मंगलवार, अगस्त 18, 2009

भाजपा में आतंरिक लोकतंत्र का संकट

भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र का संकट
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों एक बार फिर भाजपा में आन्तरिक लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगे जब राजस्थान विधानसभा में विधायक दल की निर्वाचित नेता वसुंधरा राजे विधानसभा में विधायक दल के 78 विधायकों में से 57 को साथ लेकर दिल्ली पहुँचीं पर भाजपा के वरिष्ठतम नेता संसद में विपक्ष के नेता पद को सुशोभित करने वाले पूर्वउपप्रधानमंत्री तथा गत चुनावों में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी रहे लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी ही पार्टी के उन लोगों से वैसे ही बात करने से इंकार कर दिया जैसे कभी जयललिता ने एनडीए अध्यक्ष जार्ज फर्नांडीज से कर दिया था। फासिज्म का यही गुण होता है कि वे संवाद में भरोसा नहीं करते। अपने जीवन के एक पक्ष की 'जीवनी' के लेखक श्री आडवाणी राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से बाहर आकर इतना तो कह सकते थे कि संगठन के मामले में वे पार्टी अध्यक्ष से ही सम्पर्क करें।
ऐसा नहीं है कि श्री आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष के फैसले अपने विवेक से पूर्व में न बदलवाये हों। पिछले वर्ष ही महाराष्ट्र में जब पार्टी के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित करने वाले बाल आप्टे, राम नाइक और वेदप्रकाश गोयल की सलाह पर राजनाथ सिंह ने श्री मधु चव्हाण को प्रदेश पार्टी का अध्यक्ष बना दिया था तब श्री आडवाणी ने ही अपने प्रभाव से उनका फैसला बदलवा दिया था और श्री गोपीनाथ मुंडे को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनवा दिया था। स्मरणीय है कि श्री मुंडे उन प्रमोद महाजन की विरासत को सम्हाल रहे हैं जिनकी हत्या के आरोपी उन्हीं के छोटे भाई ने उन पर दो हजार करोड़ रूपये एकत्रित करने के आरोप लगाये थे। अवैध सम्पत्ति विवाद में हुयी प्रमोद महाजन की हत्या को भाजपा शहादत बताती है और उन्हें शहीदों की तरह स्मरण करती है। पिछले दिनों उनकी हत्या के दिन को पुण्यतिथि की तरह मनाते हुये जो पंक्तियां- तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें- लिखी गयी थीं वे देश के अमर शहीदों के लिए लिखी जाती हैं जो देश के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं। इतना ही नहीं भाजपा ने प्रमोद महाजन की अस्थियां विसर्जित होने के पूर्व ही उनके बेटे को सांसद बनाने की ठान ली थी, पर चुने जाने के पूर्व ही उसने ऐसी 'जवानी की भूल' कर दी थी कि कोई दूसरा दल होता तो शर्म से डूब जाता किंतु यह भारतीय संस्कृति का मुखौटा लगाने वाली भाजपा थी जिसने उसके बाद भी हिम्मत नहीं हारी और प्रमोद महाजन की बेटी को गोवा विधानसभा में प्रत्याशी बनाना चाहा किंतु उसके अस्वीकार के बाद उसे भारतीय जनता युवा मोर्चा की राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी देकर ही उन्होंने संतोष की सांस ली।
वसुंधरा राजे को भी कुछ कुछ इसी तरह राजस्थान पर थोपा गया था क्योंकि भाजपा चुनावों में धन के महत्व को सबसे अधिक समझती है और उसकी राजनीति में लोकप्रिय व्यक्तित्व, धन और धार्मिक व राष्ट्रीय भावनाओं का विदोहन ही प्रमुख कूटनीतिक औजार हैं। वसुंधरा के कार्यकाल में असल शासन तो संघ और आडवाणी द्वारा मनोनीत लोगों ने परदे के पीछे से चलाया व संघ के संस्थानों के लिए करोड़ों की जमीनें और भवन बना लिए गये जिसकी जाँच अभी चल ही रही है। वसुंधरा राजे ना तो अच्छी राजनेता ही हैं और ना ही कुशल वक्ता। उन्हें प्रशासन का भी कुछ अनुभव नहीं है व वे जल्दी ही उत्तेजित हो जाती हैं। 1989 के लोकसभा चुनावों में जब वे भिण्ड दतिया लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गयी थीं तो खीझ कर उन्होंने दतिया के सरकिट हाउस में अपने तत्कालीन जिला अध्यक्ष को गुस्से में एशट्रे फेंक कर मारी थी। राजस्थान की राजनीति से कोई वास्ता न होते हुये भी उन्हें इसलिए मुख्यमंत्री पद सोंप दिया गया था जिससे वे अपने परिवार के साथ चल रहे सम्पत्ति विवाद को अपने पक्ष में सुलझा सकें, जो इसी कार्यकाल के दौरान सुलझा भी लिये गये।
किंतु हमने अपने देश और उसमें काम करने वाले दलों ने लोकतांत्रिक पद्धति अपनायी है। इस लोकतंत्र के लिए हमने बड़े बड़े खतरे तक उठाये हैं। बिहार में राबड़ी देवी द्वारा पाँच साल तक खराब शासन केवल इसीलिए सहन किया गया क्योंकि बहुमत उनके पास था। गुजरात में नरेन्द्र मोदी जैसों के भयानक मनुष्यता को कलंकित करने वाले कारनामों को भी लोकतंत्र के नाम पर देश ने सह लिया पर वही संघ परिवार का यह राजनीतिक मुखौटा अपने दल में लोकतंत्र को जूते की नोक पर रखता रहा है। मध्यप्रदेश में भी भाजपा की सरकार बनवाने वाली उमाभारती को जब पार्टी से निकाला गया तो वे लोकतंत्र लोंकतंत्र चिल्लाती रह गयीं पर विधायकों का पक्ष जाने बिना ही शिवराज सिंह को थोप दिया गया। उन्होंने सारे दरवाजों पर मत्था टेका पर उनकी गुहार किसी भी भाजपा नेता ने नहीं सुनी। उमा भारती ही नहीं मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, भगतसिंह कोशयारी, बाबू लाल मराण्डी, बिहार के विधायकों का समूह, सबके सब केन्द्रीय नेतृत्व की लोकतंत्र विरोधी नीतियों के शिकार रहे हैं। स्वयं आडवाणी को भी जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की संसद में 11 अगस्त 1947 के भाषण की प्रशंसा के कारण संघ के आदेश पर पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था जबकि बाद में उनके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चुने जाने से उनके प्रति समर्थन का पता चलता है।
आडवाणी ने ही नहीं राजनाथ सिंह ने भी अपना समर्थन प्रदर्शित करने आये विधायकों के दल से कहा कि वे लोग एक साथ दिल्ली क्यों चले आये कोई दो चार लोग आकर भी अपनी बात कह सकते थे। जबकि सच यह है कि यदि इतने लोग नहीं आये होते तो वे आसानी से समर्थन की जाँच के बहाने विधायकों को बहलाने फुसलाने का इंतजाम कर सकते थे। बाद में जयपुर पहुँच कर वसुंधरा ने लोकतंत्र के नाम पर त्यागपत्र न देने की घोषणा कर दी किंतु ऐसा लगता नहीं है कि वे अपनी बात पर टिक सकेंगीं। वसुंधरा यदि विद्रोह करतीं हैं तो उनसे करवाये गये गैर कानूनी काम बाधक बनेंगे जिनके भय से वे समपर्ण कर देंगीं। कुल मिला कर सच तो यह है कि चमक खोती जा रही भाजपा अपने अंर्तद्धंदों में घिरती जा रही है। गत दिनों भोपाल में भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा द्वारा किये गये आयोजन में शाहनवाज खान ने सुषमा स्वराज को आडवाणी का उत्तराधिकारी करके नये विवाद को जन्म दे दिया है।
वीरेन्द्र जैन
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