया हुआ है पर इसके साथ सामाजिक आर्थिक रूप से दलित व पिछड़ी जातियों को समान स्तर पर लाने की दृष्टि से कुछ ऐसे उपाय भी किये हैं जिससे वे समान धरातल पर खड़े हो सकें। इसके लिए न केवल शिक्षा आदि में कुछ विशेष प्रोत्साहन ही दिये हैं अपितु कई क्षेत्रों में आरक्षण देकर भी उन्हें समान स्तर देने का प्रयास किया है।
जातियों के बीच समानता लाने के इस प्रयास में आरक्षण अनेक त्रुटियों से भरा कदम है किंतु जब तक हम इससे अधिक अच्छा कदम नहीं नहीं ला पाते तब तक इसे ही सर्वोंत्तम मानना हमारी बाध्यता है। आरक्षण में सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि हमने जाति उत्थान के प्रयासों में व्यक्तियों को सुविधाएं दी हैं और फिर यह समझने की भूल की है कि इससे समाज का उत्थान हो जायेगा। गत पचास साल का हमारा अनुभव बताता है कि ऐसा नहीं हो पाया। जिन व्यक्तियों को ये सुविधाएं मिलीं उन्होंने अपनी जाति का उत्थान करने की जगह स्वयं की जाति छुपाना प्रारम्भ कर दी व अपनी जाति के लोगों से स्वयं को काटना प्रारम्भ कर दिया। एक बार आरक्षण के लाभ से लाभान्वित लोगों ने अपनी विशेष स्थिति का लाभ लेते हुये इन सुविधाओं को अपने परिवारियों परिचितों को प्राथमिकता देकर सामाजिक विकास के लक्ष्य को और दूर कर दिया।
आरक्षण नीति के अन्तर्गत विभिन्न सदनों नगरनिगमों नगर पालिकाओं पंचायतों आदि के निर्वाचन क्षेत्रों के लिए जो स्थान आरक्षित किये गये उनसे भी भले ही कुछ व्यक्तियों को मौद्रिक लाभ पहुंचा हो पर बिना उचित राजनीतिक कार्यों के वोट समूह जुटाने के प्रयास में दलों ने जातियों के संगठन बनवाने और उसके नेतृत्व को विकसित करने के प्रयास किये जिसमें वे सफल भी रहे। इसने जातियों की बीमारी को समाप्त करने की जगह उसे मजबूत करने, उसकी पहचान को बनाये रखने, और अपने अपने प्रतीक पुरूष खोज कर उनके महिमामंडन द्वारा जाति अस्मिता पैदा करने की कोशिश की। एक ओर जहां उनके जातीय पिछड़ेपन के आधार पर उन्हें प्रोत्साहन की सरकारी नीति थी वहीं दूसरी ओर उनकी यथा स्थिति को गौरवान्वित करने के प्रयास प्रारम्भ हो गये थे जो उन्हें दूसरों के समान ही नहीं उनसे श्रेष्ठ साबित करने में लग गये थे। यह ऐसा ही था जैसे किसी बीमार और कमजोर व्यक्ति को कोई चन्दबरदाई दुनिया का सबसे बड़ा शूरमा सिद्ध करने में जुट जाये जिसका परिणाम यह निकले कि वह अपनी बीमारी की खोज और इलाज की जगह तलवार भांजने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने लगे। जाति संगठनों के मजबूत होते जाने ने उन्हें अपनी जाति समाज की उन बुराइयों को पहचानने व उन्हें दूर करने की सम्भावनाओं कों बाधा पहुंचायी जो उनके सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेवार रहीं थीं।
राजनीतिज्ञों की चुनावी सम्भावनाओं से जनित जाति-संगठनों का नेतृत्व भी लोकतांत्रिक ढंग से चुना नेतृत्व नहीं था अपितु क्षेत्र के प्रभावी नेता के चुनावी हितों हेतु रोपा गया नेतृत्व था। इस नेतृत्व ने एक ओर अपने जाति समाज को महान बताने की कोशिश की और दूसरी ओर सरकार से सुविधाएं दिलवाने की फुसलाहटें दीं। समाज के स्वत: उत्थान या उसमें घर कर गयी कमजोरियों के उन्मूलन के कोई प्रभावी प्रयास इस नेतृत्व ने नहीं किये।

चुनावी राजनीतिज्ञों के बहकावे में सरकारों से अतिरिक्त लाभ प्राप्त करने की जो प्रवृत्ति आरक्षण के कारण पैदा हुयी उसमें जातिवादी संगठनों के स्वयं भू नेता सरकारों से बात करने पहुंचे जबकि यह कहीं प्रमाणित नहीं था कि वे सचमुच उस बातचीत के लिए उस समाज से अधिकृत भी हैं या नहीं। मीडिया मेनेजमैंट के द्वारा उन्हें ही समाज का नेता बताने का डंका बजा दिया गया और इस नक्कारखानें में तूतियों की आवाजें दब कर रह गयीं। संविधान ने भले ही कुछ जाति समूहों के व्यक्तियों को आरक्षण की सुविधा दी हो पर उनके जातिवादी संगठनों के गठन या नेतृत्व की कोई व्यवस्था वहां नहीं है। सम्भवत: संविधान निर्माताओं का यह विश्वास रहा होगा कि किसी जाति समूह के लिए कुछ सुविधाएं हासिल करने की मांगें राजनीतिक दलों के माघ्यम से ही रखी जायेंगीं।
गत दिनों राजस्थान में गुर्जरों के आन्दोलन में व्यक्त की गयी मांगों के समर्थन में एक भी राजनीतिक दल खुलकर आगे नहीं आया, पर किसी ने खुले पैमाने पर उनके हिंसक आन्दोलन व अव्यवहारकि मांगों का विरोध करने की हिम्मत भी नहीं जुटाई। यह स्थिति दो बातों की ओर इशारा करती है, पहली तो यह कि समाज में इतने बड़े पैमाने पर हो रही हलचलों के बारे में राजनीतिक दल उदासीन हैं और जनता से उनका सम्बन्ध केवल वोट हथियाने भर का है और दूसरी यह कि गैर राजनीतिक आघार पर संचालित लोकतंत्र भविष्य में भी ऐसी अनेक समस्याओं से जूझ सकता है। यह समय है कि जब राजनीतिक दलों को अपने गरेबां में झांक कर देखना चाहिये और विश्लेषित करना चाहिये कि क्यों जगह जगह इतने क्षेत्रीय दल विकसित होकर लोकतंत्र का क्षरण कर सकने में सफल हो रहे हैं।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, मार्च 05, 2011

बदले की भावना से न्याय सम्मत कार्यवाही बुरी नहीं


बदले की भावना से न्याय सम्मत कार्यवाही बुरी नहीं
वीरेन्द्र जैन
कोई देश भले ही किसी सांविधान के अंतर्गत संचालित होता हो किंतु उसका समाज एक सामाजिक संविधान के आधार पर चलता है और कभी कभी इन दोनों संविधानों के बीच टकराहट भी पैदा हो जाती है। हमारे देश का सामाजिक संविधान कुछ धार्मिक कथाओं में वर्णित चरित्रों, घटनाओं और आदर्शौ के आधार पर चलता रहा है। इन कथाओं में हम रिश्तों को परिभाषित व उसी अनुसार निधर्रित होते हुये देखते हैं और अच्छे व बुरे की पहचान करते हुये सामजिक मूल्य ग्रहण करते रहे हैं। इन कथाओं में जो एक चीज हम बहुत ही सामान्य पाते हैं वह है बदले की भावना। राम कथा में ही रावण जैसे राक्षस को मारने का फैसला उसके द्वारा छल पूर्वक सीता हरण करने के कारण लिया गया बताते हैं तथा इसी तरह अन्य कथाओं में भी कथा नायकों द्वारा समाजविरोधी तत्वों का विनाश किसी व्यक्तिगत रंजिश के कारण ही संभव हुआ पाते हैं। इतिहास में भी दर्ज हैं कि अगर औरंगजेब ने शिवाजी को बड़े मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया होता तो आज इतिहास उन्हें अन्य सामान्य राजाओं की तरह ही याद करता। पर यह बदले की भावना ही थी जो शिवाजी को एक स्मरणीय नायक बनाती है।।
आज की लोकतांत्रिक राजनीति में हम आये दिन देखते हैं कि जब भी किसी राजनेता के विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही की जाती है तो वह इसे बदले की भावना से की गयी कार्यवाही कह कर सत्तारूढ नेताओं को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है और यदि सत्ता में हुआ तो दूसरे गुट के नेता को दोष देने की कोशिश करता है। उक्त आरोपियों का ऐसा बयान देश की न्याय व्यवस्था में खुला अविश्वास और उनके अपमान का सूचक होता है। आखिर बदले की भावना से भी की गयी उचित कानूनी कार्यवाही यदि नियमानुसार है तो उसे करने में दोष ही क्या है? यह तो वह कार्यवाही है जिसे करने के लिए ही किसी को पद पर बिठाया जाता है, भले ही वह अपने प्रतिद्वन्दी को प्राथमिकता पर रख कर उसे पहले न्याय दिलाने का कार्य कर रहा हो।
हमारे कानून के अनुसार जब तक कि कोई दोषी साबित न हो जाये वह आरोपी ही माना जाता है तथा जब तक फैसला नहीं हो जाता तब तक वे आरोपी ही कहलाते हैं और देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचने की पात्रता रखते हैं। प्रत्येक आरोप की एक जाँच प्रक्रिया है व विधिवत भरपूर समय देकर प्रकरण चलता है। इस दौरान आरोपियों को अपने आप को निर्दोष साबित करने का भरपूर अवसर रहता है। यदि यह साबित हो जाता है कि आरोपी निर्दोष था व जाँच अधिकारी अथवा शिकायतकर्ता ने उसे जानबूझ कर फॅंसाने की कोशिश की है तो उस पर भी प्रकरण दर्ज किया जा सकता है, और दण्डित भी किया जा सकता है। इसलिए स्वयं को निर्दोष मानने वाले और कानून व्यवस्था में विश्वास रखने वाले किसी व्यक्ति को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए।
हमारे देश में इतने मुकदमे लम्बित हैं कि अगर सारी अदालतें बिना किसी छु़टिट्ओं के लगातार भी बैठें तो भी लगभग 150 साल उन्हें सुलझाने में लग जावेंगे। लोकतंत्र में प्रत्येक पाचँ साल में सरकार का नवीनीकरण होता है इसलिए नये आने वाले शासन को अपना अभियान कुछ लागों से प्रारंभ करना पड़ता है। आम तौर पर सरकार के विरोधी सरकार पर नाकारापने का आरोप लगाते रहते हैं किंतु जब वे अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही करते हैं और ऐसे अपराधी यदि किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं तो उनका आरोप होता है कि ये कार्यवाही उन्हें अनावश्यक रूप से झूठे फॅसाने के लिए की जा रही है ऐसा आरोप लगाते हुये वे न केवल सत्ता में बैठे अपने विरोधी पर ही आरोप लगा रहे होते हैं अपितु यह भी कह रहे होते हैं कि पूरी न्याय प्रणाली सत्तारूढ दल की गुलाम होती है इसलिए उन्हें न्याय नहीं मिल सकेगा। यह न्याय के प्रति उनके अविश्वास को प्रकट करता है। हो सकता है कि कुछ हद तक यह सही भी हो किंतु केवल अपने ऊपर आरोप लगने के बाद ऐसे विचार प्रकट करना किसी राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। यदि न्याय प्रणाली समेत किसी भी व्यवस्था में कोई दोष है तो उसे दूर करने के लिए राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं को उन पर आरोप लगने से पूर्व भी निरंतर कार्य करना चाहिये। आखिर इससे पहले वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे होते?
यदि बदले की भावना से भी न्यायसंगत कार्यवाही होती है तो वह स्वागत योग्य है क्योंकि आखिर कहीं न कहीं से तो शुरूआत करना ही होगी। यदि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार आयकर के छापों का प्रारंभ साम्प्रदायिक दलों के सदस्यों और उनको वित्तीय मदद देने वालों से करते हैं तो उसमें दुहरा फायदा है। जहाँ एक ओर छुपाये गये आयकर की वसूली होती है तो दूसरी ओर देश विरोधी साम्प्रदायिकता को पल्लवित पोषित करने वालों पर लगाम लगती है। लोकतंत्र में सरकारें बदलती रहती हैं और विभिन्न समय पर विभिन्न स्थानों पर अलग अलग दलों की सरकारें काम करती है इसलिए बदले की भावना से भी किये गये काम से भी कानून का पालन कराया जा सकता है। यही प्राथमिकता विरोधी दलों से जुड़े संदिग्ध माफिया गिराहों व असामाजिक तत्वों के साथ कर सकती हैं। अतिक्रमण हटाने के मामले में भी यह प्रक्रिया परिणामदायी सिद्ध होगी।
राजनीतिक दलों के सदस्य होने के आधार पर किसी को भी कानून से कोई छूट नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि बहुत सारे दलों में कानून से सुरक्षा पाने के लिए ही अनेक अपराधी सम्मिलित हो गये हैं जो कार्यवाही होने पर अपनी राजनीतिक हैसियत का कवच पहिन लेते हैं। राजनीतिक विरोधियों को प्राथमिकता पर रखने का एक लाभ यह भी होगा कि फिर वे भी पलट कर सत्तारूढ दल के सदस्यों में छुपे अपराधियों के खिलाफ अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करेंगे जिससे प्रशासन को कार्यवाही का अवसर मिलेगा और सरकार स्वत: ही लाभान्वित होंगी। यह प्रक्रिया प्रशासनतंत्र को साफसुथरा बनाने में मददगार होगी। देखने में यह आ रहा है कि अभी अपराधों का सहकार चल रहा है और सत्ता व विपक्ष में सम्मिलित नेताओं में यह समझ सी बन गयी है कि ना हम तुम्हें छेड़ें और ना ही तुम हमारे मामले में अपनी चौंच डालो। जनता के सामने पिछली सरकार पर तरह तरह से आरोप लगाने वाला विपक्षी दल सत्ता पाने के बाद उदार बन जाता है क्यों कि वह स्वयं भी उसी रास्ते पर जाने के लिए तैयार होकर आता है जिसकी आलोचना करते करते उन्होंने सत्ता हथियायी होती है। होना तो यह चाहिये कि किसी भी आरोपी को किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का सदस्य बनने से रोक लगाये जाने के प्रावधान हों, अथवा उन्हें चुनाव में खड़े होने से वंचित किया जा सके। यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि यदि कोई आरोपी चुन लिया जाये तो उस पर चल रहे प्रकरणों की सुनवाई किसी फास्ट ट्रैक अदालत से दैनिक आधार पर करवायी जाये। जब हमारे चुने हुये आदरणीय सदस्यों को अनेक विशोष सुविधाएं मिली हुयी हैं तो यह एक विशेष सुविधा और मिलने से हमारे सदन दाग रहित सदस्यों के सदन बन सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

गुरुवार, मार्च 03, 2011

एक जनाकांछा को हथियाता अपात्र नेतृत्व


एक जनाकांक्षा को हथियाता अपात्र नेतृत्व
वीरेन्द्र जैन
आज भ्रष्टाचार हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में से एक की तरह पहचाना जा रहा है, क्योंकि इसी के कारण हमारी दूसरी प्रमुख जन समस्याओं को हल करने वाली योजनाएं निष्फल होती जा रही हैं। भ्रष्टाचार के कारण ही किसानों को उनके लिए घोषित लाभ नहीं मिल पाते, और अनुदान हड़प लिया जाता है। भ्रष्टाचार के कारण ही सशक्तिकरण योजनाओं के लाभ कमजोर वर्ग तक नहीं पहुँच पाते। भ्रष्टाचार के कारण ही निर्माण कमजोर बनते हैं और विकृत सामानों की सरकारी खरीद हो जाती है। कहा जाता है कि हमारे यहाँ के योजनाकार और योजनाएं किसी भी दूसरे विकासशील देश की योजनाओं से दोयम नहीं है, किंतु ईमानदारी से उनका अनुपालन नहीं हो पाने के कारण वे निरर्थक हो जाती हैं और कमजोर न्याय व्यवस्था के कारण दोषियों को सजा नहीं हो पाती। भ्रष्टाचार से लाभ कमाकर स्वयं को सशक्त करने वाले अनेक धन्धेबाज लोग सदनों में पहुँचकर लोक सेवकों का स्थान छीन रहे हैं और उन्होंने जनतंत्र को धनतंत्र में बदल दिया है। यही कारण है कि आज देश की जनता व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध है और इस विरोध में वे लोग भी सम्मलित हैं जो खुद भी कहीं कहीं छोटा मोटा भ्रष्टाचार करके बड़े भ्रष्टाचार से राहत पाने का शार्टकट अपनाये हुये हैं। यदि टीवी कार्यक्रमों की लोकप्रियता को सर्वेक्षण का आधार बना कर देखें तो पता चलता है कि स्वस्थ मनोरंजन के कार्यक्रमों में से गत वर्षों में सीरियल “आफिस-आफिस” “कक्काजी कहिन” और “रजनी” बहुत लोकप्रिय हुये थे जो राजनीति व नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर तीखे कटाक्ष करते थे। यही कारण है कि वर्षों पुराने योग के नये कार्यक्रमों से अचानक लोकप्रिय हो गये अतिमहात्वाकान्क्षी बाबा रामदेव ने राजनीति में प्रवेश करने के लिए इसी मुद्दे को पकड़ा और यथा अनुमानित जनसमर्थन प्राप्त किया। इस जनसमर्थन से उत्साहित रामदेव ने जल्दी ही अपनी पार्टी बनाने की घोषणा कर डाली।
उनके इस अभियान में समाज सेवा से जुड़े दूसरे लोकप्रिय नाम, जैसे अन्ना हजारे, स्वामी अग्निवेश, किरन बेदी, गोबिन्दाचार्य, अरविन्द केजरीवाल, राम जेठमलानी आदि भी सम्मलित हैं किंतु इसके नेतृत्व करने का अवसर अपेक्षित कम शिक्षित बाबा रामकिशन, अर्थात रामदेव को ही मिल रहा है क्योंकि वे अपने टीवी कार्यक्रमों और योग शिविरों द्वारा स्वयं को अधिक लोकप्रिय बताकर आगे आये हुये हैं। दुर्भाग्य से सच यह भी है कि वे [रामदेव] नेतृत्व करने के लिए इन सब से कम सक्षम हैं, और उनका इतिहास भी उनको इस अभियान का नेतृत्व करने की नैतिक इजाजत नहीं देता। अब यह जग जाहिर हो चुका है कि जिन रामकिशन यादव के पास साइकिल का पंचर जुड़वाने के भी पैसे नहीं होते थे, वे आज 1115 करोड़ की ट्रस्ट को संचालित कर रहे हैं। इस बात में कोई दम नहीं कि कि उनके नाम से एक भी पैसा जमा नहीं है, और सारा पैसा ट्रस्ट का है। आज जो कोई भी अपनी आमदनी का वित्तीय प्रबन्धन कराना चाहता है तो सीए यही सलाह देता है कि कोई ट्रस्ट बना डालो जिसमें अपना और अपने परिवारियों को ही सदस्य बना लो। यह सारा पैसा रामदेव के शिविरों, टीवी कार्यक्रमों से प्राप्त रायल्टी, किताबों, सीडी पत्रिकाओं तथा आयुर्वेदिक दवाओं के बिक्री आदि से ही नहीं प्राप्त हुआ अपितु उन्हें अघोषित दानदाताओं से दान में भी बहुत बड़ी बड़ी राशियां मिली हैं। कई राज्य सरकारों ने भी उन्हें बड़ी बड़ी जमीनें मुफ्त के भाव दी हैं। आज 903 करोड़ की पूंजी वाला उनका दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट और 212 करोड़ की पूंजी वाला पतंजलि योगपीठ हरिद्वार एक हजार एकड़ से भी ज्यादा जमीन में फैले हुये हैं। हिमाचल प्रदेश में भी उनका 90 करोड़ का एक ट्रस्ट है जो फ्लैट्स बना कर बेच रहा है। दिव्य फार्मेसी प्रति वर्ष 50 करोड़ कमा रही है और अभी हाल ही में हरिद्वार में 100 करोड़ की लागत से पतंजलि विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है। मध्य प्रदेश सरकार भी उन्हें 1618 एकड़ की जमीन जबलपुर में देने वाली है। 2009 में रामदेव ने स्काटलैंड में 310 एकड़ का टापू 14.7 करोड़ में खरीदा था। मुम्बई के उनके रियल स्टेट का कारोबार करने वाले एक भक्त ने उन्हें एक इमारत भेंट की जिसमें कभी दीपा लेडीज बार चला करता था। इस जगह उन्होंने आश्रम खोला और इस आश्रम का उद्घाटन भी उन्होंने खुद किया था। इतनी बड़ी बड़ी राशियाँ दान करने वाले इस भ्रष्टाचारी दौर में ये दानदाता साफ सुथरे होंगे यह केवल एक सद्भावना भर ही हो सकती है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि घरों में रंगीन टीवी और डिस्क कनेक्शन रखने वाले मध्यमवर्गीय लोगों को उनके घरों में ही योग सिखा कर बाबा ने बहुत ही अच्छा काम किया है, जिसे सभी ने श्रद्धापूर्वक स्वीकारा भी है। उनके आयुर्वेदिक दवा उद्योग को भी लोगों के स्वास्थ से जोड़कर स्वीकारा जा सकता है, किंतु जब पैसे और सम्पत्ति के लिए अन्धी हवस जब शुरू होती है तो वह समाज की नैतिक मान्यताओं को ताक पर रख देती है। रामदेव ने न केवल ज्यादा से ज्यादा जमीनें हथियाने की कोशिशें कीं अपितु हस्तगत की इन फैक्टरियों को अपने भाई रामभरत और बहनोई यशवीर शास्त्री को ही सौंपी ताकि हिसाब का रहस्य, रहस्य ही रहे। उनके मंच पर उत्तर प्रदेश की एक बदनाम चिट फंड की कम्पनी का मालिक और उसके अधिकारी ही नजर आते रहे हैं। उन्होंने हरिद्वार और रांची में किसी कुशल व्यापारी की तरह मेगा हर्बल फूड पाई की दो कम्पनियों का प्रारम्भ किया है जिसमें एक तो केन्द्र सरकार के एक मंत्री की पार्टनरशिप में है।
समाजसेवा के ढेर सारे आयाम हैं, जिनमें से राजनीति भी एक है। आमतौर पर राजनीति के माध्यम से समाज सेवा करने वालों के लिए एक उम्र कम पड़ती है, इसलिए इस क्षेत्र में हर उम्र के लोग मिल जायेंगे। तब यह कैसे सम्भव है कि कोई व्यक्ति यदि एक क्षेत्र विशेष में अपनी सेवाएं दे रहा हो तो वह उतने ही दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्र में काम करने के लिए दूसरों से आगे आने की कोशिश करे। यदि रामदेव चाहते तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध काम करने वाले संगठनों या दलों को अपना समर्थन देकर भी अपना काम कर सकते थे किंतु इसकी जगह उन्होंने न केवल स्वयं नेतृत्व हथियाने अपितु अपना एक अलग दल बनाने के नाम पर भी जोड़ तोड़ शुरू कर दी। रामदेवजी के पूरे जीवन पर दृष्टिपात करने पर उनके अति महात्वाकांक्षी होने का पता चलता है। वे एक निर्धन परिवार में पैदा हुए थे और आर्य समाज की संस्था गुरुकुल कांगड़ी में शिक्षा प्राप्त करते थे। इसी दौरान अपने गुजारे के लिए उन्होंने आर्य समाज की शिक्षण संस्थाओं, महिला महाविद्यालयों और दूसरी जगहों में हवन कराना शुरू कर दिया था। इसी दौरान उन्होंने अपने दो साथियों कर्मवीर और आचार्य बाल्कृष्ण के साथ कनखल के गंगा नहर के किनारे बने कृपालु बाग दिव्य योग मन्दिर में रहने के लिए कमरा लिया और इसके संचालक स्वामी शंकर देव को अपना गुरू बनाया और धीरे धीरे इस आश्रम पर अपना कब्जा कर लिया। रामदेव व कर्मवीर तो योग सिखाने लगे और बालकृष्ण ने वैद्यगिरी प्रारम्भ कर दी। जल्दी ही अपने लक्ष्य में बाधक मानकर रामदेव ने कर्मवीर को अलग कर दिया, और बाद में कर्मवीर को आश्रम में घुसने तक नहीं दिया। रामदेव ने इस मामले में अपने गुरु स्वामी शंकरदेव की बात ही नहीं मानी, और उनकी नाराजी की फिक्र ही नहीं की। पिछले दिनों स्वामी शंकरदेव रहस्यमय ढंग से गायब हो गये और उनका पता अभी तक नहीं चला है। योग के बहाने वे अपनी फार्मेसी की दवाइयाँ भी बिकवाने लगे। उन्होंने योग की लोकप्रियता को अपनी लोकप्रियता के लिए स्तेमाल किया। योग शिविर लगा कर उन्होंने लाभ पाने वाले अफसरों और नेताओं से उन्होंने भरपूर सुविधाएं प्राप्त कीं। अपने लिए सरकार से मिली एक्स श्रेणी की सुरक्षा को वाय श्रेणी की सुरक्षा में बदलने के लिए एक झूठा आतंकवादी बनवाया जो सुतली बम लेकर उनके साथ हैलीकाप्टर में बैठ गया और अपने आप को पकड़वा दिया। बाद में पुलिस द्वारा कड़ी पूछताछ के बाद उसने राज खोल दिया कि उससे ऐसा किसने और क्यों करवाया था।
उन्होंने अखबारों में समाज सुधारों वाले लेख लिखे, टीवी पर इंटरव्यू दिये जिनमें कोका-कोला और ऐलोपैथी आदि के खिलाफ सोचे समझे ढंग से विवादास्पद बयान दिये, जिससे चर्चा में आ सकें। बड़े बड़े नेताओं को अपने यहाँ बुलवाया, सीपीएम कार्यालय पर हमला करवाया, दिग्विजय सिंह द्वारा उनकी सम्पत्ति की जाँच की माँग किये जाने पर सीधे कांग्रेस अध्यक्ष पर आरोप लगा दिये आदि आदि। कुल मिला कर ये अति महात्वाकांक्षी व्यक्ति के अतिरंजित प्रयास हैं, जो चर्चित होने के लिए चर्चित होती हुयी वस्तु से स्वयं को जबरदस्ती जोड़ लेने का प्रयास करता है। वैसे अभी तक उन्होंने काले धन के बारे में सारे के सारे आरोप हवाई लगाये हैं, एक भी आरोप किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ सप्रमाण नहीं लगाये गये हैं, यह वैसा ही है कि उन्होंने अभी उत्तराखण्ड के एक मंत्री द्वारा उनसे दो लाख की रिश्वत माँगने का आरोप लगा दिया था किंतु अभी तक उसका नाम उजागर नहीं किया। आखिर उन्हें ऐसा क्या भय है कि वे उसका नाम उजागर नहीं कर सकते। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनान्दोलन की सम्भावनाओं को निजी महात्वाकांक्षाओं के लिए शगूफे पैदा करने वाले रामदेव जैसे लोगों से बचाना चाहिए।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629