शुक्रवार, अक्तूबर 31, 2014

सामाजिक आदर्श और हमारा लोकतंत्र



 सामाजिक आदर्श और हमारा लोकतंत्र               
वीरेन्द्र जैन                  

हाल ही के लोकसभा चुनावों में एक करोड़ इक्यासी लाख वोट लेकर तामिलनाडु में अपनी पार्टी को 95 प्रतिशत सीटें जिताने वाली सुश्री जय ललिता को आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोप में जेल जाना पड़ा, और वे ऐसी पहली मुख्यमंत्री नहीं है जिन्हें अदालत के फैसले के बाद पद त्यागने को विवश होना पड़ा हो। पिछले दिनों ऐसी अनेक घटनाएं हुयी हैं कि ऐसे सैकड़ों लोग संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधि बन कर पहुँचे हैं जिन्हें गैरकानूनी कामों के लिए ज़िम्मेवार माना गया है, और सैकड़ों ऐसे भी हैं जिन पर वर्षों से प्रकरण लम्बित हैं। बहुत सारे लोगों ने तो अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण आरोपों को अदालत में सिद्ध ही नहीं होने दिया है, और बाइज्जत बरी हो चुके हैं, पर सब जानते हैं कि वे दोषी हैं। विडम्बना यह है कि कानून बना सकने का अधिकार भी इन्हीं जनप्रतिनिधियों को प्राप्त है। जिस गति से ऐसे प्रतिनिधियों और उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है, उससे लगता है कि हमारे लोकतंत्र के यथार्थ और हमारे लोकतांत्रिक आदर्शों में गहरी दूरी है। कुछ तो गड़बड़ है तब ही तो जो लोग हमारे समाज के नैतिक आदर्शों और कानून की तराजू पर खरे नहीं उतरते वे समाज के प्रतिनिधि के रूप में चुन लिये जाते हैं, व अपने जन समर्थन की ओट लेकर नेता यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि जनता उनके किये को पसन्द करती है।  
       जयललिता को सजा मिलने पर समाचार पत्रों में जिस तरह से विलाप करती हुयी तामिलनाडु की महिलाओं के चित्र प्रकाशित हुये हैं और वैकल्पिक मुख्यमंत्री के जयललिता को साष्टांग दण्डवत करते, व पूरे मंत्रिमण्डल को आँसू बहाते हुये शपथ लेते देखा गया है वह गहरे सवाल खड़े करता है। जिन वाय एस आर रेड्डी की दुर्घटना में मृत्यु होने पर सौ से अधिक लोग आत्महत्या कर लेते हैं उन्हीं के पुत्र को उस वित्त वर्ष में सर्वाधिक आयकर चुकाने के बाद भी आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में महीनों जेल में रहना पड़ता है। यह आय उन्होंने अपने पिता के मुख्यमंत्री रहते हुये अर्जित की थी। बाद में अलग पार्टी बना कर चुनाव में उतरने पर वे न केवल विजय प्राप्त करते हैं अपितु लोकसभा चुनावों में एक करोड़ चालीस लाख वोट प्राप्त कर अपनी दम पर अपने परिवारियों समेत अपनी पार्टी के नौ सदस्यों को जिता लेते हैं, जो कई राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के मतों और सीटों की संख्या से अधिक हैं।
       जयललिता को कर्नाटक जेल की उसी वीआईपी कोठरी में रखा गया जिसमें कुछ महीने पहले कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा को रखा गया था। मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने और अनेक आर्थिक अनियमितताओं के आरोप में जेल प्रवास के बाद भी वे लोकसभा का चुनाव जीत जाते हैं, व अपनी पार्टी भाजपा में वरिष्ठ उपाध्यक्ष बना दिये जाते हैं। अपनी पार्टी के इकलौते विजयी उम्मीदवार होते हुए भी गठबन्धन सरकारों के खेल में कभी झारखण्ड के मुख्यमंत्री रहे आदिवासी मधु कौड़ा अभी तक जेल में हैं। आर्थिक अनियमितताओं के कारण ही श्री लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर जेल काट चुके हैं और कई वर्षों तक अपनी कम शिक्षित व राजनीति निरपेक्ष पत्नी को मुख्यमंत्री बनवाकर बिहार जैसे राज्य का शासन चला चुके हैं। पिछड़ों की राजनीति से सक्रिय हुये इस नेता की पार्टी गठबन्धन के कमजोर हो जाने के कारण ही चुनावों में पिछड़ी है बरना उसकी अपनी लोकप्रियता बनी हुयी है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती के खिलाफ लगातार जाँच चल रही है पर इस बीच वे राज्य का शासन कर चुके हैं और मुलायम सिंह ने ऐसी ही आशंका को ध्यान में रखते हुए ही विधानसभा चुनावों के बाद अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनवा दिया। लोकसभा चुनावों में दो बड़े गठबन्धनों से मुकाबला करते हुये भी मायावती की पार्टी दो करोड़ उनतीस लाख मत प्राप्त कर तीसरे नम्बर पर रहीं। भले ही उसे कोई भी सीट नहीं मिली पर उनके कुल मतों में पिछले चुनावों के मुकाबले वृद्धि ही हुयी। उक्त बड़े नेताओं के अलावा दूसरे और तीसरे नम्बर के चुनावी नेताओं की लोकप्रियता और वित्तीय अनुशासनहीनता के उदाहरण सैकड़ों की संख्या में हैं और इनमें से अधिकांश जनप्रतिनिधि भी चुने जा चुके हैं। विडम्बनापूर्ण यह भी है कि राजनीतिक जीवन में शुचिता और सैद्धांतिक राजनीति के लिए जाने जाने वाले बामपंथियों के मतों और सीटों की संख्या पिछले कुछ चुनावों से लगातार घट रही है। गत लोकसभा चुनावों में तो बड़े हुए कुल मत प्रतिशत के बाद भी उन्हें मिलने वाले मतों की संख्या कम हुयी है।
       उपरोक्त चुनावी विसंगतियों के बाद भी हमारे नैतिक आदर्शों में अधिक बदलाव नहीं हुआ है। हमारे नवनियुक्त प्रधानमंत्री की- न खाऊँगा और न खाने दूंगा- जैसी घोषणाओं का व्यापक स्वागत होता है भले ही उनके अनेक सांसदों के पिछले इतिहास और उनकी पार्टी द्वारा शासित अनेक राज्य सरकारों के चरित्रों को देखते हुए विश्वास नहीं होता हो। पिछले ही वर्षों में हमने सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए अन्ना और केजरीवाल के नेतृत्व में चले आन्दोलन को व्यापक समर्थन पाते देखा है और अपनी पार्टी बना लेने के बाद केजरीवाल पहली ही बार में दिल्ली में सरकार तक बना लेने में सफल हो जाते हैं।
       हमें समय रहते इस विसंगति पर ध्यान देना होगा कि अगर कानून का उल्लंघन करने के बाद भी कोई व्यक्ति या दल अपनी लोकप्रियता और समर्थन बनाये रखता है तो उसका हल कैसे निकाला जाये! यदि जल्दी ही ऐसा नहीं किया गया तो हमारे संघीय ढाँचे पर खतरा सामने आ सकता है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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मंगलवार, अक्तूबर 07, 2014

क्या राजनीति एक जुआ और जुआ एक युद्ध है?



दीपावली पर विशेष
क्या राजनीति एक जुआ और जुआ एक युद्ध है?       
वीरेन्द्र जैन

       दीपावली, जिसका संक्षिप्त रूप दीवाली है और यह मुख्य रूप से हिन्दी भाषी क्षेत्र के हिन्दुओं का प्रमुख त्योहार है। अधिक बाज़ार चलने के कारण यह वस्तु उत्पादन से जुड़े सभी धर्मों के मानने वालों के लिए भिन्न भिन्न कारणों से महत्वपूर्ण हो जाता है और सभी धर्मों के कारीगरों और व्यापारियों के लिए उम्मीद लेकर आने वाला त्योहार है। इसमें मुद्राओं का विनमय तीव्र हो जाता है।
       उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में अन्य रस्मों के अलावा यह जुआ खेलने का त्योहार भी है और पुराने समय में वर्ष भर जुआ न खेलने वाले भी रस्म की तौर पर परिवारियों और पड़ोसियों के बीच बैठ कर कुछ समय जुआ खेलने को बुरा नहीं समझते थे। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बूढे पुराने लोगों को यह कहते सुना जाता था कि दीवाली के एक दिन जुआ खेलने को पुलिस गैरकानूनी नहीं मानती और इस एक दिन जुआ खेलने की खुली छूट रहती है। इस क्षेत्र में कहावत भी है कि ‘दिवाली के लुटे और होली के कुटे[पिटे] की कहीं सुनवायी नहीं होती’। यहाँ मजाक में जुए से सम्बन्धित एक कहावत और भी चलती है – जुआ जुद्ध खों नाँईं करै, ताके पुरखा नरकन परें- अर्थात जुआ रूपी युद्ध में लड़ने के लिए बुलाने पर यदि कोई मना करता है तो उसके पूर्वज नर्क में जाते हैं। शायद इसी बहाने न खेलने वाले भी कुछ दिखावा कर लेने को प्रोत्साहित होते रहे होंगे। अब जुआ रस्मी नहीं रहा इसलिए समर्थों की दुनिया में वर्ष भर चलता है, और बहुत सारे त्योहारों की ज्यादर रस्में महिलाओं के श्रंगार व पुरुषों के मद्यपान पर पूर्ण होने लगी हैं।
       सवाल उठता है कि जुआ क्या है! क्या यह कुछ मुद्राओं से किसी बाजी लगाने के खेल तक सीमित है या किसी दूसरे के द्वारा अर्जित स्वामित्व को पाने के लिए अपना स्वामित्व खोने का दाँव लगाने की एक मनोवृत्ति है! महाभारत ग्रंथ में इसको कथा का आधार बनाया गया है, जो बताता है कि दो हजार वर्ष पूर्व रचित इस ग्रंथ के रचना काल में भी इसकी प्रवृत्ति पायी जाती थी।
       वैसे तो पूंजीवादी व्यवस्था ही श्रमिकों के शोषण और उपभोक्ताओं से अधिक वसूली के नियम पर ही टिकी होती है जिसे सरप्लस वैल्यू कहा गया है, पर सामंती व्यवस्था से ही अनार्जित सम्पत्ति पाने का लालच आदमी को जुये, सट्टे या लाटरी, से जोड़ता रहा है। तय है कि जुआ आदि में हार जाने का जो खतरा रहता है उससे जूझने के लिए साहस की जरूरत होती है। पुराने समय में दूसरे का राज्य जीतने के लिए कोई राजा जो युद्ध करता था उसमें भी पराजित होने के साथ प्राणों के जाने का खतरा होता था, पर फिर भी एक वर्ग के लोग ऐसे हमले करते थे व दूसरों के हमले झेलते भी थे। यही कारण है कि युद्ध के वर्णनों में लिखा जाता रहा है, और सही लिखा जाता रहा है कि उन्होंने प्राणों की बाज़ी लगा दी। इस रूप में जुआ भी पैसों या सम्पत्ति का युद्ध ही हुआ और इस युद्ध से इन्कार करने वाले कायरों को कहावतों में पूर्वजों समेत नर्क में जाने की बद्दुआ दी गयी है।
       मिलीजुली चेतना वाले समाज में चुनावी राजनीति भी एक जुआ ही होती है, जिसमें सभी वोटों का एक समान मूल्य होने के कारण कदम कदम पर खतरे ही खतरे छुपे रहते हैं। पीछे देखें तो हम पाते हैं कि छठे-सातवें दशक में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने एक बड़ा जुआ खेला था जब काँग्रेस के सिंडीकेट से टकराकर राष्ट्रपति चुनाव में आत्मा की आवाज पर वोट देने की अपील कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप काँग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी चुनाव हार गये थे व बामपंथियों के उम्मीदवार वी वी गिरि, इन्दिरागाँधी समर्थित मतों के सहारे जीत गये थे। यह एक खतरनाक दाँव था। वी वी गिरि दूसरी प्राथमिकता के मतों के सहारे ही चुनाव जीत सके थे और अगर वे हार जाते तो श्रीमती गाँधी का राजनीति की मुख्यधारा से बाहर हो जाना तय था। पर उन्होंने अपने साहस से खतरा उठाया और जीत गयीं। दूसरी बार उन्होंने इमरजैंसी लगा कर खतरा उठाया, पर इस कदम में हार गयीं। इसी तरह बाँगला देश के निर्माण के समय भी उन्होंने खतरा मोल लिया था पर विजयी रहीं थीं लेकिन खालिस्तान नामक अलगाववादी आन्दोलन के खिलाफ उन्होंने जो आपरेशन ब्लू स्टार का खतरा उठाया तो देश को आतंकवाद से मुक्त करने के प्रयास में अपनी जान गँवा दी।
       श्रीमती गाँधी की राजनीति के तीस साल बाद एक बार फिर से राजनीति में नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगाने का खेल संघ ने खेला है। इस दाँव में बड़े खतरे हैं। पहले तो अडवाणी से लेकर बाल ठाकरे तक और गोबिन्दाचार्य से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा तक मोदी की उम्मीदवारी के पक्ष में नहीं थे। संघ में भी उनके बारे में भिन्न विचार थे जिसके लिए सबसे पहले तो गुजरात में मोदी के समानान्तर प्रचारक रहे संजय जोशी को अलग करने का कड़ा फैसला लेना पड़ा था। बिहार में सरकार से बाहर आना पड़ा था व लोकसभा चुनावों में पराजय की दशा में राजनीति से ही बाहर होने का खतरा मौजूद था। पर दाँव लगाया गया और संयोग से पाँसे सीधे पड़े। विधानसभा के उपचुनावों में कई सीटें गँवा देने के बाद महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना से समझौता भंग करने का एक और नया दाँव खेला है जिसके परिणामों की प्रतीक्षा बनी हुयी है। लोकसभा में अकेले स्पष्ट बहुमत पा लेने के बाद भाजपा एनडीए को भंग करने का दाँव खेलने की उतावली में दीखती है। उसके पिछले बड़े सहयोगियों में से बीजू जनता दल, जनता दल[यू], हरियाना जनहित काँग्रेस के बाद शिवसेना का अलग होना व अकाली दल का हरियाना विधानसभा चुनावों में चौटाला के इंडियन लोकदल का खुला समर्थन करने से एनडीए समाप्त ही हो गया है। 
       जुये को सदैव से ही अनैतिक माना गया है। जो लोग भी राजनीति को जुये की तरह खेल रहे हैं, वे देश के भविष्य को भी दाँव पर लगा रहे हैं क्योंकि जुये से तात्कालिक लाभ हानि तो हो सकती है, पर इसे व्यवसाय नहीं बनाया जा सकता। चुनावी राजनीति में उत्तेजना से मतों का ध्रुवीकरण तो कराया जा सकता है पर देशहित की दूरगामी राजनीति नहीं की जा सकती।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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