रविवार, जुलाई 19, 2015

व्यापम और आसाराम प्रकरणों में मौतों के अंतर्सम्बन्ध



व्यापम और आसाराम प्रकरणों में मौतों के अंतर्सम्बन्ध     
वीरेन्द्र जैन

किसी राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल का दायित्व होता है कि वह प्रत्येक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय घटना पर अपने दल की नीतियों के अनुसार अपना रुख स्पष्ट करे। उसके ऐसा न करने के पीछे यह समझना कठिन नहीं होता कि वह दल उस विषय पर अपनी राय को साफ साफ नहीं बतलाना चाहता और इस तरह एक ओर तो अपने समर्थकों को असमंजस में छोड़ता है और दूसरी ओर अपने अवसरवादी रुख से समाज को धोखा देना चाहता है। भारतीय जनता पार्टी इस या उस बहाने से अनेक मामलों में ऐसा ही रुख अपनाती है। जो पार्टी अक्सर ‘जाँच जारी है’ या ‘मामला न्यायालय में है’ कह कर अपना दामन बचा जाती है उसी पार्टी के गृहमंत्री समेत लगभग प्रत्येक बड़े नेता ने व्यापम की सीबीआई जाँच शुरू होते ही मध्य प्रदेश सरकार के मुख्य मंत्री को निर्दोष बताना शुरू कर दिया। क्या गृहमंत्री, जिनके कार्यक्षेत्र में सीबीआई काम करती है, के इस बयान से सीबीआई के जाँच अधिकारियों की जाँच प्रभावित नहीं हो सकती है?
       इसी दौरान, जब इस कांड में हुयी एक मौत की जाँच करने वाले राष्ट्रीय चैनल से जुड़े एक पत्रकार की असमय और अस्वाभाविक मृत्यु हो गयी तब व्यापम घोटाले की जाँच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा गया था, और तब ही एक और बड़ी घटना घटी। वह घटना बाबा भेष में रहने वाले आसाराम और उसके बेटे से जुड़े बलात्कार प्रकरण से सम्बन्धित नौवें गवाह पर हमला होने और इन हमलों में तीसरी मौत होने की थी। इस हत्या ने पूरे देश को हिला दिया तथा भारी पूंजी एकत्रित करने वाली धार्मिक संस्थाओं और न्याय के उपकरणों पर गम्भीर सवाल खड़े किये। इस दौरान इन हमलों और हत्याकांडों पर जाँच की शिथिलता के कारण और जाँच और न्याय व्यवस्था पर पड़ने वाले धन के दबाव भी चर्चा में रहे। प्रत्येक न्यायप्रिय व्यक्ति ने इन हमलों पर दुख व्यक्त किया और लगातार जाँच के निष्कर्षहीन रहने की निन्दा की। यह विचारणीय है कि इस मामले में भी भाजपा से जुड़े नेताओं के स्पष्ट विचार सामने नहीं आये व मुखर से मुखर प्रवक्ता दाँएं बाएं करते दिखे। क्या केन्द्र में सत्तारूढ राजनीतिक दल ऐसी महत्वपूर्ण घटनाओं पर अस्पष्ट और उदासीन हो सकता है? 
       पिछले दशकोंक का इतिहास बताता है कि भाजपा हिन्दू समाज से जुड़े प्रत्येक पंथ के संस्थानों का तुष्टीकरण करने के चक्कर में अनेक धार्मिक संस्थाओं के अन्धविश्वासो. उनके अनेक आश्रमों में पल रहे अनाचार, भ्रष्टाचार, और आर्थिक सामाजिक अपराधों के खिलाफ मुँह नहीं खोलना चाहती। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह इन्हीं संस्थानों से मिले समर्थन से चुनावी लाभ पाती रही है भले वे समाज के लिए कितने भी गैरकानूनी और घातक कार्यों में लिप्त हों। आसाराम प्रकरण भी उनमें से ही एक है। आसाराम के ऊपर न केवल गम्भीर आरोपों पर प्रकरण दर्ज हैं अपितु उनका पूरा इतिहास ही तरह तरह के रहस्यों से भरा हुआ है। उन पर धर्म के नाम पर भूमि व भवनों पर अवैध कब्जों से लेकर सरकारी व सेना की जमीनों पर भी अतिक्रमण के आरोप लगे हैं। कुछ ही वर्षों में उनकी दौलत में अकूत वृद्धि हुयी है। भाजपा के अधिकांश प्रमुख नेता उनके आश्रम में जाते रहे हैं व उनके चरण स्पर्श से लेकर गले लगने तक के फोटो सूचना माध्यमों में भरे पड़े हैं। उल्लेखनीय है कि जब दक्षिण के एक शंकराचार्य पर लगे गम्भीर आरोपों पर उन्हें कानून के अनुसार गिरफ्तार करने की नौबत आयी थी तो गिरफ्तारी के विरोध में भाजपा नेताओं ने दिल्ली में धरना देने का कार्यक्रम बनाया था। उन दिनों भाजपा हाल ही में केन्द्र से अपदस्थ हुयी थी व उनके धरने में बहुत कम लोग जुटे थे, तब आसाराम ने संख्या बड़ाने के लिए अपने सैकड़ों अनुयायियों को भेज कर भाजपा का सम्मान बचाया था। यही कारण था कि आसाराम ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को कभी अधिक महत्व नहीं दिया था व अतिक्रमण विरोधी अभियान में उनके अहमदाबाद स्थित आश्रम का कुछ भूभाग आ जाने पर उनके प्रति असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। इसका परिणाम यह हुआ था कि गुजरात में आसाराम के पुत्र नारायण स्वामी के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट निकल गया था। स्मरणीय है कि उस दौरान नारायण स्वामी को शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने मध्य प्रदेश में शरण दी थी और जब वे भाग कर इन्दौर पहुँचे थे तो कैलाश विजयवर्गीय ने शिवराज से उनकी एक घंटे गुप्त वार्ता करवायी थी। पिछले दिनों जब बलात्कार के आरोप में आसाराम की गिरफ्तारी के लिए राजस्थान की पुलिस उनके पीछे आयी थी तो भी उन्होंने मध्य प्रदेश के भोपाल व इन्दौर में ही शरण ली थी और उन्हें इन्दौर से ही गिरफ्तार किया गया था। उल्लेखनीय यह भी है इतने गम्भीर और शर्मनाक आरोप में उनकी गिरफ्तारी होने पर मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ भाजपा के सारे प्रमुख नेता उनके पक्ष में उतर आये थे जिनमें कैलाश विजयवर्गीय, उमाभारती व छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह व तत्कालीन गृहमंत्री ननकी राम आदि भी थे। संयोग से इसी दौरान नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किया जा रहा था और उनके निर्देश पर समस्त समर्थकों ने चुप्पी ओढ ली थी।
अभी हाल ही में भाजपा नेताओं के आर्थिक भ्रष्टाचरण के चर्चित होने के समानांतर उनका झुकाव फिरसे आसाराम की ओर हो रहा है और उसके एक वरिष्ठ नेता सुब्रम्यम स्वामी  आसाराम की जमानत कराने के लिए वकालत करने पहुँच गये हैं। आसाराम के प्रमुख पक्षधर कैलाश विजयवर्गीय को भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव मनोनीत किया गया है। वैसे भी भाजपा नेता आतंक से लेकर हत्या के आरोपों से घिरे भगवा भेष धारियों की पक्षधरता में कभी पीछे नहीं रही है।
उल्लेखनीय है कि धार्मिक संस्थानों और राजनीतिक दलों दोनों के आर्थिक स्त्रोत पारदर्शी नहीं हैं न ही उनके व्यय ही पारदर्शी होते हैं। नेताओं पर करोड़ों रुपयों के लेन देन के आरोप लगते रहे हैं और बाबाओं के आश्रमों में करोड़ों के खजाने मिलते रहे हैं। सवाल है कि क्या इनके बीच में कुछ धन का आदान प्रदान होता रहता है? जब भी धार्मिक आश्रमों के खजानों की जानकारी सार्वजनिक होती है तो उनके यहाँ सोने चाँदी के साथ ढेर सारी नगदी भी मिलती है। सवाल यह उठता है कि इन आश्रमों में इतनी नगदी क्यों और कैसे एकत्रित रहती है? यदि उनका धन अवैध नहीं है तो उस राशि को बैंकों में जमा कर ब्याज पाने के साथ साथ सुरक्षा भी क्यों नहीं करते?  
       वैसे तो न्यायपालिका स्वतंत्र है किंतु न्याय गवाहों सबूतों और सरकारी वकील द्वारा प्रकरणों के प्रस्तुतीकरण पर निर्भर करता है। कहने की जरूरत नहीं कि अगर गवाहों की हत्याएं हो रही हों और अपराधियों को खोजने में पुलिस सफल नहीं हो पा रही हो तथा जाँच अधिकरण व सरकारी वकीलों को राज्य सरकार की कृपा की अपेक्षाएं हों तो निष्पक्ष व स्वतंत्र न्यायपालिका भी न्याय कैसे दे पायेगी। उजैन में प्रो. सबरवाल का प्रकरण अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है।
क्या राजनीतिक दलों, उसके नेताओं और कथित धार्मिक संस्थाओं के बीच धन सम्पत्ति के लेन देन पर कोई जाँच प्रकाश डाल सकेगी? 
 वीरेन्द्र जैन                                                                        
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गुरुवार, जुलाई 16, 2015

खुली आँखों देखा म,प्र, बन्द



खुली आँखों देखा म,प्र, बन्द
वीरेन्द्र जैन

       मध्य प्रदेश में लगभग एक लाख करोड़ का प्रवेश परीक्षा व नियुक्ति घोटाला हुआ जिसका राज खुलने से बचाने में घोटालेबाजों द्वारा 47 से अधिक कीमती जानें ली जा चुकी है। इसमें प्रदेश के पचासों विशिष्ट व्यक्ति आरोपी हैं, आरोपियों सहित दो हजार के करीब छात्र और उनके अभिभावक जेल में हैं व पाँच सौ आरोपी फरार हैं। इस घोटाले के खिलाफ 16 जुलाई को विपक्षी दल काँग्रेस और बामपंथी पार्टियों द्वारा बन्द आहूत किया गया था। आरोपियों ने केवल इतना बड़ा आर्थिक घोटाला ही नहीं किया अपितु हजारों सुपात्रों को उनके अधिकार से वंचित करके कुण्ठित कर दिया व व्यवस्था में गहरी अनास्था पैदा की। इसमें बड़ी बड़ी राशियों का अवैध लेन देन हुआ जिसे पैदा करने के लिए देने वालों ने भी अपने पद का दुरुपयोग करते हुए इसे अवैध ढंग से अर्जित किया होगा। मेडिकल में प्रवेश परीक्षा में अपनी संतति को पास कराने के लिए कई लाख रुपये देने वाले अधिकारियों और नेताओं ने न जाने कितने जन हितैषी कार्यों में चूना लगाया होगा जिससे आम जन के लिए घोषित योजनाएं पूरी नहीं हुयी होंगीं या आधी अधूरी और अपने मानक से पीछे रही होंगीं। व्यापारियों ने टैक्स चोरी की होगी और ठेकेदारों ने मजदूरों को देय राशि चुरायी होगी। कुल मिला कर ऐसा भ्रष्टाचार अंततः निर्धन और वंचित मेहनतकश के अधिकारों को ही लूटता है।
इस निर्मम लूट, जिसे छुपाने के लिए बेरहमी से हत्याएं की गयीं और उन्हें अस्वाभाविक मृत्यु बता कर भी सक्षम जाँच से बचा गया, के खिलाफ ईमानदारी से जाँच की माँग करते हुए यह बन्द बुलाया गया था। विभिन्न पक्षधरता वाले सूचना माध्यमों ने इसे सफल या असफल बताया है। असल में बन्द किसी मुद्दे पर जनता के रुख को मापने का बहुत पुराना और कमजोर माध्यम है, क्योंकि बन्द को बाजार-बन्द से परखा जाता है, जबकि बाजार का अपना चरित्र होता है और मनोरंजक कहावतों में कहा जाता है कि व्यापारी जाति का बुजुर्ग अगर मरते समय भी अपने सारे लड़कों को सामने देखता है तो संतोष की जगह यह चिंता व्यक्त करता है कि ‘जब तुम सब यहीं हो तो दुकान पर कौन है’। बन्द कराने वालों ने सुबह का समय चुना जब दुकानें खुलने ही जा रही होती हैं और हलचल देख कर दुकानदार सुरक्षा की दृष्टि से थोड़ी देर बाद खोलने के लिए मन बना लेता है। दूसरी ओर बन्द का विरोध करने वाले दोपहर के बाद निकलते हैं जब तक बन्द कराने वाले जा चुके होते हैं। दोनों पक्षों के समर्थक सूचना माध्यम अपने अपने समय की फोटो प्रकाशित करके अपने अपने पक्ष की खबरें बना लेते हैं। दोनों ही पक्ष अपने अपने आरामदायक कार्यालयों में बैठकर अपने अभियान को सफल मान लेते हैं।
असल में बन्द की यह सफलता असफलता, पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए ही सोचने का विषय है। इस बात को दोनों ही पक्ष मान रहे हैं कि घोटाला हुआ है और बड़े स्तर पर हुआ है। दोनों ही पक्ष कह रहे हैं कि जाँच के बाद दोषियों को सजा मिलना चाहिए पर विपक्ष का कहना है कि आरोप सत्ता पक्ष के अनेक लोगों पर है इसलिए जिन पर आरोप हैं उनके पद पर रहते हुए सही जाँच नहीं हो सकती जब कि सत्ता पक्ष का कहना है कि जाँच एजेंसियां स्वतंत्र हैं इसलिए पद से हटने की कोई जरूरत नहीं। विपक्ष इतनी बड़ी घटना का राजनीतिक स्तेमाल कर रहा है और उसे वैसा करने का अधिकार है किंतु सरकारी पक्ष ने जिस तरह से इस घोटाले को दबाने और घोटालेबाजों को बचाने की कोशिश की वह सशंकित कर देने वाला है। बन्द से पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने राजधानी का दौरा किया व स्वयं सेवकों को जनता के बीच जाने के निर्देश दिये। वहीं दूसरी ओर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी प्रदेश का दौरा किया और सरकार से असंतुष्ट कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने के लिए स्थानीय नेताओं को कठोर भाषा में निर्देश दिये व सरकार जाते ही उनकी सुविधाएं छिन जाने के खतरे से डराया। बन्द के दिन सारे प्रमुख अखबारों को विभिन्न संगठनों के नाम से पूरे पूरे पृष्ठों के कई विज्ञापन दिये जिनमें पूरे पृष्ठ का एक विज्ञापन व्यापारी संगठनों के नाम से भी था जो बन्द के आवाहन से असहमति जता रहा था। लाखों रुपयों का यह विज्ञापन अनावश्यक था। सुधी जन जानते हैं कि बहुत सारे विज्ञापन बेमतलब होते हैं और अखबारों को पक्षधर बनाने की तय राशि देने का माध्यम होते हैं। समाचारों में कांटछाँट और कैमरे व रिपोर्टों के दृष्टिकोण भी इन्हीं विज्ञापनों से प्रभावित होते हैं।
16 जुलाई को बुलाया गया मध्य प्रदेश बन्द इन अर्थों में सफल रहा कि मुद्दे और इससे जुड़ी उचित निरीक्षण में सक्षम एजेंसी द्वारा निष्पक्ष जाँच’ की माँग के प्रति जनता का पूर्ण समर्थन रहा। सूचना माध्यम में चर्चा व भयभीत सरकार द्वारा सुरक्षा एजेंसियों को जरूरत से ज्यादा सक्रिय कर देने के कारण मुद्दे पर विमर्श तेज हुआ। इसके साथ ही बन्द इन अर्थों में असफल भी रहा कि राजनीतिक दलों में कम भरोसे के कारण व्यापारी और दिहाड़ी मजदूर मुद्दे के नाम पर अपनी एक दिन की रोजी त्यागने को तैयार नहीं हुये। यह इस बात का भी संकेत था कि सामाजिक संवेदना अब केवल मौखिक रूप से प्रकट होने तक सीमित होती जा रही है व जहाँ जहाँ उसे कार्यों से प्रकट करने व उसके लिए कुछ त्याग करने का सवाल आता है वह अपनी सीमाएं प्रकट कर देती है। काँग्रेस और भाजपा नेताओं की पुराने राजाओं की तरह सवारी तो निकली जिसमें हाथी घोड़े की तरह पीछे विभिन्न तरह के वाहन सवार और पैदल सिपाही तो साथ थे किंतु मुद्दे से सहमत जनता का साथ नहीं था। बामपंथी दलों की अपनी सीमाएं हैं और वे पर्व त्योहारों पर निर्वहन किये जाने वाले कर्मकांडों की निष्फल परम्परा का पालन पूरी आस्था से करते रहते हैं। बसपा समेत विभिन्न जातिवादी दल जनान्दोलनों की राजनीति में भरोसा नहीं करते। व्यापम घोटाले की लूट में असल नुकसान दलितों, पिछड़ों और गरीबों में विकसित होने वाली प्रतिभाओं का ही हुआ है किंतु वोट की राजनीति और उनका व्यापार करने वाले ये दल इतनी बड़ी घटनाओं पर कभी बयान तक देने की जरूरत नहीं समझते।  
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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मंगलवार, जुलाई 07, 2015

उमा भारती के डर से उभरता डर



उमा भारती के डर से उभरता डर
वीरेन्द्र जैन

श्री नरेन्द्र मोदी मंत्रिमण्डल की केबिनेट मंत्री हैं सुश्री उमा भारती। वे न केवल मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री हैं अपितु अयोध्या राम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण आन्दोलन के दौरान नेतृत्वकारी भूमिका में रहते हुए बाबरी मस्ज़िद टूटने के मामले में आरोपी होने के कारण भी उन्हें विशेष सुरक्षा प्राप्त है। उन्होंने एक पत्रकार की मृत्यु से जनित जनभावनाओं के कारण व्यापम घोटाले की जाँच में आयी उथल पुथल के बाद एक टीवी चैनल को साक्षात्कार दिया। इस साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि व्यापम से जुड़े अनेक आरोपियों, गवाहों, आदि के असामायिक मृत्यु के बाद उन्हें भी डर लगने लगा है। उन्होंने संकेत में सीबीआई से जाँच कराने की अपनी पुरानी माँग दुहराते हुए यह भी कहा कि किसी सक्षम एजेंसी से इसकी जाँच करानी चाहिए। जाहिर है हाईकोर्ट के आदेश से नियुक्त एसटीएफ और उसी के आदेश से एसटीएफ पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त एसआईटी के निरीक्षण में कार्यरत एजेंसी से अधिक सक्षम सीबीआई ही हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि इस घोटाले में जिन सत्तरह आरोपियों की सिफारिश में उनका नाम भी जोड़ा गया है वे उन सत्तरह लोगों के जीवन के प्रति भी चिंतित हैं।
सुश्री उमा भारती का यह डर न केवल पूरे देश को डराता है अपितु इस डर के बयान से अनेक सवाल भी खड़े होते हैं। व्यापम में अनेक प्रशासनिक अधिकारियों समेत भाजपा और संघ के कई लोग अब तक आरोपी हैं जिनमें कई जेल में हैं, जमानत पर हैं, और कई फरार हैं। इनमें से लगभग 45 व्यक्तियों की म्रत्यु हो चुकी है पर न तो मृतकों ने अपनी मृत्यु के पूर्व किसी तरह का डर व्यक्त किया था और न ही अन्य किसी जीवित आरोपी ने ही कोई डर व्यक्त किया भले ही वे डरे हुए हों। कैसी अचम्भित करने वाली बात है कि यह डर उस व्यक्ति ने व्यक्त किया है जो भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक हैं और संगठन व सरकार के उच्च पदों को सुशोभित कर रही हैं। वे न केवल अपनी पोषाक के कारण ही सम्मान पा लेती हैं अपितु प्रवचन कला से विकसित हुयी भाषण कला और मुखरता के कारण भी फायर ब्रांड नेता कहलाती रही हैं। जब वे मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार सिर मुढाने के लिए तिरुपति बालाजी गयी थीं तब उस तीर्यस्थल के दान पात्र में आम दिनों की तुलना में कई लाख रुपये अधिक निकले थे और कहा गया था कि यह राशि उनकी ओर से ही चढायी गयी थी। जब उन्होंने भाजपा से अलग होकर अपनी अलग व्यक्ति केन्द्रित पार्टी बनायी थी और चुनाव लड़ा था तब उन्हें प्रदेश में बारह लाख वोट मिले थे व पाँच उम्मीदवार विजयी हुये थे। यह बतलाता है कि वे न केवल आर्थिक रूप से मजबूत हैं अपितु उनके समर्थकों की संख्या भी समुचित है, किंतु वे फिर भी डरी हुयी हैं। उल्लेखनीय है कि जब वे पार्टी से अलग थीं और बड़ा मल्हरा उपचुनाव में उनके उम्मीदवार को हराने को शिवराज सिंह ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था तब एक मतदान केन्द्र पर धाँधली की शिकायत करने पर उनका टकराव हो गया था और भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा उन पर हमला किया गया था। तब उन्होंने भाग कर एक मन्दिर में अपने को बन्द करके जान बचायी थी व पुलिस में शिकायत की थी कि शिवराज ने उन पर जान लेवा हमला करवाया है। उल्लेखनीय यह भी है कि जब उन्होंने दोबारा पार्टी में आने की कोशिश की थी तो आरएसएस द्वारा हरी झंडी दे देने के बाद भी शिवराज के विरोध के कारण उनका प्रवेश एक साल तक लटका रहा था तथा शिवराज ने अपनी स्तीफा देने की धमकी को तब ही वपिस लिया था जब उनके मध्य प्रदेश में सक्रिय होने पर प्रतिबन्ध लगाने की शर्त मान ली गयी थी। उन्हें भाग कर उत्तर प्रदेश जाना पड़ा जहाँ से वे पहले विधायक और फिर सांसद चुनी गयीं।
शिवराज से उनके हाथ जरूर मिल गये किंतु दिल कभी नहीं मिले। लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी की भोपाल की आम सभा में आने की सूचना उन्हें अंतिम समय में दी गयी और यही बात उन्होंने उस आमसभा में भी कही। मध्य प्रदेश से उनको दूर रखने की योजना के कारण ही उन्हें उत्तर प्रदेश से विधायक और सांसद बनवाया गया था, व सीमित रखने के लिए ही उन्हें वह मंत्रालय बना कर दे दिया गया जिससे उन्हें मध्य प्रदेश की ओर झाँकने का मौका न मिले, ऐसा हुआ भी और इस कारण वे पिछले एक वर्ष से लगभग मौन हैं। इस बीच काँग्रेस ने जो एक्सिल शीट निकाली उसके अनुसार सिफारिशों की शीट में से कुछ नाम मिटा कर उमा भारती का नाम लिख दिया गया था। यह उन्होंने अपने खिलाफ षड़यंत्र माना और इससे पुरानी दुश्मनी को खाद पानी मिल गया।
जब उमा भारती खुले आम प्रैस के सामने डर की बात कर रही हैं तो सवाल उठता है कि उन्हें डर किससे है। क्या अपनी ही पार्टी और संगठन के लोगों से डर है? क्या यह डर है कि वे जाँच एजेंसियों के सामने कुछ ऐसा सच बता सकती हैं जिससे आरोपियों के आरोप प्रमाणित हो जायें? जिसके पास ऐसे राज नहीं हैं उसे डर क्यों होना चाहिए? उनकी सिफारिश पर चयनित बताये गये जिन सत्तरह लोगों पर खतरे की बात वे कर रही थीं उनकी जान को किससे खतरा हो सकता है? क्या वे उन्हें डरा रही थीं? बहरहाल देखने वाली बात यह है कि अपनी पार्टी में कभी पूर्ण लोकतंत्र महसूस करते हुए जो उमा भारती खुले आम अटल बिहारी और आडवाणी जी को भला बुरा कहते हुये बैठक छोड़ कर जाने में नहीं डरती थी, अलग पार्टी बना कर पद यात्रा निकाल सकती थीं, काँग्रेस द्वारा घेर कर खजुराहो लाये गये विधायकों को मुक्त कराने के लिए होटल का गेट तोड़ कर अपनी जीप ले जा सकती थीं, वे अपनी ही पार्टी के शासन में भाई बताने वाले शिवराज, और भरोसे की एसटीएफ, एसआईटी और उच्च न्यायालय से भयभीत क्यों हैं? क्या इसलिए कि यह सत्ता से संगठन तक मोदी के वर्चस्व वाली पार्टी है जहाँ संजय जोशी और हरेन पंड्या को भी माफ नहीं किया जाता। जहाँ जाँचों के परिणाम पहले ही तय हो जाते हैं, जहाँ अपराध होते हैं, हिंसा होती है पर कैद और सजा दोषी की जगह किसी और को होती है। क्या उमा भारती का यह डर नये शासन, और पार्टी के नये संगठन का डर है। क्या निर्भय उमा भारती फिर से देखने को मिल सकेंगी जो सच को लपेट कर नहीं कहेंगीं?
अब जब उनकी इच्छा के अनुसार सीबीआई से जाँच की माँग मान ली गयी है तो क्या वे अपने भेष को सम्मान देते हुए अपने राग द्वेश भय और लालच से मुक्त होकर सच सच कहने का साहस दिखायेंगी? उमाजी, गंगा अपने साफ हो सकने का भरोसा तब ही करेगी।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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शनिवार, जुलाई 04, 2015

मोदी के मौन से भाजपाई भी भ्रमित



मोदी के मौन से भाजपाई भी भ्रमित
वीरेन्द्र जैन

       पिछले दिनों प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर केवल दो सरकारी कार्यक्रमों में बोलते हुए सुनायी दिये उनमें से एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का कार्यक्रम था और दूसरा डिजीटल इंडिया के प्रारम्भ करने का कार्यक्रम था। दोनों ही कार्यक्रमों में वे धारा प्रवाह बोलने वाले पुराने स्वरूप में नजर नहीं आये अपितु ऐसा लगा जैसे कि उन्होंने लिखा हुआ भाषण पढ दिया हो। इस रूप में वे राजनीतिक सक्रियता के पूर्वार्ध की श्रीमती सोनिया गाँधी या उत्तरार्ध की मायावती की तरह लगे। किसी भी राजनेता की अपनी विशिष्ट पहचान होती है और श्री मोदी ने जिस रूप में अपनी पहचान बनायी थी वह पहचान इन दिनों खो गयी सी लगी।
       यह किंकर्तव्यविमूड़ता वाली स्थिति उनकी पार्टी के विभिन्न राजनेताओं पर लगे घोटालों के आरोपों के बाद बनी है। पिछले दशकों में देश में जो राजनीतिक संस्कृति विकसित हुयी है उसमें लगाये गये आरोपों जैसी घटनाएं असामान्य नहीं हैं किंतु यह असामान्यता श्री मोदी के चुनावी भाषणों में किये गये वादों और भिन्न तरह की सरकार होने की थोथी और बड़बोली घोषणाओं के कारण बनी है। जब उन्होंने गरज के साथ यह घोषणा की थी कि न खाऊँगा और न खाने दूंगा तब शायद उन्होंने अपनी पार्टी के स्वरूप और जुटाये गये समर्थन को ध्यान में नहीं रखा था। उनके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में चयन को जिस तरह से पार्टी के लोगों ने थोड़े से ना-नुकर के बाद स्वीकार कर लिया था और उन्हें टिकिट वितरण से लेकर दलबदलुओं समेत विभिन्न फौज, पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को आयात करने तक का अधिकार दे दिया था उससे शायद उन्हें यह गलतफहमी हो गयी होगी कि आगामी पाँच साल इसी तरह उनकी तूती बोलती रहेगी। अब शायद उन्हें अपनी भूल महसूस हो रही है जो उनके मौन हो जाने में प्रकट हो रही है। चुनावपूर्व के अन्धसमर्थन के पीछे सत्ता से दूर पार्टी के लोगों में इस उम्मीद का पैदा होना था कि एक यही व्यक्ति है जो हमें केन्द्र में सत्ता दिलवा सकता है क्योंकि गुजरात में इसने न केवल डूबती हुयी पार्टी को उबार दिया अपितु उसकी जड़ें मजबूत कर दीं।
       इस रूप में चुनाव जीतने का भरोसा शायद श्री मोदी को भी नहीं रहा होगा इसलिए उन्होंने न केवल पूरे न हो सकने वाले वादे ही किये अपितु विभिन्न दलों के उन अवसरवादी लोगों को भी प्रवेश दिया जिनकी राजनीति केवल पद और पैसा बनाने से ऊपर नहीं जाती। चुनाव में जीत हासिल करने के लिए येदुरप्पा जैसे अनेक लोगों को जिन्होंने कभी अलग पार्टी बना ली थी न केवल दल में शामिल कर लिया अपितु टिकिट भी दिया गया। ऐसे अन्य अनेक लोग उनके दल में पहले से ही मौजूद थे और मजबूत समर्थन से सत्ता ग्रहण करने के बाद उन्हें दल में सफाई अभियान प्रारम्भ करके अपना मानक स्थापित करना चाहिए था किंतु उन्होंने उक्त सफाई अभियान करने की जगह सड़कों की सफाई अभियान का अभियान प्रारम्भ किया जिसमें उनकी ही पार्टी के लोग लाये हुए कचरे को फैलाने के बाद झाड़ू लगाने की फोटो खिंचवाते हुए सामने आये। स्वच्छता अभियान नेतृत्व में भरोसे की परख के लिए एक अच्छा जनमत संग्रह हो सकता था जिसकी असफलता ने ही संकेत दे दिया था कि उनके समर्थक किसी नई ज़मीन को तोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं अपितु पुराने खेत में बोयी गयी फसल को काट कर अपने घर ले जाने के लिए ही तैयार हो कर निकले हैं।
अगर उन्हें देश और अपनी पार्टी के लोगों को कोई सन्देश देना था तो सबसे पहले मध्य प्रदेश सरकार में नेतृत्व परिवर्तन करके देने की जरूरत थी जिसके खिलाफ लगे आरोपों के पर्याप्त सबूत थे। किंतु उन्होंने न केवल इस नेतृत्व को ही बनाये रखा जिसके मंत्रीमण्डल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग सम्हालाने वाला मुख्य मंत्री का सबसे विश्वसनीय केबिनेट सदस्य जेल जा चुका था अपितु पिछली सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल तक को नहीं बदला जिन पर कई आरोप लग चुके थे। उल्लेखनीय है कि इस बीच जिन राज्यपालों पर कोई आरोप नहीं थे उन्हें तक हटा दिया गया था क्योंकि उनकी नियुक्ति पिछली सरकार ने की थी।
       अंग्रेजी में कहावत है कि – हिट द आयरन व्हेन इट इज हाट। जब उनकी अभूतपूर्व जीत के कारण उनकी चारों ओर जयजयकार हो रही थी तब लिये गये फैसले उनकी जीत के प्रभाव में स्वीकार कर लिये जाते, जैसे कि अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी को सरकार से दूर रख कर लिया गया कठोर फैसला स्वीकार कर लिया गया था। पर उनके बाद के फैसले मजबूती से नहीं लिये गये। हर बड़े परिवर्तन के लिए खतरा उठाना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि श्रीमती गाँधी ने अगर काँग्रेस का विभाजन करते हुए संगठन के लोगों के खिलाफ कदम उठा कर राष्ट्रपति चुनाव में श्री वी वी गिरि को समर्थन देने का खतरा नहीं उठाया होता तो उन्हें सत्ता से दूर होने में देर नहीं लगती। यदि समाज भ्रष्टाचार जैसी बीमारियों से परेशान हो तो जनता कठोर फैसले लेने वाले शासक को पसन्द करती है। बंगलादेश मुक्ति संग्राम हो या स्वर्ण मन्दिर को आतंकवादियों से मुक्त करने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार हो, इनके लिए श्रीमती गाँधी को व्यापक जनसमर्थन मिला था। मोदी को भी जनता ने इसी उम्मीद से देखा था और आशा की थी कि वे अपने वादों के अनुरूप सत्ता सम्हालते ही भ्रष्टाचारियों और ब्लैकमनी वालों के खिलाफ टूट पड़ेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ अपितु इसके उलट मोदी सरकार उन्हें बचाती नजर आयी, तो लोगों ने ठगा हुआ महसूस किया। संयोग से जब इसी बात को राम जेठमलानी, अरुण शौरी, गोबिन्दाचार्य, आर के सिंह, आदि अनेक लोगों ने एक साथ कहा तो मोदी समर्थक लोगों को लगा कि उनकी सोच सही है। जब सुषमा, वसुन्धरा, पंकजा मुण्डे और स्मृति ईरानी तक के मामलों में मोदीजी ने चुप्पी साध ली तो लोगों को भरोसा हो गया कि दाल में काला है।
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा नीति की जगह नेता के अनुसार चलने लगी है इसलिए पार्टी के लोग दिशा पाने के लिए नेता के मुख की ओर मुखातिब होने लगे हैं। जिस इकलौते नेता को सारी जिम्मेवारियां सौंप कर सबको चुप करा दिया गया हो और अगर वही मौन धारण कर ले तो पूरी पार्टी अपाहिज हो जाती है। इस समय भी ऐसी स्थिति आ चुकी है कि प्रवक्ता अपनी बात ठेलते तो रहते हैं किंतु यह तय नहीं कर पाते कि वे कौन सी लाइन लें। मोदीजी जैसे व्यक्ति से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे खतरे उठाते हुए भी सही  फैसले लें।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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