शनिवार, मार्च 05, 2011

बदले की भावना से न्याय सम्मत कार्यवाही बुरी नहीं


बदले की भावना से न्याय सम्मत कार्यवाही बुरी नहीं
वीरेन्द्र जैन
कोई देश भले ही किसी सांविधान के अंतर्गत संचालित होता हो किंतु उसका समाज एक सामाजिक संविधान के आधार पर चलता है और कभी कभी इन दोनों संविधानों के बीच टकराहट भी पैदा हो जाती है। हमारे देश का सामाजिक संविधान कुछ धार्मिक कथाओं में वर्णित चरित्रों, घटनाओं और आदर्शौ के आधार पर चलता रहा है। इन कथाओं में हम रिश्तों को परिभाषित व उसी अनुसार निधर्रित होते हुये देखते हैं और अच्छे व बुरे की पहचान करते हुये सामजिक मूल्य ग्रहण करते रहे हैं। इन कथाओं में जो एक चीज हम बहुत ही सामान्य पाते हैं वह है बदले की भावना। राम कथा में ही रावण जैसे राक्षस को मारने का फैसला उसके द्वारा छल पूर्वक सीता हरण करने के कारण लिया गया बताते हैं तथा इसी तरह अन्य कथाओं में भी कथा नायकों द्वारा समाजविरोधी तत्वों का विनाश किसी व्यक्तिगत रंजिश के कारण ही संभव हुआ पाते हैं। इतिहास में भी दर्ज हैं कि अगर औरंगजेब ने शिवाजी को बड़े मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया होता तो आज इतिहास उन्हें अन्य सामान्य राजाओं की तरह ही याद करता। पर यह बदले की भावना ही थी जो शिवाजी को एक स्मरणीय नायक बनाती है।।
आज की लोकतांत्रिक राजनीति में हम आये दिन देखते हैं कि जब भी किसी राजनेता के विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही की जाती है तो वह इसे बदले की भावना से की गयी कार्यवाही कह कर सत्तारूढ नेताओं को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है और यदि सत्ता में हुआ तो दूसरे गुट के नेता को दोष देने की कोशिश करता है। उक्त आरोपियों का ऐसा बयान देश की न्याय व्यवस्था में खुला अविश्वास और उनके अपमान का सूचक होता है। आखिर बदले की भावना से भी की गयी उचित कानूनी कार्यवाही यदि नियमानुसार है तो उसे करने में दोष ही क्या है? यह तो वह कार्यवाही है जिसे करने के लिए ही किसी को पद पर बिठाया जाता है, भले ही वह अपने प्रतिद्वन्दी को प्राथमिकता पर रख कर उसे पहले न्याय दिलाने का कार्य कर रहा हो।
हमारे कानून के अनुसार जब तक कि कोई दोषी साबित न हो जाये वह आरोपी ही माना जाता है तथा जब तक फैसला नहीं हो जाता तब तक वे आरोपी ही कहलाते हैं और देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचने की पात्रता रखते हैं। प्रत्येक आरोप की एक जाँच प्रक्रिया है व विधिवत भरपूर समय देकर प्रकरण चलता है। इस दौरान आरोपियों को अपने आप को निर्दोष साबित करने का भरपूर अवसर रहता है। यदि यह साबित हो जाता है कि आरोपी निर्दोष था व जाँच अधिकारी अथवा शिकायतकर्ता ने उसे जानबूझ कर फॅंसाने की कोशिश की है तो उस पर भी प्रकरण दर्ज किया जा सकता है, और दण्डित भी किया जा सकता है। इसलिए स्वयं को निर्दोष मानने वाले और कानून व्यवस्था में विश्वास रखने वाले किसी व्यक्ति को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए।
हमारे देश में इतने मुकदमे लम्बित हैं कि अगर सारी अदालतें बिना किसी छु़टिट्ओं के लगातार भी बैठें तो भी लगभग 150 साल उन्हें सुलझाने में लग जावेंगे। लोकतंत्र में प्रत्येक पाचँ साल में सरकार का नवीनीकरण होता है इसलिए नये आने वाले शासन को अपना अभियान कुछ लागों से प्रारंभ करना पड़ता है। आम तौर पर सरकार के विरोधी सरकार पर नाकारापने का आरोप लगाते रहते हैं किंतु जब वे अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही करते हैं और ऐसे अपराधी यदि किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं तो उनका आरोप होता है कि ये कार्यवाही उन्हें अनावश्यक रूप से झूठे फॅसाने के लिए की जा रही है ऐसा आरोप लगाते हुये वे न केवल सत्ता में बैठे अपने विरोधी पर ही आरोप लगा रहे होते हैं अपितु यह भी कह रहे होते हैं कि पूरी न्याय प्रणाली सत्तारूढ दल की गुलाम होती है इसलिए उन्हें न्याय नहीं मिल सकेगा। यह न्याय के प्रति उनके अविश्वास को प्रकट करता है। हो सकता है कि कुछ हद तक यह सही भी हो किंतु केवल अपने ऊपर आरोप लगने के बाद ऐसे विचार प्रकट करना किसी राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। यदि न्याय प्रणाली समेत किसी भी व्यवस्था में कोई दोष है तो उसे दूर करने के लिए राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं को उन पर आरोप लगने से पूर्व भी निरंतर कार्य करना चाहिये। आखिर इससे पहले वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे होते?
यदि बदले की भावना से भी न्यायसंगत कार्यवाही होती है तो वह स्वागत योग्य है क्योंकि आखिर कहीं न कहीं से तो शुरूआत करना ही होगी। यदि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार आयकर के छापों का प्रारंभ साम्प्रदायिक दलों के सदस्यों और उनको वित्तीय मदद देने वालों से करते हैं तो उसमें दुहरा फायदा है। जहाँ एक ओर छुपाये गये आयकर की वसूली होती है तो दूसरी ओर देश विरोधी साम्प्रदायिकता को पल्लवित पोषित करने वालों पर लगाम लगती है। लोकतंत्र में सरकारें बदलती रहती हैं और विभिन्न समय पर विभिन्न स्थानों पर अलग अलग दलों की सरकारें काम करती है इसलिए बदले की भावना से भी किये गये काम से भी कानून का पालन कराया जा सकता है। यही प्राथमिकता विरोधी दलों से जुड़े संदिग्ध माफिया गिराहों व असामाजिक तत्वों के साथ कर सकती हैं। अतिक्रमण हटाने के मामले में भी यह प्रक्रिया परिणामदायी सिद्ध होगी।
राजनीतिक दलों के सदस्य होने के आधार पर किसी को भी कानून से कोई छूट नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि बहुत सारे दलों में कानून से सुरक्षा पाने के लिए ही अनेक अपराधी सम्मिलित हो गये हैं जो कार्यवाही होने पर अपनी राजनीतिक हैसियत का कवच पहिन लेते हैं। राजनीतिक विरोधियों को प्राथमिकता पर रखने का एक लाभ यह भी होगा कि फिर वे भी पलट कर सत्तारूढ दल के सदस्यों में छुपे अपराधियों के खिलाफ अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करेंगे जिससे प्रशासन को कार्यवाही का अवसर मिलेगा और सरकार स्वत: ही लाभान्वित होंगी। यह प्रक्रिया प्रशासनतंत्र को साफसुथरा बनाने में मददगार होगी। देखने में यह आ रहा है कि अभी अपराधों का सहकार चल रहा है और सत्ता व विपक्ष में सम्मिलित नेताओं में यह समझ सी बन गयी है कि ना हम तुम्हें छेड़ें और ना ही तुम हमारे मामले में अपनी चौंच डालो। जनता के सामने पिछली सरकार पर तरह तरह से आरोप लगाने वाला विपक्षी दल सत्ता पाने के बाद उदार बन जाता है क्यों कि वह स्वयं भी उसी रास्ते पर जाने के लिए तैयार होकर आता है जिसकी आलोचना करते करते उन्होंने सत्ता हथियायी होती है। होना तो यह चाहिये कि किसी भी आरोपी को किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का सदस्य बनने से रोक लगाये जाने के प्रावधान हों, अथवा उन्हें चुनाव में खड़े होने से वंचित किया जा सके। यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि यदि कोई आरोपी चुन लिया जाये तो उस पर चल रहे प्रकरणों की सुनवाई किसी फास्ट ट्रैक अदालत से दैनिक आधार पर करवायी जाये। जब हमारे चुने हुये आदरणीय सदस्यों को अनेक विशोष सुविधाएं मिली हुयी हैं तो यह एक विशेष सुविधा और मिलने से हमारे सदन दाग रहित सदस्यों के सदन बन सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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