कानून के ढाँचे में सुधार के साथ पालन भी
सुनिश्चित करना जरूरी
वीरेन्द्र जैन
प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने प्रवासी भारतीय दिवस का उद्घाटन करते हुए गत 8 जनवरी को कोचीन में
कहा कि जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए कानूनी ढांचे में सुधार करना होगा। ऐसा
कहते हुए वे परोक्ष में अपने समय के कानूनी ढाँचे की सीमाओं के संकेत दे रहे थे कि
इन सीमाओं के अंतर्गत काम करते हुए सरकार/ सरकारें वे सारे काम नहीं कर पा रही हैं
जिन्हें वे जनता के हित में करना जरूरी
समझती हैं। तय है कि प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी दिल्ली में हाल ही में हुए गैंग
रेप या भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की स्थापना को लेकर पिछले साल हुए आन्दोलनों की
पृष्ठभूमि में आयी है।
स्मरणीय है कि कानूनी ढाँचे में परिवर्तन करने की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक तयशुदा प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत संसद के कम से कम तीन चौथाई सदस्यों की सहमति जरूरी होती है। इसके विपरीत हाल यह है कि पिछले बीस वर्षों से देश में गठबन्धन सरकारें चल रही हैं और गठबन्धन के सबसे बड़े दल को भी कानूनों का पालन कराने या जनहित में वांछित परिवर्तन करने के लिए छोटे छोटे व्यक्तिवादी दलों की चिरौरी करनी पड़ती है। यही कारण है कि सीएजी की रिपोर्ट के आधार पर बड़े भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं व्यक्त किये जाने से बने माहौल पर प्रधानमंत्री को प्रैस कांफ्रेंस बुला कर कहना पड़ा था कि गठबन्धन की कुछ मजबूरियां होती हैं। स्मरणीय है कि डीएमके के दबाव में ही संचार मंत्री का पद ए.राजा को देना पड़ा था। 2004 के चुनावों में सत्ता से बाहर किये जाने के बाद भाजपा लगातार इतने फ्रस्ट्रेशन में रही है कि उसने तब से इस या उस बहाने लगातार संसद की कार्यवाही को ठप्प करने में ही रुचि ली है और कोई भी सत्र ठीक से नहीं चलने दिया। सवाल है कि जब तक दल सदन को ठीक से चलाने के प्रति गम्भीर नहीं होंगे तब तक कानूनी ढाँचे में सुधार कैसे सम्भव है?
शायद
यह हमारी प्रणाली की मजबूरी है कि देश के कुल मतदाताओं में से पचास से साठ प्रतिशत
ही मतदान करते हैं और बहुदलीय प्रणाली में उसमें से भी जो पैंतीस से चालीस प्रतिशत
के बीच मत प्राप्त कर लेता है वह सरकार का नेतृत्व करने का पात्र बन जाता है।
बिडम्बना यह है कि इस तरह से कुल मतदाताओं के 18% से 20% प्रतिशत तक मत प्राप्त कर
लेने वाला ही सत्तारूढ हो जाता है, और शेष सब या तो निष्क्रय रहते हैं या उसका
विरोध करते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि सरकार के किसी भी काम की निष्पक्ष
समीक्षा नहीं हो पाती चाहे वह जनहितैषी हो या जनविरोधी हो। सत्तारूढ पक्ष सदा जनता
के हित में काम करने का दवा करता है पर कभी भी किसी काम के लिए विरोधी पक्ष द्वारा
सरकार की प्रशंसा एक दुर्लभ वस्तु हो गयी है। इस तरह जनहित के सारे कामों को भी
अवरोधों से गुजरना पड़ता है
नया
कानून तो क्या, पूर्व से ही बने बनाये नियमों कानूनों का पालन करना भी सुनिश्चित
नहीं हो पा रहा है। विरोध पक्ष का काम केवल विरोध करना हो जाता है और वे कानून के
पालन कराने में भी गलत हस्तक्षेप करते रहते हैं। बिना हेल्मेट चलने वाली सवारी का
चालान न बनाने के लिए भी नेताओं का फोन आता है, जबकि ऐसे नेताओं पर तो कार्यावाही
होना चाहिए। दिल्ली जैसी राजधानी में हम अभी तक टू-सीटर वालों को मीटर से चलने के
लिए अनुशासित नहीं कर पाये हैं और न ही उन्हें ड्रैस में रहने को जरूरी बना पाये
हैं। बहुमंजिला इमारतों में बेसमेंट की अनुमति पार्किंग के लिए दी जाती है पर पूरे
देश में अधिकतर व्यावसायिक स्थानों पर बेसमेंट में स्टोर या दुकानें खुली हुयी हैं
और एकाध दिन की दिखावटी कार्यवाही के बाद वे फिर से वहीं की वहीं बनी रहती हैं।
आवासीय कालोनियां व्यावसायिक में बदल दी गयी हैं, नगर निगम से अनुमति के बिना
अतिरिक्त ऊपरी मंजिलें बना ली गयी हैं पर वोट बैंक की राजनीति नियमों के ऐसे
उल्लंघनकर्ताओं के घर गिरवी रहती है। सत्तारूढ दल को डर रहता है कि कहीं विपक्ष
इसका लाभ उठाकर उनकी जमीन ही न खिसका दे, इसलिए वे चुप रहते हैं। ट्रैफिक नियमों
को तो कोई मानता ही नहीं है और जो भी मान रहे हैं वे ट्रैफिक की सुरक्षा के लिए
नहीं अपितु अपनी सुरक्षा के लिए, उसी हद तक मान रहे हैं। पुलिस थानों में राज्य के
सत्तारूढ दल का कानून चलता है। कई राज्यों में तो दल विशेष या जाति विशेष के नेता
से अनुमति लेकर ही रिपोर्ट लिखे जाने के निर्देश हैं। इसलिए नये कानून बनाने के
साथ साथ बने हुए कानूनों का पालन सुनिश्चित कराने के लिए राजनीतिक सहमति की भी
जरूरत है।
सामाजिक
सुधारों के लिए बने कानूनों का तो बहुत ही बुरा हाल है, बाल-विवाह व सती प्रथा
जैसी हत्यारी प्रथाएं तक जारी हैं और उनके महिमा मंडन में भाजपा की राजमाता और
राजस्थान के जनता दल के वरिष्ठ नेता तक जलूस में निकलते हैं। गाँवों में जहाँ
व्यक्ति की पहचान बनी हुयी है वहाँ अनेक कानूनों के बाद भी वे अपनी जाति और उसके
जातिवादी स्तर से ही पहचाने जाते हैं। भ्रष्टाचार के मूल कारणों में गिनी जाने
वाली दहेज प्रथा और मृत्युभोज धड़ल्ले से चल रही हैं। एकाध बामपंथी दल को छोड़ कर
किसी भी राजनीतिक दल ने अपने सदस्यों के लिए कोई सामाजिक आचार संहिता नहीं बनायी
है और अगर किसी ने कहीं कागजों पर बना भी ली हो तो समर्थन की चिंता में वे उसके
परिपालन के प्रति कतई गम्भीर नहीं हैं। दलों में भर्ती करते समय सदस्य का केवल
राजनीतिक लाभ ही अनुमान किया जाता है उसके चरित्र का चिट्ठा नहीं देखा जाता। सभी
दलों में आज ऐसे सदस्यों की समुचित संख्या है जिन्होंने चुनाव में प्रत्याशी बनते
समय दिये जाने वाले अपने शपथ पत्र में चल रहे गम्भीर अपराधों के आरोपों का खुलासा
किया है। पर इनमें से कई टिकिट भी पा चुके हैं और जनप्रतिनिधि भी बन चुके हैं। जब
ऐसे राजनीतिक दल निर्बल वर्ग के सशक्तिकरण के लिए कोई कानून या योजना बनाते हैं तो
वह हाथी के दाँतों की तरह दिखावटी ही होता है, इससे किसी का भी भला नहीं होने वाला
।
हमारी
न्यायव्यवस्था दो वकीलों की वाद विवाद प्रतियोगिता का फैसला भर करती है, वह
स्वाभाविक न्याय के प्रति चिंतित नहीं है। उज्जैन के सभ्भरवाल प्रकरण को न्याय की प्रत्याशा
में राज्य से बाहर ले जाया गया पर अभियोजन तो राज्य का ही था और सम्बन्धित
न्यायाधीश ने न्यायव्यवस्था के अनुरूप फैसला देते हुए कहा कि गवाह बदल चुके थे और
अभियोजन अपना पक्ष रखने में कमजोर रहा। बहुत सारे आपराधिक मामलों में किसी को सजा
नहीं मिलती। इसी न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी करती हुयी पिछले दिनों सच्ची घटना पर
एक फिल्म आयी थी जिसमें सैकड़ों लोगों के सामने हुयी हत्या में गवाहों के मुकर जाने
से प्रभावशाली परिवार का आरोपी छूट जाता है तो फिल्मकार उस फिल्म का नाम देता है
‘नो वन किल्ड जेसिका[ मृतका]’ । सच तो यह है कि ऐसे मामलों में सम्बन्धित पुलिस
अधिकारियों, गवाहों और अभियोजन पर जिम्मेवारी डाली जाना चाहिए। अगर अपराध हुआ है
और अपराधी को सजा नहीं मिली है तो कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियों को ही किसी
हद तक जिम्मेवार होना चाहिए। नये कानून बनाने के साथ साथ न्याय को बिलम्वित करने
के लिए जिम्मेवार वादी- प्रतिवादी, वकील, गवाह, पुलिस की जिम्मेवारी तय की जानी
चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया में जानबूझ कर देर करने वालों के प्रति अदालत का रुख
कठोर होना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। कानून का गलत स्तेमाल करते हुए झूठा आरोप
लगाने वालों पर आरोप के बराबर दण्ड दिया जाना भी निश्चित किया जाना जरूरी है
क्योंकि दहेज जैसे कानूनों के नब्बे प्रतिशत मामले झूठे पाये गये हैं। यही हाल
दलित महिलाओं के प्रति दर्ज किये गये यौन अपराधों का भी है, जो घटित तो बहुत अधिक
संख्या में होते हैं पर दर्ज होने वाले ज्यादातर झूठे व स्थानीय राजनीतिक बदले की
भावना से प्रभावित होते हैं। अदालतों द्वारा अँधाधुंध स्टे देना भी अपराधियों को
लाभ पहुँचाता है, अनेक सार्वजनिक कार्य और योजनाएं इसी कारण से लम्बित होकर अपना
बज़ट कई गुना बढा चुकी हैं। जिस विकल्पहीन जगह पर कोई सार्वजनिक हित का निर्माण
होना होता है तो फिर केवल मुआवजे की राशि ही विवादित रहती है। होना तो यह चाहिए कि
उसमें सरकारी नियम से तुरंत भुगतान करने के बाद अतिरिक्त दावा राशि का भुगतान तय
समय में हल करने के निर्देश दिये जा सकते हैं, इसलिए स्टे की कोई जरूरत ही नहीं रह
जायेगी, और योजना बजट में ही आगे बढेगी।
सच
तो यह है कि सभी राजनीतिक दलों को कानून व्यवस्था से लाभ उठाने की प्रवृत्ति को
बदलना पड़ेगा और देश की विदेश व रक्षा नीति पर मतैक्य की तरह मतैक्य बनाना पड़ेगा
क्योंकि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और देश की रक्षा का सवाल है। अपराधों व अपराधियों
को राजनीति से बाहर करने के प्रति सभी दलों को कमर कसनी होगी व देश के भले के लिए
राजनीतिक नुकसानों का खतरा उठाने को तैयार होना पड़ेगा। किसी राजनेता पर आपराधिक
आरोप लगने के बाद यदि उसका दल निष्कासित कर देता है तो दूसरे दल का सदस्य बनने पर
प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। ऐसी सहमतियां राजनीतिक दलों की देश के प्रति सच्ची
सेवा होगी।
वीरेन्द्र जैन
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