शनिवार, दिसंबर 31, 2011

दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर और् शिक्षा माफिया,


राजनीतिक दलों में उद्योगपति, भूमाफिया, बिल्डर, और शिक्षामाफिया
                                                               वीरेन्द्र जैन
      कोई भी भारतीय नागरिक देश में चुनाव आयोग के पास  पंजीकृत डेढ हजार दलों में से [कैडर आधारित एक बामपंथी दल को छोड़ कर] किसी भी दल की सदस्यता सरलता पूर्वक ग्रहण कर सकता है और शायद ही किसी दल ने सदस्यता के लिए आवेदन करने वाले नागरिक को साधारण सदस्य बनाने से इंकार किया हो। जो दल साम्प्रदायिक समझे जाते हैं वे भी दूसरे समुदाय के सदस्य मिलने पर अपने ऊपर लगे दाग को धोने का नमूना बनाते हुए उसे खुशी खुशी सदस्यता देते हैं, और अन्यथा न जीतने की सम्भावना वाली सीटों से टिकिट भी देते हैं।
      पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने स्वच्छ चुनाव कराने की दृष्टि से कुछ  नियमों का पालन करना अनिवार्य तो किया है पर दलों पर ऐसी कोई आचार संहिता लागू नहीं की गयी है जिससे वे हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों के अनुसार ही आचरण कर के एक आदर्श लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करें। आज हमारे अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल अनेकानेक विकृत्तियों के शिकार हैं और ऎन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने व उसका दुरुपयोग करने का प्रयास करने वालों के गिरोह बन गये हैं। किसी दल का व्यय कैसे चलता है इसकी जानकारी ना तो चुनाव आयोग को होती है और ना ही यह जानकारी सार्वजनिक  होती है। आज जब चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी सम्पत्ति घोषित करना और चुनाव खर्च का दैनिक अडिट होना अनिवार्य कर दिया गया है तो उन उम्मीदवारों को टिकिट देने वाले राजनीतिक दलों के आय व्यय को गोपनीय क्यों रहना चाहिए। जो दल देश के शासक बन सकते हैं उन्हें पारदर्शी होना चाहिए।
      किसी उद्योग द्वारा किसी दल को चन्दा देना कहाँ तक उचित है? यह काम अगर कोई व्यक्ति करता है तो एक मतदाता के रूप में यह उसकी व्यक्तिगत पसन्दगी नापसन्दगी का सवाल होता है किंतु प्रतिष्ठान के रूप में किसी कम्पनी द्वारा किसी दल को चन्दा देने का सीधा सीधा मतलब होता है कि वह एक अनुचित पक्षधरता की चाह में दी गयी रिश्वत है, ताकि सरकार बनने की स्तिथि में उक्त दल उनका मददगार हो। ऐसा होता भी है। रोचक यह है कि एक ही औद्योगिक संस्थान एक से अधिक दलों को चुनावी चन्दा देते हैं जो निश्चित रूप से चुनावी चन्दा नहीं हो सकता क्योंकि एक वोट देने की क्षमता रखने वाला कोई व्यक्ति या कम्पनी का निदेशक भिन्न विचारधारा वाले एक से अधिक दलों में विश्वास कैसे व्यक्त कर सकता है। यह परोक्ष में एक व्यापारिक सौदेबाजी ही होती है। नीरा राडिया के टेप्स और जनार्दन रेड्डी द्वारा अपनी जेब का मुख्य मंत्री बनवाने के बाद वैसे ही प्रधानमंत्री बनवाने का सपना देखने की खबरें इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह बात आज पूरा देश जानता है कि भूमाफिया. खननमाफिया, बिल्डर, शिक्षामाफिया, शासकीय सप्लायर, ठेकेदार, आयातक निर्यातक, उद्योगापति आदि ही सरकारें बनवाने में भूमिकाएं निभा रहे हैं अपने पक्ष में नीतियां बनवा रहे हैं। मंत्री और जनप्रतिनिधि इनसे घिरे रहते हैं तथा उनके दस्तखत किये हुए खाली लैटरहैड उनके ब्रीफकेस में पड़े रहते हैं।
      आम तौर पर दल अपने सिद्धांत और घोषणाएं कुछ और बताते हैं तथा चुनाव के बाद आचरण कुछ और करते हैं। जब कोई छोटी मोटी चीज बेचने वाला अपने पैकिट पर  लिखी सामग्री से कुछ भिन्न बेचती पाया जाता है तो अपराधी माना जाता है किंतु पूरे देश की जनता को धोखा देने वाला किसी कानून के अंतर्गत नहीं आता। चुनाव आयोग के पास दलों को अपने चुनावी लाभ के लिए अपने घोषित सिद्धांतों से विचलित होने को रोकने के कोई अधिकार नहीं हैं और न ही इसके लिए ऐसी ही कोई अन्य संस्था या विभाग कार्यरत है। कुछ दलों को छोड़ कर अधिकतर दल किसी नेता की अपनी महात्वाकांक्षा, उसके जातीय, क्षेत्रीय सम्पर्क या गैर राजनैतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को भुनाने के उद्देश्य से बना लिए जाते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है कि चुनाव आयोग में पंजीकृत कराते समय उसके कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर आयोग द्वारा उससे पूछा जाये कि जब उसके दल के घोषणा पत्र में वे ही सारे विन्दु हैं जो पहले से पंजीकृत दूसरे दल में भी हैं तो वह उस दल के साथ मिलकर काम क्यों नहीं कर सकता! बहुत सारे छोटे दल दूसरे बड़े दलों को चुनावी नुकसान पहुँचाने अर्थात लोकतंत्र की भावना को विचलित करने के लिए बना लिये जाते हैं, जिन्हें परोक्ष में उनके विपक्षी मदद कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर सारी कवायद लोकतंत्र के नाम पर शासन को कुछ निहित स्वार्थों तक केन्द्रित कर देने के लिए होती है। यह बात पहले कभी दबी छुपी रहती थी पर अब जग जाहिर हो चुकी है। किसी भी व्यवस्था में अगर समय रहते सुधार नहीं होते हैं तो फिर विकृतियों से जनित दुर्व्यवस्था के खिलाफ कभी भी अचानक गुस्सा फूट पड़ता है जो सुधार तो नहीं कर पाता पर स्थापित व्यवस्था को नुकसान अवश्य पहुँचा देता है। इसलिए जरूरी है कि उभरती विकृतियों के समानांतर उसके उपचार भी किये जायें। कुछ उपाय निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित किये जा सकते हैं-
  • राजनीतिक दलों और उनके सदस्यों को एक घोषित आचार संहिता में बाँधा जाये, तथा उस का पालन अनिवार्य किया जाय।
  • दलों की सदस्यता को बेकामों, बेरोजगारों की फौज बनाने की जगह अपने दल की घोषणाओं के लिए काम करने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं के रूप में अनिवार्य बनाये जाने के उपाय किये जायें। इसके लिए दलों में पदोन्नति के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण की कक्षाओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
  • दलों द्वारा अपनाये गये सामाजिक सुधार के कुछ निर्देशों का पालन सुनिश्चित कराया जाना चाहिए, जैसे कि सक्षम सदस्यों द्वारा रक्तदान, नेत्र दान, परिवार में टीकाकरण, परिवार नियोजन के आदर्शों का पालन, अपने द्वारा पालित बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, सती प्रथा, दहेज प्रथा, साम्प्रदायिकता का सक्रिय विरोध आदि
  • प्रत्येक सदस्य से आय के अनुपात में लेवी तय की जाना चाहिए।
  • चुनाव के लिए टिकिट दिये जाने के सम्बन्ध में कुछ न्यूनतम पात्रताएं तय की जाना चाहिए। इसमें दल में सदस्यता की अवधि भी एक प्रमुख पात्रता होना चाहिए।
  • किसी दल का सदस्य यदि कोई अपराध करता है तो उसके मूल में दल की सामूहिकता का बल भी उसके ध्यान में रहता है। इसलिए आरोप लगने पर दल द्वारा तुरंत जाँच और उसके अनुसार कार्यवाही का किया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि उसकी आँच दल तक न पहुँचे और कोई दल के भरोसे अपराध करने से बचे।
सभी पंजीकृत दलों में आंतरिक लोकतंत्र को बढावा देकर भी दलों और परोक्ष में देश की शासन व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। इससे कुकरमुत्तों की तरह उग आये जेबी दल भी कम हो कर सच्चे लोकतंत्र को स्थापित होने में सहयोग करेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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