गुरुवार, नवंबर 22, 2018

फिल्म समीक्षा मार्क्सवाद की एक अनौपचारिक क्लास – मोहल्ला अस्सी


फिल्म समीक्षा
मार्क्सवाद की एक अनौपचारिक क्लास – मोहल्ला अस्सी
वीरेन्द्र जैन

मोहल्ला अस्सी मूवी के लिए इमेज परिणाम
काशीनाथ सिंह हिन्दी के सुपरिचित कथाकार हैं। उन्होंने कभी हंस में धारावाहिक रूप से बनारस के संस्मरण लिखे थे जिनका संकलन ‘काशी के अस्सी’ नाम से प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक मध्य प्रदेश के पाठक मंच में भी खरीदी गयी थी और हजारों लोगों द्वारा पढी व सराही गयी थी। बनारस में सच्चे हिन्दुस्तान के दर्शन होते हैं। कबीरदास की इस नगरी में हिन्दू, मुसलमान, काँग्रेसी, संघी और कम्युनिष्ट वर्षों से एक साथ लोकतांत्रिक रूप से अपने विचारों के हथियारों से लड़ते भिड़ते हुए भी भाई भाई की तरह रहते हैं। जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ। बनारसी साड़ी को बुनने वाले लाखों मुस्लिम मजदूरों के साथ बाबा विश्वनाथ के लाखों भक्त रह कर साथ साथ गंगा स्नान करते हैं। यहाँ विस्मिल्लाह खाँ जैसे प्रसिद्ध शहनाई वादक, तो गुदईं महाराज से लेकर किशन महाराज तक जग प्रसिद्ध तबला वादक व गायक हुये हैं। यहाँ समाजवादी आन्दोलन भी चला और बीएचयू में सभी धाराओं के राजनीतिक विचारों को जगह भी मिली। जितने वामपंथी बुद्धिजीवी अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में पैदा हुये उतने ही बनारस हिन्दू यूनीवर्सिटी में भी पैदा हुये, जिन्होंने देश भर को दिशा दी। बनारस ने सभी विचारधाराओं को अपनी चौपाल में जगह दी और वहाँ के चाय के ढाबों में वैसी बहसें हुयीं जैसी अंतर्राष्ट्रीय सेमीनारों में भी नहीं होती होंगीं। जिसे प्रभु वर्ग [इलीट क्लास] में असभ्य या अश्लील समझा जाता होगा वैसी गालियां यहाँ मुहावरों की तरह प्रयुक्त होती हैं और उनके प्रयोग में लिंग भेद भी बाधा नहीं बनता।
इस फिल्म का कथानक पुस्तक ‘काशी का अस्सी’ के एक अध्याय ‘ पांड़े कौन कुमति तोहि लागी’ से उठाया गया है। इस संस्मरण का काल पिछली सदी के आठवें, नौवें दशक का है जब भाजपा ने संसद में अपनी सदस्य संख्या दो तक सीमित हो जाने के बाद अपने राजनीतिक अभियान को राम जन्म भूमि विवाद के साथ जोड़ दिया था। यह वह काल था जब काशी के पंडों की आमदनी सिकुड़ रही थी और वे जीवन यापन के लिए अपने ही बनाये मूल्यों के साथ समझौता करने के लिए मजबूर हो रहे थे। पप्पू की चाय की दुकान बनारस की वह प्रसिद्ध जगह है जहाँ बैठ कर लोग खूब बहसते हैं और मजाक करते हैं। कथानक केवल इतना है कि गंगा किनारे बसे पंडितों के मुहल्ले में ब्राम्हण सभा का अध्यक्ष धर्मपाल शास्त्री किसी भी पंडे को अपने यहाँ विदेशी किरायेदार नहीं रखने देता क्योंकि उसके अनुसार मांसाहारी होने के कारण वे अपवित्र होते हैं और गन्दगी फैलाते हैं। दूसरी ओर विदेश से बनारस आये हुए पर्यटक अच्छा किराया देते हैं। वैकल्पिक रूप से स्थानीय मल्लाह, नाई आदि अपने घर की कोठरियां किराये से देकर अच्छी कमाई कर रहे होते हैं और अपने सुधरे रहन सहन से ब्राम्हणों के श्रेष्ठता बोध को चुनौती देने लगते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार समाज का मूल ढांचा अर्थ व्यवस्था बनाती है व उसी के अनुसार व्यक्ति की संस्कृति अर्थात सुपर स्ट्रेक्चर तय होता है। जब कथा नायक आर्थिक तंगी से जूझता है तो वह अपने घर में स्थापित शिव जी की कोठरी को विदेशी किरायेदार को देने को मजबूर हो जाता है और रात्रि में शिवजी के सपने में आकर आदेश देने का बहाना बना कर उन्हें गंगा में विसर्जित कर देता है। उससे प्रेरणा पाकर उस मुहल्ले के सभी पंडे अपने अपने घरों में स्थापित शिव मूर्तियों को अन्यत्र स्थापित कर खाली हुयी कोठरियों को विदेशी पर्यटकों को किराये से देने लगते हैं। इकानामिक स्ट्रक्चर, सुपर स्ट्रक्चर को बदल देता है। दूसरी तरफ चाय की दुकान में बैठे बुद्धिजीवी इन्हीं विषयों पर लम्बी लम्बी चर्चायें चलाते हैं। इसे देख कर फिल्म पार्टी की याद आ जाती है। एक पात्र कहता है 1992 के बाद जितने मुसलमान नमाज पढने जाने लगे और टोपियां लगाने लगे उतने पहले कभी नहीं जाते थे। दोनों तरफ से घेटो बनने लगे। रामजन्म भूमि पर भी अच्छी बहस सामने आयी।
वहीं नाई का काम करने वाला एक युवा एक अमेरिकन युवती को घुमाते घुमाते व्यवहारिक ज्ञान अर्जित कर लेता है व थोड़ा सा योग सीख कर उसके साथ अमेरिका भाग जाता है। वह वहाँ से बारबर बाबा बन कर लौटता है। वह अपने पुराने सहयोगियों को बताता है कि दुनिया एक बाज़ार है, जिसमें वह योग बेचने लगा है। कभी बनारस को रांड़, सांड़, सीढी, सन्यासी से याद किया जाता था किंतु अब फिल्म में किरायेदारी की दलाली करने वाला एक ब्रोकर कहता है कि अस्सी-भदैनी में ऐसा कोई भी घर नहीं जिसमें पंडे, पुरोहित, और पंचांग न हों और ऐसी कोई गली नहीं जिसमें कूड़ा, कुत्ते और किरायेदार न हों”।
फिल्म के मुख्य किरदार धर्मपाल शास्त्री [पांडे] की भूमिका सनी देवल ने निभायी है तो उनकी पत्नी की भूमिका साक्षी तंवर ने निभायी है। गाइड कम ब्रोकर की भूमिका भोजपुरी फिल्मों के नायक रवि किशन की है तो सौरभ शुक्ला आदि की भी भूमिकाएं हैं। बुद्धिजीवी गया सिंह की भूमिका उन्होंने खुद ही निभायी है। सनी देवल ने अच्छा अभिनय किया है किंतु उनकी भूमिका के अनुरूप उनका चयन ठीक नहीं था वे धुले पुछे बाहरी व्यक्ति ही लगते रहे जबकि साक्षी तंवर और सौरभ शुक्ला ने अपने को बनारसी रंग ढंग में ढाल लिया था। फिल्म में कहानी और घटनाक्रम देखने के अभ्यस्त दर्शकों को लम्बे लम्बे डायलाग वाली राजनीतिक बहस पसन्द नहीं आयेगी। पर वह ज्ञनवर्धक है।
इस फिल्म की दो अन्य उपलब्धियां सेंसर बोर्ड के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का 36 पेज का फैसला और साहित्यिक संस्मरणों पर फिल्म बनने की शुरुआत होना भी है। उम्मीद की जाना चहिए कि दूसरे निर्माता निर्देशक भी साहस करेंगे।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

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बुधवार, नवंबर 21, 2018

फिल्म समीक्षा संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो


फिल्म समीक्षा
संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो
वीरेन्द्र जैन

बधाई हो के लिए इमेज परिणाम
टीवी इंटरनैट के आने से पहले कालेज के दिनों में जब अंग्रेजी फिल्में देखने का फैशन चलन में था, तब तीन घंटे की फिल्म के अभ्यस्त हम लोगों को दो घंटे की फिल्म देख कर कुछ कमी सी महसूस होती थी, पर अब नहीं लगता क्योंकि बहुत सारी हिन्दी फिल्में भी तीन घंटे से घट कर दो सवा दो घंटे में खत्म हो जाती हैं। पहले फिल्में उपन्यासों पर बना करती थीं अब कहानियों या घटनाओं पर बनती हैं और उनमें कई कथाओं का गुम्फन नहीं होता। पिछले कुछ दिनों से इसी समय सीमा में किसी विषय विशेष पर केन्द्रित उद्देश्यपरक फिल्में बनने लगी हैं। कुशल निर्देशक उस एक घटनापरक फिल्म में भी बहुत सारे आयामों को छू लेता है। अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा के निर्देशन में बनी ‘बधाई हो’ इसी श्र्ंखला की एक और अच्छी फिल्म है।
       यौन सम्बन्धों के मामले में हम बहुत दोहरे चरित्र के समाज में रह रहे हैं। वैसे तो सुरक्षा की दृष्टि से सभी गैर पालतू प्रमुख जानवर यौन सम्बन्धों के समय एकांत पसन्द करते हैं और सारी दुनिया की मनुष्य जाति में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है पर हमारी संस्कृति में ब्रम्हचर्य को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि पति पत्नी के बीच के यौन सम्बन्धों को स्वीकारने में भी पाप बोध की झलक मिलती है। भले ही विवाह के बाद पूरा परिवार शिशु की प्रतीक्षा करने लगता है, दूधों नहाओ पूतों फलो के आशीर्वाद दिये जाते रहे हैं जिसके के लिए यौन सम्बन्धों से होकर गुजरना होता है, किंतु उसकी समस्याओं पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती। पैडमैन फिल्म बताती है कि यौन से सम्बन्धित सुरक्षा सामग्री भी अश्लीलता समझी जाती रही है। प्रौढ उम्र में गर्भधारण इसी करण समाज में उपहास का आधार बनता है भले ही यौन सम्बन्धों की उम्र दैहिक स्वास्थ के अनुसार दूर तक जाती हो।
यह संक्रमण काल है और हम धीरे धीरे एक युग से दूसरे युग में प्रवेश कर रहे हैं। यह संक्रमण काल देश की सभ्यता, नैतिकिता, और अर्थ व्यवस्था में भी चल रहा है। हमारा समाज आधा तीतर आधा बटेर की स्थिति में चल रहा है। फिल्म का कथानक इसी काल की विसंगतियों से जन्म लेता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मूल निवासी कथा नायक [गजराव राव] रेलवे विभाग में टीसी या गार्ड जैसी नौकरी करता है, व दिल्ली की मध्यम वर्गीय कालोनी में रहता है, जहाँ पुरानी कार सड़क पर ही पार्क करना पड़ती है। दिल्ली में बढे हुये उसके लगभग 20 और 16 वर्ष के दो बेटे हैं। उसकी माँ [सुरेखा सीकरी] भी उसी छोटे से फ्लेट में उसके साथ रहती है और कमरे की सिटकनी बन्द करने की आवाज तक महसूस कर लेती है। वह परम्परागत सास की तरह बहू [नीना गुप्ता] को ताना मारते रहने में खुश रहती है। कविता लिखने का शौकीन भला भोला मितव्ययी कथा नायक भावुक क्षणों में भूल कर जाता है और लम्बे अंतराल के बाद उसकी पत्नी फिर गर्भवती हो जाती है जिसका बहुत समय बीतने के बाद पता लगता है। वह गर्भपात के लिए सहमत नहीं होती।
उसका बड़ा बेटा [आयुष्मान खुराना] भी किसी कार्पोरेट आफिस में काम करता है व उसका प्रेम सम्बन्ध अपने साथ काम करने वाली एक लड़की [सान्या मल्होत्रा] से चल रहा होता है। लड़के के परिवार के विपरीत माँ [शीबा चड्ढा ] के संरक्षण में पली बड़ी पिता विहीन लड़की अपेक्षाकृत सम्पन्न मध्यमवर्गीय परिवार से है व उनके रहन सहन में अंतर है। लड़की की माँ आधुनिक विचारों की है तदानुसार लड़की अपना मित्र व जीवन साथी चुनने के लिए स्वतंत्र है। वे साझे वाहन से कार्यालय जाते हैं, और अवसर मिलने पर दैहिक सम्बन्ध बना लेने को भी अनैतिक नहीं मानते।
लड़के की माँ के गर्भधारण के साथ ही उसके परिवार में व्याप्त हो चुका अपराधबोध सबको गिरफ्त में ले लेता है। पड़ोसियों की मुस्कराती निगाह और तानों में सब उपहास के पात्र बनते हैं और इसी को छुपाने के क्रम में लड़का और लड़की के बीच तनाव व्याप्त हो जाता है जो दोनों के बीच एकांत मिलन का अवसर मिलने के बाद तब टूटता है जब वह लड़का अपनी चिंताओं के कारण को स्पष्ट करता है। लड़की के लिए यह हँसने की बात है किंतु लड़के के लिए यह शर्म की बात है।
जब लड़की अपनी माँ को सच बताती है तो माँ अपनी व्यवहारिक दृष्टि से सोचते हुए कहती है कि रिटायरमेंट के करीब आ चुके लड़के के पिता की नई संतान का बोझ अंततः उसे ही उठाना पड़ेगा। लड़का यह बात सुन लेता है और गुस्से में उन्हें कठोर बातें सुना देता है, जिससे आहत लड़की से उसका मनमुटाव हो जाता है। इसी बीच लड़के की बुआ के घर में शादी आ जाती है जिसमें शर्मिन्दगी के मारे दोनों लड़के जाने से मना कर देते हैं। उनके माँ बाप और दादी जब वहाँ जाते हैं तो सारे मेहमान भी उन्हीं की तरफ उपहास की दृष्टि से देखते हैं। यह बात दादी को अखर जाती है और वह गुस्से में अपनी बेटी और बड़ी बहू को लताड़ते हुए कहती है कि जिन संस्कारों को भूलने की बात कर रहे हो उनमें वृद्ध मां बाप की सेवा करना भी है जो कथा नायिका गर्भवती बहू को तो याद है पर उपहास करने वाले भूल गये हैं, जो कभी भूले भटके भी उससे मिलने नहीं आते। बीमार होने पर इसी बहू ने उनको बिस्तर पर शौच कर्म कराया है जब कि वे लोग देखने तक नहीं आये। वह विदा होती नातिन के यह कहने पर कि वह अमेरिका जाकर नानी को फोन करेगी, कहती है कि उसने मेरठ से दिल्ली तक तो फोन कभी किया नहीं अमेरिका से क्या करेगी। इसे सुन कर एक पुरानी फिल्म ‘खानदान’ में भाई-भाई के प्रेम के लिए रामायण को आदर्श बताने वाले नायक के आदर्श वाक्य का उत्तर देते हुए का प्राण द्वारा बोला गया वह डायलाग याद आता है, जब वह कहता है ‘ कौन सी रामायण पढी है तुमने? हमारी रामायण में तो यह लिखा हुआ है कि बाली को उसके सगे भाई सुग्रीव ने मरवा दिया और रावण को उसके सगे भाई सुग्रीव ने’।
अंग्रेजी में कहावत है कि मोरलिटी डिफर्स फ्रोम प्लेस टु प्लेस एंड एज टु एज। लगता है इसके साथ यह भी जोड़ लेना चहिए कि क्लास टु क्लास।     
            लड़के की माँ को जब पता लगता है कि उसके कारण उसका उसकी गर्ल फ्रेंड से मनमुटाव हो गया है तो वह लड़के को गोद भराई का कार्ड देने के बहाने भेजती है और लड़की की माँ से माफी मांगने की सलाह देती है। यही बात उनके मन का मैल दूर कर देती है। और एक घटनाक्रम के साथ फिल्म समाप्त होती है।
इस मौलिक कहानी को बुनने और रचने में पर्याप्त मेहनत की गयी है व पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थानीयता और दिल्ली की आधुनिकता के बीच की विसंगतियों को सफलता से उकेरा गया है। पान की दुकान को युवा क्लब बनाये रखने, घर में अपनी बोली में बोलने, पड़ोसियों द्वारा ताक झांक करने व दूसरी ओर आधुनिक परिवार में माँ बेटी का एक साथ ड्रिंक करना पार्टियां देना आदि बहुत स्वाभाविक ढंग से व्यक्त हुआ है। सारी शूटिंग स्पाट पर की गयी है और डायलाग में व्यंग्य डाला गया है, जिसका एक उदाहरण है कि जब माँ के गर्भवती होने पर हँसती हुयी लड़की से नाराज लड़का कहता है कि अगर ऐसी ही स्थिति तुम्हारी माँ के साथ हुयी होती तो तुम्हें कैसा लगता। लड़की कहती है, तब तो बहुत बुरा लगता।.......... क्योंकि मेरे पिता नहीं हैं। चुस्त कहानी और पटकथा लेखन के लिए अक्षर घिल्डियाल, शांतुन श्रीवास्तव, और ज्योति कपूर बधाई के पात्र हैं। फिल्म की व्यावसायिक सफलता ऐसी फिल्मों को आगे प्रोत्साहित करेगी जो बदलते समय के समानांतर सामाजिक मूल्यों में बदलाव को मान्यता दिलाती हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629