शनिवार, दिसंबर 31, 2011

दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर और् शिक्षा माफिया,


राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर, और शिक्षामाफिया
                                                               वीरेन्द्र जैन
      कोई भी भारतीय नागरिक देश में चुनाव आयोग के पास  पंजीकृत डेढ हजार दलों में से [कैडर आधारित एक बामपंथी दल को छोड़ कर] किसी भी दल की सदस्यता सरलता पूर्वक ग्रहण कर सकता है और शायद ही किसी दल ने सदस्यता के लिए आवेदन करने वाले नागरिक को साधारण सदस्य बनाने से इंकार किया हो। जो दल साम्प्रदायिक समझे जाते हैं वे भी दूसरे समुदाय के सदस्य मिलने पर अपने ऊपर लगे दाग को धोने का नमूना बनाते हुए उसे खुशी खुशी सदस्यता देते हैं, और अन्यथा न जीतने की सम्भावना वाली सीटों से टिकिट भी देते हैं।
      पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने स्वच्छ चुनाव कराने की दृष्टि से कुछ  नियमों का पालन करना अनिवार्य तो किया है पर दलों पर ऐसी कोई आचार संहिता लागू नहीं की गयी है जिससे वे हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों के अनुसार ही आचरण कर के एक आदर्श लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करें। आज हमारे अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल अनेकानेक विकृत्तियों के शिकार हैं और ऎन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने व उसका दुरुपयोग करने का प्रयास करने वालों के गिरोह बन गये हैं। किसी दल का व्यय कैसे चलता है इसकी जानकारी ना तो चुनाव आयोग को होती है और ना ही यह जानकारी सार्वजनिक  होती है। आज जब चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी सम्पत्ति घोषित करना और चुनाव खर्च का दैनिक अडिट होना अनिवार्य कर दिया गया है तो उन उम्मीदवारों को टिकिट देने वाले राजनीतिक दलों के आय व्यय को गोपनीय क्यों रहना चाहिए। जो दल देश के शासक बन सकते हैं उन्हें पारदर्शी होना चाहिए।
      किसी उद्योग द्वारा किसी दल को चन्दा देना कहाँ तक उचित है? यह काम अगर कोई व्यक्ति करता है तो एक मतदाता के रूप में यह उसकी व्यक्तिगत पसन्दगी नापसन्दगी का सवाल होता है किंतु प्रतिष्ठान के रूप में किसी कम्पनी द्वारा किसी दल को चन्दा देने का सीधा सीधा मतलब होता है कि वह एक अनुचित पक्षधरता की चाह में दी गयी रिश्वत है, ताकि सरकार बनने की स्तिथि में उक्त दल उनका मददगार हो। ऐसा होता भी है। रोचक यह है कि एक ही औद्योगिक संस्थान एक से अधिक दलों को चुनावी चन्दा देते हैं जो निश्चित रूप से चुनावी चन्दा नहीं हो सकता क्योंकि एक वोट देने की क्षमता रखने वाला कोई व्यक्ति या कम्पनी का निदेशक भिन्न विचारधारा वाले एक से अधिक दलों में विश्वास कैसे व्यक्त कर सकता है। यह परोक्ष में एक व्यापारिक सौदेबाजी ही होती है। नीरा राडिया के टेप्स और जनार्दन रेड्डी द्वारा अपनी जेब का मुख्य मंत्री बनवाने के बाद वैसे ही प्रधानमंत्री बनवाने का सपना देखने की खबरें इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह बात आज पूरा देश जानता है कि भूमाफिया. खननमाफिया, बिल्डर, शिक्षामाफिया, शासकीय सप्लायर, ठेकेदार, आयातक निर्यातक, उद्योगापति आदि ही सरकारें बनवाने में भूमिकाएं निभा रहे हैं अपने पक्ष में नीतियां बनवा रहे हैं। मंत्री और जनप्रतिनिधि इनसे घिरे रहते हैं तथा उनके दस्तखत किये हुए खाली लैटरहैड उनके ब्रीफकेस में पड़े रहते हैं।
      आम तौर पर दल अपने सिद्धांत और घोषणाएं कुछ और बताते हैं तथा चुनाव के बाद आचरण कुछ और करते हैं। जब कोई छोटी मोटी चीज बेचने वाला अपने पैकिट पर  लिखी सामग्री से कुछ भिन्न बेचती पाया जाता है तो अपराधी माना जाता है किंतु पूरे देश की जनता को धोखा देने वाला किसी कानून के अंतर्गत नहीं आता। चुनाव आयोग के पास दलों को अपने चुनावी लाभ के लिए अपने घोषित सिद्धांतों से विचलित होने को रोकने के कोई अधिकार नहीं हैं और न ही इसके लिए ऐसी ही कोई अन्य संस्था या विभाग कार्यरत है। कुछ दलों को छोड़ कर अधिकतर दल किसी नेता की अपनी महात्वाकांक्षा, उसके जातीय, क्षेत्रीय सम्पर्क या गैर राजनैतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को भुनाने के उद्देश्य से बना लिए जाते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है कि चुनाव आयोग में पंजीकृत कराते समय उसके कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर आयोग द्वारा उससे पूछा जाये कि जब उसके दल के घोषणा पत्र में वे ही सारे विन्दु हैं जो पहले से पंजीकृत दूसरे दल में भी हैं तो वह उस दल के साथ मिलकर काम क्यों नहीं कर सकता! बहुत सारे छोटे दल दूसरे बड़े दलों को चुनावी नुकसान पहुँचाने अर्थात लोकतंत्र की भावना को विचलित करने के लिए बना लिये जाते हैं, जिन्हें परोक्ष में उनके विपक्षी मदद कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर सारी कवायद लोकतंत्र के नाम पर शासन को कुछ निहित स्वार्थों तक केन्द्रित कर देने के लिए होती है। यह बात पहले कभी दबी छुपी रहती थी पर अब जग जाहिर हो चुकी है। किसी भी व्यवस्था में अगर समय रहते सुधार नहीं होते हैं तो फिर विकृतियों से जनित दुर्व्यवस्था के खिलाफ कभी भी अचानक गुस्सा फूट पड़ता है जो सुधार तो नहीं कर पाता पर स्थापित व्यवस्था को नुकसान अवश्य पहुँचा देता है। इसलिए जरूरी है कि उभरती विकृतियों के समानांतर उसके उपचार भी किये जायें। कुछ उपाय निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित किये जा सकते हैं-
  • राजनीतिक दलों और उनके सदस्यों को एक घोषित आचार संहिता में बाँधा जाये, तथा उस का पालन अनिवार्य किया जाय।
  • दलों की सदस्यता को बेकामों, बेरोजगारों की फौज बनाने की जगह अपने दल की घोषणाओं के लिए काम करने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं के रूप में अनिवार्य बनाये जाने के उपाय किये जायें। इसके लिए दलों में पदोन्नति के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण की कक्षाओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
  • दलों द्वारा अपनाये गये सामाजिक सुधार के कुछ निर्देशों का पालन सुनिश्चित कराया जाना चाहिए, जैसे कि सक्षम सदस्यों द्वारा रक्तदान, नेत्र दान, परिवार में टीकाकरण, परिवार नियोजन के आदर्शों का पालन, अपने द्वारा पालित बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, सती प्रथा, दहेज प्रथा, साम्प्रदायिकता का सक्रिय विरोध आदि
  • प्रत्येक सदस्य से आय के अनुपात में लेवी तय की जाना चाहिए।
  • चुनाव के लिए टिकिट दिये जाने के सम्बन्ध में कुछ न्यूनतम पात्रताएं तय की जाना चाहिए। इसमें दल में सदस्यता की अवधि भी एक प्रमुख पात्रता होना चाहिए।
  • किसी दल का सदस्य यदि कोई अपराध करता है तो उसके मूल में दल की सामूहिकता का बल भी उसके ध्यान में रहता है। इसलिए आरोप लगने पर दल द्वारा तुरंत जाँच और उसके अनुसार कार्यवाही का किया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि उसकी आँच दल तक न पहुँचे और कोई दल के भरोसे अपराध करने से बचे।
सभी पंजीकृत दलों में आंतरिक लोकतंत्र को बढावा देकर भी दलों और परोक्ष में देश की शासन व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। इससे कुकरमुत्तों की तरह उग आये जेबी दल भी कम हो कर सच्चे लोकतंत्र को स्थापित होने में सहयोग करेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

गुरुवार, दिसंबर 22, 2011

विचारों की अस्थिरिता से अन्ना हजारे की चमक खो रही है


विचारों की अस्थिरता से अन्ना की चमक खो रही है
वीरेन्द्र जैन
      कवि मुकुट बिहारी सरोज ने कभी कहा था-            
अस्थिर सब के सब पैमाने
तेरी जय जय कार जमाने
बन्द किवार किये बैठे हैं
अब कोई आये समझाने
फूलों को घायल कर डाला
कांटों की हर बात सह गये
कैसे कैसे लोग रह गये
      भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनभावनाओं के प्रतीक बन गये  अन्ना हजारे की अस्थिर मानसिकता पर सरोजजी की यह कविता याद आनी स्वाभाविक है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार देश में एक बड़ी समस्या है और देश की दूसरी बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए उठाये कदम भी इसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ कर भटक जाते हैं, जिससे वांछित लक्ष्य नहीं मिल पाते। अन्ना हजारे और गिने चुने लोगों की उनकी टीम के पास न तो न तो कोई सुचिंतित विचारधारा है और न ही वह जनतांत्रिक ढंग से काम करती है। वे अपने आप में एकांगी होने के कारण यह भी नहीं सोचना चाहते कि किसी बड़ी और व्यापक बुराई को दूर करने के लिए उससे भी बड़े और अधिक शक्तिशाली संगठन तथा परिवर्तन की एक बेहतर कार्य प्रणाली की जरूरत होती है, जिसके अभाव में जेपी और वीपी का आन्दोलन अपने ऐसे ही लक्ष्य नहीं पा सका था। अन्ना हजारे की टीम ने अपनी मनमानी करके सामाजिक परिवर्तन के एक सम्भावनाशील आन्दोलन को उभार कर भटका दिया है।
      भावनाओं के ज्वार में बिना उचित विमर्श के लिये गये फैसले और असफलताओं के बाद ठुकरायी गयी सलाहों को मानने पर विवश होने से उनके नेतृत्व की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
      आन्दोलन के अपने प्रारम्भिक दौर में उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से दूरी बनायी और एक सिरे से सबको अपराधी व चोर कहा। रोचक यह है कि उन्होंने इसी संसदीय व्यवस्था और चुनाव प्रणाली में पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए सारे सुधारों को संवैधानिक ढंग से लागू करने के लिए नया कानून बनवाना चाहा। इसकी दूसरी तरफ कानून बनाने वाली संसद को चोर ठहराते रहे। इसका मतलब साफ था कि वे किसी एक जगह झूठ या नासमझी को प्रकट कर रहे थे। उनके सदस्यों ने जनलोकपाल के प्रस्ताव को रखते हुए कहा भी था कि अगर संसद इसे पास कर देगी तो अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारेगी। अर्थात उनका विश्वास इस संसद से इसे पास कराने में नहीं था और वे संभवतः पूरी संसदीय प्रणाली को परोक्ष में बदनाम करने का खेल खेल रहे थे।
      भीड़ को भुनाने वाले राजनीतिक दलों को उनका करिश्मा आकर्षक लगा तो उन्होंने उनके मंच को हथियाना चाहा पर उन्होंने सबसे पहले पहुँचने वाले ऐसे नेताओं उमा भारती, ओमप्रकाश चौटाला, अरुण जैटली आदि को मंच तक फटकने नहीं दिया था तथा संघ के राम माधव को भी मंच से उतार दिया था। दूसरे अनशन के समय भी जब भाजपा के अनंत कुमार और गोपीनाथ मुंडे ने प्रयास किया था तो उन्हें दूर रहने के लिए कहा गया था। जब किसी भी राजनीतिक दल ने उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन नहीं किया तो अपने आन्दोलन के अगले चरण में उन्होंने अपने एनजीओ नुमा समर्थकों से क्षेत्रीय विधायक और सांसदों का घेराव करने का आवाहन किया था ताकि वे संसद में जनलोकपाल बिल का समर्थन करें। उनका यह आवाहन सफल नहीं हुआ और उनके द्वारा जुटायी गयी भीड़ का उत्सवधर्मी चरित्र प्रकट हो गया, जो हवाई फायर तो कर सकती है पर मैदान में नहीं लड़ सकती। बाद में संघ के नेताओं की खुली घोषणा से यह तथ्य भी प्रकट हो गया कि उनके अनशन तमाशे को न केवल संघ ने परोक्ष में पूरा सहयोग दिया था अपितु अनशन के साथ चलने वाले लंगर को भी उन्होंने ही चलवाया था। अपने नकार में कमजोर अन्ना टीम यह नहीं बता सकी कि यदि संघ के नेताओं की बात झूठी थी, तो सत्य क्या था!
      हरियाणा के हिसार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का विरोध करते हुए उन्होंने दूसरे दो जिन दलों को चुनावी लाभ देने का दावा किया वे किसी भी तरह से अपने चरित्र में कांग्रेस से भिन्न नहीं थे। उनकी इस गलत चाल ने उनके मेधा पाटकर सन्दीप पाण्डे सहित दो प्रमुख समर्थकों को उनसे विमुख कर दिया। जबकि कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े, और स्वामी अग्निवेश पहले से ही अलग हो चुके थे। अरुन्धति राय तो वैसे भी उनके समर्थन में नहीं थीं।
      अपने पिछले तौर तरीके को पलटते हुए 11 दिसम्बर 2011 के धरने पर अन्ना ने सारे राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने मंच पर बुलवाया जो राजनीतिक कारणों से वहाँ गये पर उनमें से किसी ने भी उनके जनलोकपाल बिल का पूरा समर्थन नहीं किया। जब इन नेताओं की उपस्थिति में केजरीवाल ने उनसे लोकपाल के गठन, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति, और शिकायत निवारण तंत्र आदि पर रुख स्पष्ट करने को कहा तो  सीपीआई के डी राजा ने उनके हाथों से माइक छीन कर कहा कि ये बहस की जगह नहीं है, इस विषय पर जो भी बहस होगी वह संसद में होगी। भाजपा के राज्य सभा में नेता वकील अरुण जैटली ने कहा कि बुनियादी मुद्दों पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी राय पहले ही सार्वजनिक कर दी है और विशिष्ट मुद्दों पर बहस का जिम्मा संसद का है। माकपा की नेता वृन्दा करात ने भी कहा कि मजबूत लोकपाल के लिए जो भी जरूरी होगा वह संसद करेगी, लोकपाल के दायरे में निजी कारोबारी घरानों को लाये जाने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि ये लोग देश को लूट रहे हैं। सीपीआई के महासचिव एबी वर्धन ने तो साफ साफ कहा कि अन्ना की टीम के नौ दस लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हीं के पास सारी बुद्धि है और वे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो लोग इनकी बातों से सहमत नहीं हैं, उसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि वे भ्रष्ट लोगों के समर्थक हैं। एक सौ बीस करोड़ के देश में विद्वानों की कमी नहीं है। अन्ना को यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि जन लोकपाल बिल का एक एक शब्द मान लिया जायेगा। आपको राजनीतिक दलों के नेताओं को बुलाने की समझ आयी यह अच्छी बात है- कभी नहीं से देर भली। राजनीतिक वर्ग की प्रासंगिकता को कम करके मत आँकिए। अकेले जनलोक पाल बिल के पास हो जाने से भ्रष्टाचार नहीं मिट जायेगा। समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने हजारे टीम से संयम बरतने की सलाह दी, जो यहाँ आकर तिरंगा लहराते हैं वे इटावा में भ्रष्टाचार करते हैं। शरद यादव ने तो अन्ना पक्ष को सीधे उपेक्षित करते हुए कहा कि वे चाहेंगे कि सदन की भावना के अनुरूप जो प्रस्ताव पास किया गया था उसमें तनिक भी बदलाव न हो।
      राजनीतिक दलों के नेताओं के भाषण से यह साफ हो गया कि वे कानून बनाने के मामले में अन्ना को कोई श्रेय या दखल देने को तैयार नहीं हैं। वहीं अन्ना ने अपने समर्थकों के लिए कुछ सूत्र घोषित किये जो 1-शुद्ध आचरण, 2- शुद्ध विचार, 3- निष्कलंक जीवन, 4- अपमान सहने की ताकत,। रोचक यह है कि अन्ना की टीम में से शायद ही कोई इन पर खरा उतरे।   
      अन्ना ने स्वयं भी जिस तरह से सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी पर व्यक्तिगत हमले किये हैं वे शुद्ध आचरण और शुद्ध विचारों को प्रकट नहीं करते क्योंकि ये हमले भाजपा के तौर तरीकों के निकट हैं। भाजपा जानती है कि कांग्रेस की एकता के सूत्र नेहरू परिवार में केन्द्रित हैं और उन्हें बदनाम करने से कांग्रेस कमजोर होगी। यही कारण है कि वे सच जानते हुए भी सरकार और कांग्रेस को छोड़ कर सरकार से बाहर रहने वाले राहुल गान्धी को लक्ष्य बना रहे हैं। यह संघी तरीका है जो सोनिया गान्धी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद धर्मांतरणों के बहाने ईसाइयों तक पर इसीलिए हमले करने लगा है ताकि उन को किसी तरह साम्प्रदायिक दायरे में लाया जाये। वे उनके कुम्भ स्नान या किसी हिन्दू समारोह में भाग लेने पर भी आपत्ति करने से नहीं चूकते। शरद पवार पर पड़े थप्पड़ के मामले में दी गयी अपनी प्रतिक्रिया पर वे अपने गान्धीवाद की कलई खोल ही चुके हैं। विवादस्पद मुद्दे के समय मौन धारण कर वे किसी बेहद साधारण राजनेता की तरह प्रकट हो चुके हैं।
      अन्ना को आत्ममंथन के बाद अपने दर्शन और कार्यक्रम को तैयार करना चाहिए, उस पर देश के प्रमुख व्यक्तियों से सलाह करना चाहिए और फिर परिणाम की चिंता किये बिना अपना कार्यक्रम घोषित करना चाहिए। यदि वे दिन प्रति दिन अपने विचार और कार्यक्रम बदलते रहे तो जल्दी ही वे अपनी चमक खो देंगे जो पिछले दिनों से काफी कम हो चुकी है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, दिसंबर 17, 2011

राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर और शिक्षा माफिया


राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर, और शिक्षामाफिया
                                                               वीरेन्द्र जैन
      कोई भी भारतीय नागरिक देश में चुनाव आयोग के पास  पंजीकृत डेढ हजार दलों में से [कैडर आधारित एक बामपंथी दल को छोड़ कर] किसी भी दल की सदस्यता सरलता पूर्वक ग्रहण कर सकता है और शायद ही किसी दल ने सदस्यता के लिए आवेदन करने वाले नागरिक को साधारण सदस्य बनाने से इंकार किया हो। जो दल साम्प्रदायिक समझे जाते हैं वे भी दूसरे समुदाय के सदस्य मिलने पर अपने ऊपर लगे दाग को धोने का नमूना बनाते हुए उसे खुशी खुशी सदस्यता देते हैं, और अन्यथा न जीतने की सम्भावना वाली सीटों से टिकिट भी देते हैं।
      पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने स्वच्छ चुनाव कराने की दृष्टि से कुछ  नियमों का पालन करना अनिवार्य तो किया है पर दलों पर ऐसी कोई आचार संहिता लागू नहीं की गयी है जिससे वे हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों के अनुसार ही आचरण कर के एक आदर्श लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करें। आज हमारे अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल अनेकानेक विकृत्तियों के शिकार हैं और ऎन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने व उसका दुरुपयोग करने का प्रयास करने वालों के गिरोह बन गये हैं। किसी दल का व्यय कैसे चलता है इसकी जानकारी ना तो चुनाव आयोग को होती है और ना ही यह जानकारी सार्वजनिक  होती है। आज जब चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी सम्पत्ति घोषित करना और चुनाव खर्च का दैनिक अडिट होना अनिवार्य कर दिया गया है तो उन उम्मीदवारों को टिकिट देने वाले राजनीतिक दलों के आय व्यय को गोपनीय क्यों रहना चाहिए। जो दल देश के शासक बन सकते हैं उन्हें पारदर्शी होना चाहिए।
      किसी उद्योग द्वारा किसी दल को चन्दा देना कहाँ तक उचित है? यह काम अगर कोई व्यक्ति करता है तो एक मतदाता के रूप में यह उसकी व्यक्तिगत पसन्दगी नापसन्दगी का सवाल होता है किंतु प्रतिष्ठान के रूप में किसी कम्पनी द्वारा किसी दल को चन्दा देने का सीधा सीधा मतलब होता है कि वह एक अनुचित पक्षधरता की चाह में दी गयी रिश्वत है, ताकि सरकार बनने की स्तिथि में उक्त दल उनका मददगार हो। ऐसा होता भी है। रोचक यह है कि एक ही औद्योगिक संस्थान एक से अधिक दलों को चुनावी चन्दा देते हैं जो निश्चित रूप से चुनावी चन्दा नहीं हो सकता क्योंकि एक वोट देने की क्षमता रखने वाला कोई व्यक्ति या कम्पनी का निदेशक भिन्न विचारधारा वाले एक से अधिक दलों में विश्वास कैसे व्यक्त कर सकता है। यह परोक्ष में एक व्यापारिक सौदेबाजी ही होती है। नीरा राडिया के टेप्स और जनार्दन रेड्डी द्वारा अपनी जेब का मुख्य मंत्री बनवाने के बाद वैसे ही प्रधानमंत्री बनवाने का सपना देखने की खबरें इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह बात आज पूरा देश जानता है कि भूमाफिया. खननमाफिया, बिल्डर, शिक्षामाफिया, शासकीय सप्लायर, ठेकेदार, आयातक निर्यातक, उद्योगापति आदि ही सरकारें बनवाने में भूमिकाएं निभा रहे हैं अपने पक्ष में नीतियां बनवा रहे हैं। मंत्री और जनप्रतिनिधि इनसे घिरे रहते हैं तथा उनके दस्तखत किये हुए खाली लैटरहैड उनके ब्रीफकेस में पड़े रहते हैं।
      आम तौर पर दल अपने सिद्धांत और घोषणाएं कुछ और बताते हैं तथा चुनाव के बाद आचरण कुछ और करते हैं। जब कोई छोटी मोटी चीज बेचने वाला अपने पैकिट पर  लिखी सामग्री से कुछ भिन्न बेचती पाया जाता है तो अपराधी माना जाता है किंतु पूरे देश की जनता को धोखा देने वाला किसी कानून के अंतर्गत नहीं आता। चुनाव आयोग के पास दलों को अपने चुनावी लाभ के लिए अपने घोषित सिद्धांतों से विचलित होने को रोकने के कोई अधिकार नहीं हैं और न ही इसके लिए ऐसी ही कोई अन्य संस्था या विभाग कार्यरत है। कुछ दलों को छोड़ कर अधिकतर दल किसी नेता की अपनी महात्वाकांक्षा, उसके जातीय, क्षेत्रीय सम्पर्क या गैर राजनैतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को भुनाने के उद्देश्य से बना लिए जाते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है कि चुनाव आयोग में पंजीकृत कराते समय उसके कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर आयोग द्वारा उससे पूछा जाये कि जब उसके दल के घोषणा पत्र में वे ही सारे विन्दु हैं जो पहले से पंजीकृत दूसरे दल में भी हैं तो वह उस दल के साथ मिलकर काम क्यों नहीं कर सकता! बहुत सारे छोटे दल दूसरे बड़े दलों को चुनावी नुकसान पहुँचाने अर्थात लोकतंत्र की भावना को विचलित करने के लिए बना लिये जाते हैं, जिन्हें परोक्ष में उनके विपक्षी मदद कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर सारी कवायद लोकतंत्र के नाम पर शासन को कुछ निहित स्वार्थों तक केन्द्रित कर देने के लिए होती है। यह बात पहले कभी दबी छुपी रहती थी पर अब जग जाहिर हो चुकी है। किसी भी व्यवस्था में अगर समय रहते सुधार नहीं होते हैं तो फिर विकृतियों से जनित दुर्व्यवस्था के खिलाफ कभी भी अचानक गुस्सा फूट पड़ता है जो सुधार तो नहीं कर पाता पर स्थापित व्यवस्था को नुकसान अवश्य पहुँचा देता है। इसलिए जरूरी है कि उभरती विकृतियों के समानांतर उसके उपचार भी किये जायें। कुछ उपाय निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित किये जा सकते हैं-
  • राजनीतिक दलों और उनके सदस्यों को एक घोषित आचार संहिता में बाँधा जाये, तथा उस का पालन अनिवार्य किया जाय।
  • दलों की सदस्यता को बेकामों, बेरोजगारों की फौज बनाने की जगह अपने दल की घोषणाओं के लिए काम करने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं के रूप में अनिवार्य बनाये जाने के उपाय किये जायें। इसके लिए दलों में पदोन्नति के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण की कक्षाओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
  • दलों द्वारा अपनाये गये सामाजिक सुधार के कुछ निर्देशों का पालन सुनिश्चित कराया जाना चाहिए, जैसे कि सक्षम सदस्यों द्वारा रक्तदान, नेत्र दान, परिवार में टीकाकरण, परिवार नियोजन के आदर्शों का पालन, अपने द्वारा पालित बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, सती प्रथा, दहेज प्रथा, साम्प्रदायिकता का सक्रिय विरोध आदि
  • प्रत्येक सदस्य से आय के अनुपात में लेवी तय की जाना चाहिए।
  • चुनाव के लिए टिकिट दिये जाने के सम्बन्ध में कुछ न्यूनतम पात्रताएं तय की जाना चाहिए। इसमें दल में सदस्यता की अवधि भी एक प्रमुख पात्रता होना चाहिए।
  • किसी दल का सदस्य यदि कोई अपराध करता है तो उसके मूल में दल की सामूहिकता का बल भी उसके ध्यान में रहता है। इसलिए आरोप लगने पर दल द्वारा तुरंत जाँच और उसके अनुसार कार्यवाही का किया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि उसकी आँच दल तक न पहुँचे और कोई दल के भरोसे अपराध करने से बचे।
सभी पंजीकृत दलों में आंतरिक लोकतंत्र को बढावा देकर भी दलों और परोक्ष में देश की शासन व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। इससे कुकरमुत्तों की तरह उग आये जेबी दल भी कम हो कर सच्चे लोकतंत्र को स्थापित होने में सहयोग करेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

लोकतंत्र का स्वरूप बदलने की जरूरत तो है पर अवसर नहीं




           लोकतंत्र का स्वरूप बदलने की जरूरत तो है पर अवसर नहीं
                                                             वीरेन्द्र जैन
            केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला का कहना है कि अब देश में नियंत्रित लोकतंत्र अपनाने का समय आ गया है। उनका कहना एक ओर तो समस्याओं की ओर उनकी चिंताओं को दर्शाता है किंतु दूसरी ओर ऐसा हल प्रस्तुत करता है जिसकी स्वीकार्यता बनाने के लिए एक तानाशाही शासन स्थापित करना होगा। स्मरणीय है कि लोकतंत्र का सुख भोग चुके समाज में अब यह सहज सम्भव नहीं है। श्रीमती इन्दिरागान्धी ने एमरजैंसी लगाने के बाद चुनाव हारा था और दुबारा चुन कर आने के बाद कहा था कि वे अब दुबारा कभी एमरजैंसी नहीं लगायेंगीं।
      असल में हमारे देश में जो लोकतंत्र है, उसमें आदर्श घोषणाएं तो बहुत हैं पर व्यवहार में सक्षम द्वारा निर्बल का शोषण सम्भव है। कमजोर न्याय व्यवस्था के कारण सबल और शोषक द्वारा निर्बल के शोषण के खिलाफ दोषियों को दण्डित करना सम्भव नहीं हो पाता, भले ही इसके लिए हमने अच्छे अच्छे कानून बना रखे हैं। प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण विकास और सशक्तीकरण के कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते। इसी भ्रष्टाचार से जनित ताकत का प्रभाव चुनावी व्यवस्था पर भी पड़ता है परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में शोषकों के प्रतिनिधि वहाँ बैठ जाते हैं और संसदीय सुधार द्वारा परिवर्तन को सम्भव नहीं होने देते। राष्ट्र के प्रति चिंतित प्रत्येक व्यक्ति के मन में इस दुष्चक्र को तोड़ने की चिंता स्वाभाविक है किंतु यह उन लोगों द्वारा सम्भव नहीं है किंतु जो स्वयं भी इस तंत्र की कमजोरियों से लाभान्वित हो रहे हैं।
      लोकतंत्र से मिले मानव अधिकारों का सर्वाधिक उपयोग भी शोषकवर्ग कर रहा है और मानव अधिकार की ओट में सुरक्षा प्राप्त कर रहा है। न्याय व्यवस्था के छिद्रों के कारण अधिकांश सक्षम लोग दण्ड से बच जाते हैं और घटित अपराध की किसी को भी सजा न मिलने के कारण समाज में कानून के शासन के प्रति अविश्वास बढता जा रहा है, जिससे जंगली न्याय बढता जा रहा है। अदालत से अपने पक्ष में लम्बे समय के लिए स्टे [यथास्थिति] ले लेना और मुकदमों को लम्बा खींचना आम बात हो गयी है। झूठी गवाही से गलत फैसला होने और लालच के आधार पर गवाही से मुकर जाने वालों को जब दण्ड नहीं मिल पाता तो न्याय मजाक सा लगने लगता है। सक्षम लोग इसीलिए अपना फैसला अपनी लाठी से आप ही करने लगे हैं।
      जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में पचास प्रतिशत से अधिक लोग मतदान ही नहीं करते हों और दिये गये मतों में असली नकली का प्रतिशत निकालना कठिन होता हो तो उस लोकतंत्र पर सन्देह होना स्वाभाविक है। लगातार किये गये विभिन्न चुनाव सुधारों के आते रहने से पता चलता है कि हम पिछले दिनों किस तरह के विकृत चुनावी तंत्र से स्थापित शासनों द्वारा शासित होते रहे हैं। राजनीतिक रूप से अशिक्षित मतदाताओं के डाले गये मत भी उस भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करते जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना होती है। वे मत तो दबाव से, लालच से, भटका के, साम्प्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी भावनाएं उभारकर भी डलवा लिये जाते हैं। अपने स्वार्थों के लिए सत्ता हथियाने के प्रयास करने वाले गलत तुष्टीकरण से लेकर गैरकानूनी काम करने वालों को मदद करने तक के हथकण्डे अपनाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप अपराधी तत्व राजनेताओं पर दबाव बना कर रहते हैं। जो तंत्र स्वयं के बनाये कानून के खिलाफ काम करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं के दबाव में काम करने को विवश हो उसे कितना सफल कहा जा सकता है! जिन परम्पराओं, रूढियों, और अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए नेतृत्व को काम करना चाहिए था वही वोटों की लालच में उन्हें बढाने में लग गया है। एक तरह की साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए दूसरे तरह की साम्प्रदायिकता से आँखें मूंद ली जाती हैं जिससे साम्प्रदायिकता का उन्मूलन होने की जगह उनमें प्रतियोगिताएं बढ रही हैं।  
      पुलिस तो अपने विशेष अधिकारों और शक्तियों के कारण पहले ही से बदनाम थी पर नौकरशाही और सेना में भी जिस तरह के भ्रष्टाचार उजागर हुये हैं वे हतप्रभ कर देने वाले हैं। जिस मीडिया को लोकतंत्र के हित में वाचडाग की तरह काम करना चाहिए था, वह बिकाऊ बन चुका है जिसका मतलब है कि चौकीदार चोरों से कमीशन ले रहा है। वह चुनावी नेताओं की वैसी छवि बनाने का धन्धा करने लगा है जैसे वे नहीं हैं, किंतु  वैसी बनावटी छवि से उन्हें चुनावी सफलता मिलना सम्भव हो सके।
      कुल मिला कर कहा जा सकता है कि हम जिसे लोकतंत्र मान रहे हैं वह लोकतंत्र है ही नहीं। जरूरत इस बात की है कि लोकतंत्र जिस स्वरूप में होना चाहिए था और नहीं हो पा रहा है उसकी बाधाओं को दूर किया जाये व इसके लिए न्याय व्यवस्था में उचित संशोधन किया जाये। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद के सुर में सुर मिलाते हुए केंद्रीयमंत्री फारुख अब्दुल्ला जिस मर्यादित लोकतंत्र की बात करने लगे हैं वह इस व्यवस्था में गैर कानूनी लोगों से ज्यादा उन लोगों को नियंत्रित करने लगेगी जो सच्चे लोकतांत्रिक हैं और सार्थक ढंग से असहमति व्यक्त करते हैं। फारुख अब्दुल्ला साहब ने यह नहीं बतलाया कि कथित मर्यादित लोकतंत्र की जिम्मेवारी जिन लोगों के कन्धों पर आयेगी वे किस आधार पर चुने गये होंगे। इसलिए पहली आवश्यकता है जनता को जागरूक बनाना और चुनावी प्रणाली मैं सुधार में सुधार किया जाना।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

बुधवार, नवंबर 30, 2011

संविधान कानून और अनियंत्रित बयान



संविधान कानून और अनियंत्रित बयान  
                                                               वीरेन्द्र जैन
      संसद और विधानसभाओं के लिए चुने जाने के बाद नेता लोग संविधान की शपथ खाते हैं और उसमें विश्वास व्यक्त करते हैं किंतु इन्हीं नेताओं के आचरण बताते हैं कि या तो वे संविधान में भरोसा नहीं करते या उसकी परवाह नहीं करते। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने के बारे में राजनीतिक दलों में मतभेद हो सकते हैं और वे लोकतांत्रिक तरीके से संसद और उसके बाहर अपनी असहमति दिखाने को स्वतंत्र हैं, किंतु एक राजनीतिक दल की एक कद्दावर नेता जो एक प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हों, का यह कहना कि वे विदेशी निवेश वाली खुदरा दुकानों में आग लगा देंगीं, कहाँ तक उचित है! उनकी पार्टी ने भी उनके इस बयान पर कोई असंतोष व्यक्त नहीं किया है। क्या किसी नेता को यह अधिकार है कि वह इस तरह से खुले आम इस तरह की आपराधिक गतिविधि की धमकी देकर भी पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद को प्राप्त विशेष अधिकारों और सुविधाओं को प्राप्त कर सके। ये वही मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पार्टी छोड़ने के बाद अपनी त्यागी हुयी पार्टी के मुख्यमंत्री पर अपनी हत्या का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया था, बाद में वे फिर से उसी पार्टी में सम्मलित हो गयीं।
      किसी भी दल के नेता को विरोध करने का अधिकार कानून की सीमा तक ही होता है। जो सरकार को सीधी चुनौती देते हुये कानून का उल्लंघन करते हैं वे उग्रवादियों की श्रेणी में आते हैं जिनके साथ सुरक्षा एजेंसियां वैसा ही व्यवहार करती रही हैं जैसा कि उन्होंने अभी किशनजी के साथ किया है या इससे पहले कई हजार नक्सलियों, खालिस्तानियों, या लश्कर के लोगों के साथ करती रही है। क्या हमारी सरकार चुनाव लड़ने वाले उग्रवादियों और चुनाव न लड़ने वाले उग्रवादियों में फर्क करती है? क्या उक्त नेता के दल के प्रमुख लोगों, जिनमें देश के नामी गिरामी वकील शामिल हैं, को भी यह ज्ञान नहीं है कि ऐसा बयान देना आपराधिक है और उसके खिलाफ कोई कानून भी है। इसी दल के एक प्रदेश अध्यक्ष जो अपने आप को एक बड़ा पत्रकार मानते आये हैं और इसी आधार पर बाहरी होते हुए भी एक प्रदेश का अध्यक्ष पद व राज्यसभा की सदस्यता प्राप्त किये हुये हैं, अपनी मांगें न माने जाने की दशा में राष्ट्रपति से प्राण त्यागने का अनुरोध करते हैं। यह अनुरोध भले ही हास्यास्पद और छद्म हो किंतु आपराधिक तो है।
 यही काम अगर किसी आम आदमी ने किया होता तो उसको तरह तरह से कानूनी संकट झेलना पड़ता किंतु सरकारी वेतन और पेंशन के साथ ढेर सारी सरकारी सुविधाएं पाने वाले ये लोग वोटरों को बरगलाने के लिए इसी तरह के शगूफे छोड़ते रहते हैं। शायद इन्हें ये भरोसा होगा कि कानून इनके लिए नहीं है।
      उत्तर प्रदेश के एक मंत्री जिनके कार्यकाल में दो अधिकारियों की हत्या हो गयी और तीसरे की जेल में सन्दिग्ध मृत्यु हुयी जिसे आत्महत्या बताया गया। उस मंत्री ने मंत्रिमण्डल से निकाले जाने के बाद अपनी ही पार्टी और एक मुख्य सचिव से अपने जीवन को खतरा बताया। माना जाता है कि उनके पास विभाग में व्याप्त अकूत भ्रष्टाचार के अलावा पार्टी द्वारा एकत्रित दौलत के भी भंडार रहे हैं और उन्हें पार्टी से निकाले जाने के बाद इस दौलत के लिए खूनी संघर्ष छिड़ सकता है।
      मध्य प्रदेश की एक मुँहफट महिला विधायक ने तो अभी हाल के अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए ही कहा कि इस विधानसभा पर ताला लगा दिया जाना चाहिए। ऐसा कहते हुए वे यह भूल गयीं कि उन्हें विधायक होते हुए ही अभिव्यक्ति के ये सारे अधिकार प्राप्त हैं और बैठने वाली डाल को काटने वालों को समझदार नहीं कहा जाता। संसद और विधानसभाएं लोकतंत्र के मन्दिर हैं जो देश को बड़े संघर्ष के बाद प्राप्त हुए हैं, इन पर ताला लगा देने के बाद तो तानाशाही या मिलेट्री शासन ही विकल्प बनते हैं।
      मुम्बई में गत 26/11/2008 को हुये हमले के दौरान पकड़े गये एक मात्र आतंकी कसाब की सुरक्षा पर होने वाले खर्च के अतिरंजित आंकड़ों के आधार पर कुछ संगठन यह प्रकट करते रहते हैं जैसे कि सरकार अपने वोट बैंक के लिए उसे दामादों की तरह पाल रही है, जबकि सच यह है कि प्रज्ञा सिंह समेत किसी भी विचाराधीन कैदी को जेल के मैन्यूल के अनुसार ही सुविधाएं मिलती हैं और किसी भी विचाराधीन कैदी की सुरक्षा सरकार की जिम्मेवारी होती है जो सम्भावित खतरों के अनुसार मिलती है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि कसाब और उसको मदद करने के आरोपियों का मुकदमा लड़ने वाले वकील की हत्या कर दी गयी है जिसकी वकालत पर उसको मदद करने के आरोपी बरी हो गये थे। कसाब को कानून के अनुसार दण्ड दिलाना देश में कानून के शासन का प्रमाण है जिसके कारण ही यही सुविधा महात्मा गान्धी और इन्दिरा गान्धी के हत्यारों को भी मिली थी। सरकार पर वोट बैंक के लिए कसाब को सुविधाएं देने के आरोप लगाने वाले बहुत ही गन्दी राजनीति कर रहे हैं क्योंकि इस तरह वे परोक्ष में इस देश के मुस्लिम वोटरों पर भी पाकिस्तान के आतंकवादियों के प्रति सहानिभूति रखने का आरोप भी लगा रहे होते हैं।
      इस समय देश कुछ गम्भीर परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और राजनेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने बयानों में न केवल गम्भीर और तथ्यात्मक हों अपितु उनकी भाषा भी संयमित हो। राज्य सभा का एक संसद सदस्य जो अभी जेल में रह चुका है इतना गैर गम्भीर रहा है कि एक रुपये में परमानन्दा दिलाने या झंडू बाम बेचने वाले फिल्मी अभिनेता को देश का राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव देने लगता है। देश के सर्वोच्च पद को इतने सस्ते में लेना देश के लोकतंत्र का अपमान है। राजनीतिक दलों को भी अपने सदस्यों के बयानों पर अनुशासन बनाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, नवंबर 21, 2011

ब्रांड में बदल गये बच्चन परिवार में बेबी बच्चन की आमद


          ब्रांड में बदल गये बच्चन परिवार में बेबी बच्चन की आमद

                                                               वीरेन्द्र जैन
      पिछले दिनों फिल्मी अभिनेता अभिषेक- एश्वर्या दम्पत्ति के यहाँ एक पुत्री ने जन्म लिया है। यह परिवार चकाचौंध वाली फिल्मी दुनिया में हिन्दी भाषी क्षेत्र का सबसे बड़ा स्टार परिवार है, जिसकी लोकप्रियता का प्रारम्भ हिन्दी के सुपरिचित कवि डा. हरिवंश राय बच्चन से होता है। किसी समय इलाहाबाद न केवल संयुक्त प्रांत की राजधानी ही थी अपितु लम्बे समय तक वह हिन्दी साहित्य की राजधानी भी मानी जाती रही। वहाँ स्वतंत्रता संग्राम के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से जवाहरलाल नेहरू और मोती लाल नेहरू ही नहीं रहे अपितु अन्य सैकड़ों लोकप्रिय राष्ट्रीय नेताओं का कार्यक्षेत्र भी इलाहाबाद रहा है। गंगा यमुना का संगम होने के कारण यह एक तीर्थ क्षेत्र है तो अपने विश्वविद्यालय और हाई कोर्ट के कारण भी लाखों लोगों का जुड़ाव उस नगर से रहा है। फिराक, निराला, पंत, महादेवी, उपेन्द्र नाथ अश्क से लेकर बाद की साहित्यिक दुनिया को संचालित करने वाले, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नन्दन, रवीन्द्र कालिया जैसे सम्पादकों का क्रीड़ांगन भी इलाहाबाद ही रहा है। इसी क्षेत्र से निकले हरिवंशराय बच्चन ने उमर खैय्याम की रुबाइयों की तरह मधुशाला रच कर न केवल नया इतिहास रच डाला अपितु हिन्दी कवि सम्मेलनों की नींव भी डाली। इससे पूर्व हिन्दी में केवल गोष्ठियां ही हुआ करती थीं जबकि उर्दू वाले मुशायरे करते थे जो व्यापक श्रोता समुदाय को आकर्षित करते थे। बच्चन की मधुशाला ने अपनी विषय वस्तु से ही एक नया इतिहास रच डाला और खुले आम एक वर्जित वस्तु को विषय बनाकर अपनी बात कही जिसे हिन्दीभाषी समाज में एक सामाजिक विद्रोह भी कह सकते हैं। उर्दू ने यह काम बहुत पहले ही कर दिया था और वे इससे कठमुल्लों को खिजाते रहते थे। उसी तर्ज पर बच्चन की मधुशाला लोकप्रिय हुयी और उसके सहारे कवि सम्मेलनों को भी लोकप्रियता मिलने लगी। उस दौरान लन्दन में पढे अंग्रेजी के प्रोफेसर डा. बच्चन, तेजी जी से प्रेम विवाह करके भी चर्चित हो चुके थे। यह वह दौर था जब प्रेम विवाह को समाज में एक बड़ी घटना की तरह लिया जाता था।
      तेजी बच्चन इन्दिरा गान्धी की मित्र थीं और इसी तरह बच्चन जी के पुत्र अमिताभ को भी इन्दिरा गान्धी के पुत्र राजीव गान्धी से मित्रता का अवसर मिला। इन्हीं सम्पर्कों के अतिरिक्त बल के कारण डा. बच्चन राज्य सभा के लिए बिना किसी निजी प्रयास के नामित हुये थे और इस तरह वे देश के सबसे महत्वपूर्ण परिवार के सबसे निकट थे। जब राजीव गान्धी की शादी हुयी थी तब लड़की वालों अर्थात सोनिया के परिवार का निवास बच्चन जी का घर बना था व तेजी बच्चन ने दुल्हिन सोनिया गान्धी के हाथों पर मेंहदी लगाने की रस्म निभायी थी। कुछ समय कलकत्ते में नौकरी करने के बाद अमिताभ लोकप्रियता से दौलत कमाने के लिए मह्शूर फिल्मी दुनिया में आ गये तथा प्रारम्भिक फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल न होने के बाद भी जमे रहे, क्योंकि उनके पास लोकप्रियता की पृष्ठभूमि थी। इसी के भरोसे वे न केवल अभिनय कला में निरंतर निखार लाने के प्रयोग कर सके जिसमें वे सफल भी हुए। इन्दिरा गान्धी और राजीव गान्धी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान उनके मार्ग की बाधाएं स्वयं ही हट जाती थीं भले ही उन्होंने कभी कोई आग्रह न किया हो। पुराने कलाकारों के परिदृष्य से बाहर होने और समकालीनों के पिछड़ने के कारण वे उद्योग के बेताज बादशाह बन गये। रंगीन टीवी और नई आर्थिक नीति से बाजारवाद आने के बाद उनकी लोकप्रियता के लिए अनेक अवसर खुल गये और वे अपनी लोकप्रियता के सहारे तेल से लेकर ट्रैक्टर तक सब कुछ बिकवाने लगे। यहाँ तक कि एक समय राजीव गान्धी ने भी अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने में उनकी लोकप्रियता को भुनाया था। जब राजीव गान्धी परिवार से उनका मनमुटाव हुआ तो उन्हें अमर सिंह मिल गये जिन्होंने एक दूसरे राजनीतिक पक्ष से उनका सौदा करा दिया। इससे कभी कांग्रेस के सांसद रहे परिवार में न केवल उनकी अभिनेत्री पत्नी जया भादुड़ी को समाजवादी सांसद बनने का मौका मिला अपितु उन पर इनकम टैक्स का नोटिस निकालने पर इनकम टैक्स दफ्तर में तोड़फोड़ करने वाली टोली भी मिल गयी। बाद में उन्होंने 2002 में मुसलमानों के नरसंहार के लिए कुख्यात नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार का ब्रांड एम्बेसडर बनना भी स्वीकार कर लिया।
      इसी लोकप्रियता के बीच उनके पुत्र को अपेक्षाकृत कम योग्यता के बाद भी फिल्मों में स्थान मिला जिसके लिए बच्चन परिवार ने अपने समय की एक प्रतिभाशालिनी सुन्दर नायिका और विज्ञापनों की मँहगी माडल का चुनाव किया जो न केवल उनके पुत्र से अधिक लोकप्रय थी अपितु उम्र में भी दो साल बड़ी थी। इस प्रकार यह परिवार देश में सबसे अधिक विज्ञापन फिल्में करके धन अर्जित करने वाला परिवार भी बन गया। हमारे देश में फिल्में खूब देखी जाती हैं और यह एक बड़ा उद्योग है। फिल्मी पत्रकारिता के स्वतंत्र अस्तित्व के साथ साथ सभी अखबारों में फिल्मों के लिए स्थान निश्चित रहता है और इस जगह को खबरों की भी जरूरत रहती है। जब खबरें नहीं मिलतीं तो खबरें पैदा की जाती हैं। मीडिया के बाहुल्य ने उनके अन्दर प्रतियोगिता पैदा की है और इस प्रतियोगिता ने खबरों को और और चटखारेदार बना कर पेश करने की अनैतिकता को जन्म दिया है। कई बार तो कम चर्चित फिल्मी अभिनेता भी चर्चा में बने रहने के लिए ऐसी खबरों को हवा देते हैं। अभिषेक की शादी से लेकर उसके घर में शिशु जन्म तक इन मीडियावालों ने कई बार अपनी कल्पनाशीलता से खबरें गढी भी हैं। व्यावसायिक हित में खबरों का गढा जाना एक बड़ी सामाजिक बीमारी का ही हिस्सा है जिसमें नई आर्थिक नीति से लेकर लोकप्रियतावाद तक जिम्मेवार है। इस बार शिशु जन्म के समय न केवल अमिताभ को ही मीडिया से अपने ऊपर लगाम लगाने को कहना पड़ा अपितु मीडिया की संस्थाओं ने भी आलोचनाओं से घबरा कर आत्म नियंत्रण की अपील की।
      लड़कियों की घटती संख्या को देखते हुए देश में उनके अनुपात को बनाये रखने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन के सहयोग से अनेक कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं जिनके द्वारा बेटी बचाओ की इतनी सारी अपीलें की जा रही हैं कि बेटी के जन्म को प्रीतिकर दर्शाना पड़ता है। बच्चन परिवार ने भी यही किया किंतु दूसरे संकेत कुछ अलग ही कहानी कहते हैं। उल्लेखनीय है कि अमिताभ-जया ने अपनी बेटी को फिल्मों से दूर रखा है और उसे फिल्मी जगत से अलग एक उच्च औद्योगिक घराने में पारम्परिक ढंग से व्याहा है। पिछले दिनों हमारे समाज में वंशवृक्ष की जगह वंश को अधिक महत्व दिया जाने लगा जबकि वंशवृक्ष तो लड़कियों और उनकी संतानों से भी बढता है। अमिताभ की लड़की के जब बच्चे हुए तब न तो उनके द्वारा अपने पूज्य पिता को याद किये जाने की खबरें आयी थीं और न ही माँ को याद करने की। पर जब उनके पुत्र के घर शिशु जन्म हुआ तो वे खुशी खुशी सबको याद करने लगे। अभिषेक की नानी ने भी कहा कि हमने तो पहले ही कहा था कि लक्ष्मी आयेगी। उन्हें भी आम आदमी की तरह पुत्री के जन्म के हीनता बोध को लक्ष्मी के आने से से पूरी करने का विचार आया, सरस्वती आने का विचार नहीं आया जबकि कलाकारों के परिवारों को तो सरस्वती की कल्पना करना चाहिए थी। एक लोकप्रिय फिल्मी परिवार में किसी को बहुत दिनों तक छुपा कर नहीं रखा जा सकता किंतु जिज्ञासाएं बढा कर महत्व बढाया जा सकता है। ब्रांड बन गये परिवार में इसका भी महत्व होता है।
 वीरेन्द्र जैन
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रविवार, नवंबर 20, 2011

यह फासिज्म की भाषा नहीं तो और क्या है?



यह फासिज्म की भाषा नहीं तो और क्या है                                                             
वीरेन्द्र जैन
      आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने संघ का प्रांतीय स्तर शिविर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री और कांग्रेस के सर्वाधिक मुखर महासचिव दिग्विजय सिंह के मूल निवास क्षेत्र राजगढ में आयोजित किया। अपने मन और वचन में भेद रखने के लिए जाने जाने वाले इस संगठन के प्रमुख ने राजगढ में शिविर रखने के पीछे कारण बताया कि वहाँ पूरे प्रांत में सबसे अधिक शाखाएं हैं, इस कारण से इस स्थान का चुनाव किया गया। इस आंकड़े की सत्यता तो वे ही जानें किंतु यदि यह सच भी है तो भी प्रांतीय स्तर का शिविर आयोजित करने के लिए हमेशा यही कारण नहीं होता रहा है, और न ही वहाँ भी है। उल्लेखनीय है कि इस समय दिग्विजय सिंह के बयान न केवल सर्वाधिक सुर्खियां बटोर रहे हैं अपितु वे अफवाहों से निर्मित माहौल के गुब्बारे में सुई का काम भी करते हैं जिससे संघ परिवार द्वारा रचे गये झूठ का पर्दाफाश हो जाता है। धार्मिक आस्थाओं वाले समाज में भाजपा जिस तरह से धार्मिक भावनाओं का अपने पक्ष में विदोहन करती है, वह भी दिग्विजय सिंह के सामने नहीं चल पाता क्योंकि उनके द्वारा भी समान रूप से धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक नेताओं से निकट सम्बन्ध रखा रखा जाता है। यहाँ तक कि बामपंथी उन पर सौफ्ट हिन्दुत्व अपनाने तक का आरोप लगाते रहे हैं। परिणाम यह निकला है कि मँहगाई, भ्रष्टाचार आदि के कारण अलोकप्रिय हो रहे यूपीए गठबन्धन में वे कूल-कूल कांग्रेस की गर्म धड़कन बने हुए हैं। कांग्रेस के विरोधी तो यह भी आरोप लगाते हैं कि राहुल गान्धी उन्हीं की सलाह पर चलते हैं। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद उन्होंने दस साल तक कोई पद न लेने की घोषणा की हुयी थी जिस पर उन्होंने तब से पूरी ईमानदारी से अमल किया व अब इसकी अवधि समाप्त होने के करीब है। इससे प्रदेश में सत्तारूढ भाजपा में घबराहट है। नव गठित प्रदेश कांग्रेस कमेटी में भी जिन लोगों को पद दिये गये हैं वे भी उन्हें अपेक्षाकृत अपना प्रिय और सक्षम नेता मानते हैं, व इसी कारण अपनी निष्क्रियता छोड़ चुके हैं। ऐसी दशा में संघ प्रमुख द्वारा बताया गया राजगढ में ही संघ द्वारा प्रांतीय शिविर आयोजित करने का कारण हजम नहीं होता। इसकी पृष्ठ्भूमि में अगले आम चुनावों में दिग्विजय सिंह के खिलाफ काम करने की आधारभूमि तैय्यार करने की योजना ही नजर आती है।  
      इस अवसर पर संघ प्रमुख ने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि वे दिग्विजय जैसे नेताओं के बयानों से विचलित न हों और न उनके विरोध में भाषणबाजी करें। अपने काम को आगे बढाएं। यह बयान फासिज्म का संकेत देता है। लोकतंत्र में सारे हल बातचीत से निकाले जाते हैं और बहुमत का निर्णय स्वीकार किया जाता है। राराजनीतिक दलों के नेताओं के बयान से अगर असहमति है तो उसका विनम्र प्रतिवाद किया जा सकता है, आम सभाएं की जा सकती हैं, समाचार पत्रों में लेख लिखे जा सकते हैं किंतु किसी बात का जबाब ही न देना किस बात का संकेत है। फासिज्म में दल प्रमुख का कथन ही अंतिम होता है और वहाँ बात करने या बहस करने की अनुमति नहीं होती। असहमति की दशा में बात का जबाब लाठी से दिया जाता है या दमन के दूसरे दूसरे साधनों का उपयोग किया जाता है। आखिर क्या कारण है कि संघ के लोग दिग्विजय सिंह की बात के उत्तर में या तो अनाप शनाप गालियां बकने लगते हैं, फेसबुक या ट्वीटर पर छद्म नामों से गन्दी गन्दी भाषा में कमेंट्स करने लगते हैं, या काले झंडे दिखाने के नाम पर हिंसा करने लगते हैं। पिछले दिनों से लगातार यह फैलाया जा रहा है कि दिग्विजय सिंह के बयानों से कांग्रेस का वोट बैंक घट रहा है, या उन्हें पागलखाने भेजने की बात की जा रही है, पर उनके किसी बयान का जबाब नहीं दिया जा रहा है। यह अपराध बोध का परिणाम है क्योंकि वे जानते हैं कि दिग्विजय सिंह के बयान तथ्यात्मक रूप से गलत नहीं होते और अगर बहस में उतरे तो कहीं टिक नहीं पायेंगे। दूसरी ओर उनके बयानों का जबाब काम से देने को कहा गया है। ऊपर से देखने पर यह एक शांत बयान लगता है किंतु वैसा है नहीं। आखिर आरएसएस काम क्या करता है? घोषित रूप से यह एक सांस्कृतिक संगठन है किंतु उनके सदस्य किसी भी कला विधा के लिए वे नहीं जाने जाते। उनके संगठन में कोई भी बड़ा कलाकार या बुद्धिजीवी नहीं है। वे शाखाओं में खेल कूद के बहाने अपरिपक्व बुद्धि के बच्चों को एकत्रित करते हैं और बौद्धिक के नाम पर उनमें साम्प्रदायिकता का जहर भरने के लिए जाने जाते हैं। उनके संविधान से लेकर उनकी ड्रैस और कार्यप्रणाली सभी हिटलर की पुस्तक मीन कैम्फ और उसके संगठन से प्रभावित है। वे शाखाओं में लाठी और दूसरे अस्त्र चलाना सिखाते हैं, तलवारें लेकर पथ संचालन करवाते हैं। परिणाम यह निकलता है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान इन्हीं शाखाओं से निकले लोगों को ही हिंसा में लिप्त देखा जाता है। विहिप और बजरंग दल आदि इन्हीं के अनुषांगिक संगठन हैं जिनके कारनामे आये दिन समाचार पत्रों में देखे जा सकते हैं। अगर वे किसी आपदा में काम भी करते हैं तो उसमें भी उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि ही काम करती है, और अपने धार्मिक समुदाय के लोगों को प्राथमिकता के आधार पर सहयोग करना व दूसरों की उपेक्षा करना भी देखने में आया है। ऐसी दशा में किसी बात का जबाब अपने काम से देने के निर्देश का आशय स्वयं में ही स्पष्ट है।
      पिछले दिनों से संघ की सारी गतिविधियों का केन्द्र मध्यप्रदेश होता जा रहा है जहाँ न केवल संघ से निकला व्यक्ति मुख्यमंत्री है अपितु वह संघ के आदेशों के प्रति इतना समर्पित है कि अपने व अधिकारियों के विवेक से बाहर भी संघ के आदेशों और आशयों पर अमल करता है। जहाँ गुजरात, उत्तराखण्ड, हिमाचल आदि भाजपा शासित क्षेत्रों में मुख्यमंत्री संघ के आदेशों का पालन करते समय जन भावनाओं की उपेक्षा नहीं करते वहीं मध्यप्रदेश में आँख मून्द कर संघ के आदेशों पर अमल किया जाता है। यही कारण है कि संघ के पूर्व प्रमुख को कार्यमुक्ति के बाद पूरा हिन्दुस्तान छोड़ कर मध्यप्रदेश ही पसन्द आया। ऐसे में अगर एक क्षेत्र विशेष में शिविर करते हुए संघ के प्रमुख अपने स्वयं सेवकों को बातचीत की जगह काम से जबाब देने की बात कहते हैं तो उसमें कहीं न कहीं फासिस्ट ध्वनियां सुनायी देती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, नवंबर 08, 2011

मीडिया पर जस्टिस मार्कण्डेय के विचार और घालमेल का संकट

मीडिया पर जस्टिस मार्कण्डेय के विचार और घालमेल का संकट 
वीरेन्द्र जैन
      एक बार फिर से आम पढा लिखा व्यक्ति दुविधा में है। वह जब जिस कोण से बात सुनता है उसे उसी की बात सही लगती है और वह समझ नहीं पाता कि सच किस तरफ है। दर असल दोष उसका नहीं है अपितु एक ही नाम से दो भिन्न प्रवृत्तियों को पुकारे जाने से यह भ्रम पैदा होता है।
      जैसे हमने किसान और कुलक[बड़ा किसान] को एक साथ किसान के नाम से पुकारा इसलिए किसानों की आत्महत्याओं से उपजी चिंताओं का लाभ ये कुलक उठा रहे हैं और किसान लगातार आत्महत्या किये जा रहे हैं। यही कुलक किसान नेता के नाम पर पंचायती राज व्यवस्था में पंच, सरपंच, जनपद अध्यक्ष, तथा विधायक, सांसद मंत्री आदि बन कर देश की लूट में हिस्सेदारी करते हैं और कृषि के नाम पर आयकर से लेकर अन्य बड़ी बड़ी छूटें, अनुदान आदि लेते रहते हैं। जब अतिरिक्त बड़ी आमदनी पर टैक्स लगाने का सवाल आता है तो ये जमींदार खेतों में पसीना बहाने वाले किसान का मुखौटा लगा कर प्रकट होते हैं व सरकार को कोसने लगते हैं जिससे सरकार दबाव में आ जाती है। दूसरी ओर मेहनत करने वाला किसान और खेत मजदूर कोई लाभ नहीं उठा पाता, व कर्ज के बोझ तले दबा दबा आत्महत्या की स्थिति तक पहुँच जाता है।
      प्रैस काउंसिल आफ इंडिया का अध्यक्ष बनने के बाद उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय ने मीडिया के बारे में जो कुछ भी कहा उसकी भाषा बहुत कठोर है और वह एक ओर से सही होते हुए भी पूरे मीडिया पर लागू नहीं होती, क्योंकि मीडिया का एक वर्ग मुनाफा कमाने वाला उद्योग बन गया है। यही कारण है कि जिस आशंका पर मीडिया की जुबान पर नियंत्रण लगाने और एमरजैंसी जैसे हालात की बात की जा रही है वह मीडिया के माफिया गिरोहों के भय को अधिकप्रकट अकर रही है। सच तो यह है कि जिस मीडिया को एक पवित्र गाय समझा जाता रहा था उसके एक हिस्से ने भेड़िये का रूप ग्रहण कर लिया है और जब उसको नियंत्रण में लाने की बात की जाती है तो पवित्र गाय को आगे कर दिया जाता है। जब से मीडिया बड़ी पूंजी पर आश्रित हो गया है तबसे उसका स्वरूप ही बदल गया है और वह समाचार व विचार देने की जगह प्रचार एजेंसी में बदल गया है, और समाचार भी सच्चाइयों से दूर होकर विज्ञापनों की ही दूसरी किस्म में बदल गये हैं जो भुगतान पर वस्तुओं के अतिरंजित प्रचार की तरह ही व्यक्तियों, दलों, संस्थाओं के साथ अपराधियों और दूसरे समाज विरोधी तत्वों की वैसी छवि प्रस्तुत करने लगते हैं जैसी वे चाहते हैं। इतना ही नहीं कि वे अपने पास आये व्यक्तियों को ही उपकृत करते हैं अपितु वे स्वयं ही उनके पास जाकर सौदा करने लगे हैं। टूजी स्पैक्ट्रम वाले मामले में नीरा राडिया के टेपों से जो खुलासे हुये हैं उनसे तो मीडिया को मीडियेटर कहा जाने लगा है।
      गत लोकसभा चुनाव में भाजपा के लालजी टंडन ने उत्तर प्रदेश के एक बड़े अखबार द्वारा सौदे की पेशकश करने का खुलासा किया था तो मध्य प्रदेश में भाजपा की ही सुषमा स्वराज ने एक अखबार द्वारा दो करोड़ रुपये मांगने का खुलासा किया था, पर दोनों नेताओं ने चुनाव निबत जाने के बाद अखबार पर किसी कार्यवाही की जरूरत नहीं समझी और न ही इसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाना चाहा। भाजपा के ये दोनों उम्मीदवार तो उनके शिखर के नेता हैं इसलिए वे बड़ी राशि माँगे जाने पर इंकार कर सके पर जिन कम चर्चित नेताओं के गुणगान करते हुए उनके जीतने की सम्भावनाओं की अतिरंजित खबरें ये अखबार छापते रहे हैं उन्होंने अवश्य ही इन अखबारों समेत दूसरे कई मीडिया संस्थानों के साथ सौदे किये होंगे। दूसरे दलों के नेताओं ने भी ऐसा ही कुछ किया होगा।
      सवाल यह है कि इस सच्चाई के बाद भी क्या इन आधारों पर पूरे मीडिया को एक ही लाठी से हांका जा सकता है? पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित मीडिया के अलावा मीडिया का एक हिस्सा ऐसा भी है जो निष्पक्ष होकर सच को सच कहते हुए पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है और समय समय पर सत्त्ता में प्रवेश कर गयी विकृत्तियों को भी अपने स्टिन्ग आपरेशंस आदि से देश हित में उजागर करता है। इससे सत्ता से जुड़े निहित स्वार्थ उनके दुश्मन हो जाते हैं और उन्हें नुकसान पहुँचाना चाहते हैं। यदि मीडिया के खिलाफ कोई कड़ा कानून लाया जाता है तो वो इन निहित स्वार्थों द्वारा ईमानदार मीडिया को प्रताड़ित करने का साधन भी बन सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि रास्ता इनके बीच में से निकाला जाये जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी टूटने से बच जाये। जस्टिस मार्कण्डेय एक खरे व्यक्ति हैं और उनके कार्यकाल के फैसले बताते हैं कि वे हमेशा ही व्यवस्था में घर कर गयी विकृत्तियों के प्रति चिंतित रहे हैं। सामने नजर आ रहे दोषों और उन दोषों के लिए जिम्मेवार लोगों के प्रति वे नरम नहीं रह पाते, व कटु सत्य बोलते हैं। उन्होंने न्याय व्यवस्था और न्यायधीषों के खिलाफ भी कटु टिप्पणियाँ की हैं।
      आईबीएन-सीएनएन पर करण थापर को दिये साक्षात्कार के विवादास्पद मुद्दों को लें तो उससे स्पष्ट होता है कि उनकी सारी आपत्तियां सेठाश्रित मीडिया और सेठाश्रित व्यवस्था के प्रति हैं। वे कहते हैं कि
 मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक समस्याओं से हटा देता है जो कि आर्थिक हैं। देश के अस्सी फीसदी लोग मुफलिसी में जी रहे हैं। वे बेरोजगारी, मँहगाई और स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं से जूझ रहे हैं जिससे ध्यान हटाकर फिल्मी सितारों, फैशन परेडों और क्रिकेट का मुजाहिरा करते हैं।
मीडिया अक्सर लोगों को बाँटने का काम करता है। उदाहरण के लिए जब भी मुम्बई, दिल्ली, बंगलौर आदि में बम विस्फोट होता है तो कुछ ही घंटों में तकरीबन हर चैनल दिखाने लगता है कि एक ई-मेल या एसएमएस आया है कि इंडियन मुजाहिदीन ने वारदात की जिम्मेवारी ली है, या जैशे मोहम्मद या हरकत उल जिहाद का नाम लिया जाता है। कुछ मुसलमान नाम आते हैं। देखने वाली बात यह है कि इस तरह के ई-मेल और एसएमएस कोई भी शरारती आदमी भेज सकता है। लेकिन टीवी चैनलों में यह दिखा कर और अगले महीने अखबारों में छाप कर आप महीन ढंग से यह सन्देश देते हैं कि सभी मुसलमान दहशतगर्द और बम फेंकने वाले हैं। इस तरह आप एक समुदाय को बुरा बना रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि सभी समुदायों में निन्यानवे प्रतिशत लोग चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान अच्छे हैं।
मुझे यह कहने में अफसोस है कि मीडिया के ज्यादातर लोगों के विवेक का स्तर कफी निम्न है। मुझे इस बात पर शुबहा है कि उन्हें आर्थिक सिद्धांतों, राजनीति शास्त्र, दर्शन या साहित्य के बारे में कुछ पता होगा। मुझे शक है कि उन्होंने ये सारी चीजें पढी होंगी, जो उन्हें पढना चाहिए।
कई चैनल ज्योतिष दिखा रहे हैं, यह राशि है वह रशि, अखिर यह सब है क्या?
हर कोई लोकतंत्र में जबाबदेह है। कोई भी आजादी पूर्ण नहीं है। हर आजादी के लिए तर्कसंगत पाबन्दियां जरूरी हैं

जस्टिस मार्कण्डेय के उक्त विचारों से लगता है कि देश में कोई ऐसी ताकतवर लाबी है जो यह नहीं चाहती जनता की मुफलिसी, बेरोजगारी, मँहगाई,और स्वास्थ सम्बन्धी सवाल सामने आयें वही लोग मीडिया में क्रिकेट फैला दे रहे हैं, जो अफीम की तरह है। मीडिया जो जानबूझ कर एक खास अल्पसंख्यक समुदाय को आतंकी घटनाओं के प्रति जिम्मेवार ठहराने की कोशिश करता है वह यह विभाजन पैदा करके किस को लाभ पहुँचाना चाहता है और ऐसा करने के लिए उसे निश्चित रूप से बहुसंख्यकों की राजनीति करने वाली पार्टी ही प्रोत्साहित कर रही होगी। स्मरणीय है कि अभी हाल ही में अडवाणी की यात्रा के दौरान सतना में पत्रकारों को एक एक हजार रुपयों के लिफाफे देने वाला पकड़ा गया था ।
      इसी मीडिया का चरित्र चित्रण करती हुयी एक फिल्म पीपली लाइव कुछ समय पहले दिखायी गयी थी। इसे देख कर भी मीडिया को बिल्कुल भी शर्म नहीं आयी तथा उसकी घटिया हरकतें जारी रहीं, पर जनता ने जिस उत्साह के साथ उसका स्वागत किया उससे लगता है जनता को मीडिया की ऊटपटांग हरकतें पसन्द नहीं आ रहीं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह जनता ने अन्ना हजारे ही नहीं अपितु रामदेव तक का स्वागत किया उससे उसके मूड का पता चलता है। मीडिया घरानों की सम्पत्तियां जिस ढंग से उत्तरोत्तर बढ रही हैं और वे आईपीओ तक लाने लगे हैं, दूसरी ओर नये पत्रकारों की बेरोजगारी का लाभ लेते हुए उसे छोटी छोटी राशि का लाली-पाप पकड़ा कर मन चाहा लिखने को मजबूर कर रहे हैं। इससे लगता है कि जस्टिस मार्कण्डेय के विचार को जनता का समर्थन मिलेगा। यदि हम अच्छे और बुरे मीडिया के बीच के अंतर को उजागर कर नियम बनवा सकें तो गेंहू के साथ घुन पिसने से बच सकता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
 

गुरुवार, नवंबर 03, 2011

आरोपियों के छूट जाने पर खुश होने वाली मध्य प्रदेश सरकार

आरोपियों के छूट जाने पर खुश होने वाली म.प्र. सरकार
                                                              वीरेन्द्र जैन
     कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकार के अंतर्गत आता है इसलिए उसकी जिम्मेवारी बनती है कि घटित अपराध के अपराधियों को पकड़ा जाये और उन पर सही ढंग से विवेचना करके सजा दिलवायी जाये। सजा दिलवाने का मतलब केवल अपराधियों को दण्डित करना ही नहीं होता अपितु समाज के सामने ऐसा उदाहरण रखना भी होता है जिससे कि दूसरे लोग वैसा दुस्साहस न करें। यह दुखद है कि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार अपने इस कार्य को भी राजनीतिक चश्मे से देखती है। संघ परिवार से जुड़े लोगों की न केवल जाँच में ही लीपीपोती की जाती है अपितु पीड़ित पर दबाव डालकर समझौते के लिए मजबूर करने से लेकर अभियोजन को कमजोर करने तक से अपराधियों को लाभ पहुँचाया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे अपराधी भाजपा नेताओं के शरणागत होकर काम करने में ही अपनी सुरक्षा देखने लगे हैं। प्रदेश की राजधानी तक में आये दिन बैंक और एटीएम लूटे जा रहे हैं और सक्रिय लोगों की हत्याएं हो रही हैं। इन घटनाओं की निरंतरता यह बताती है कि अपराधियों को कानून का कोई भय नहीं है। जब अपराधी दबंग होता है और न्याय दिलाने के लिए जिम्मेवार संस्था आरोपी से मिली हुयी नजर आती है तो पीड़ित स्वयं ही अपने आरोप वापिस ले लेने में ही अपनी भलाई समझता है। जब अभियोजन कमजोर होता है और भय या लालच में गवाह पलटने को विवश हो जाते हैं तो अपनी पूरी ईमानदारी के बाबजूद न्याय भी मजबूर हो जाता है।
     स्मरणीय है कि उज्जैन के एक प्रोफेसर की टीवी कैमरा के सामने धमकाने के बाद हत्या कर दी जाती है व सत्तारूढ दल से जुड़े छात्र संगठन के सदस्य धमकाते हुए न्यूज चैनल पर देखे जाते हैं। लोक लिहाज वश उन्हें गिरफ्तार भी करना पड़ता है तो वे कारागार की जगह अस्पताल में मेहमाननवाजी करते हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री काजू किशमिश लेकर उनसे मिलने जाते हैं। सच्चाई बहु प्रचारित होने के कारण उसकी सुनवाई प्रदेश से बाहर करवाने की व्यवस्था की जाती है किंतु भयभीत गवाह और अभियोजन जिनके आधार पर न्यायालय फैसले देते हैं वे तो प्रदेश सरकार के नेतओं के प्रभाव में ही रहते हैं इसलिए आरोपियों को मुक्त करते हुए भी न्यायालय को लिखना पड़ता है कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में विफल रहा। दूसरी ओर अभियोजन पक्ष की पैरवी करने वाले वकील का कहना था कि अभियोजन नहीं जाँच एजेंसी हारी है जिसने साक्ष्य एकत्रित करने में सावधानी नहीं बरती और सभी गवाहों को पलट जाने दिया। यह मामला भी आम आपराधिक मामलों जैसा ही हो जाता जिनमें आरोपी मुक्त हो जाते हैं किंतु इसकी भिन्नता यह थी कि मुक्त हुये आरोपियों को बीमारी के बहाने अस्पताल में रखा गया था जो स्वतंत्र रूप से घूमते फिरते थे और एक प्रैस फोटोग्राफर द्वारा उनकी फोटो खींचने का प्रयास करने पर वे दौड़ कर सीड़ियां चढते हुए तीसरी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। मुख्यमंत्री उनको आश्वस्त करने के लिए पहुँचते हैं और जब वे छूट कर आते हैं तो नगर में उनका विजय जलूस निकलता है जिसमें प्रदेश सरकार का खुशी से नाचता हुआ एक मंत्री कहता है कि आज वह इतना खुश है जितना मंत्री बनने पर भी नहीं हुआ था। आरोपियों पर मुकदमा प्रदेश शासन ने चलाया था और उनके छूट जाने से प्रदेश सरकार की कमजोरी ही प्रकट हुयी थी फिर भी उसी सरकार का एक मंत्री नाचता हुआ विजय जलूस में चल रहा था। मारा गया प्रोफेसर उच्च शिक्षा से जुड़ा हुआ शिक्षक थ और अपनी ड्यूटी करता हुआ मारा गया था इसलिए सरकार की अतिरिक्त जिम्मेवारी थी कि वह अपराधियों का पता लगाये और अपराधियों को सजा मिलना सुनिश्चित करे किंतु कोर्ट के फैसले की ओट में सरकार भी चुप होकर बैठ गयी जिससे उसकी संलिप्तता का पता चलता है।
     इसी तरह राजधानी में शीतल ठाकुर गोला काण्ड है जिसमें आज से तीन साल पहले चिकित्सा विज्ञान की एक छात्रा को गोली मारी गयी थी और आरोप में एक वरिष्ठ  पुलिस अधिकारी व एक डाक्टर का नाम आया था। पुलिस अधिकारी ने अपनी सफाई में कहा था कि उसका प्रमोशन रुकवाने के लिए उसे झूठा फँसाया जा रहा है। उसके बाद यह छात्रा राजधानी से बाहर चली गयी और पुलिस मामले को दबाये हुए बैठी रही। पिछले दिनों बहुत दबाओं के बाद यह छात्रा राज्य मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यीय जाँच दल के सामने उपस्थित हुयी और उसने अपना बयान दिया कि 11 अप्रैल को रात्रि आठ बजे वह हबीबगंज रेलवे स्टएशन पर अपने मित्र शांतुन से मिलने जा रही थी तब बिट्टन मार्केट स्वीमिंग पूल के पास उसे गोली लगी। उसी समय चार पाँच गाड़ियां भी गुजर रही थीं और संयोग से ठीक उसी समय उसके परिचित डाक्टर देवानी भी वहीं से निकले जो [सरकारी अस्पताल ले जाने के बजाय] उसे प्राइवेट अस्पताल ले गये और पट्टी करने के बाद एक्सरे निकाले जिसमें लीवर और किडनी के बीच गोली फँसी मिली जो अभी तक उसके शरीर में है।  उसने यह भी बताया कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने उसके नाम से मुख्यमंत्री को अठारह शिकायतें भिजवायीं हैं। पुलिस इस मामले में सदैव निष्क्रिय रही। उसे यह भी चिंता नहीं हुयी कि उसके एक वरिष्ठ अधिकारी का प्रमोशन रोकने के लिए यदि ऐसा षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया गया है तो वो उस षड़यंत्रकारी का पता लगाये जो शासन के काम में बाधा पैदा कर रहा है। पुलिस में सही स्थान पर सही आदमी का पहुँचना ही प्रदेश के हित में है। क्या ऐसे गम्भीर मामले में पीड़ित के बयान के बाद, जो दबाव और लालच में दिया गया मालूम देता है, फाइल को बन्द कर देना उचित होगा? वस्तुगत सवाल मामले की जाँच का है। पुलिस ने इस मामले में उदासीनता दिखाते हुए छात्रा को शहर से बाहर क्यों नहीं तलाशा और बयान क्यों नहीं लिये। ठीक घटना स्थल पर ही एक सुपरिचित डाक्टर की उपस्थिति और प्राइवेट अस्पताल में ट्रीटमेंट क्या एक संयोग भर है। पीड़िता और आगे कार्यावाही क्यों नहीं चाहती। ये ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर जानने बहुत जरूरी है, ताकि सतह के नीचे चल रही हलचलों को टटोला जा सके।
     ये तो कुछ नमूने हैं अन्यथा रूसिया प्रकरण जिसमें एक विधायक पर उठे कई सवाल अनुत्तरित रह गये हैं जो शासन और प्रशासन की सोनोग्राफी कर सकते हैं, उन्हें अनुत्तरित ही छोड़ दिया गया। एक विधायक और उनके पति भी एक छात्रा और नौकरानी की हत्या के मामले में अभियुक्त हैं और जब विधायक के पति जेल से कोर्ट में आते हैं तो पुलिस अधिकारी अपनी वर्दी में उनके पैर छूते देखे जाते हैं और सरकार चुपचाप देखती रहती है। शहला मसूद आदि की घटनाएं तो अब अखबार वाले तक भूलते जा रहे हैं। नगर में ट्रैफिक नियंत्रण के लिए पुलिस सत्तारूढ दल के नेताओं से कुछ नहीं कह सकती है और कार्यावाही करने पर उन पर हमले कर दिये जाते हैं।
     सवाल यह ही नहीं है कि अदालत के सामने किस प्रकरण को किस तरह से प्रस्तुत किया गया और क्या फैसला मिला, सवाल यह भी है कि क्या सरकार लोगों को न्याय दिलाना चाहती है या नहीं और वह जनता के साथ है या अपराधियों के साथ है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अक्तूबर 15, 2011

अडवाणी-मोदी मतभेद का प्रचार कहीं पुरानी चाल तो नहीं

            अडवाणी-मोदी मतभेद का प्रचार कहीं पुरानी चाल तो नहीं
                                                            वीरेन्द्र जैन
      पिछले दिनों मीडिया द्वारा अगले प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा उम्मीदवार के लिए वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी और नरेन्द्र मोदी के बीच प्रतियोगिता होने की कहानियां बड़े जोर शोर से प्रचारित की जा रही हैं। इस प्रचार से प्रभावित होकर भाजपा की स्वस्थ समीक्षा करने वाला मीडिया भी उनकी पुरानी चाल में फँसता नजर आ रहा है। सच तो यह है कि संघ परिवार का भाजपा नामक राजनीतिक मोर्चा अच्छी तरह जानता है कि उसकी साम्प्रदायिक नीतियों के कारण भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग उन्हें पसन्द नहीं करता, पर वे इस बात को भी जानते हैं कि साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक ऐसा वर्ग भी है जो आक्रामक हिन्दुत्व की छवि का प्रशंसक है और वही उनका आधार है। सत्ता में आने और गठबन्धन का नेतृत्व करने के लिए उसे दोनों तरह की शक्तियों को साधना जरूरी होता है इसलिए वे दुहरेपन के सबसे बड़े प्रतीक की तरह प्रस्तुत होते हैं।
      स्मरणीय है कि स्वतंत्रता के बाद जनसंघ के विस्तार के पूर्व हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व हिन्दू महासभा करती थी, जिसकी जगह ही धीरे धीरे जनसंघ ने हथिया ली थी जो न केवल हिन्दुत्व की ही बात करती थी अपितु उसके ऊपर देशभक्ति का एक मुखौटा भी लगा कर चलती थी। स्वत्रंता संग्राम के दौर में देश भक्ति के प्रति समाज में गहरा सम्मान था, पर इस संग्राम में संघ ने भाग नहीं लिया था इसलिए वे इसका मुखौटा लगाने की जरूरत महसूस करते थे व इस मुखौटे के कारण उनकी साम्प्रदायिक कुरूपता छुप जाती थी जो केवल साम्प्रदायिक दंगों के समय ही प्रकट होती थी। जब राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था तो उस नारे का सर्वाधिक उत्साह से स्वागत करने वालों में जनसंघ सबसे आगे थी जिसने संविद सरकारों में घुसपैठ बनाने के लिए कुछ नेताओं की ऐसी छवि प्रचारित की कि वे संघ की साम्प्रदायिक पहचान के विपरीत कुछ उदार दिखें। जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी की ऐसी ही छवि निर्मित कर दी गयी थी, वहीं अडवाणी को आक्रामक हिन्दुत्व के समर्थकों का नेतृत्व करने के लिए छोड़ दिया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ था तब जनता पार्टी का संविधान स्वीकार करने वाले सब गैर कांग्रेसी दलों को अपना अपना दल जनता पार्टी में विलीन करने का आवाहन किया गया था। जनसंघ ने इस प्रस्ताव को एक रणनीति के रूप में स्वीकार करने का ढोंग तो किया किंतु उसके अन्दर ही अन्दर वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रहे। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल होने के मामले में अटल और अडवाणी एक ही भाषा बोलने लगे थे, और जनता पार्टी को उदार व जनसंघ को संकीर्ण दल बतलाने लगे थे। बाद में लोकदल के चौधरी चरण सिंह और राजनारायण ने इनकी गतिविधियों को पकड़ लिया और दोहरी सदस्यता को छोड़ देने की चेतावनी दी। जनता पार्टी का विभाजन भी इसी दोहरी सदस्यता के कारण हुआ और देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का पतन भी इसी दोहरी मानसिकता के कारण हुआ।
      जनता पार्टी के टूटे हुए हिस्सों को पचाने की दृष्टि से इन्होंने अपने पुराने नाम भारतीय जनसंघ को छोड़ कर जनता पार्टी के आगे भारतीय जनसंघ का भारतीय जोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पृष्ठभूमि से निकली सुषमा स्वराज उसी दौर में भाजपा से जुड़ीं। प्रारम्भ में इन्होंने प्रचार के लिए अपनी नीतियों में श्रीमती इन्दिरा गान्धी के समाजवाद की लोकप्रियता को देखते हुए उसे गान्धीवादी समाजवाद के रूप में अपने कार्यक्रम में सम्मलित किया था। यह उसी तरह था जिस तरह सेक्युलरिज्म की लोकप्रियता को देखते हुए ये अपने को सच्चा सेक्युलर और अपने से असहमत दलों को स्यूडो सेक्युलर बताते रहे। बाद में जब इनके चरित्र पर गान्धीवादी समाजवाद  बेतुका लगा तो इन्होंने उससे मुक्ति पा ली थी। स्मरणीय है कि 1985 के चुनावों में जब ये लोकसभा में कुल दो सीटों तक सिमिट गये थे तब इन्हें अचानक चार सौ साल पहले के रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद को मुद्दा बनाने की याद आयी और इन्होंने उसके लिए राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ दिया और अडवाणीजी रथ यात्रा पर निकल पड़े। उसी समय यह सावधानी बरती गयी कि दंगा उत्पादक रथयात्रा अडवाणीजी निकालेंगे और इसी दल के अटल बिहारी साधु से बने दिखेंगे ताकि जरूरत पढने पर उन्हें आगे रख कर गैर कांग्रेसी दलों से समर्थन जुटाया जा सके। स्मरणीय है कि 5 दिसम्बर 1992 को लखनउ में हुयी बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी भी मौजूद थे जिन्हें बाबरी मस्जिद ध्वंस की योजना का पता तो था पर योजनानुसार उन्हें उससे दूर रख कर दिल्ली सरकार के साथ और संसद में गोलमोल दलीलें देने का कार्य सौंपा गया था। यह भी स्मरणीय है कि इस अवसर पर अटलजी ने संसद में कहा था कि जिस समय बाबरी मस्जिद टूट रही थी तब अडवाणीजी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, और अडवाणीजी तो कारसेवकों को रोक रहे थे पर वे मराठीभाषी होने के कारण उनकी भाषा नहीं समझ सके थे। यह बात अलग है कि प्रत्येक चुनाव में अडवानीजी प्रचार करने के लिए महाराष्ट्र जाते रहे हैं और हिन्दी में ही वोट मांगते रहे हैं।
      1998 में सरकार बनने पर अटल बिहारी की अलग सी छवि काम आयी और समर्थन देने वाले बाइस दलों में से बीस ने केवल अटलजी के नाम पर ही समर्थन दिया था। कभी बामपंथियों के गठबन्धन में सम्मलित रही तेलगुदेशम ने तो मंत्रिमण्डल में सम्मलित हुये बिना ही बाहर से समर्थन दिया था जो गठबन्धन का सर्वाधिक सद्स्यों वाला दल था। इस अवसर पर उसने कहा था कि वह सिर्फ और सिर्फ अटलजी को ही समर्थन दे रहा है। इसी तरह ममता बनर्जी, रामविलास पासवान, जयललिता, नवीन पटनायक, फारुख अब्दुल्ला, शरद यादव, आदि ने संघ से असहमति दर्शाते हुए अटल जी के नाम पर ही समर्थन देकर धर्म निरपेक्ष जनता के बीच अपना चेहरा बचाया था।
      भाजपा, जो अब फिर से सत्ता में आने के सपने देखने लगी है, ने एक बार फिर एक चेहरा उदार और एक कट्टर दिखाने का खेल प्रारम्भ कर दिया है। सम्भावित प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात में 2002 के बदनाम मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सबसे कट्टर प्रचारित कर के यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि लाल कृष्ण अडवानी उदार चेहरा हैं इसलिए कट्टर नरेन्द्र मोदी को आने से रोकने के लिए उन्हें स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। एक ओर जहाँ एनडीए के सबसे बड़े हिस्सेदार दल के नीतीश कुमार, नरेन्द्र मोदी के हाथ के साथ हाथ उठाते हुए फोटो छ्पने के बाद भाजपा कार्यकारिणी को दिया जाने वाला लंच केंसिल कर देते हैं और मोदी को विधानसभा चुनाव के प्रचार हेतु बिहार आने पर गठबन्धन तोड़ देने की धमकी देते हैं, वहीं सोची समझी नीति के अंतर्गत वे अडवाणी के रथ को हरी झण्डी दिखा कर उन्हें उदारता का प्रमाण पत्र दे रहे होते हैं। गत वर्षों में जिन्ना की प्रशंसा पर अडवाणीजी को अध्यक्ष पद से निकाल बाहर कर देना भी उनकी छवि को उजली करने की तरह था, पर बाद में हुए लोकसभा चुनाव में उन्हें ही प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाना भी एक चालाकी का ही हिस्सा रहा होगा। जाहिर है कि बहुत सारे उदारवादी लोग मोदी के कारनामों से आतंकित होकर अडवाणी को समर्थन देने की सोच सकते हैं, और फिर से धोखा खा सकते हैं। सच तो यह है कि ऊपर से भोले दिखने वाले मोदी और अडवाणी में कोई मतभेद नहीं है। वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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