बुधवार, जनवरी 23, 2013

फिल्म समीक्षा- मटरू की बिजली का मंडोला


 फिल्म समीक्षा
मटरू की बिजली का मंडोला
वीरेन्द्र जैन
       फिल्म को डाइरेक्टर’स मीडिया कहा जाता है। आज से कुछ दशक पहले लोग केवल फिल्म अभिनेताओं के नाम जानते थे, पर अब दर्शकों का एक बड़ा वर्ग समझ गया है कि फिल्में निर्देशक के ‘ओके’ कर देने के बाद ही आगे बढती है और उसके ‘कट’ पर कलाकारों का वश नहीं चलता। वह उसी को ओके करता है जो दिखाना चाहता है। फिल्म के निर्माता, निर्देशक, संगीतकार विशाल भारद्वाज फिल्म जगत में एक सम्मानित निर्देशक हैं, और उनको पसन्द करने वालों का एक वर्ग है, जो उम्मीद करता है कि उनकी फिल्म यूं ही नहीं हो सकती। पिछले दिनों से फिल्म जगत में संजय लीला भंसाली कल्ट चल निकला है जिसमें कुछ सामाजिक राजनीतिक चेतना की बातों को मनोरंजन की चाशनी में लपेट कर पेश किया जाता है जिससे मनोरंजन के लिए जाने वाले दर्शकों तक भी कुछ सामाजिक सन्देश पहुँचाया जा सके और फिल्म से लाभ भी निकाला जा सके।
       उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और गैंग रेप की शिकार युवती के पक्ष में दिल्ली में बड़ा वर्ग सामने आया है। यह वर्ग आम मध्यमवर्गीय लोगों के साथ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बढ रहे एक्टिविज्म की उपज है। उल्लेखनीय है कि इस विश्वविद्यालय में पिछले दिनों आइसा जैसे अल्ट्रा लेफ्ट का दबदबा बढा है। इस फिल्म में भी जो नायक है वह जेएनयू से ही एलएलबी करके निकला युवक है  और माओ के नाम से छुप कर किसानों को संगठित करता है। फिल्म में किसानों से ज़मीन लेने के लिए उद्योगपतियों के षड़यंत्र हैं जो किसानों को कर्ज़ के बोझ में डुबाने के बाद उनकी फसल को बर्बाद करने के लिए गलत पेस्टीसाइड डालने की कोशिश तक करते हैं ताकि वसूली के दबाव में किसान जमीन देने के लिए मजबूर हो जायें।  राजनीति और उद्योगपतियों का गठजोड़ है, सरकारी पद पर बैठे लोग फाइलों का निबटान भी उसी अन्दाज़ में करते हैं। शराब में डूबते जाते धनी किसान हैं, विदेशी संस्कृति में डूबती उनकी युवा पीढी है, ऐसे बिके हुए कलाकार हैं जिन्हें ये पता ही नहीं है कि वे बिक चुके हैं। नवधनाड्य वर्ग में पैदा हुयी रहन सहन की अन्य सारी विकृतियां हैं, जैसे शराब पीकर हेलीकाप्टर उड़ाना जिनकी अतिरंजना मनोरंजन का आधार बनती है। स्मरणीय है कि संजय गान्धी की म्रत्यु हेलीकाप्टर दुर्घटना में हुयी थी और उस समय वे पाजामा कुर्ता और चप्पल पहिने हुए थे जबकि एवियेशन की अपनी एक ड्रैस होती है। पर धन और सत्ता में अँधे लोग अपने अलावा दूसरों की जान की परवाह भी नहीं करते। इसी फिल्म में एक दृष्य है जिसमें शराब के नशे में धुत्त मंडोला हेलीकाप्टर में लगी आग से सिगरेट सुलगाने की कोशिश करता है। मंडोला देशी शराब ‘गुलाबी’ का एडिक्ट हो चुका है जिसे छोड़ देने पर उसे जगह जगह गुलाबी भैंस नजर आने लगती है। यह फिल्म के मनोरंजन का भाग है। फिल्म में अनुष्का शर्मा[बिजली] के पोखर में स्नान के दृश्य हैं, तो गाँव में ताश पत्तों से चल रहे जुए की बीमारी को भी रेखांकित किया गया है।

       पंकज कपूर और शबाना आज़मी तो हिन्दी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में से हैं ही, पर इमरान खान भी उम्मीदें जगाते हैं। अपने नाम से भी भ्रमित करने वाली इस फिल्म को केतन मेहता की ‘जाने भी दो यारो’ श्रेणी में रखा जा सकता है।
       दर असल अभी यह मूल्यांकन होना शेष है कि मनोरंजन की चाशनी में लपेट कर जो सामाजिक राजनीतिक सन्देश परोसने की यह कोशिशें हैं वे कितनी प्रभावकारी हो रही है, ये सन्देश कितनी दूर तक सम्प्रेषित हो पा रहे हैं, व इनके परिणाम कहीं नजर भी आ रहे हैं या नहीं। इन फिल्मों में मनोरंजन कहीं सामाजिक सन्देश के ऊपर तो नहीं होता जा रहा है और श्याम बेनेगल, गोबिन्द निहलानी स्कूल की फिल्मों को ये सिनेमा नुकसान तो नहीं पहुँचा रहा? पर इतना तो तय होता जा रहा है कि अब सामाजिक यथार्थ विहीन सत्तर-अस्सी के दशक की लिजलिजी भावुकता वाली फिल्में सफल नहीं होने वालीं।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
        

मंगलवार, जनवरी 15, 2013

कानून के ढांचे में सुधार के साथ पालन भी सुनिश्चित कराना जरूरी


कानून के ढाँचे में सुधार के साथ पालन भी सुनिश्चित करना जरूरी 



वीरेन्द्र जैन
                प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रवासी भारतीय दिवस का उद्घाटन करते हुए गत 8 जनवरी को कोचीन में कहा कि जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए कानूनी ढांचे में सुधार करना होगा। ऐसा कहते हुए वे परोक्ष में अपने समय के कानूनी ढाँचे की सीमाओं के संकेत दे रहे थे कि इन सीमाओं के अंतर्गत काम करते हुए सरकार/ सरकारें वे सारे काम नहीं कर पा रही हैं जिन्हें  वे जनता के हित में करना जरूरी समझती हैं। तय है कि प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी दिल्ली में हाल ही में हुए गैंग रेप या भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की स्थापना को लेकर पिछले साल हुए आन्दोलनों की पृष्ठभूमि में आयी है।

       स्मरणीय है कि कानूनी ढाँचे में परिवर्तन करने की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक तयशुदा प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत संसद के कम से कम तीन चौथाई सदस्यों की सहमति जरूरी होती है। इसके विपरीत हाल यह है कि पिछले बीस वर्षों से देश में गठबन्धन सरकारें चल रही हैं और गठबन्धन के सबसे बड़े दल को भी कानूनों का पालन कराने या जनहित में वांछित परिवर्तन करने के लिए छोटे छोटे व्यक्तिवादी दलों की चिरौरी करनी पड़ती है। यही कारण है कि सीएजी की रिपोर्ट के आधार पर बड़े भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं व्यक्त किये जाने से बने माहौल पर प्रधानमंत्री को प्रैस कांफ्रेंस बुला कर कहना पड़ा था कि गठबन्धन की कुछ मजबूरियां होती हैं। स्मरणीय है कि डीएमके के दबाव में ही संचार मंत्री का पद ए.राजा को देना पड़ा था। 2004 के चुनावों में सत्ता से बाहर किये जाने के बाद भाजपा लगातार इतने फ्रस्ट्रेशन में रही है कि उसने तब से इस या उस बहाने लगातार संसद की कार्यवाही को ठप्प करने में ही रुचि ली है और कोई भी सत्र ठीक से नहीं चलने दिया। सवाल है कि जब तक दल सदन को ठीक से  चलाने के प्रति गम्भीर नहीं होंगे तब तक कानूनी ढाँचे में सुधार कैसे सम्भव है?
       शायद यह हमारी प्रणाली की मजबूरी है कि देश के कुल मतदाताओं में से पचास से साठ प्रतिशत ही मतदान करते हैं और बहुदलीय प्रणाली में उसमें से भी जो पैंतीस से चालीस प्रतिशत के बीच मत प्राप्त कर लेता है वह सरकार का नेतृत्व करने का पात्र बन जाता है। बिडम्बना यह है कि इस तरह से कुल मतदाताओं के 18% से 20% प्रतिशत तक मत प्राप्त कर लेने वाला ही सत्तारूढ हो जाता है, और शेष सब या तो निष्क्रय रहते हैं या उसका विरोध करते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि सरकार के किसी भी काम की निष्पक्ष समीक्षा नहीं हो पाती चाहे वह जनहितैषी हो या जनविरोधी हो। सत्तारूढ पक्ष सदा जनता के हित में काम करने का दवा करता है पर कभी भी किसी काम के लिए विरोधी पक्ष द्वारा सरकार की प्रशंसा एक दुर्लभ वस्तु हो गयी है। इस तरह जनहित के सारे कामों को भी अवरोधों से गुजरना पड़ता है
       नया कानून तो क्या, पूर्व से ही बने बनाये नियमों कानूनों का पालन करना भी सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है। विरोध पक्ष का काम केवल विरोध करना हो जाता है और वे कानून के पालन कराने में भी गलत हस्तक्षेप करते रहते हैं। बिना हेल्मेट चलने वाली सवारी का चालान न बनाने के लिए भी नेताओं का फोन आता है, जबकि ऐसे नेताओं पर तो कार्यावाही होना चाहिए। दिल्ली जैसी राजधानी में हम अभी तक टू-सीटर वालों को मीटर से चलने के लिए अनुशासित नहीं कर पाये हैं और न ही उन्हें ड्रैस में रहने को जरूरी बना पाये हैं। बहुमंजिला इमारतों में बेसमेंट की अनुमति पार्किंग के लिए दी जाती है पर पूरे देश में अधिकतर व्यावसायिक स्थानों पर बेसमेंट में स्टोर या दुकानें खुली हुयी हैं और एकाध दिन की दिखावटी कार्यवाही के बाद वे फिर से वहीं की वहीं बनी रहती हैं। आवासीय कालोनियां व्यावसायिक में बदल दी गयी हैं, नगर निगम से अनुमति के बिना अतिरिक्त ऊपरी मंजिलें बना ली गयी हैं पर वोट बैंक की राजनीति नियमों के ऐसे उल्लंघनकर्ताओं के घर गिरवी रहती है। सत्तारूढ दल को डर रहता है कि कहीं विपक्ष इसका लाभ उठाकर उनकी जमीन ही न खिसका दे, इसलिए वे चुप रहते हैं। ट्रैफिक नियमों को तो कोई मानता ही नहीं है और जो भी मान रहे हैं वे ट्रैफिक की सुरक्षा के लिए नहीं अपितु अपनी सुरक्षा के लिए, उसी हद तक मान रहे हैं। पुलिस थानों में राज्य के सत्तारूढ दल का कानून चलता है। कई राज्यों में तो दल विशेष या जाति विशेष के नेता से अनुमति लेकर ही रिपोर्ट लिखे जाने के निर्देश हैं। इसलिए नये कानून बनाने के साथ साथ बने हुए कानूनों का पालन सुनिश्चित कराने के लिए राजनीतिक सहमति की भी जरूरत है।
       सामाजिक सुधारों के लिए बने कानूनों का तो बहुत ही बुरा हाल है, बाल-विवाह व सती प्रथा जैसी हत्यारी प्रथाएं तक जारी हैं और उनके महिमा मंडन में भाजपा की राजमाता और राजस्थान के जनता दल के वरिष्ठ नेता तक जलूस में निकलते हैं। गाँवों में जहाँ व्यक्ति की पहचान बनी हुयी है वहाँ अनेक कानूनों के बाद भी वे अपनी जाति और उसके जातिवादी स्तर से ही पहचाने जाते हैं। भ्रष्टाचार के मूल कारणों में गिनी जाने वाली दहेज प्रथा और मृत्युभोज धड़ल्ले से चल रही हैं। एकाध बामपंथी दल को छोड़ कर किसी भी राजनीतिक दल ने अपने सदस्यों के लिए कोई सामाजिक आचार संहिता नहीं बनायी है और अगर किसी ने कहीं कागजों पर बना भी ली हो तो समर्थन की चिंता में वे उसके परिपालन के प्रति कतई गम्भीर नहीं हैं। दलों में भर्ती करते समय सदस्य का केवल राजनीतिक लाभ ही अनुमान किया जाता है उसके चरित्र का चिट्ठा नहीं देखा जाता। सभी दलों में आज ऐसे सदस्यों की समुचित संख्या है जिन्होंने चुनाव में प्रत्याशी बनते समय दिये जाने वाले अपने शपथ पत्र में चल रहे गम्भीर अपराधों के आरोपों का खुलासा किया है। पर इनमें से कई टिकिट भी पा चुके हैं और जनप्रतिनिधि भी बन चुके हैं। जब ऐसे राजनीतिक दल निर्बल वर्ग के सशक्तिकरण के लिए कोई कानून या योजना बनाते हैं तो वह हाथी के दाँतों की तरह दिखावटी ही होता है, इससे किसी का भी भला नहीं होने वाला ।
       हमारी न्यायव्यवस्था दो वकीलों की वाद विवाद प्रतियोगिता का फैसला भर करती है, वह स्वाभाविक न्याय के प्रति चिंतित नहीं है। उज्जैन के सभ्भरवाल प्रकरण को न्याय की प्रत्याशा में राज्य से बाहर ले जाया गया पर अभियोजन तो राज्य का ही था और सम्बन्धित न्यायाधीश ने न्यायव्यवस्था के अनुरूप फैसला देते हुए कहा कि गवाह बदल चुके थे और अभियोजन अपना पक्ष रखने में कमजोर रहा। बहुत सारे आपराधिक मामलों में किसी को सजा नहीं मिलती। इसी न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी करती हुयी पिछले दिनों सच्ची घटना पर एक फिल्म आयी थी जिसमें सैकड़ों लोगों के सामने हुयी हत्या में गवाहों के मुकर जाने से प्रभावशाली परिवार का आरोपी छूट जाता है तो फिल्मकार उस फिल्म का नाम देता है ‘नो वन किल्ड जेसिका[ मृतका]’ । सच तो यह है कि ऐसे मामलों में सम्बन्धित पुलिस अधिकारियों, गवाहों और अभियोजन पर जिम्मेवारी डाली जाना चाहिए। अगर अपराध हुआ है और अपराधी को सजा नहीं मिली है तो कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियों को ही किसी हद तक जिम्मेवार होना चाहिए। नये कानून बनाने के साथ साथ न्याय को बिलम्वित करने के लिए जिम्मेवार वादी- प्रतिवादी, वकील, गवाह, पुलिस की जिम्मेवारी तय की जानी चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया में जानबूझ कर देर करने वालों के प्रति अदालत का रुख कठोर होना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। कानून का गलत स्तेमाल करते हुए झूठा आरोप लगाने वालों पर आरोप के बराबर दण्ड दिया जाना भी निश्चित किया जाना जरूरी है क्योंकि दहेज जैसे कानूनों के नब्बे प्रतिशत मामले झूठे पाये गये हैं। यही हाल दलित महिलाओं के प्रति दर्ज किये गये यौन अपराधों का भी है, जो घटित तो बहुत अधिक संख्या में होते हैं पर दर्ज होने वाले ज्यादातर झूठे व स्थानीय राजनीतिक बदले की भावना से प्रभावित होते हैं। अदालतों द्वारा अँधाधुंध स्टे देना भी अपराधियों को लाभ पहुँचाता है, अनेक सार्वजनिक कार्य और योजनाएं इसी कारण से लम्बित होकर अपना बज़ट कई गुना बढा चुकी हैं। जिस विकल्पहीन जगह पर कोई सार्वजनिक हित का निर्माण होना होता है तो फिर केवल मुआवजे की राशि ही विवादित रहती है। होना तो यह चाहिए कि उसमें सरकारी नियम से तुरंत भुगतान करने के बाद अतिरिक्त दावा राशि का भुगतान तय समय में हल करने के निर्देश दिये जा सकते हैं, इसलिए स्टे की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी, और योजना बजट में ही आगे बढेगी।      
       सच तो यह है कि सभी राजनीतिक दलों को कानून व्यवस्था से लाभ उठाने की प्रवृत्ति को बदलना पड़ेगा और देश की विदेश व रक्षा नीति पर मतैक्य की तरह मतैक्य बनाना पड़ेगा क्योंकि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और देश की रक्षा का सवाल है। अपराधों व अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के प्रति सभी दलों को कमर कसनी होगी व देश के भले के लिए राजनीतिक नुकसानों का खतरा उठाने को तैयार होना पड़ेगा। किसी राजनेता पर आपराधिक आरोप लगने के बाद यदि उसका दल निष्कासित कर देता है तो दूसरे दल का सदस्य बनने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। ऐसी सहमतियां राजनीतिक दलों की देश के प्रति सच्ची सेवा होगी।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जनवरी 07, 2013

सम्वेदनहीनता को रोकने की कोई कोशिश क्यों नहीं


 सम्वेदनहीनता को रोकने की कोई कोशिश क्यों नहीं  
वीरेन्द्र जैन
       दिल्ली की गैंग रेप पीड़िता ‘दामिनी’ के साथी के बयान सुन पढ कर इंसानियत शर्मसार हुयी है, किंतु हमने अपने नागरिकों के स्वार्थी होते जाते के कारणों को जानने और समझने की जरूरत महसूस नहीं की है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, व्यक्तिगत सम्पत्ति, से भी आगे एकल परिवार ही नहीं दो व्यक्तियों के परिवार में भी सब कुछ साझा नहीं रह गया है। समाज अब राजनीतिक स्वार्थों के लिए मजबूत कर दिये गये जातिवाद तक सीमित होता भर दिख रहा है। सोशल मीडिया की सक्रियता, राजनेताओं द्वारा कुछ अन्य प्रमुख समस्याओं से ध्यान बँटाने के कारण दिये अतिरिक्त महत्व से और देश की राजधानी में केन्द्रित मीडिया के कारण यह घटना सुर्खियों में आ गयी है किंतु देश में ऐसी सैकड़ों घटनाएं प्रति दिन घट रही हैं जो मीडिया से उपेक्षित हो जाने या हाशिए पर लिखे जाने के कारण जन मानस का ध्यान आकर्षित नहीं कर पा रही हैं। जो हो भी जाती हैं उन्हें भी सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों में नहीं बदल पाते। हम महात्वाकांक्षी मधुमिता शुक्ल, कविता चौधरी, शिवानी भटनागर, शहला मसूद की हत्याओं को बिना किसी सामाजिक परिवर्तन के भुला चुके हैं। माले गाँव के अतिरिक्त जिला अधिकारी सोनावणे तेल माफिया द्वारा आग लगाये जाने के बाद 35 मिनिट तक धू धू कर जलते रहे थे पर किसी ने उनकी आग बुझाने की कोशिश नहीं की थी। बिहार में एक जिलाधीश को मारने वाला माफिया चुनाव जीत जाता है। पिछले दिनों आसपास ही घटी घटनाओं में से कुछ पर पुनर्दृष्टि डालने से स्थिति की गम्भीरता को समझा जा सकता है।

25/02/10 भोपाल में रेलवे में अनुकम्पा नियुक्त पाने के लिए बेटे ने दोस्तों को दी पिता की सुपारी
20/08/10 गुना में हाईवे पर एक लाश को इतने ट्रक रौंदते चले गये कि शव को पहचानना मुश्किल हो गया
06/09/10 खन्डवा में बहू की आत्महत्या से सहमे परिवार के एक युवक उसके बुजर्ग माता पिता ने डेढ साल की बच्ची समेट ट्रैन के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली
01/08/11 सतना में जमीन में गड़ा धन पाने बेटा-बेटी को पत्थरों से कुचल दिया
01/08/11 कानपुर जिला अस्पताल में मरीज कराहता रहा और कुत्ते नोचते रहे                      
17/08/11 मुजफ्फरनगर में प्रेमी की मदद से महिला ने कराई पति की हत्या
19/08/11 भोपाल प्रेमिका की पिटाई पर हैवान बने बेटे ने माँ बहिन की हत्या के बाद होटल में गुजारी रात
27/08/11 जोधपुर अपनी दुधमुँही बच्ची को पालनाघर में छोड़ घूमने चले गये माँ बाप
29/08/11 देवली[टौंक] एक साफ्टवेयर इंजीनियर ने तलाक के बाद बेटा न सौंपने पर पत्नी समेत चार की हत्या की खुद को भी गोली मारी
23/09/11 मुरैना में एक दलित के घर में रोटी खा लेने से कुत्ता अछूत घोषित हुआ
18/11/11 उन्नाव में दो बच्चों को आग लगाने के बाद किया आत्मदाह
25/10/11 जालन्धर पत्नी और बेटे की हत्या कर खुद भी लगाई फाँसी
20/5/12 भोपाल के अयोध्यानगर में एक महिला का बच्चा सेप्टिक टैंक में गिर गया पर उसकी करुण पुकार किसी ने नहीं सुनी और जब तक उसके पड़ोसी आये तब तक वह दम तोड़ चुका था
04/07/12 हजारीबाग[झारखण्ड] अमानवीय यातना देकर दो मासूम बच्चों की हत्या। नाखून उखाड़े, सिगरेट से दागा, चमड़ी उधेड़ी, आँखों में पिन चुभोई और कुँएं में फेंक दिया
27/07/12 बेगमगंज[रायसेन] पति की प्रताड़ना से तंग एक महिला ने अपने चार बच्चों के साथ कुँएं में कूद कर जान दे दी
21/08/12 बिहार के नवादा जिले में पत्नी पुत्री को काट दीवार में चुनवाया
21/08/12 बेंगलूरु नवजात बेटी को दूध में दिया ज़हर
18/09/12 मुम्बई में सुप्रसिद्ध लेखिका अम्रता प्रीतम के पुत्र फिल्म फाइनेंसर नवराज क्वात्रा की गला घोंट कर हत्या कर दी गयी जिनके घर में मिली सामग्री के आधार पर पुलिस ने अभिनेत्रियों से पूछ्ताछ की
9/11/12 दिल्ली की पार्षद सत्यम यादव ने अपनी देढ साल की बच्ची को मार कर खुदकुशी की।
08/11/12 भोपाल में व्यापारी पिता ने ही दी थी बेटे की हत्या की सुपारी
01/12/12 लखनऊ इलाहाबाद की जिला अदालत ने दिमाग का सूप पीने वाले राजा कलन्दर को उम्रकैद की सजा दी जिस पर 14 लोगों की हत्या का आरोप था
05/12/12 भोपाल अंतिम संस्कार की व्यवस्था नहीं होने से कर रहे थे देहदान
20/12/12 कैलाश विजयवर्गीय के इन्दौर में बारात देखने निकली तीन साल की बच्ची को बहशी औटो में उठा कर ले गये और दुराचार के बाद सिर पर रौड मार कर उसकी हत्या कर दी। बकौल विजयवर्गीय शायद उसने घर से बाहर निकल कर लक्षमण रेखा पार की होगी।
20/12/12 इटारसी में पुत्र ने अपनी 65 वर्षीय माँ के साथ दुराचार किया।
20/12/12 सिहोरा जबलपुर में दिन दहाड़े नाबालिग के साथ गैंगरेप किया गया जिसमें जिस भाजपा के नेता के बेटे पर आरोप है उसने आरोपियों को ज़िन्दा जलाने की धमकी दी
21/12/12 फतेहपुर अपने प्रेमी के खिलाफ परिवार के लोगों द्वारा लगाये आरोपों में प्रेमी के पक्ष में गवाही बदलने पर परिजनों ने ली युवती की जान
23/12/12 बैतूल ज्यादती की शिकार नाबालिग का शव कुँए में मिला
31/12/12 ठाणे में लड़की से बलात्कार के मामले में पिता और भाई गिरफ्तार
05/01/13 गुगला[झारखण्ड] में 16 वर्षीय लड़की की पत्थर से कुचलकर हत्या
06/01/13 नोएडा काल सेंटर में काम करने वाली युवती का निर्वस्त्र शव मिला
07/01/13 कांकेर[छत्तीसगढ] आश्रम में एक शिक्षाकर्मी और चौकीदार दो साल तक 8 से 13 साल की लड़कियों से दुष्कर्म करता रहा ..........................................  
   ऐसी घटनाओं में से कुछ की इस सूची का उद्देश्य किसी चर्चित घटना की गम्भीरता को कम करना नहीं अपितु स्वार्थों की दुनिया में मानवीयता के निरंतर पतन की राजनीति को पहचानने की कोशिश करना है जो व्यक्ति को अपने से आगे सोचने नहीं देती और जिसकी  समाजशास्त्री  न जाने क्यों उपेक्षा कर रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शनिवार, जनवरी 05, 2013

उर्मिला शिरीष का नया कथा संग्रह "कुर्की और अन्य कहानियां"


समीक्षा
बहु आयामी सामाजिक कहानियां
[उर्मिला शिरीष की कृति -कुर्की और अन्य कहानियां – सामायिक प्रकाशन नई दिल्ली]  
                गत दो दशकों में सबसे अधिक चर्चित और निरंतर रचना कर्म में रत कथा लेखिकाओं में से एक प्रमुख लेखिका उर्मिला शिरीष की ग्यारह कहानियों का संग्रह कुर्की और अन्य कहानियां नाम से प्रकाशित हुआ है। उनकी सभी कहानियां सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हैं और इस तरह प्रेमचन्द की परम्परा से जुड़ती हैं। इन कहानियों में समाज का जो फलक देखने को मिलता है वह उनके व्यापक अनुभव संसार के प्रति चमत्कृत करता है। पिछले दिनों जब नारी विमर्श ज्यादा चर्चा में था तब कहा जाता था कि नारी के अपने जातीय अनुभव और सम्वेदानाएं होती हैं जिसमें पुरुष वर्ग प्रवेश नहीं कर सकता दूसरी ओर यह भी कहा जाता था कि नारी की अपनी सीमाएं भी होती हैं और वे बाहरी दुनिया के उन हिस्सों में प्रवेश नहीं कर सकतीं जहाँ केवल पुरुष ही प्रविष्ट हो सकता है। उर्मिलाजी की कहानियां इस धारणा का प्रतिकार करती प्रतीत होती हैं।
       संग्रह की पहली कहानी एमएलसी [अर्थात मेडिको लीगल केस] में एक ऐसी आदिवासी महिला की कहानी है जिसका परिवार उससे धन्धा करवाता है और जब वह अपनी मर्जी से किसी के साथ दैहिक सम्बन्ध बनाती है तो उसके परिवार के लोग उसके साथ मारपीट करते हैं, उसका पति उस क्षेत्र के अन्य लोगों की तरह नशे की पुड़िया की लत का शिकार है। अपने जेठ की इस मारपीट के खिलाफ प्रतिकार करने के लिए वह जेठ के खिलाफ बलात्कार की झूठी रिपोर्ट कराना चाहती है और डाक्टर को भी बतौर रिश्वत देह की पूंजी ही प्रस्तुत करना चाहती है।
उसका कहना है कि जब वह परिवार के सुख के लिए धन्धा कर सकती है तो अपने सुख के लिए स्वतंत्र क्यों नहीं है!  कानिस्टबिल डाक्टर को असलियत समझाता है- सर, पिछले कई सालों से मैं भी देख सुन रहा हूं यहाँ के आदमियों को जब भी पैसे की जरूरत होती है, वे सौ दो सौ की पुड़िया के लिए अपनी औरतों से धन्धा करवाने से भी बाज नहीं आते हैं, ये लोग भी अच्छे-खासे काश्तकार हुआ करते थे, खेती बाड़ी थी, जानवर थे, आसपास घना जंगल थ, लेकिन देखते देखते जानवर गुम हो गये, जंगल कट गये, सब चौपट हो गया। दुख की बात तो ये है, इस सब की कीमत यहां की औरतों और बच्चों को चुकाना पड़ रही है।
       जब भी कहानी एक ऐसा विजुअल अर्थात दृष्य चित्र प्रस्तुत करने में सफल हो जाती है जो पाठक के भोगे हुए यथार्थ से मेल खाती हो तो कहानी सफल हो जाती है। पुलिस डाक्टर और अपनी समस्याओं के कारण अपने अपने तरीके से संघर्ष कर रहे समाज का इस कहानी में बहुत सटीक चित्रण है। यदि पात्रों की भाषा में स्थानीयता की झलक कुछ अधिक मिलती तो कहानी और भी अधिक प्रभावकारी बन सकती थी।
        सामाजिक समस्याओं से घिरे समाज को जब कोई हल नहीं सूझता तो वह तरह तरह से मूर्ख बनाने वाले बाबाओं के चक्कर में आ जाता है। ‘अभिशाप’ एक ऐसी ही महिला की कहानी है जो सारे तर्क-वितर्कों को परे सरका कर बाबाओं के प्रचार से प्रभावित होकर उसे एक बार सन्देह का लाभ देना चाहती है पर बाबा की पोल खुल जाती है तो वह हतप्रभ है। ‘लूप लाइन’ कहानी में स्वास्थ विभाग में पल रहे भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्ठा है, तो ‘चेहरे’ कहानी में आधुनिक शिक्षा के व्यापारिक प्रचार की मरीचिका से ग्रस्त एक विधवा द्वारा अपने प्रति दर्शायी गयी सहानिभूति को भुनाने की कथा है। ‘कुछ इस तरह’ कहानी में जहाँ बड़ी उम्र में अकेले हो गये लोगों के पुनर्विवाह पर लोकलाज और अंतर्द्वन्द की विवेचना है, वहीं नई पीढी की समझदारी के संकेत भी देती है। ‘हरजाना’ कहानी स्टेज आदि पर तमाशा दिखाने वाले किशोरों के शोषण की कथा है। ‘निगाहें’ कहानी में ठेकेदारों द्वारा निर्माण  मजदूरों के शोषण की कथा है तो ‘सरगम’ में निम्न वर्ग के एक परिवार द्वारा टीवी शो के पुरस्कार के लालच में अपनी मासूम बच्ची से उसकी क्षमताओं से अधिक परफोर्मेंस का दबाव बनाने की करुण सच्चाई है।
       संग्रह की एक और महत्वपूर्ण कहानी ‘असमाप्त’ है। यह कहानी मानवीय रिश्तों, व्यावसायिक रिश्तों के साथ धार्मिक रिश्तों की बिडम्बनाओं का गुम्फन है। कहानी बताती है कि कैसे एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति सामाजिक विद्रूपताओं में घिर कर कट्टर साम्प्रदायिकता के पक्ष में खिसकने लगता है।           
       कहानी संग्रह के नाम वाली कहानी ‘कुर्की’  मौसम और कर्ज़ की मार से किसानों के मजदूरों में बदलने व अभावों में आपसी रिश्तों में खटास आने की कथा है जिसके प्रभाव में देश के लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस कहानी की विषय वस्तु महत्वपूर्ण है और ट्रीटमेंट में दृष्यात्मकता बढने पर यह रिपोर्ट जैसी लगने से बच सकती थी। संग्रह की कहानियाँ पाठक को बाँधे रखने की क्षमता में समर्थ हैं और समाज की नब्ज पर सही जगह उंगली रखती नज़र आती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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