शनिवार, अगस्त 29, 2009

भाजपा के भेदिये

भाजपा के भेदिये
वीरेन्द्र जैन
भाजपा के बारे में उसके शिखर के नेताओं में से जसवंत सिन्हा, यशवंत सिंह, सुधीन्द्र कुलकुर्णी, अरूण शौरी, भुवन चन्द्र खण्डूरी, राजनाथ सिंह सूर्य, भैरों सिंह शेखावत, बृजेश मिश्र, आदि के खुलासों/बयानों में ऐसा कुछ भी नया नहीं है जिसे देश के लोग पहले से नहीं जानते हों किंतु इसमें नया यह है कि पहले उनके विरोधी ये आरोप लगाते थे और वे इन्हें विरोध के लिए विरोध बतला कर अपने लोगों को बरगला लेते थे पर अब सारी ही सच्चाइयां उन आरोपों में सम्मिलित उसी गिरोह के लोग बतला, जनता के सामने वादा माफ गवाह बन कर पुष्टि कर रहे हैं।
अब ये आरोप, आरोप नहीं हैं अपितु स्वीकरोक्तियां हैं। ऐसा नहीं है कि अन्दर के लोगों ने बाहर निकल कर इससे पहले सच्चाइयां न बतलायी हों किंतु उनके बतलाने का जो समय रहा विादास्पद रहा है इसलिए उसे उनकी खीझ बता कर उनकी उपेक्षा कर दी गयी थी, अन्यथा श्री बलराज मधोक तो पार्टी के अध्यक्ष और मदनलाल खुराना और कल्याण सिंह जैसे लोग तो भाजपा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रह चुके थे और संघ के अप्रिय भी नहीं रहे। उमा भारती तो न केवल उनके मंदिर अभियान का आक्रामक चेहरा ही रहीं थीं अपितु अपनी वाचालता में अपने महिला व साध्वी चोले की ओट में बेलगाम अभिव्यक्ति की दम पर भाजपा के अग्रिम दस्ते में रही थीं जिन्हें केन्द्र में मंत्री पद ही नहीं दिया गया था अपितु मध्यप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री पद से नवाजा गया था। गोबिन्दाचार्य तो कभी भाजपा के थिंक टैंक कहे जाते थे। छोटे मोटे सांसद और विधायक तो आते जाते ही रहते हैं तथा सबसे अधिक संख्या में दलबदल से जुड़ी पार्टियों में भाजपा सबसे आगे रही है।
साहित्य में भी आजकल आपबीती या आत्मकथाओं का दौर चल रहा है और वे ही रचनाएं सर्वाधिक लिखी व स्वीकार की जा रही हैं जो आत्मकथात्मक हैं व जिनमें आत्मस्वीकृतियां रही हैं। भाजपा के लोग भी इन्हीं आत्म स्वीकृतियों की दम पर पिछले कई दिनों से अखबारों में छाये रहे हैं और स्वाइन फ्लू जैसे संक्रामक रोग के समाचारों का स्थान लेते रहे हैं। चूंकि भाजपा का फैलाव किसी न किसी षड़यंत्र या दुष्प्रचार पर आधारित रहा है इसलिए इन स्वीकरोक्तियों के बाणों से उस गुब्बारे की हवा का निकलना स्वाभाविक है। पिछले दिनों के बयानों से जो बातें सामने आयी हैं उनमें प्रमुख हैं-
• लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट सोंपे जाने के बाद उमाभारती का यह कहना कि भाजपा के लोगों को छह दिसम्बर 92 को बाबरी मस्जिद तोड़ने के आरोपों को स्वीकार कर लेना चाहिये। स्मरणीय है कि लिब्राहन आयोग को बयान देते समय सुश्री उमाभारती ने कहा था कि उन्हें कुछ याद नहीं कि उस दिन क्या हुआ था।
• जसवंतसिंह के इस बयान से कि कंधार में आतंकवादियों को छोड़े जाने की पूरी जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को थी आडवाणी का असली चेहरा सामने आ गया है जो उनके नकली लौहपुरूष होने के साथ साथ दूसरों पर आतंकवादियों से नरमी बरतने के गैर जिम्मेवाराना बयान की भी पुष्टि करता है।
• गुजरात में अल्पसंख्यकों के सरकारी प्रोत्साहन में हुये नृशंस हत्याकांड में अटल बिहारी बाजपेयी और आडवाणी के असली चेहरे सामने आ गये हैं। इससे न केवल इस बात की ही पुष्टि हो गयी है कि अपने जिन्ना सम्बंधी विवादास्पद बयान के बाबजूद भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी तक पहुँच जाने वाले आडवाणी भी मोदी के साथ समान रूप से दोषी हैं। दूसरे उस दौरान अटल बिहारी बाजपेयी के बार बार दिये उन बयानों की भी सच्चाई उजागर हो गयी है, जिसे वे पत्रकारों द्वारा पूछने पर कहा करते थे कि भाजपा नेतृत्व में कोई मतभेद नहीं चल रहा।
• भले ही अरूण शौरी के बयान के बाद आरआरएस प्रमुख ने उनकी मांग को अस्वीकार कर दिया हो पर उससे यह तो स्पष्ट हो गया कि भाजपा आरएसएस के ही संरक्षण और निर्देशों में चलती रही है अन्यथा अपनी कार्यकारिणी में पूरा बहुमत रखने वाले लालकृष्ण आडवाणी को जिन्ना के बयान के बाद स्तीफा क्यों देना पड़ता! इससे भाजपा के प्रत्येक स्तर के संगठन सचिव के पदों पर संघ के लोगों को फिट करने वाले संघ का असत्य भी प्रकट होता है।

दरअसल ये सत्य तो संख्या में बेहद मामूली से सत्य हैं पर जैसे जैसे लोगों में आत्मग्लानि बढेगी वैसे वैसे ही इस बात की बहुत संभावनाएं हैं कि भाजपा का लाक्षागृह ढह जाये जिसे ढहाने के लिए अरूणशौरी आरएसएस से आग्रह कर चुके हैं। गोबिन्दाचार्य जैसे भाजपा के भूतपूर्व थिंकटैंक गोबिन्दाचार्य भी कह रहे हैं कि जैसे आवशयकता पड़ने पर पहले भी जनसंघ का रूप बदल कर वे जनता पार्टी का हिस्सा बनने व बाद में भाजपा के रूप में प्रकट होने का काम कर चुके हैं वैसे ही अब भी संघ परिवार के इस राजनीतिक मुखौटे को अपना पुराना मुखौटा बदल कर नया कर लेना चाहिये। सच है कि दीवालिया हो जाने के बाद फर्में अपने नये नाम के रजिस्ट्रेशन के साथ प्रकट होती हैं जिससे उनके पुराने कर्जे भुला दिये जाते हैं।
रोचक यह है कि जो लोग भाजपा के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े रहे वे भी अब उससे कन्नी काट रहे हैं जो कभी उसके अंध समर्थक रहे थे तथा दूसरी ओर भी आरएसएस भी पदाधिकारियों के मुखौटे बदल कर भाजपा के बारे में पुन: नया भ्रम बनाने की जुगाड़ में है जो वसुंधरा राजे, भगतसिंह कोशियारी, के समर्थकों समेत बिहार के असंतुष्ट बहुमत विधायकों को भी समेट कर रख सके। अगर केन्द्र सरकार राजनीतिक भ्रष्टाचार से एकत्रित धन को सचमुच ही बाहर निकालने के प्रयास करेगी जैसा कि प्रधानमंत्री ने आग्रह किया है तो भाजपा का धरातल ही खिसक जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अगस्त 22, 2009

इतने भोले भी नहीं हैं जसवंत सिंह

इतने भोले भी नहीं हैं जसवंत सिंह
वीरेन्द्र जैन
कूटनीति ऐसी दो सिरे वाली तलवार होती है जो यदि सामने वाले के लिए घातक नहीं हो पाती तो खुद को ही नुकसान पहुँचाती है। जो राजनीतिक संगठन लोकतांत्रिक राजनीति में पारदर्शिता की जगह कूटिनीतिक तरीकीबें करते हैं उनके साथ ऐसा खतरा हमेशा ही बना रहता है।
भाजपा में जसवंत सिंह का जिन्ना प्रसंग ऐसा ही है। सामंत परिवार में जन्मे, पूर्व सेना अधिकारी रहे, व देश में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय वित्त, विदेश, व रक्षा को सम्हालते रहने वाले जसवंत सिंह संघ की भाजपा में रहते हुये व आडवाणी का हश्र देखने के बाद जिन्ना की प्रशांसा में पुस्तक लिखने का परिणाम न जानते हों ऐसा नहीं माना जा सकता। एक तो वे ठीक तरह से जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं दूसरे उनका निशाना नेहरू और पटेल नहीं आडवाणी हैं व उन्होंने किताब के बहाने एकलव्य की तरह ऐसे तीर छोड़े हैं जिससे भाजपा के वाचालतम प्रवक्ताओं तक की बोलती बन्द हो गयी है।
जनसंघ की दूसरी अवतार भाजपा का इतिहास प्रारंभ से ही जोड़ तोड़ व दुरभिसंधियों से भरा हुआ है। अपने साम्राज्य के हित में देश में अंग्रेजों द्वारा पनपाये गये साम्प्रदायिकता के बीजों से जीवन पाकर जो हिन्दू पक्ष विकसित हुआ था वह आरएसएस था तथा जो मुस्लिम पक्ष विकसित हुआ था वह मुस्लिम लीग के नाम से जाना गया। दोनों ने ही आजादी की लड़ाई में कोई सहयोग तो नहीं दिया किंतु साम्प्रदायिक दंगों के द्वारा समाज को बांटने के प्रयासों में अंग्रेजों की हैसियत को ही मजबूत करते रहे। आजादी के समय हुये साम्प्रदायिक दंगों और देश के बंटवारे से शेष बचे देश के हिन्दुओं के एक हिस्से और पाकिस्तान में अपना वतन छोड़ कर आये हिन्दू शरणार्थियों में एक पराजय का भाव पैदा हुआ जो उन्हें साम्प्रदायिक बना गया व भारत में रह गये मुसलमानों में एक ऐसा अपराधभाव पैदा हुआ कि उनमें से एक वर्ग रक्षात्मक रूप से साम्प्रदायिक हो गया। उनके बीच की यह दूरी नयी लोकतांत्रिक व्यवस्था, जो अपनी बाल्यावस्था में थी, में जन्मे राजनीतिक दलों को बहका गयी। संघ ने जनसंघ बना कर हिन्दुओं के बीच अपनी चुनावी राजनीति की शाखा डाल ली तो मुसलमानों के वोट हस्तगत करने के लिए काँग्रेस ने स्वयं को अपने अनेक सदस्यों के चरित्र व व्यवहार से अलग धर्मनिरपेक्ष घोषित और प्रचारित करने में लाभ देखा। जहाँ हिन्दुओं में साम्प्रदायिकता से प्रभावित वोट जनसंघ को मिले वहीं मुस्लिम साम्प्रदायिक वोटरों ने रणनीतिक दृष्टि से काँग्रेस की सरकार बनाने में अपनी अधिक सुरक्षा देखी। परिणाम यह हुआ कि बिना काम के थोकबंद वोट मिलते रहने से इस ध्रुवीकरण ने इन राजनैतिक दलों में राजनीतिक कार्यक्रमों को पीछे कर दिया। इससे जनता के बीच सीधे जाने की जरूरतें कम होने लगीं। काँग्रेस के पास स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के साथ साथ दलित वोट भी थे इसलिए प्रारंभ में सत्ता उसके ही पास रही।
हमारे देश के लोग स्वभाव से साम्प्रदायिक नहीं हैं इसलिए जनसंघ व मुस्लिम लीग के वोट हमेशा ही कम रहे। जनसंघ को दूसरे हथकण्डे अपनाने पर ही सत्ता का स्वाद चखने के अवसर मिल सके। सत्ता पर अधिकार जमाने की वासना से भरा जनसंघ वह दल रहा जो आजादी के बाद बनने वाली प्रत्येक संविद सरकार में सम्मिलित होने के लिए उतावला रहा। संविद सरकारों का गठन मुख्य रूप से काँग्रेस छोड़ कर आये लोगों, विभिन्न तरह के समाजवादियों ही नहीं अपितु भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी आदि के साथ हुआ किंतु अपने आप को सैद्धांतिक कहने वाली पार्टी के लिए सत्ता के वास्ते कोई अछूत नहीं रहा। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर तो उसने अपनी जनसंघ पार्टी का विलय करना भी मंजूर कर लिया। पर अन्दर अन्दर वे संघ के आज्ञाकारी बने रहे जिसकी पहचान होने पर ही जनता पार्टी का विभाजन हुआ और केन्द्र में पहली गैर कांग्रेस सरकार का पतन हुआ। वे जैसे जनता पार्टी में उतरे थे लगभग वैसे ही समूचे वापिस आ गये। वैसे भी उन्होंने जनसंघ के संसाधनों का विलय नहीं किया था इसलिए वे फिर से अपने नये नाम भारतीय जनता पार्टी के रूप में प्रकट हो गये। यह नाम उनको इसलिए भी पसंद आया था ताकि वे जनता पार्टी की लोकप्रियता का लाभ ले सकें। बाद में इस पार्टी ने सत्ता पाने के लिए हर तरह के हथकण्डों को अपनाने में गुरेज नहीं किया। दूसरी पार्टियों में स्वार्थ पूरा न हो पाने पर निकाले गये प्रभावशील नेताओं, प्रिवीपर्स व विशोषाधिकार बन्द पूर्व राजे महाराजों का इन्होंने आगे बढ कर स्वागत किया, प्रत्येक लोकप्रिय व्यक्तित्व के साथ सौदा करके अपने साथ जोड़ने में कोई देर नहीं की व राजनीतिक महात्वाकांक्षा रखने वाले सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारियों, सेना अधिकारियों से अपने दल को सुसज्जित किया। प्रत्येक भावनात्मक घटना का राजनीतिक लाभ उठाने में उन्होंने देर नहीं की भले ही वैसा करना देश और जनता के खिलाफ जाता हो।
पर जो विचार सिद्धांत व कार्यक्रम से बंधा नहीं होता है या उसे लगता है कि संगठन में वैसा काम तो नहीं हो रहा जैसा कि दावा किया जाता है, या जिससे आकर्षित होकर वह आया था तो वह अपनी सेवा की कीमत चाहने लगता है। वे उमाभारती हों, वसुंधरा राजे हों, कल्याण सिंह हों, भुवनचन्द्र खण्डूरी हों, बाबूलाल मराण्डी हों, यशवंतसिन्हा हों, सिद्धू होंं, धर्मेंद्र हों या जसवंत सिंह हों। अपने लाभ के लिए किसी के स्तेमाल की कोई सीमा होती है और जब साफ दिखायी दे रहा हो कि हम ना तो राष्ट्र के लिए बलिदान दे रहे हैं और ना ही सिद्धांतों के लिए तब कोई प्रमोद महाजनों अरूण जेटलियों, और आडवाणियों को कब तक ढोयेगा!
सन 2001 में श्रेष्ठ सांसद के रूप में सम्मानित जसवंत सिंह ने केन्द्र सरकार के सभी प्रमुख मंत्रालयों का संचालन अपनी पूरी योग्यता व क्षमता से किया था। भाजपा के विरोधी दलों में भी यदि किसी भाजपा नेता का सर्वाधिक सम्मान था तो वह जसवंत सिंह का ही था व सबसे कम आलोचना उन्हीं की थी। जब भाजपा लोकसभा में कुल दो सदस्यों तक ही सिमिट कर रह गयी थी तब उसके उन दो सदस्यों में से एक जसवंत सिंह थे जिन्होंने भाजपा संसदीय दल के नेता के रूप में उसके पक्ष को लगातार संसद में रखा था। भाजपा के 'घोषित सिद्धांतों' के हिसाब से वे आडवाणी के उत्तराधिकारी के रूप में सबसे आगे थे किंतु आरएसएस की पृष्ठभूमि न होने के कारण संघ के नेता उन्हें इतना आगे नहीं जाने देना चाहते थे। जब ऐसा लगने लगा कि आडवाणी के बाद सबसे आगे जसवंत सिंह होंगे तब उनके पर कतरने की तैयारियां प्रारंभ हो गयी थीं। राजस्थान में वसुंधरा राजे ने उन जैसे कद के नेता की उपेक्षा करना व उन्हें अपमानित करना प्रारंभ कर दिया था जो बिना संघ और आडवाणी की मर्जी के संभव नहीं था। इसी द्वंद में उन्होंने अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल के दौरान उनके कार्यालय में एक अमरीकी एजेन्ट होने की बात को उजागर कर दिया था जिससे पूरी भाजपा भीतर से हिल गयी थी। उस बात को बाद में दबा दिया गया था किंतु यह भी सच है कि अमरीका के साथ परमाणु करार के मामले पर आये अविश्वास प्रस्ताव पर दल बदल करने वाले इसी राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टी के सांसद सर्वाधिक थे। बाद में जसवंत सिंह को अपना चुनाव क्षेत्र छोड़ कर बंगाल में उस जगह चुनाव लड़ने भेज दिया जहाँ से भाजपा की जीत की संभावनाएं न्यूनतम थीं। किंतु संयोगवश गोरखा नैशनल फ्रन्ट वालों से समझौता हो जाने के कारण वे वहाँ से भी जीत गये। जब लोकसभा में आडवाणीजी ने विपक्ष का नेता पद स्वीकार करने में ना नुकर की तब उन्हें जसवंत सिंह के नेता बन जाने की संभावना का डर दिखा कर ही दुबारा से नेता बना दिया गया व उपनेता की जिम्मेवारी भी उन्हें न देकर सुषमा स्वराज को दी गयी। यही वह समय था जब उन्होंने हार की जिम्मेवारी तय करने का मसला उछाला जिससे हड़बोंग मच गया।
दर असल जसवंत सिंह समझ चुके थे कि अब उन्हें किसी न किसी बहाने से दिन प्रति दिन गिराया जायेगा और भाजपा की संस्कृति व उसके इतिहास के अनुसार किसी भी तरह के नैतिक अनैतिक हमले किये जायेंगे। इस पूर्व सैन्य अधिकारी ने पूरी सोच समझ के साथ दुश्मन के हमले से पहले हमला कर देना ठीक समझा। उन्होंने भाजपा की बहुत ही कमजोर नस पर हाथ रख दिया। अपने साम्प्रदायिकता से प्रभावित समर्थन को बनाये रखने के लिए ही आडवाणीी के जिन्ना सम्बंधी बयान पर संघ और विश्व हिंदू परिषद आदि ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी और आडवाणी को “बिहार चुनाव के बाद” अध्यक्ष पद छोड़ने को विवश कर दिया था किंतु अडवाणी के विकल्प पर कोई खतरा न लेने के वास्ते उन्हें विपक्ष का नेता बना रहने दिया था। वहीं लोगों की स्मृति लोप होने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चुनवा दिया गया जबकि अडवाणी ने ना तो कभी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि जिन्ना के बारे में दिये अपने बयान के मामले में वे गलत थे और ना ही कोई क्षमा याचना ही की। जसवंतसिंह, जो समझ चुके थे कि भाजपा में अब उनके दिन लद गये हैं, ने इसी विसंगति का लाभ लेने में भलाई समझी ताकि वे उन्हें आइना दिखा सकें। भाजपा ने इससे पहले दो समझदारियां कीं, एक तो वसुंधराराजे को राजस्थान में विपक्ष के नेता पद से हटा कर वहां संतुलन बनाने का और दूसरे गोबिन्दाचार्य को बुला कर एक घन्टे तक उनसे विर्मश करके उमा भारती को मनाने का जिससे अगली 25 सितम्बर को उनकी बची खुची पार्टी के भाजपा में वापिस मिला लेने की संभावनाएं बन गयीं हैं। अब उमा भारती ने लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर सच्ची प्रतिक्रिया देने के प्रति अपना मुँह सिल लिया है।
किसी को पता नहीं छलनी के कितने छेदों को बन्द कर पाने में वे कब तक सफल हो सकेंगे, पर सच तो यह है कि इनके वोटरों को छोड़ कर कोई भी सीधा और सरल नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अगस्त 19, 2009

क्षमावाणी पर्व दस्ताने पहिन कर हाथ छूने से मुक्त हो

परम्परा
क्षमावाणी पर्व - दस्ताने पहिन कर र्स्पश के अन्दाज से मुक्त हो
वीरेन्द्र जैन
जैन धर्माबलम्बियों द्वारा भाद्र मास में किये जाने वाले दस लक्षण व्रतों के बाद क्षमावाणी पर्व मनाया जाता है तथा एक दूसरे से गत वर्ष किये गये ज्ञात अज्ञात अपराधों के लिए क्षमा मांगी जाती है। जो रिश्तेदार और परिचित नगर से बाहर होते हैं उन्हें क्षमावाणी कार्ड भेज कर यह दस्तूर निभाया जाता है।
क्रोध और क्षमा, किसी धर्म समाज विशेष तक सीमित रहने वाले व्यवहार नहीं हैं। क्षमा किसी न किसी रूप में प्रत्येक धर्म समाज में स्वीकारी गयी है। उत्तर भारत के हिंदुओं में इसे 'गंगास्नान करना' कहा गया है जिसका अर्थ होता है कि आपने अपनी भूल स्वीकारी, प्राशचित के रूप में गंगा स्नान किया व पूजा पाठ आदि करने के बाद दान दिया जिसे आत्म दण्ड कह सकते हैं। ईसाई समुदाय में तो स्वीकरोक्ति के (कनफैसन) और प्रायशचित की विधियां प्रचलित ही हैं तथा इसके लिए प्रत्येक चर्च में एक अलग कक्ष भी होता है। क्षमा याचना, सामाजिक नैतिकता की मान्यता के साथ साथ उससे विचलन के अपराध की भी स्वीकरोक्ति भी होती है जिसका अर्थ है कि - हाँ हमसे भूल हो गयी और उसका हमें दुख है। यदि इस भाव का विकास किया जा सके तो समाज में अपराधों की संख्या आधी हो सकती है क्योंकि अपराधों की श्रंखला 'खून के बदले खून' या 'बदला लेने की भावना के कारण विस्तार पाती है। यदि हम निर्मल मन से अपनी भूल स्वीकारेंगे तो सामने वाले को भी क्षमा करने में कोई अधिक संकोच नहीं होगा। इससे समाज में तनाव कम होंगे। कुछ ही दिनों पूर्व हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1984 के दंगों के लिए सिख समाज से माफी मांगी थी तो पिछले दिनों पुलिस के धोखे में ग्रामीणों की जीप को विष्फोटों से उड़ा देने की भूल के प्रति हिंसक माने जाने वाले नक्सलवादियों ने जनता से माफी मांगी थी। आस्ट्रेलियाई पादरी स्टेन्स की पत्नी ने उसके पति और बच्चों को जिन्दा जला देने वाले विश्व हिंदू परिषद वाले दारासिंह को अपनी ओर से क्षमा कर देने की घोषणा कर दी थी, तो श्रीमती सोनिया गांधी ने भी राजीव गांधी के हत्यारों को क्षमा कर देने की घोषणा की थी।
खम्मामि सव्वे जीवाणु
सव्वे जीवाणु खमंतु मे
( अर्थात, मैं सारे जीवों को क्षमा करता हूँ और सारे जीव मुझे क्षमा करें)
जब हम लोग पश्चिमी बाजार के झांसे में आकर मदर्सडे, फादर्सडे, हस्बैंडडे, वेलेन्टाइन डे, आदि मनाने लगे हैं तो हमें अपने देश में मनाये जाने वाले क्षमा दिवस व भाई बहिन दिवस (रक्षाबंधन) को क्यों प्रचारित नहीं करना चाहिये ।इन दिवसों को यदि हम धार्मिक बंधनोें से मुक्त कर सकें तो ये महत्वपूर्ण दिवस अधिक विस्तार पा सकेंगे। क्षमा की जरूरत प्रत्येक धर्म पालन करने वाले समाज को है तथा भाई बहिन के स्नेहिल संबंधों को आदर देना किस धर्म के लोगों को बुरा लगेगा! पश्चिम से आये दिवस तो बाजार उत्प्रेरित दिवस हैं पर क्षमा दिवस या भाई बहिन दिवस तो हमारी संस्कृति के स्वाभाविक आयोजन हैं जो बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
प्रत्येक परंपरा में समय के साथ साथ कुछ विकृत्तियां घर करने लगती हैं। जैन समाज में क्षमा पर्व का भी रूढियों की तरह लकीर पीटने जैसे काम की तरह निर्वहन किया जाने लगा है। धार्मिक रूढि पालने की मजबूरी के अंर्तगत मन में क्षमाभाव लाये बिना अस्पष्ट लक्ष्य से क्षमा मांगने वाले शब्द उच्चारित कर दिये जाते हैं और वैसे ही क्षमा देने की घोषणा भी कर दी जाती है। इस पर्व का सच्चे मन से अनुपालन तब ही हो सकेगा जब हम व्यक्ति विशेष से की गयी भूल का उल्लेख करते हुये क्षमा मांगेंगे और उसी तरह से क्षमा भी करेंगे। यह अहंकार के नाश का प्रथम चरण है।
इस पर्व के परिपालन में दूसरी भूल यह हो रही है कि नववर्ष दीपावली आदि पर्वों की भांति क्षमावाणी कार्ड भेजे जाने लगे हैं जो कई बार तो बड़े लोगों के कर्मचारी ही सूची देख कर भेज देते हैं व सेठजी को पता ही नहीं होता कि उन्होंने किस किस से लिखित में क्षमा याचना की है और किस किस को क्षमादान दिया है। ये मुद्रित क्षमावाणी कार्ड देख कर दुष्यंत कुमार की वे पक्तिंयां याद आती हैं-
आप दस्ताने पहिन कर छू रहे हें हाथ को-
दर असल ऐसे कार्डों का पर्व की मूल भावना से कोई सरोकार नहीं है। क्षमावाणी कार्ड स्वयं के हाथों से लिखा हुआ होना चाहिये जिससे उनमें भावना का समावेश हो सके।
जैन समाज साफसुथरी जीवनशौली वाला एक सम्पन्न समाज है और वह विभिन्न तरह के धार्मिक कर्मकांडों में अपने अतिरिक्त अर्जित धन का हिस्सा लगाता रहता है।यदि वह इसी धन का एक बड़ा हिस्सा क्षमापर्व के प्रचार में कुछ इस तरह से व्यय करे कि यह धार्मिक प्रचार न लगे तो सचमुच दुनिया में एक स्वस्थ परंपरा का विकास हो सकेगा।

वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

मंगलवार, अगस्त 18, 2009

भाजपा में आतंरिक लोकतंत्र का संकट

भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र का संकट
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों एक बार फिर भाजपा में आन्तरिक लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगे जब राजस्थान विधानसभा में विधायक दल की निर्वाचित नेता वसुंधरा राजे विधानसभा में विधायक दल के 78 विधायकों में से 57 को साथ लेकर दिल्ली पहुँचीं पर भाजपा के वरिष्ठतम नेता संसद में विपक्ष के नेता पद को सुशोभित करने वाले पूर्वउपप्रधानमंत्री तथा गत चुनावों में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी रहे लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी ही पार्टी के उन लोगों से वैसे ही बात करने से इंकार कर दिया जैसे कभी जयललिता ने एनडीए अध्यक्ष जार्ज फर्नांडीज से कर दिया था। फासिज्म का यही गुण होता है कि वे संवाद में भरोसा नहीं करते। अपने जीवन के एक पक्ष की 'जीवनी' के लेखक श्री आडवाणी राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से बाहर आकर इतना तो कह सकते थे कि संगठन के मामले में वे पार्टी अध्यक्ष से ही सम्पर्क करें।
ऐसा नहीं है कि श्री आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष के फैसले अपने विवेक से पूर्व में न बदलवाये हों। पिछले वर्ष ही महाराष्ट्र में जब पार्टी के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित करने वाले बाल आप्टे, राम नाइक और वेदप्रकाश गोयल की सलाह पर राजनाथ सिंह ने श्री मधु चव्हाण को प्रदेश पार्टी का अध्यक्ष बना दिया था तब श्री आडवाणी ने ही अपने प्रभाव से उनका फैसला बदलवा दिया था और श्री गोपीनाथ मुंडे को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनवा दिया था। स्मरणीय है कि श्री मुंडे उन प्रमोद महाजन की विरासत को सम्हाल रहे हैं जिनकी हत्या के आरोपी उन्हीं के छोटे भाई ने उन पर दो हजार करोड़ रूपये एकत्रित करने के आरोप लगाये थे। अवैध सम्पत्ति विवाद में हुयी प्रमोद महाजन की हत्या को भाजपा शहादत बताती है और उन्हें शहीदों की तरह स्मरण करती है। पिछले दिनों उनकी हत्या के दिन को पुण्यतिथि की तरह मनाते हुये जो पंक्तियां- तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें- लिखी गयी थीं वे देश के अमर शहीदों के लिए लिखी जाती हैं जो देश के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं। इतना ही नहीं भाजपा ने प्रमोद महाजन की अस्थियां विसर्जित होने के पूर्व ही उनके बेटे को सांसद बनाने की ठान ली थी, पर चुने जाने के पूर्व ही उसने ऐसी 'जवानी की भूल' कर दी थी कि कोई दूसरा दल होता तो शर्म से डूब जाता किंतु यह भारतीय संस्कृति का मुखौटा लगाने वाली भाजपा थी जिसने उसके बाद भी हिम्मत नहीं हारी और प्रमोद महाजन की बेटी को गोवा विधानसभा में प्रत्याशी बनाना चाहा किंतु उसके अस्वीकार के बाद उसे भारतीय जनता युवा मोर्चा की राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी देकर ही उन्होंने संतोष की सांस ली।
वसुंधरा राजे को भी कुछ कुछ इसी तरह राजस्थान पर थोपा गया था क्योंकि भाजपा चुनावों में धन के महत्व को सबसे अधिक समझती है और उसकी राजनीति में लोकप्रिय व्यक्तित्व, धन और धार्मिक व राष्ट्रीय भावनाओं का विदोहन ही प्रमुख कूटनीतिक औजार हैं। वसुंधरा के कार्यकाल में असल शासन तो संघ और आडवाणी द्वारा मनोनीत लोगों ने परदे के पीछे से चलाया व संघ के संस्थानों के लिए करोड़ों की जमीनें और भवन बना लिए गये जिसकी जाँच अभी चल ही रही है। वसुंधरा राजे ना तो अच्छी राजनेता ही हैं और ना ही कुशल वक्ता। उन्हें प्रशासन का भी कुछ अनुभव नहीं है व वे जल्दी ही उत्तेजित हो जाती हैं। 1989 के लोकसभा चुनावों में जब वे भिण्ड दतिया लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गयी थीं तो खीझ कर उन्होंने दतिया के सरकिट हाउस में अपने तत्कालीन जिला अध्यक्ष को गुस्से में एशट्रे फेंक कर मारी थी। राजस्थान की राजनीति से कोई वास्ता न होते हुये भी उन्हें इसलिए मुख्यमंत्री पद सोंप दिया गया था जिससे वे अपने परिवार के साथ चल रहे सम्पत्ति विवाद को अपने पक्ष में सुलझा सकें, जो इसी कार्यकाल के दौरान सुलझा भी लिये गये।
किंतु हमने अपने देश और उसमें काम करने वाले दलों ने लोकतांत्रिक पद्धति अपनायी है। इस लोकतंत्र के लिए हमने बड़े बड़े खतरे तक उठाये हैं। बिहार में राबड़ी देवी द्वारा पाँच साल तक खराब शासन केवल इसीलिए सहन किया गया क्योंकि बहुमत उनके पास था। गुजरात में नरेन्द्र मोदी जैसों के भयानक मनुष्यता को कलंकित करने वाले कारनामों को भी लोकतंत्र के नाम पर देश ने सह लिया पर वही संघ परिवार का यह राजनीतिक मुखौटा अपने दल में लोकतंत्र को जूते की नोक पर रखता रहा है। मध्यप्रदेश में भी भाजपा की सरकार बनवाने वाली उमाभारती को जब पार्टी से निकाला गया तो वे लोकतंत्र लोंकतंत्र चिल्लाती रह गयीं पर विधायकों का पक्ष जाने बिना ही शिवराज सिंह को थोप दिया गया। उन्होंने सारे दरवाजों पर मत्था टेका पर उनकी गुहार किसी भी भाजपा नेता ने नहीं सुनी। उमा भारती ही नहीं मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, भगतसिंह कोशयारी, बाबू लाल मराण्डी, बिहार के विधायकों का समूह, सबके सब केन्द्रीय नेतृत्व की लोकतंत्र विरोधी नीतियों के शिकार रहे हैं। स्वयं आडवाणी को भी जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की संसद में 11 अगस्त 1947 के भाषण की प्रशंसा के कारण संघ के आदेश पर पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था जबकि बाद में उनके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चुने जाने से उनके प्रति समर्थन का पता चलता है।
आडवाणी ने ही नहीं राजनाथ सिंह ने भी अपना समर्थन प्रदर्शित करने आये विधायकों के दल से कहा कि वे लोग एक साथ दिल्ली क्यों चले आये कोई दो चार लोग आकर भी अपनी बात कह सकते थे। जबकि सच यह है कि यदि इतने लोग नहीं आये होते तो वे आसानी से समर्थन की जाँच के बहाने विधायकों को बहलाने फुसलाने का इंतजाम कर सकते थे। बाद में जयपुर पहुँच कर वसुंधरा ने लोकतंत्र के नाम पर त्यागपत्र न देने की घोषणा कर दी किंतु ऐसा लगता नहीं है कि वे अपनी बात पर टिक सकेंगीं। वसुंधरा यदि विद्रोह करतीं हैं तो उनसे करवाये गये गैर कानूनी काम बाधक बनेंगे जिनके भय से वे समपर्ण कर देंगीं। कुल मिला कर सच तो यह है कि चमक खोती जा रही भाजपा अपने अंर्तद्धंदों में घिरती जा रही है। गत दिनों भोपाल में भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा द्वारा किये गये आयोजन में शाहनवाज खान ने सुषमा स्वराज को आडवाणी का उत्तराधिकारी करके नये विवाद को जन्म दे दिया है।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

स्मरण -शीलजी

स्मरण :शीलजी
उनके सामने सदैव राह ही हारती रही
वीरेन्द्र जैन
मैं कई साल से सोच रहा था कि शील जी के बारे मैं संस्मरण लिखूंगा और उनके जन्मदिन पर ही लिखूंगा किंतु कुछ ऐसा होता था कि उनका जन्मदिन जो प्रतीकात्मक है व जिसे उन्होंने स्वयं ही तय किया था,15 अगस्त को पड़ता है इसलिए अनेक व्यस्ताओं में तिथि निकल जाती थी और बात टल जाती थी। पर इस बार वेब पत्रिका अनुभूति ने उनको याद करके मेरी भूल पर मुझे चपत सी लगायी तो मैं बहुत सारे गैरजरूरी काम छोड़ कर लिखने बैठ गया।
शील जी के सबसे पहले र्दशन मैंने वाराणसी में किये थे। तब वहाँ 1984 में जनवादी लेखक संघ का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन था व मैं जब तक सम्मेलन हाल में पहुँचा तब तक कार्यक्रम प्रारंभ हो चुका था। अध्यक्षमंडल में जो लोग मंच पर थे उनमें एक नाम मनु लाल 'शील' का भी था। उस सम्मेलन में मेरा उनसे इतना ही परिचय हुआ कि मेरे दिमाग में उनका कद स्थापित हो गया था पर मैं उनकी प्रतिभा और रचनाकर्म से अभी अनजान था। सम्मेलन समाप्त होते ही उनसे औपचारिक भेंट भर हुयी थी। उन दिनों में मध्यप्र्रदेश के हरपालपुर नामक बहुत छोटे से कस्बे में पदस्थ था। इसके बाद मैं बैंक में इन्सपैक्टर बना दिया गया जिससे अपना घर परिवार अपने पैतृक मकान दतिया में स्थापित कर मैं नगरी नगरी द्वार द्वारे भटकने के लिए निकल पड़ा था। इस दौरान मैंने एक साल से अधिक मथुरा, गया, भागलपुर, बदायँुु, बिल्सी, लखनउ, बाराबंकी, आदि शाखाओं के निरीक्षण में बिताये कि उन्हीं दिनों मेरे बैंक हिन्दुस्तान कम्ररशियल र्बैंक पर रिजर्व बैंक ने मोराटोरियम लगा दिया व सारे इन्सपैक्टरों को हैड आफिस कानपुर बुला कर विभिन्न स्थानीय शाखाओं में लंबित काम को पूरा कराने के लिए भेज दिया गया । इस आदेश से बैंक के खातों का पूरा लेन देन बन्द हो गया यहाँ तक कि वेतन आदि खर्चे भी रिजर्व बैंक की अनुमति के बाद नगद भुगतान किये जाने लगे।
ऐसे ही एक दिन एक बुजुर्ग सज्जन जो पेंट पर कुर्ता पहने थे मेरे बैंक मैं काउन्टर के बाहर किसी से कुछ पूछ रहे थे। उस दिन मुख्य शाखा के सबमैनेजर छुट्टी पर थे और मैं सबमैनेजर की सीट पर बैठा हुआ था, मुझउन सज्जन की शक्ल कुछ जानी पहचानी लगी और स्मृति पर जोर डालने पर याद आया कि वे तो शीलजी हो सकते हैं। मैं उठ कर उनके पास गया और पूछा कि आप शीलजी ही हैं। उनके हाँ कहने पर मैं उन्हें अन्दर ले आया और कुर्सी आने तक उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। वे बोले नहीं यह तो आपकी कुर्सी है और पास ही पड़े एक बड़े बक्से पर बैठ गये। मैनें उन्हीं के पास खड़े होकर जब उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि मैं जनवादी लेखक संघ से हूँ और उन्हें वाराणसी में मिल चुका हूँ तब उस वयोवृद्ध चेहरे पर जो प्रसन्नता के भाव आये उसकी स्मृति मुझे आज भी रोमांचित कर जाती है। मैंने जब उन्हें उक्त शाखा में होने का कारण बताया जिसके साथ यह चर्चा भी सामने आयी कि बैंक के लेन देन बन्द हैं और हम लोगों का वेतन खाता भी बन्द है तब उन्होंने केवल पन्द्रह मिनिट की मुलाकात में ही अपने पैंट के अन्दर की जेब से चार सौ रूप्ये निकाले और मुझे देते हुये बोले कि इस परदेश में तुम्हें परेशानी हो रही होगी। उनके इस स्नेह और संगठन के व्यक्ति होने भर के रिश्ते से अपनी पूरी महीने भर की पेंशन देने का आग्रह करने वाले व्यक्ति की आत्मीयता देख कर मेरी आंखें भर आयीं। वे ए श्रेणी के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और हर महीने उन्हें पेंशन मिलती थी उसी को निकाल कर ला रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि वेतन तो मिल रहा है पर वह नगद मिल रहा है इसलिए पैसे का कोई संकट नहीं है। मेरी बात पर उन्हें तब विश्वास हुआ जब उन्होंने अपने एक परिचित बैंक के बहुत वरिष्ठ ट्रेडयूनियन लीडर जेडी मिश्रा से उसकी पुष्टि कर ली, जो उनके पुराने साथी थे। उन्हें लग रहा था कि मैं संकोच में उनसे ऐसा कह रहा हूँ। उसके कुछ ही दिनों बाद कानपुर में जनवादी लेखक संघ का जिला सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें मथुरा से प्रो सव्यसाची आये तो मैंने उन्हें पूरी घटना सुनायी तब उन्होंने मुझे शीलजी के बारे में विस्तार से बताया जिसे सुन कर तो मैं रोमांचित हो उठा। मुझे लगा कि मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य था कि मैं उस व्यक्ति के विराट व्यक्तित्व से बिल्कुल ही परिचित नहीं था।
शीलजी वे व्यक्ति थे जिनका लिखा गीत- देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल नया इन्सान बनायेंगे, नया संसार बसायेंगे- आजादी के बाद देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र के हजारों स्कूलों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता रहा है। यह गीत ही असल में ऐसा गीत है जो धर्मनिरपेक्ष देश के स्कूलों में गाया जाना चाहिये था और तब इसका चुनाव करने वालों ने सही चुनाव किया था, पर पता नहीं कैसे कुछ स्कूलों में इसकी जगह- हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये- ने ले ली। उन्होंने बताया था कि वे एक बार किसी सम्मेलन में किसी कस्बे में रूके हुये थे तो सुबह सुबह उन्होंने पाया कि उनके कमरे की खिड़की से स्कूल के बच्चे झांक झांक कर भाग जाते थे, बाद में मालूम करने पर उन्हें पता लगा कि स्कूल के अध्यापक ने उन्हें बताया होगा कि धरती के लाल आये हैं और उन्हें उनको देख भर लेने की जिज्ञासा ही बार बार खिड़की से झांक लेने को उकसा रही थी। वहाँ के स्कूल में वही प्रार्थना गायी जाती थी।
शीलजी ने स्कूली शिक्षा बहुत अधिक नहीं पायी और वे कम उम्र से ही कम्युनिष्टपार्टी से जुड़ गये थे इसलिए उनकी शिक्षा पार्टी की कक्षाओं और व्यवहारिक अनुभवों के आधार पर ही हुयी। कम्युनिष्ट पार्टी ही ऐसी पार्टी है जिसमें राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए नियमित रूप से कक्षाएं लगती हैं और प्रत्येक सदस्य को कक्षाओं में भाग लेना जरूरी होता है। वे उन विरले लेखकों में से रहे जो आन्दोलन में पचासों बार जेल गये और रोचक यह है कि वे जितनी बार आजादी के पूर्व जेल गये उतनी ही बार आजादी के बाद भी जेल गये।
शीलजी बताते थे कि उनकी शादी भी हुयी थी पर वह बहुत ही बचपन में हुयी थी व गाँव में फैली किसी बीमारी के कारण उनकी पत्नी का निधन हो गया था। जब वे फिल्मों में गीत लिखने मुम्बई गये उस दौरान उनका प्रेम प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री गीतावाली से चला पर किसी आन्दोलन के दौरान वे जेल चले गये और उसी दौरान उसने शम्मीकपूर से शादी कर ली। उन्होंने सव्यसाची जी को कभी बताया था कि वे एक बार कार में बैठे गीतावाली से बातें कर रहे थे तब गीतावाली कुछ अधिक ही रोमांटिक बातें करने लगी थी पर जब उन्होंने अगली सीट पर बैठी उसकी बहिन की ओर इशारा किया तो वह बोली कि वह तो गूंगी और बहरी है।
देश के जन नाट्य के इतिहास में पृथ्वी थियेटर का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। उन्हीं पृथ्वीराज कपूर ने शीलजी के लिखे नाटक 'किसान' के आठ सौ से ज्यादा शो किये। बाद में यह नाटक आकाशवाणी ने बिना उनसे अनुमति लिए प्रसारित कर दिया उस पर शीलजी ने आकाशवाणी के खिलाफ मुकदमा दायर किया जिससे अंत में आकाशवाणी को समझौता करना पड़ा और समझौते के अर्न्तगत अन्य शर्तों के अलावा उन्हें एक साल के लिए आकाशवाणाी के सलाहकार बोर्ड का सदस्य भी बनाया गया था। उन्होंने कभी पैसे को जोड़ कर नहीं रखा जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें देख कर कभी भी ऐसा नहीं लगा कि हम इतने महान व्यक्तित्व के पास बैठे हैं। वे हमेशा घर के उस बुजुर्ग की तरह लगे जो अपने छोटों से भी दोस्तों जैसा व्यवहार करता है। शीलजी को भी ए ग्रेड स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण कानपुर के किदबई नगर जैसी महत्वपूर्ण कालोनी में एक बड़ा प्लाट मिला था और मंहगी जमीनों वाले किदबई नगर में वह अकेला प्लाट ऐसा था जिस पर निर्माण नहीं हो सका था, बमुशकिल उन्होंने उस पर एक बेढंगा सा कमरा बनवा लिया था जिसमें फ्लश वाला शौचालय तक नहीं बना था, पर उन्होंने मेरे देखते देखते आनन फानन में तब शौचालय बनवाया जब उनके यहाँ कर्णसिंह चौहान आने वाले थे और उनके पास ही रूकने वाले थे। दिल्ली के प्रोफेसर कर्णसिंह चौहान ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने शीलजी के बिखरे साहित्य को एकत्रित करवा कर प्रकाशित करवाया था। पर उस बार कर्णसिंह नहीं आ सके थे।
उनके उक्त घर में पहुँचने पर वे बहुत ही खुश होते थे और एक मिनिट में आने का कह कर पता नहीं कब बाहर निकल जाते और ढेर सारी खाने पीने की सामग्री लेकर आ जाते थे। मुझे शर्म आती कि यही सब लाना था तो मुझ से कह देते मैं जाकर ले आता। उसके बाद स्वयं ही स्टोव जला कर चाय बनाते और वहीं र्फश पर ही बैठ कर खाया पिया जाता।
जून 1995 के नयापथ में शिवमंगलसिंह सुमन ने उन्हें गहरी आत्मीयता से याद करते हुये लिखा था कि शील एक मेजर, सच्चे जन कवि थे। वे कहते हें कि हमारी मुलाकात सन 1942-43 में बम्बई के एक कवि सम्मेलन में हुयी थी। विकंम संवत 2000 पूरे होने के अवसर पर तब एक बहुत बड़ा जलसा हुआ था जिसमें आयोजित कवि सम्मेलन लगातार तीन दिन तक चलता रहा था। उन दिनों शील मंच पर बेहद लोकप्रिय कवि हुआ करते थे। उसके बाद तो हमने ऐसे अनगिनित कवि सम्मेलन किये जिसमें शील, सुमन, प्रदीप और गोपालसिंह नेपाली साथ साथ रहे। हम लोगों के साथ ही सरदार जाफरी, कैफी आजमी, जाँ निसार अख्तर, और मजाज लखनवी हुआ करते थे। पर शील में पार्टी और विचारधारा के प्रति अद्भुत समपर्ण था। वे कानपुर में कार्मिकों के नेता भी थे, उनकी कविता में आग थी। 42-43 में ही कानपुर में मजदूरों की हड़ताल के प्रमुख नेता के रूप में काम करने वाले शील ने कवि सम्मेलन का आयोजन भी करवाया जिसमें राहुल सांस्कृत्यायन और कैफी आजमी भी पहुंचे थे । उसमें कैफी ने सुनाया था - तुझे बुझते हुये चूल्हों की कसम, कल चिमनी में आग न खिले। सुमनजी लिखते हैं कि उस कवि सम्मेलन में उन्होंने उन दिनों की अपनी प्रसिद्ध कविता 'मास्को अब भी दूर है' सुनायी थी पर शील जी ने जो कविता सुनायी थी उससे वे छा गये थे। शीलने कविता और कर्म दोनों ही तरह से काम किया।नागार्जुन, शील और केदारनाथ अग्रवाल की त्रयी में शील जी ही थे जिन्होंने बकायदा मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता ले रखी थी व न केवल नियमित रूप से लेवी देते थे अपितु पार्टी के सारे अभियानों में भागीदारी करते थे।
मेरी एक कविता उन्हें बहुत पसंद आयी थी और जब भी उनकी अध्यक्षता में मैंने कविता पाठ किया तो उन्होंने वह कविता सुनाने का आग्रह जरूर किया। मेरी समझ में नहीं आया कि वह कविता उन्हें क्यों पसंद आयी है सो एक दिन मैंने उसका कारण भी पूछ लिया। वे बोले कि उस कविता में बिम्ब साफ बनता है और कविता में यही होना भी चाहिये। यह सन 1986 की ही बात है उन्हें बिहार के हजारीबाग से निमन्त्रण मिला था और वे चाहते थे कि मैं भी उनके साथ चलूं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते उन्हें जो उच्च श्रेणी का पास मिला था उसमें दो व्यक्ति यात्रा कर सकते थे, पर मैं किसी उलझन में था और नहीं जा पाया। जब वे लौट कर आये तो उन्होंने बताया कि कार्यक्रम तो अच्छा रहा पर वहाँ से उन्हें पाँच सौ रूप्यों की जो राशि मिली थी वह रास्ते में किसी ने निकाल ली। उन दिनों पाँच सौ बहुत होते थे, मुझे सचमुच अफसोस हुआ पर उन्हें कोई परवाह नहीं थी वे हँसते रहे थे।
उनके कोई दूर के रिशतेदार उन दिनों बहुत आने लगे थे तब उन्होंने बताया था कि उनकी निगाह इस प्लाट पर है पर मैं इसे पार्टी को देकर जाऊँगा। अंत समय में वे कैंसर से पीड़ित हो गये थे तब उनके रिश्तेदार ने आना बन्द कर दिया था और मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ही उनके अंतिम समय में साथ दिया। वे अपना विराट व्यक्तित्व मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी को विरासत में सोंप कर विदा हुये।
उनका प्रसिद्ध गीत याद करते हुये ही उनको श्रद्धांजलि ।
राह हारी मैं न हारा
थक गये पथ धूल के
उड़ते हुये रज कण घनेरे
पर न अब तक मिट सके हैं
वायु में पद चिन्ह मेरे
जो प्रकृति के जन्म ही से
ले चुके गति का सहारा
राह हारी मैं न हारा
स्वप्न मग्ना रात्रि सोई
दिवस संध्या के किनारे
थक गये वन विहग, मृग तरू
थके सूरज चाँद तारे
पर न अब तक थका
मेरे लक्ष्य का ध्रुव ध्येय तारा
राह हारी मैं न हारा
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

बुधवार, अगस्त 12, 2009

धर्म परिवर्तन और धर्म का अधिकार

धर्म परिवर्तन और धर्म का अधिकार
वीरेन्द्र जैन
यदि हम दुनिया के विकास के बारे में डार्विन के विकासवाद को मानते हैं जो कि किसी भी वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति को मानना ही होगा, तो हमें यह भी मानना होगा कि धर्मों का जन्म मनुष्य की सामाजिक आवशयकताओं के अनुरूप हुआ है और जब जहां जैसे समाज को जिस तरह के सामाजिक नियमों की जरूरत थी उसने वैसे ही धर्म को पैदा कर लिया । उस पर जनता का विशवास बनाने व बनाये रखने के लिये उसे दैवीय शक्ति वाले विश्वास से जोड़ कर लोगों की आस्था को बनाये रखा गया। इस आस्था की रक्षा करते हुये जब जब उसमें सुधार की आवशयकता महसूस हुयी तो व्याख्या के बहाने सुधार डाल दिये गये। यदि हम ''यदा यदा हि धर्मस्य ग्लार्नि भवति भारते'' क़े वास्तविक अर्थ में जायें तो यह स्पप्ट होगा कि इसका मूल अर्थ ''आवशयकता ही अविप्कार की जननी'' से भिन्न नहीं है।अवतार लेने के लिये व धर्म के प्रचार के लिये संकट काल की सीमा क्यों तय की गयी है। अर्थ अपने आप में स्पष्ट है कि जब जब तत्कालीन धर्म से समस्या का हल नहीं मिल पा रहा हो तो धर्म के नये प्रवर्तक की आवश्यकता पड़ जाती है।
धर्मों का इतिहास हमें बताता है कि प्रत्येक धर्म ने अलग अलग समय में जन्म लेकर अपने समय की अवांछित शक्तियों के साथ संघर्ष किया है। यदि उस समय की सामाजिक शक्तियां समाज की आकांछाओं के अनुरूप होतीं तो संदर्भित धर्म का जन्म नहीं हुआ होता। नये धर्म की आवशयकता इसलिये भी पड़ती रही क्योंकि पुराने धर्म के मठाधीशों ने धर्म की दैवीय शक्तियों के नाम पर अपने मनमाने स्वार्थ हल करने शुरू कर दिये थे व धर्म भीरूता के चलते सामान्यजन उसका विरोध करने का साहस नहीं रखता था। दुनिया के समस्त समाजविज्ञानी व सुशिक्षित लोग धर्म को एक सामाजिक संविधान ही मानते हैं।धर्मों के विकास का इतिहास बताता है कि पुराने अनुपयोगी हो चुके धर्म को यदि छोड़ा न गया होता तो नये धर्म कभी अस्तित्व में नहीं आ पाते। कहने का अर्थ यह कि दुनिया में धर्म परिर्वतन का बहुत पुराना इतिहास रहा है।आज हमारे देश में कुछ निहित स्वार्थ नागरिकों के धर्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को रोकने की जी तोड़ कोशिशों में लगे हुये हैं। एक समय था जब धर्म पर शंका करना पाप माना जाता था पर अब लोग प्रत्येक बात को परख कर ही स्वीकार करते हैं।

एक समय था जब भारत में जन्मे बौद्ध धर्म का दूर दूर देशों तक प्रचार हुआ था और उस समय के सम्राट अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री को एशिया के तमाम देशों में धर्म प्रचार के लिए भेजा था। आज भी ईसाई और ,इस्लाम, के बाद बौद्ध धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है जिसने अपने जन्म वाले देश की सीमाएं लांघी हैं। आजादी के बाद डा भीमराव अम्बेडकर ने नागपूर में पांच लाख दलितों के साथ हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया था। पुराने समय में जो लोग अपना घर छोड़ कर ज्ञान की तलाश में निकल जाते थे वे परोक्ष रूप में अपने मूल धर्म की सीमाओं को पहचान रहे होते थे ।मुगलकाल में शासकों के धर्म को लाखों लोगों ने अपनाया था और औरंगजेब शासन के तथाकथित जोर जबरदस्ती के पूर्व अपनाया था। कहने का अर्थ यह है कि धर्म परिवर्तन तो कोई नई घटना नहीं है पर धर्म परिवर्तन का विरोध जरूर नई घटना है। गुरू गोबिन्द सिंह के पुत्रों द्वारा धर्म परिवर्तन का विरोध भी स्वयं अपने लिये था न कि दूसरों को रोकने के लिये।
ऐसा लगता है कि इन दिनों संघपरिवार के पास इकलौता कार्यक्रम धर्म परिवर्तन के अधिकार से नागरिकों को वंचित करना ही हो गया है। वे जोर जबरदस्ती और लालच से धर्म परिवर्तन कराये जाने की झूठी कहानियां उछालकर अपने झूठ को ढकने की कोशिश करते हैं किंतु इस तरह का कानून तो पहले ही से मौजूद है और कहीं पर भी ऐसी कोई शिकायतें दर्ज न होने के बाबजूद भी धर्म परिवर्तन का शोर मचाये जाने के पीछे राजनीतिक कारण अधिक हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों हिन्दू धर्म के सैकड़ों बड़े और हजारों छोटे मोटे संत महंत पूरे देश में धुआंधार धर्म प्रचार करने में जुटे हैं और विजुअल मीडिया पर
पचासों कार्यक्रम हैं जिनमें से अनेक तो चौबीस घंटे वाले चैनल है पर इन चैनलों का टीअारपी दयनीय ही बना रहता है। ऐसा ही हाल ईसाई और इस्लामिक चैनलों का भी है । जब धर्म में लोगों की रूचि का ये हाल है तो दूसरे के धर्म में प्रवेश लेना तो सचमुच ही अपने पारम्परिक संस्कारों के साथ बड़ा साहसपूर्ण विद्रोह माना जाना चाहिये।
जिन लोगों को धर्म परिवर्तन से रोकने की कोशिश की जाती है उनका धर्म से केवल इतना सम्बन्ध होता है कि अपने नाम के बाद या किसी फार्म में लिखने के काम आता है। जिनके सामने जिन्दा रहने का संकट होता है वे अपनी अधिकंाश गतिविधियां उसी के आसपास केन्द्रित रखते हैं ।ऐसे अधिकांश लोगों को तो धर्म की याद त्योहारों या बच्चों की शादियों के समय ही आती है।

विचारणीय यह भी है कि धर्म परिवर्तन का सबसे बड़ा संकट संघ परिवार ही क्यों महसूस करता है। ईसाई, मुसलमान, जैन,बौद्ध,आदि के सामने यह संकट क्यों नहीं आता जबकि ये धर्म तो अपने आप में अल्पसंख्यक हैं और धर्म परिवर्तन से उन्हें अपेक्षाकृत अधिक भयभीत होना चाहिये । मुस्लिम तत्ववादी भी निरंतर दूसरी दूसरी शिकायतें तो करते रहते हैं पर धर्म परिवर्तन की शिकायतें उनकी ओर से नहीं आतीं।
हिंदू समाज में भी सवर्ण और उच्चवर्ग में धर्म परिवर्तन की घटनाएं नहीं होतीं अपितु ये केवल दलित आदिवासी समाज में ही देखी सुनी जाती हैं। ये वे लोग हैं जो धर्म के मामले में सामान्यतय; बहुत ज्यादा जानने की फुरसत नहीं रखते। उनके द्वारा धर्म परिवर्तन, उनकी तात्कालिक ज्वलंत समस्याओं के हल से जुड़ा होता है। जो लोग भी, चाहे जिस कारण से इन्हें धर्म परिवर्तन से रोकना चाहते हैं उन्हें उनकी समस्याओं को हल करने की ओर अग्रसर होना चाहिये। खेद है कि वे ऐसा नहीं करते अपितु वर्णाश्रम धर्म वालों के साथ और समर्थन से ही अपना अस्तित्व बनाये हुये हैं।
धर्मपरिवर्तन का सीधा सम्बन्ध जातिवादी भेदभाव से है और जब तक ये भेदभाव समाप्त नहीं होगा तब तक संघ के डन्डों और संघी सरकारों के कानूनों से इसे रोका नहीं जा सकेगा।इस अवसर पर याद किया जाना चाहिये कि जिस गांधी को संघ परिवार से प्रेरित गोडसे ने गोली मारने के बाद कहा था कि मैंैने ऐसे सांप को मारा है जो हिन्दू धर्म को डस रहा था, वह गांधी अपेक्षाकृत अधिक समझदारी के साथ हिन्दू धर्म को बचाने के लिये प्रयासरत था। यदि गांधीजी के प्रयास व स्वतंत्रता आन्दोलन के साथसाथ हरिजनोद्धार न चलाया गया होता तो अब तक करोड़ों दलित धर्म परिवर्तन कर चुके होते। वर्तमान में चल रहे आरक्षण विरोधी आन्दोलन पर संघ परिवार को जो मुंह सिल कर बैठना पड़ा है उसके पीछे उनकी यही कमजोरी है।नागरिकों के धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा के लिये न्याय व्यवस्था को घ्यान देना चाहिये क्योंकि संविधान की मूल भावना ऐसी अपेक्षा रखती है।

मंगलवार, अगस्त 11, 2009

लोकतंत्र के हित में नहीं यह अंध श्रद्घा

लोकतंत्र के हित में नहीं यह अंध श्रद्धा
वीरेन्द्र जैन
जार्ज फर्नांडीज के पूर्वार्ध जीवन के प्रति पूरे सम्मान के बाबजूद नीतीश कुमार द्वारा इस समय उनको राज्यसभा में भेजा जाना और उनका स्वीकार कर लेना दोनों ही जुगुप्साजनक हैं। यह उस बिहार की जनता का अपमान भी है जिसने उन्हें हाल ही में उनके 'स्वास्थ' को दृष्टिगत रखते हुये उन्हें लोकसभा के लिए न चुन कर सांसद के रूप में उनकी ताजा क्षमताओं के प्रति अपना अविश्वास जताया था। अपनी श्रद्धा के लिए जनता के हितों को दाँव पर लगाने का नीतीश कुमार एन्ड कम्पनी को कोई अधिकार नहीं है।
इस दया से पूर्व राजनीति में वे किसी की कृपा के मोहताज नहीं रहे व कोई नहीं कह सकता कि उसने उन्हें रोपा था। जार्ज ऐसे नेता हैं जो अपने काम से नेता के रूप में क्रमश: विकसित हुये और उन्होंने अपनी देशव्यापी स्वीकृति बनायी। वे जब तक विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रिमंडल के सदस्य रहे तब तक वे विश्वसनीय रहे व जनता को उनसे बड़ी उम्मीदें रहीं। उनके प्रति यह जनता का विश्वास ही था कि इमरजैंसी के बाद हुये चुनाव में वे हथकड़ी डाले हुये अपने फोटो के माध्यम से चुनाव जीते और मोरारजी भाई मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री बने। उस दौरान उन्होंने दुनिया की सबसे ताकतवर कोका कोला को देश से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के समय उसी रेल विभाग के केन्द्रीय मंत्री बनाये गये जिसकी पटरियों को उड़ाने के प्रकरण में उन्हें कैद किया गया था ।
वे खाली हाथ मुंबई (तब की बम्बई) पहुँचे थे, फुटपाथ पर सोये थे व कुछ ही दिनों में वहाँ ट्रेडयूनियनों के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में सामने आये थे। मुंबई जो अपनी मिली जुली आबादी के कारण संवैधानिक हिन्दुस्तान का सच्चा नमूना है व जहाँ पर हर प्रदेश के लोग अपना 'देश' मान कर रहते रहे हैं, वहाँ उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र के मजदूरों का समर्थन जुटा कर उस समय महाराष्ट्र के सबसे शक्तिशाली नेता एस के पाटिल को हरा कर पूरे देश को चौंका दिया था। वे कुछ उन विरले राष्ट्रीय नेताओं में रहे जो हिन्दुस्तान के अलग अलग हिस्सों से चुनाव लड़े व समर्थन हासिल किया।
जनता पार्टी के शासनकाल में उन्होंने राजनारायण के साथ मिल कर अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की दोहरी सदस्यता के खिलाफ अभियान चलाया था और मोरारजी सरकार को गिरवाने में संकोच नहीं किया था। राजनारायण तो उन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे पर उन्होंने ही चौधरी चरण सिंह के नाम का सुझाव रखा था। 1989 के चुनाव के दौरान हिन्दू साम्प्रदायिकता की भयावहता के खिलाफ उनके भाषण रोमांचित कर देने वाले होते थे पर उस समय उन पर कभी कोई यह आरोप नहीं लगा सका कि वे किसी साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि पर खड़े होकर किसी समुदाय के तुष्टीकरण के लिए यह बोल रहे हैं।
कहते हैं कि सत्ता विचारभ्रष्ट करती है। बाद में जैसे जैसे उन्हें सत्ता की सुख सुविधाओं की आदत पड़ती गयी तब उन्होंने अपना हेयर स्टाइल और पहनावा तो नहीं बदला पर वे केन्द्र में मंत्री बने रहने के लिए किसी भी स्तर पर गिर कर सैद्धांतिक समझौते करने लगे यहाँ तक कि भाजपा के अडवाणी जैसे लोगों के साथ केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अपेक्षाकृत कनिष्ठ मंत्री बनना और साम्प्रदायिकता के सवाल पर मौन रहने का अभ्यास डालना भी आ गया। उन्होंने उड़ीसा में फादर स्टेंस और उसके दो मासूम बच्चों को जिन्दा जलाने वाले का बचाव करने की कोशिश की व संघ परिवार ने उन्हें ढाल की तरह स्तेमाल किया। उन्होंने गुजरात के भीषण नरसंहार पर आये अविश्वास प्रस्ताव के अवसर पर भी अटल बिहारी सरकार का बचाव कर अपनी छवि घूमिल की। उनके रक्षामंत्री रहते हुये ही कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ हुयी और कारगिल की पहाड़ियों को मुक्त कराने में हमें अपने पाँच सौ सैनिकों और अधिकारियों का बलिदान देना पड़ा। यही नहीं उनके विभाग में मृत सैनिकों के लिए खरीदे गये ताबूतों की खरीद में भी भ्रष्टाचार पाया गया। यहीं से उनके पतन का प्रारंभ होता है। उन्हें अटल बिहारी बाजपेयी के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन करने के लिए मजबूर होना पड़ा जबकि कभी वे इस कार्यक्रम के सख्त खिलाफ थे। तहलका के स्टिंग आपरेशन ने उनकी रही सही कसर भी पूरी कर दी थी जब उनकी पार्टी पदाधिकारी और घरेलू मित्र का नाम रक्षा सौदों के भ्रष्टाचार में छुपे कैमरों में कैद प्रमाण सहित सामने आया था। इस अवसर पर वे कुछ दिन के लिए मंत्रिमंडल से बाहर भी रहे। ये वे दिन थे जब उन्हें राजग की जगह 'अटल बिहारी का रक्षा मंत्री', कहा जाने लगा था। उन दिनों एक षड़यंत्र रच कर अमेरिका के एक अखबार में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी के स्वास्थ और आदतों के बारे में निंदात्मक समाचार प्रकाशित कराया गया था व उसे आधार बना कर आडवाणी को आनन फानन में उप प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी गयी थी जबकि उससे अगले ही दिन मंत्रिमंडल का विस्तार होना था और विश्वस्त सूत्रों के अनुसार आडवाणी और जार्ज दोनों को ही उपप्रधानमंत्री की शपथ दिलायी जाना थी किंतु आरएसएस व आडवाणीी को जार्ज का उपप्रधानमंत्री बनना मंजूर नहीं था।
स्मरणीय है कि जब 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी जनता दल (यू) ने उन्हें टिकिट देने से मना कर दिया तब उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा व पराजित हुये। इस चुनाव में उन्होने अपनी सम्पत्ति 15 करोड़ पचास लाख घोषित की जबकि पिछले चुनाव में यह, उनकी पत्नी की सम्पत्ति मिला कर भी, साढे तीन करोड़ थी। उन्हें उनके खराब स्वास्थ के नाम पर नीतिश कुमार व शरद यादव ने टिकिट देने से इंकार कर दिया था किंतु अगर वे चुनाव न लड़ें तो उन्हें राज्यसभा में भेजने का वादा किया था। वे नहीं माने थे व चुनाव लड़ कर बुरी तरह हारे। इस अवसर पर उनका कहना था कि राज्यसभा तो चुके हुये नेताओं की शरण स्थली है। उनके बयान से ऐसा लगता था कि वे कभी भी पिछले दरवाजे से संसद में प्रवेश करने के लिए राज्यसभा की उम्मीदवारी स्वीकार नहीं करेंगे किंतु उन्होंने जनता द्वारा ठुकराये जाने के बाद बहुत बेशर्मी से उन्हीं नीतीश कुमार और शरदयादव जैसे लोगों के सहयोग से राज्यसभा में जाने का पर्चा भी भर दिया जिन्होंने उन्हें पार्टी अध्यक्ष भी नहीं रहने दिया था। इतना ही नहीं वे जब राज्यसभा के सदस्य के रूप में शपथ पढने के लिए गये तो अपने खराब स्वास्थ के कारण शपथ तक नहीं पढ सके जिसे किसी दूसरे ने पढा और वे केवल बुदबुदाते रहे। संयोग से उन पर दया दिखलाते हुए उसे पढा हुआ मान लिया गया।
ऐसा लगता नहीं है कि भविष्य में वे संसद में बोल भी सकेंगे या राजनीतिक घटनाक्रम पर सहज रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकेंगे। उनकी पत्नी लैला कबीर जो कुछ वर्षों से उनके साथ नहीं रहतीं, ने भी कहा था कि जो लोग उन्हें चुनाव लड़वा रहे हैं वे उनके शुभ चिंतक नहीं हैं क्योंकि उन्हें संसद में जाने की नहीं अपितु बेहतर देखभाल की जरूरत है। तब समझ में नहीं आता कि जनता द्वारा नकार दिये जाने के बाद आखिर वे क्यों सदन में बने रहना चाहते हैं! क्या उन पर किसी निकटस्थ अनजान व्यक्ति का दबाव है कि वे पद पर बने रहें.
स्मरणीय है कि मंत्री होने के दौरान उन पर सन 2000 में इजरायल से बराक मिसाइल सिस्टम खरीदने के मामले में 10अक्टूबर 2006 को उनके, उनकी मित्र जया जेटली, और नौसेना प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार के खिलाफ सीबीआई ने एक प्रकरण दर्ज किया था। पर जिसके बारे में जार्ज का तब कहना था कि उस सौदे को उस समय के रक्षा सलाहकार जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने एपीजे अब्दुल कलाम ने सहमति दी थी। यह प्रकरण अभी लंबित है। जार्ज साहब केन्द्र में मंत्री रहते हुये न केवल म्यांमार(बर्मा) के अलगाव वादियों के ही खुले पक्षधर रहे हैं अपितु लंका में सक्रिय रहे लिबरेशन टाइगर आफ तमिल इलम (लिट्टे) के समर्थक भी रहे हैं। वे भारत में रह रहे तिब्बतविद्रोहियों के रक्षक और शरणदाता रहे हैं। कहते हैं कि इन पड़ोसी देशों के कई वांछित लोग उनके रक्षामंत्री निवास में शरण पाते रहे हैं। वे समाजवादी चीन को अपना दुशमन नम्बर वन बताते रहे हें जबकि उनके बयानों का हर बार ही सेना के बड़े अधिकारियों ने खण्डन किया है। चीन से दुश्मनी बनाये रखने के लिए वे समय समय पर चीन के हमलों का शगूफा छोड़ते रहते हैं जबकि चीन कोई साम्राज्यवादी देश नहीं है, और ना ही उसकी अर्थव्यवस्था शस्त्र उद्योग पर आधारित है। इसके बाबजूद भी अमेरिका की निगाह में उनकी हैसियत यह है कि देश के रक्षा मंत्री होते हुये भी सन 2002 में डयूल्स हवाई अड्डे पर उनकी कपड़े उतार कर तलाशी ली गयी थी व वे उफ भी नहीं कर सके थे।
बहुत सम्भव है कि नीतीश और शरद यादव ने उनकी उम्र और सेवाओं को देख कर ही उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाने में रूचि ली हो किंतु यह श्रद्धा देश और जनता को मँहगी पड़ सकती है और उसके छींटे नीतीश सरकार पर भी पड़ सकते हैं। देश का उच्च सदन कोई वृद्धों और बीमारों और आरोपितों की शरणस्थली नहीं है, यह देश का भविष्य तय करने वाला पवित्र स्थल है।

मंगलवार, अगस्त 04, 2009

राजधानी में विकास का नेपथ्य और भविष्य

राजधानी में विकास का नेपथ्य और भविष्य
वीरेन्द्र जैन

राजधानी चाहे देश की हो या प्रदेशों की , वे बहुत तेजी से फल फूल रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उनका यह विकास देश के अन्य क्षेत्रों के विकास की कीमत पर हो रहा है। गांवों और कस्बों में रहने वालों में भी राजधानी में पहुंचने के सपने पलते रहते हैं। राजधानियों के इस आकर्षण के पीछे वहां विकसित अच्छे मार्ग, अच्छे शिक्षा संस्थान, अच्छी चिकित्सा सुविधाएं,निरन्तर विद्युत आपूर्ति, आवागमन के प्रचुर साधन, कल्पवृक्षी बाजार, रोजगारों की अपेक्षाकृत बेहतर सम्भावनाएं,बेहतर कानून व्यवस्थाएं, मीडिया की उपस्तिथि के कारण न्याय की उम्मीदें आदि हैं ।
ये सुविधाएं भले ही मंहगी हैं पर उन लोगों के लिए उपलव्ध तो हैं जिनके लिये मंहगाई कोई समस्या नहीं है। असल में सचाई तो यह है कि राजधानियां उन लोगों का निवास स्थल बनती जा रही हैं जिनके पास भरपूर पैसा है और जिसे खर्च करने में उन्हें कहीं कोई कचोट महसूस नहीं होती। इस बेतरतीब फैलाव से न केवल मंहगाई ही बढ रही है अपितु आवश्यक सेवायें भी मँहगी होती जा रही हैं जिससे इन क्षेत्रों के मूल निवासियों की परेशानियां बढ रही हैं।

राजधानियों में बसते चले जाने वाले इन लोगों का आर्थिक सामाजिक अध्ययन दिलचस्प है।नगर के किनारों की ताजा हवा वाली नई नई कालोनियों में रिटायर्ड लोगों की भरमार है। लगभग नव्बे प्रतिशत न्यायाधीश,आई.ए.एस.,आई.पी.एस. और प्रथम श्रेणी अधिकारी सेवा निवृत्ति के बाद राजघानी में ही बसना पसन्द करते हैं जहां उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद वाली मुफ्त स्वास्थ सुविधाएं तो मिलती ही हैं,साथ ही उच्चकोटि की बैंकिंगसुविधाएं,शेयरबाजार आदि में निवेश की सुविधाएं व वांछित मनोरंजन की समस्त सुविधाएं भी उपलव्ध होती हैं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुये यह कहना गलत नहीं होगा कि उपरोक्त सेवानिवृत्त अधिकारियों में से अधिकांश के पास उनकी वैधानिक कमाई से कहीं बहुत अधिक धन उनकी अवैध कमाई का होता है । अपनी भरपूर पैंशन के साथ-साथ वे कुशल निवेश के द्वारा भी अपने व्ययों से अधिक कमाते भी रहते हैं। इन अधिकारियों के अलावा कभी विघायक या मंत्री रहे राजनेता और उनके परिवार,उनके दलाल जो अब अपने को लाइजिनिंग आफीसर जैसे नये नाम से पुकारा जाना पसन्द करते हैं,इन्सपैक्टरों जैसी भरपूर कमाई के पदों पर रहे लोगों की भी बहुतायत राजधानी में ही बस जाना पसन्द करती है। इनकी जीवनशैली भी लगभग उपरोक्त लोगों जैसी ही होती है। अपनी अवैध कमाई को निबटाने के लिये ये शानदार बंगलों का निर्माण कराते हैं और जीवन की प्रत्येक सुविधादायी सामग्री खरीद लेते हैं।इन्हीं लोगों की ग्राहकी पाने के लिये भरपूर मुनाफे वाले शोरूम, व साफसुथरे सुपरबाजार भी जगह जगह उगने लगते हैं। राजधानियों के बाजारों का चालीस प्रतिशत हिस्सा सौन्दर्य प्रसाधनों और फेशनेबिल वस्त्रों से पट गया है। इलौक्ट्रानिक्स व सुख देने वाले इलैक्ट्रिकल सामानों पर विदेशी कम्पनियों का वर्चस्व है। उनके मुनाफे की कल्पना तक कठिन है। एल जी का जो टीवी कभी बीस हजार में बेचा जा रहा था वही आज सात हजार में बिकने लगा है जबकि उत्पादन लागत तो बड़ी ही होगी। यही हाल कम्प्यूटरों का है और मोबाइलों का भी है। इन सामानों के सबसे बड़े ग्राहक भी ये राजधानी में बस जाने वाले ये ही लोग हैं। परोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि विकसित हो रहे बाजार में भ्रष्टाचार से अर्जित धन की बड़ी हिस्सेदारी है।

केन्द्र में इस समय यू.पी.ए. की सरकार है जो पहले बामपंथियों के समर्थन पर निर्भर थी. बामपंथी अपने प्रभाव का स्तेमाल करते हुये नये टैक्सों या पुराने टैक्सों में वृद्धि नहीं होने दे रहे थे। उनका कहना था कि पूर्व में ही लगाये गये टैक्सों को वसूल किया जाये व छुपाये हुये धन को बाहर निकलवाने के प्रयास किये जायें। उन्होंने सरकार को कुछ उपाय भी सुझाये थे जिनमें से अनेक के लिये सरकार ना नहीं कर सकी थी। वीरप्पा मोइली ने अपनी रिपोर्ट में विश्वास व्यक्त करते हुये कहा है कि यदि उसकी सिफारिशें लागू की जाती हैं तो चार साल में भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है। शेयरों में निवेश करने वालों से पैनकार्ड की अनिवार्यता का पालन कराया जाने लगा है। स्त्रोत पर कर कटौती में डेढ सौ प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। आयकर छापों में कुछ बड़ी मछलियां जाल में फंसने लगी हैं। ये सारे संकेत यह दर्शाते हैं कि यदि राजनीतिक हालात ऐसे ही रहे तो भविष्य की दिशा क्या होगी। भ्रष्टाचार से कमाये धन का बड़ा भाग राजधानियों में केन्द्रित है अत: तय है कि इसका प्रभाव राजधानियों के वर्तमान स्वरूप पर भी पड़ेगा। अभी अपनी ऊपरी कमाई को व्यवस्थित करने के लिये अधिकांश नये उपरोक्त राजधानीवासियों ने कई कई प्लाट, या फलैट डाल रखे हैं जिनकी निरन्तर मूल्यवृद्धि हो रही है। यदि वीरप्पा मोइली की रिपोर्ट लागू होगी तो सबसे अधिक प्रभाव इनकी कीमतों पर ही पड़ेगा। राजधानियों के अनियंत्रित फैलाव और बिल्डरों के व्यापार पर भी इसका प्रभाव सम्भव है । जो बाजार भ्रष्टाचार से अर्जित धन पर फल फूल रहा है उस बाजार पर अंकुश लगेगा।

शनिवार, अगस्त 01, 2009

वेतन वृद्धि और जिम्मेवारियां

कर्मचारियों को वेतनवृद्धि और उनकी जिम्मेवारियां
वीरेन्द्र जैन
केन्द्रीय व राज्य सरकारों के कर्मचारियों के लिए छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जो वेतनवृद्धियाँ हुयी हैं उनसे सरकारी कर्मचारियों और गैर सरकारी कर्मचारियों तथा पेंशन पाने वालों और पेंशन न पाने वालों के बीच वेतन/पेंशन की खाई और चौड़ी हो गयी है। इससे सरकार पर अरबों रूपयों का अतिरिक्त भार भी पड़ा है जिसकी भरपाई भी अंतत: जनता से उगाहे गये धन से ही की जानी है इसलिए इसका असर भी गैरसरकारी कर्मचारियों को अलग से भुगतना पड़ेगा।
वेतन वृद्धि की मांग के दो आधार होते हैं एक होता है बढती मंहगाई के कारण पुराने वेतन की क्रयशक्ति कम हो जाती है जिसकी पूर्ति नये वेतनमान लागू करके ही हो सकती है। दूसरा यह कि विकसित होते समाज में रहन सहन का स्तर बदल जाता है जिसके लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ने लगती है। कहने का अर्थ यह है कि वेतनवृद्धि कर्मचारियों का एक सुनिश्चित जीवन स्तर को बनाये रखने के लिए की जाती है दूसरी ओर गैर सरकारी कर्मचारियों को भी उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ता है पर उनको राहत का कोई उपाय सरकार के पास नहीं मिलता। सरकारी कर्मचारियों को पेंशन और स्वास्थ योजना के अर्न्तगत सरकारी खर्च पर आजीवन सपरिवार इलाज की सुविधा भी उपलब्ध रहती है, इसलिए उन्हें वुद्धावस्था के लिए धन जोड़ने की मजबूरी नहीं होती जबकि गैर सरकारी कर्मचारी को ऐसी व्यवस्था के लिए धन का संचय करना पड़ता है।
अर्थशास्त्र कहता है कि एक आदमी का खर्च दूसरे की आमदनी होता है इसलिए समाज में आने वाला प्रत्येक रूपया एक से दूसरे के पास जाकर अर्थव्यवस्था को गतिमान करता है व अपनी प्रत्येक गति में सरकार के लिए कुछ न कुछ टैक्स के रूप में सरकार के लिए छोड़ता जाता है। इस तरह समाज में उतरा धन फिर से सरकार के खजाने में पहुँचता रहता है व व्यवस्था चलती रहती है। मन्दी के समय में उत्पादन के केन्द्रों को गतिमान बनाये रख कर मेहनतकशों के रोजगार को बनाये रखने के लिए धन का प्रवाह करना जरूरी हो जाता है इसलिए ऐसे समय में वेतनवृद्धि करना महत्वपूर्ण वित्तीय उपाय भी है बशर्ते यह सैद्धांतिक होकर ही न रह जाये। यदि हम किसी समाज के सामाजिक सांस्कृतिक व्यवहार को दृष्टि में रखे बिना केवल आर्थिक सिद्धांतों के आधार पर फैसले लेते हैं तो त्रुटि की संभावनाएँ बनी रहती हैं। जैसे कि जीवनयापन और जीवन स्तर के विकास के लिए की गयी वेतन वृद्धि को बेटी के दहेज के लिए जोड़ कर रखने की आदत धन के प्रवाह को अवरूद्ध कर देती है जबकि दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध की श्रेणी में आते हैं।
वेतन की मांग भले ही बढती मंहगाई और विकासमान जीवन स्तर के आधार पर की जाती हो किंतु बढा हुआ वेतन सदैव बाजार में आकर खर्च नहीं होता है। जब यह पैसा बाजार में नहीं आता है तो अर्थ व्यवस्था के पहिये को आगे नहीं बढाता है। इसलिए इस मंदी की दशा में आवश्यक है कि वेतनवृद्धि अनुशसित वास्तविक व्यय से अधिक न हो। सरकारी कर्मचारियों के मामले में अब लगभग शतप्रतिशत वेतन भुगतान बैंकों के द्वारा होता है इसलिए यह संभव है कि उनको मिलने वाले वेतन और उसके वास्तविक व्यय पर एक अध्ययन रिपोर्ट तैयार की जाये जिससे उनकी वास्तविक जरूरतों और उपयोग पर दृष्टि डाली जा सके।
सरकारी कर्मचारियों को जो वेतन मिलता है वह आम जनता से विभिन्न प्रत्यक्ष या परोक्ष टैक्सों के द्वारा वसूला जाता है। वे सेवानिवृत्ति के बाद भी सरकार से आजीवन पेंशन पाते रहते हैं व उनके निधन के बाद उनके परिवार को भी पेंशन मिलती रहती है। जब जनता अपनी गाड़ी कमाई से उनका आजीवन पालन पोषण करती है तब कर्मचारियों का यह दायित्व भी होता है कि वे भी समाज को कम से कम उतनी सेवा तो दें ही जितनी कि देना उनके द्वारा स्वीकृत सेवा शर्तों में आता है व उन्हें जनता के पैसे से जिस स्तर की सुविधाएं प्राप्त हैं वे उसके साथ बेईमानी न करें।
वेतन और पेंशन जीवन यापन के लिए होती हैं ना कि पूंजी बनाने के लिए। आज सरकारी कर्मचारियों को सेवा काल में ही नहीं अपितु उसके बाद भी स्वास्थ सेवायें नि:शुल्क उपलब्ध होती हैं उन्हें सेवाकाल में सरकारी मकान ही नहीं अपितु मकान बनाने के लिए बैंकों से ऋण भी उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सरकारी कर्मचारियों को आजीवन एक सुरक्षा प्राप्त रहती है। यही कारण है कि लोग अधिक वेतनमान की नौकरी की जगह सरकारी नौकरी को अधिक महत्व देते हैं। किंतु खेद है कि नौकरशाही को सर्वाधिक गैर जिम्मेवार तथा कार्यों में अवरोध लगाने वाला पाया गया है व आम जनमानस उनसे असन्तुष्ट पाया जाता है। किसी सरकारी कार्यालय में जाते समय आम आदमी को भय की अनुभूति होती है। यह भय उपेक्षा अपमान र्दुव्यवहार का ही नहीं अपितु रिश्वत मांगे जाने और इस रिश्वत की सौदेबाजी के लिए काम को जबरदस्ती अटकाने के रूप में भी महसूस किया जाता है।
जब आज सरकारी नौकरियों की संख्या दिनोंो दिन कम हो रही है व इन नौकरियों में वेतनमान अपेक्षा से भी अधिक मिल रहा है जिसके लिए राज्य सरकार के कर्मचारियों के प्रतिनिधि अपनी मांगों के स्थान पर सरकार की कृपा के प्रति आभार व्यक्त कर रहे हों तब इस समय में यह जरूरी हो जाता है कि थोड़ी बात कर्मचारियों की जिम्मेवारी और कार्य निष्पादन की भी कर ली जाये।
अभी जब मध्यप्रदेश की राजधानी में एक किसान ने कचहरी परिसर में ही आत्महत्या कर ली क्योंकि कई साल भटकने के बाद भी उसका वैध काम नहीं हो सका तब प्रदेश के मुखिया ने पाया कि यह हालत केवल राजधानी की ही नहीं है अपितु पूरे प्रदेश में सरकारी कर्मचारी जनता के साथ इसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं। आज लाखों फाइलें केवल रिश्वत की राशि की सौदेबाजी के लिए ही अटकी पड़ी हैं और कार्यालयों के बाहर आम आदमी को यह कहते सुना जा सकता है कि अच्छा हों कि सरकार रिश्वत के रेट तय कर दे जिससे कम से कम समय और भटकन तो बचेगी। ट्रेड यूनियनों का गठन श्रमिकों की न्यायोचित मांगों के लिए किया गया था किंतु अब अनेक मामलों में यह संस्था कामचोरी व कहीं कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली कार्यवाही से सुरक्षा पाने के लिए रह गयी है। ट्रेड यूनियन नेता अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लीडर की जगह अपराधियों को बचाने वाले वकीलों में बदल गये हैं। प्रतिमाह दिया जाने वाला यूनियन का चंदा सुरक्षा प्रीमियम बन गया है। इसलिए जब कर्मचारियों को नये और बड़े वेतनमान दिये जा रहे हैं तब यह सुनिश्चित भी किया जाना चाहिये कि कर्मचारी उनको दिया गया तयशुदा काम बिना देर किये और बिना कुछ लिये दिये करें व कार्यालय में आये हुये आम नागरिक के साथ सहयोग व सम्मान से पेश आते हुये करें। जानबूझ कर व अवैध लाभ को पाने के लिए काम में देर करने वालों के प्रति कठोर कार्यवाही करने का भी यही उचित समय है। इस अवसर पर कर्मचारी नेताओं की कार्यसीमायें भी तय कर दी जाना चाहिये जिससे उनके आन्दोलन को दूरगामी लाभ पहुँचेगा।