बुधवार, जून 25, 2014

दागी सांसदों के प्रकरणों में समयबद्ध फैसलों का दबाव



दागी सांसदों के प्रकरणों में समयबद्ध फैसलों का दबाव

वीरेन्द्र जैन
       यह विडम्बना है कि एक ओर न्याय पालिका को सभी सर्वोच्च सम्मान देने की बात करते हैं और दूसरी ओर उसी न्याय व्यवस्था को दोषपूर्ण भी मानते हैं। खेद है कि जिस विधायिका को न्याय व्यवस्था में निहित दोषों को दूर करने के लिए सुधारात्मक कानून बनाने या बदलने चाहिये उसके भी बहुत सारे सदस्य न्यायपालिका के दोषों से लाभान्वित होकर वांछित बदलाव के प्रति उदासीन रहते हैं। जिन राजनेताओं पर अपराधिक प्रकरण चल रहे होते हैं वे भी यह कहते हुये पाये जाते हैं कि उन्हें न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है, और बाद में जब  वर्षों बाद उनका फैसला आता है तो लगता है कि शायद उनका भरोसा न्याय को लम्बित करने की प्रक्रिया में रहा होगा। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने हमारे माननीय दागी सांसदों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण फैसला दिया था| सुश्री लिली थामस और लोक प्रहरी एस एन शुक्ला द्वारा दायर जनहित याचिका पर 10 जुलाई 2013 को दिये इस महत्वपूर्ण एतिहासिक फैसले मे कहा गया है कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8[1], 8[2] और 8[3] के अंतर्गत दोषी पाये जाने वाले विधायकों, सांसदों, की सदस्यता तत्काल रद्द हो जायेगी और उनकी सीट को रिक्त घोषित कर दिया जायेगा। अधिनियम की धारा 8[1] दोषी पाये जाने पर अयोग्य घोषित करती है तो धारा 8[2] उन अपराधों के विस्तार को बतलाती है जिनके अंतर्गत दोषी पाये जाने पर अधिनियम लागू होगा। धारा 8[3] कहती है कि किसी भी उक्त अपराध में दो वर्ष या उससे अधिक की सजा पाने पर तुरंत अयोग्य घोषित किया जायेगा और रिहाई की तारीख के बाद से अगले छह वर्षों तक के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जायेगा। इस फैसले के बाद हाल ही में राजनीति के एक बड़े खिलाड़ी श्री लालू यादव को चुनाव लड़ने तक की पात्रता से वंचित होना पड़ा था।
       एक गैर सरकारी संगठन पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन द्वारा दायर जनहित याचिका पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने हाल ही में 10 मार्च 2014 को दिये अपने फैसले में सभी निचली अदालतों को निर्देश दिया कि जो अपराध उपरोक्त धाराओं के अंतर्गत मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ तय किये गये हैं उनके मुकदमे शीघ्रता से निपटाये जायें। उनका आदेश है कि किसी भी मामले में आरोप तय होने में एक वर्ष से अधिक का समय नहीं लेना चाहिये। इस समय सीमा को देखते हुये प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई करना चाहिये। उल्लेखनीय है कि इसी निर्णय के आलोक में चुनाव प्रचार के दौरान श्री नरेन्द्र मोदी ने वादा किया था कि वे सरकार बनने की स्थिति में माननीय सुप्रीम कोर्ट से निवेदन करेंगे कि जिन सांसदों पर कोई प्रकरण दर्ज़ हैं उनका फैसला एक साल के अन्दर करने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना करें। विडम्बना यह थी कि उनकी पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाने से पहले चुनाव प्रचार की कमान सौंप दी थी पर उन्होंने उम्मीदवारों का चयन करते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा था कि दागियों को टिकिट ही न मिले। बहरहाल राहुल गाँधी द्वारा इस अधिनियम में परिवर्तन वाले विधेयक को फाड़ कर फेंक देने के बाद यह मुकाबले का बयान था और चुनाव प्रचार के दौरान यह एक उत्तम वादा था। इन पंक्तियों के लेखक ने कई वर्ष पूर्व अपने कुछ लेखों में ऐसे ही विचार व्यक्त करते हुये लिखा था कि जब हमारे माननीय सांसदों को इतनी सारी विशिष्ट सुविधाएं मिलती हैं तो देश हित में उन्हें त्वरित न्याय की सुविधा भी मिलनी चाहिए ताकि कानून बनाने वाले हाथ कम से कम कानूनी रूप से तो साफ सुथरे हों। नये नेतृत्व ने जो उम्मीदों के पहाड़ खड़े किये हैं उनमें से यह सबसे पहला काम होना चाहिये था जिस पर कार्यवाही अभी तक प्रतीक्षित है।
       2014 के लोकसभा चुनावों के बाद यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि जिन माननीय सांसदों ने चुनाव का फार्म भरते समय दिये जाने वाले शपथपत्र में अपने ऊपर दर्ज आपराधिक प्रकरणों की जानकारी दी है उन सांसदों की संख्या पिछले चुनावों की तुलना में बढ गयी है। पुनः चुने गये सांसदों में से अनेक पर भी पुराने प्रकरण वर्षों से वैसे के वैसे चले आ रहे हैं। न्यायिक प्रक्रिया के लम्बित होने से दोषी पक्ष लाभान्वित होते अधिक पाया जाता है। जिन सांसदों पर देश को चलाने व कानून बनाने की जिम्मेवारी है, उन्हें यह एक और विशेष सुविधा मिलने से न्यायिक भेदभाव का तर्क बेमानी है क्योंकि माननीय सांसद पहले से ही वीआईपी श्रेणी में आते हैं, और अपनी ज़िम्मेवारी के कारण अन्य कई विशिष्ट सुविधाएं पाते हैं जिन पर कोई विवाद नहीं है। इससे पहले कि वे कानून बनाने में सहयोग दें उनके चरित्र और उनकी कानून बनाने की पात्रता के बारे में फैसला होना देश हित में ही होगा।
       आइये माननीयों द्वारा दिये गये शपथपत्रों के आधार पर आँकड़ों से उस परिदृश्य को देखें। इस समय दो सांसदों के त्यागपत्र और एक सांसद के निधन के कारण कुल 540 चयनित सदस्य हैं। इनमें से 186 सांसदों ने अपने शपथपत्र में उनके ऊपर दर्ज़ प्रकरणों की जानकारी दी है। इनमें से 57 सांसदों, अर्थात कुल संख्या के 11 प्रतिशत सांसदों ने आरोप तय होने अर्थात चार्ज फ्रेम होने की जानकारी शपथपत्र में दी है। ऐसे सांसदों का दलगत विवरण इस प्रकार है-
भारतीय जनता पार्टी     24
शिवसेना                5
 एलजेपी              1
 स्वाभिमान पक्ष         1
एआईडीएमके                   5
तृणमूल कांग्रेस          4
आरजेडी               3
सीपीआई एम            2
काँग्रेस                 1
जेमएम                1
एनसीपी               1
पीएमके               1
आरएसपी              1
बीजेडी                1
एआईएमईएम          1
 टीआरएस             1
स्वतंत्र                2
==================
       सवाल उठता है कि सर्वाधिक दागी सांसदों वाली भाजपा सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की भावना को देखते इस पर शतप्रतिशत पालन करेगी या किसी कानूनी छेद से निकलने का रास्ता तलाशेगी, क्योंकि उसने 31 प्रतिशत मत पाकर 51 प्रतिशत सीटें जीती हैं। उल्लेखनीय है कि भाजपा के उक्त चौबीस दागी सांसदों में सुश्री उमा भारती, श्री लाल कृष्ण अडवाणी, श्री मुरली मनोहर जोशी, बृजभूषण शरण सिंह, महेश गिरि, नलिन कुमार कतील, सुरेश अंगदी, गणेश सिंह, सतीश दुबे. लल्लू सिंह, बी श्रीमालु. नाथुभाई जी पटेल. सुशील कुमार सिंह, फग्गन सिंह कुलस्ते, बिशन पद राय, प्रभु भाई नागर भाई वसावा, अश्विन कुमार, उदय प्रताप सिंह, कर्नल सोना राम, और कीर्ति आज़ाद शामिल हैं।  इनमें से उमा भारती को तो केबिनेट मंत्री का पद भी दिया गया है।  इसी तरह शिव सेना, लोक जनशक्ति पार्टी, स्वाभिमान पक्ष, आदि के सांसदों का फैसला भी एक साल में हो जाना होगा।
       किसी सांसद स्तर के नेता पर प्रकरण दर्ज़ होना और आरोप तय होने का अर्थ प्रकरण का मजबूत होना माना जाता है। यही कारण है कि किसी सांसद ने अपने ऊपर चल रहे प्रकरणों में जल्दी फैसले की माँग नहीं की। स्मरणीय है कि श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित होने से पहले चुनाव अभियान समिति के चेयरमैन बनाये गये थे और टिकिट वितरण का काम उन्होंने ही किया था। उक्त दागी लोगों को भी टिकिट उन्होंने ही दिया था, अब यदि फैसला तय समय में हुआ और ज्यादातर सांसदों को सजा हो गयी तो इन क्षेत्रों में पुनः चुनाव में जाना होगा और हाल ही में देखी गयी निराशा को देखते हुये तब तक किये हुये वादों और सपनों को पूरा करने का दबाव अधिक होगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

रविवार, जून 22, 2014

जयजयकार के बीच आँकड़ों के झरोखों से ताक झाँक



जयजयकार के बीच आँकड़ों के झरोखों  से ताक झाँक  
वीरेन्द्र जैन
       अगर आमचुनाव का कुल मतलब किसी व्यक्ति विशेष या किसी दल विशेष के पास सत्ता पहुँचना होता हो तो वह काम पूरा हो चुका है और पिछले पच्चीस वर्षों की संख्यागत विसंगतियों के विपरीत अधिक आदर्श चुनाव परिणाम आये हैं। पर यदि लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप आम चुनावों का मतलब जनता के मानस को पढना और उसे समन्वित करके उसकी दशा दिशा का अनुमान लगाना हो तो मतदान के आँकड़ों का सम्पूर्ण राजनीतिक सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, क्षेत्रीय, और जातीय अध्यन करना जरूरी होता है।
ऐसे अध्यन का निष्कर्ष इस विश्वास पर आधारित होता है कि ईवीएम मशीन ठीक तरह से काम करती हैं और आम चुनावों में आचार संहिता का पूरा पालन हुआ है। चुनावी आचार संहिता के पालन में जहाँ जहाँ उल्लंघन हुआ है वहाँ उसे रोका गया है व कार्यवाही की गयी है। यदि ऐसा नहीं हुआ है तो उम्मीद की जाती है कि भविष्य में ऐसा किया जायेगा और जहाँ चुनाव आयोग के पास शक्तियां नहीं हैं वे उन्हें मिलेंगीं।
2009 के आम चुनाव में भाजपा को ईवीएम मशीनों में छेड़छाड़ का सन्देह था क्योंकि वह सरकार बनाने लायक संख्या में अपने उम्मीदवारों को नहीं जिता सकी थी। इस बार लगता है कि वह ईवीएम मशीनों की कार्यप्रणाली से पूरी तरह संतुष्ट है और किसी भी कोने से इस सन्दर्भ में उसे कोई शिकायत नहीं है। रोचक यह है कि पिछली बार जब लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की शिकायत कर रही थी तब भी  जिन विधानसभा चुनावों जैसे 2007 के गुजरात और 2008 के मध्य प्रदेश छत्तीसगढ आदि, में उन्हें ईवीएम मशीनों के बारे में कोई शिकायत नहीं थी। इन चुनावों में असम आदि की कुछ मशीनों में कोई भी बटन दबाने पर वोट भाजपा के पक्ष में जाने की शिकायतों की परीक्षण रिपोर्ट सामने नहीं आयी है। बहरहाल चुनाव आयोग को 2014 के चुनावों के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन की कुल आठ लाख चार हजार चार सौ तेतीस शिकायतें मिलीं। इस संख्या में पश्चिम बंगाल राज्य में तीन लाख से अधिक तो केरल और तामिलनाडु में एक लाख से अधिक शिकायतें शामिल हैं। यदि यह मान कर चला जाये कि बामपंथी प्रभाव वाले राज्य राजनीतिक रूप से अधिक सजग होते हैं तो सोचना होगा कि गुजरात से कुल तीस हजार शिकायतें मिलने के पीछे शिकायतों का कम होना, या उसका प्रशासनिक रूप से दुरुस्त होना ही नहीं है? एक कारण यह भी हो सकता है कि वहाँ विपक्षी दलों में साहस ही नहीं हो कि शिकायत दर्ज़ करा सकें। आँकड़े यह भी बताते हैं कि भाजपा का गढ समझे जाने वाले इसी गुजरात में 41 प्रतिशत मत गैर भाजपा दलों को गये हैं और पूरे देश में जितने प्रतिशत मत पाकर भाजपा ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया है उससे अधिक प्रतिशत मत गुजरात में लेकर भी काँग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी। भाजपा द्वारा अहमदाबाद जैसी महत्वपूर्ण सीट पर किसी पूर्णकालिक कार्यकर्ता की जगह अमेरिका में शूटिंग कर रहे हास्य अभिनेता परेश रावल को शूटिंग रोक बुला कर चुनाब लड़वाया गया। महत्वपूर्ण आँकड़ा यह भी है कि इसी गुजरात में दो करोड़ साठ लाख कुल मतों में से चार लाख पचपन हज़ार मत नोटा को गये हैं जो सभी कोणों से उम्मीदवारों व दलों को परखने वाले सबसे अधिक विचारवान वोटर माने जाते हैं। भाजपा और काँग्रेस के बीच जहाँ सीधी टक्कर होती है वहीं भाजपा को मिले एक करोड़ बावन लाख मतों के मुक़ाबले काँग्रेस को भी विकास के दावों और लहर के बीच चौरासी लाख मत मिले हैं। उल्लेखनीय यह भी है इन चुनावों में पहली बार चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी को भी तीन लाख से अधिक वोट मिले हैं।
पिछले चुनावों के मुकाबले देश में करीब दस करोड़ नये मतदाता जुड़े थे व मतदान का प्रतिशत भी 58 से बढकर 66 प्रतिशत हो गया और इकतालीस करोड़ इकहत्तर लाख मतदाताओं के मुकाबले पचपन करोड़ अड़तालीस लाख मतदाताओं ने अर्थात तेरह करोड़ छिहत्तर लाख अधिक मतदाताओं ने मतदान किया। इस बढे हुये मतदान में से विजयी घोषित भाजपा को सात करोड़ चौरासी लाख मतों के मुकाबले इस बार सत्तरह करोड़ सोलह लाख मत मिले अर्थात नौ करोड़ बत्तीस लाख मत अधिक मिले। यह कुल बढे हुये मतों का लगभग 68 प्रतिशत होता है। जिन राज्यों में भाजपा के मतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है उसके आंकड़े ध्यान देने योग्य हैं। उत्तर प्रदेश में उसके मतों में दो करोड़ छियालीस लाख मतों की वृद्धि हुयी है तो मध्य प्रदेश में पचहत्तर लाख, राजस्थान में बयासी लाख, छत्तीसगढ में बाइस लाख, बिहार में इकहत्तर लाख, उड़ीसा में सोलह लाख, झारखण्ड में सत्ताइस लाख, असम में तेतीस लाख, मतों की वृद्धि हुयी है। ये बीमारू राज्य हैं जहाँ राजनीतिक चेतना की जगह तात्कालिक सुविधाएं अधिक असर करती हैं, या साम्प्रदायिक विभाजन का असर होता है। दिल्ली में अठारह लाख, हरियाना में तीस लाख, कर्नाटक में इकतीस लाख, गुजरात में इकहत्तर लाख, हिमाचल में तीन लाख, गोआ में दो लाख, महाराष्ट्र में छियासठ लाख , पश्चिम बंगाल में इकसठ लाख मतों की प्रचार प्रभावित वृद्धि हुयी है, जो पिछड़े राज्यों की तुलना में कम है।
इन चुनावों में चुनाव आयोग ने पैसे और नशे के स्तेमाल पर नियंत्रण रखने के पहले की तुलना में अधिक प्रयास किये थे पर इन पर पूर्ण नियंत्रण अभी दूर की कौड़ी है। इनका प्रयोग जितने बड़े स्तर पर होता है उसका बहुत ही मामूली हिस्सा पकड़ा जा पाता है। इन चुनावों में भी 299 करोड़ रुपया पकड़ा गया है जो 427 उम्मीदवारों की अधिकतम व्यय सीमा सत्तर लाख से भी अधिक है। इसके साथ ही 57335 अवैध हथियार पकड़े गये हैं, एक करोड़ इकसठ लाख लीटर अवैध शराब पकड़ी गयी है, व 1707 करोड़ मिलीग्राम अन्य नशे की सामग्री पकड़ी गयी है। चुनावों में पैसे के खेल का क्या महत्व है यह चुनाव लड़ने वाले टिकिट पाने वाले और जीतने वाले उम्मीदवारों की आर्थिक स्थिति से ही पता चल जाता है जिनमें 84 प्रतिशत करोड़पति हैं।
तामिलनाडु में एआईडीएमके की, उड़ीसा में बीजू जनतादल की, पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस की. सीमान्ध्र में तेलगु देशम की तो तेलंगाना में टीसीआर और वायएसआर काँग्रेस की  झाड़ूमार जीत बताती है कि केवल राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, दिल्ली, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, गोआ में भाजपा ने ही झाड़ूमार जीत हासिल नहीं की।
कुल मिला कर ये आँकड़े किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा रहे हैं पर इतना बता रहे हैं कि हमें जो रेडीमेड निष्कर्ष परोसा जा रहा है वही अंतिम सच नहीं है। फिर भी अगर प्रचारित किये जा रहे सत्य का थोड़ा सा भी हिस्सा सच्चाई के निकट है तो यह भी सच है कि जागरूक मतदाता अब बहुत दिन तक बेबकूफ नहीं बन सकता और वह गतिवान परिणाम चाहता है। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि ज़िन्दा कौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं।          
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
   

मंगलवार, जून 10, 2014

आत्महंता काँग्रेस के आत्ममुग्ध शिकारी



आत्महंता काँग्रेस के आत्ममुग्ध शिकारी
वीरेन्द्र जैन     

       एक रोचक कथा के अनुसार, एक युवा सैनिक युद्ध के बाद घर लौटा और शेखी बघारते हुए अपने दादाजी से बोला कि अपने कुल की परम्परा निभाते हुये युद्ध में मैंने बहादुरी दिखाई है और प्रमाण के लिए दुश्मन के सिपाही की बाँह काट कर लाया हूं। अनुभवी दादाजी ने पारखी नज़रों से देखते हुए पूछा कि तुम दुश्मन के सिपाही का सिर काट कर क्यों नहीं लाये?
वो भी ले आता पर उसका सिर तो पहले से ही कोई काट कर ले गया था।बयान बहादुर पोते ने जबाब दिया। 
जो लोग भी काँग्रेस को हराने के नाम पर अपनी पीठ थपथपाते हुए नहीं थक रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि उन्होंने उस लाश की बाँह काटी है जिसका सिर पहले ही कट चुका था। इस देश की राजनीतिक- वर्णव्यवस्था में खुद को सवर्ण मानने वाले काँग्रेसी तो बचे थे, पर काँग्रेस बची ही नहीं थी। अपने अपने अलग अलग कारणों से चुनावों में क्षेत्र के सबसे ज्यादा वोट लेकर जीतने का प्रमाणपत्र पाने वाले वाले लोग सत्ता पाने के लिए जिस मंच पर एकत्रित हो जाते थे उसे ही काँग्रेस कहते चले आ रहे थे। सरलता से वोट हस्तगत करने के लिए यह काँग्रेस स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए बने संगठन के नाम पर चली आ रही थी पर उसके वारिसों के आचरण वैसे नहीं रह गये थे। यदाकदा कुछ बचे हुए लोग जब काँग्रेस के पुराने मूल्यों की बात करते थे तो सारे चुने हुए काँग्रेसी उस पर टूट पड़ते थे और नक्कारखाने में इतना शोर करते थे कि उसकी आवाज तूती की आवाज बन कर रह जाती थी। चुनावों तक में ऐसे काँग्रेसी ऐसे ही दूसरे काँग्रेसियों को हरा रहे थे।  
गैरकाँग्रेसी दलों द्वारा अपने राजनीतिक हित के लिए बार बार यह बात उठायी जाती है कि आज़ादी मिल जाने के बाद महात्मा गाँधी ने काँग्रेस को समाप्त करने का सही सुझाव रखा था जिसे उस काल के काँग्रेसियों ने स्वीकार नहीं किया था। बाद में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने तो पुरानी काँग्रेस को लगभग समाप्त ही नहीं किया था अपितु अपने नेतृत्व वाली पार्टी की पहचान भी कुछ नये नारों के साथ नई काँग्रेस के नाम से की थी। पर सत्ता के बिना जब पुराने लोग बिल्कुल ही समाप्त हो गये और बचे खुचे लोग क्षमा भाव से इन्दिरा गाँधी के आगे शरणागत हो गये तब उन्होंने पुरानी फर्म के लोकप्रिय ब्रांड नेम को छोड़ने का लोभ संवरण नहीं किया जिससे पुरानी काँग्रेस की हवेली में ही नई काँग्रेस रहने लगी, और उसका खानदानी नाम बचा रहा। इस दौर के बाद काँग्रेस सिद्धांतों की जगह अपने समकालीन अध्यक्ष के अनुसार काम करने वाली पार्टी बन गयी। श्रीमती गाँधी की दुखद हत्या के साथ लगभग मृत हो गयी काँग्रेस लगातार अन्दर से खोखली होती गयी, भले ही उसे संसद में बहुत अधिक सीटें और देश की सत्ता मिल गयी थी। सत्ता के रंग रोगन ने उसके ढाँचे को बचाये रखा। काँग्रेस को बचा कर रखने के लिए निर्विवाद नेतृत्व के रूप में राजीव गाँधी को आगे किया गया था पर वीपी सिंह ने बाहर निकल कर उस काँग्रेस की पोल उजागर कर दी थी। कुछ समय बाद आरक्षण विरोध के बहाने उनकी सरकार तो गिरा दी गयी पर राजीव गाँधी की हत्या के बाद विकल्प में मिली सरकार होने के कारण नरसिम्हाराव काल में कुछ साँसें चलीं। फिर सत्ता विहीन सीताराम केसरी के हाथों में आकर काँग्रेस की कथित एकता छिन्न भिन्न होने लगी। यही समय था जब पुराने काँग्रेसियों ने विकल्पहीनता की स्थिति में नेहरू गाँधी परिवार की कानूनी वारिस सोनिया गाँधी को नेतृत्व के लिए मनाने का प्रयास किया और अंततः सफल भी हो गये। सोनिया गाँधी न तो ऐसे किसी नेतृत्व की इच्छुक थीं और न ही खुद को उस पद के दायित्व निर्वहन के लिए उपयुक्त समझती थीं पर अनाथ काँग्रेसियों की करुण पुकार पर अपने परिवार पर रहे काँग्रेसजनों के भरोसे का निर्वाह करने के लिए तैयार हो गयीं। अपना स्वाभाविक नेतृत्व न चुन पाने वाली काँग्रेस की यह पहली हार थी। यह वही समय था जब मण्डल आन्दोलन, राममन्दिर रथयात्रा और बाबरी मस्ज़िद ध्वंस अभियान से जनित जातीय व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ लेकर भाजपा ने संसद में अपने सदस्यों की संख्या समुचित बढा ली थी और काँग्रेस के कमजोर होते जाने के कारण स्वतंत्र रूप से सत्ता में आने के सपने देखने लगी थी। सोनिया गाँधी के आने से काँग्रेस में बिखराव थम गया तो संघ परिवार ने धर्म परिवर्तन की खिलाफत के नाम पर प्रत्यक्ष में चर्चों पर हमले करवाना प्रारम्भ कर दिये जो परोक्ष में सोनिया गाँधी और कांग्रेस पर थे। यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि भाजपा परिवार की रथयात्रा, बाबरी मस्ज़िद ध्वंस, फादर स्टेंस का उसके दो मासूम बच्चों सहित दहन, चर्चों पर हमलों आदि राजनीतिक साजिश का हिस्सा थे उससे ऐसा माहौल बना कि सभी धर्मनिरपेक्ष दल भाजपा को हराने के लिए कृत संकल्प हो गये जिससे 2004 में एनडीए की सरकार गिर गयी। पर इन आम चुनावों में काँग्रेस को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और गैरभाजपाई, गैरकाँग्रेसी दलों के सदस्यों की संख्या भी समुचित रही। यह वही समय था जब गठबन्धन सरकार न बनाने का संकल्प लेने वाली काँग्रेस ने मजबूर होकर अपने पचमढी प्रस्ताव से हाथ खींच लिये और अनेक दलों समेत बामपंथियों के बाहरी समर्थन से उनके न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सरकार बनाने को तैयार हो गयी। इस बीच चुनावों में पराजित भाजपा ने अपनी महिला नेत्रियों को आगे कर सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनाये जाने के खिलाफ अभियान छेड़ दिया और कमजोर काँग्रेस की नेता ने एक नौकरशाह को आगे कर के प्रधानमंत्री पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। सबसे ज्यादा मतों से जीत जाने के बाद सबसे अधिक सीटें पाने वाली पार्टी अपने चुने हुए नेता को प्रधानमंत्री पद पर नहीं बैठा सकी यह उसकी दूसरी हार थी। आगे यह पार्टी बहुमत के बाद भी कभी अपनी मर्जी से सदन नहीं चलवा सकी, और भाजपा ने जब चाहा तब सदन चला और जब चाहा तब स्थगित करा दिया। परमाणु विधेयक को छोड़ कर जिसमें भी काँग्रेस को भाजपा का परोक्ष सहयोग रहा। वे उसकी मर्जी के बिना कोई विधेयक पास नहीं करवा सके। पिछले दस वर्षों में काँग्रेस के नेता न सदन में सक्रिय हुये और न ही सड़क पर निकल कर आये। उनकी सक्रियता के चर्चे केवल भ्रष्टाचार और सेक्स स्केंडलों में दिखे, या आपसी गुट्बाजी में। काँग्रेसी सुख लूटते रहे और काँग्रेस हारती रही।
अपनी इकलौती नेता के वैधानिक अधिकारों की रक्षा न कर पाने वाले काँग्रेसियों से निराश सोनिया गाँधी ने दुखी मन से हार कर राहुल गाँधी का नाम आगे बढाया तो चापलूस काँग्रेसी उन्हें अपना खेवनहार मान कर  जयजयकार करने लगे वहीं दूसरी ओर भाजपायी लोग उनकी छवि खराब करने में जुट गये। भाजपा ने तो अपने सबसे मुखर और वाक्पटु नेता को आगे कर के दोनों के बीच अघोषित मुक़ाबला ही छेड़ दिया। जनता को सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, मुफ्त स्वास्थ की ढेरों योजनाएं, महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना, अनेक अनुदान, देने के बाद भी सक्रिय संगठन के अभाव में मुर्दा काँग्रेस इसका राजनीतिक लाभ नहीं उठा सकी और प्रचार के लिए जुटाये गये संसाधनों को छुटभैये काँग्रेसी नेता प्रेमचन्द की कहानी कफन के पात्रों की तरह पीते रहे।
नगर पंचायतों से लेकर विधानसभा चुनावों और संसद के उपचुनावों तक वे लगातार हारते रहे, और चुनावी हार में भी खेल भावना का परिचय देते रहे। कहीं जीते भी तो उन्होंने यह नहीं देखा कि वे कितने समर्थन से जीते हैं और विपक्षियों के अंतर्विरोधों के कारण जीते हैं। 2014 के आम चुनाव आते आते तक भी वे ‘प्रभु सब अच्छा करेगा’ की भावना से भरे रहे। चुनावी सर्वेक्षण तो अवैज्ञानिक होते हैं पर अजगर की तरह लेटी इस पार्टी ने यह भी नहीं सोचा कि क्यों उसके मंत्रिमण्डल के सदस्यों से लेकर सांसद और विधायक दल बदल रहे हैं। यहाँ तक कि जिसको टिकिट देकर फार्म भरवाया वह वापिसी की तारीख निकलने के बाद भाजपा में शामिल हो गया या जिस दिन काँग्रेस ने किसी को टिकिट दिया वह उसी दिन भाजपा में शामिल हो गया।
काँग्रेस की हार उससे ज्यादा बुरी हार है जितनी दिखायी दे रही है। जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उड़ीसा, तामिलनाडु, राजस्थान, गुजरात, गोआ, झारखण्ड, आदि अनेक राज्यों में कोई भी सीट नहीं जीत सकी, तो उत्तर प्रदेश में केवल सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ही अपनी सीट बचा सके, मध्यप्रदेश में राजपरिवार से जुड़े ज्योतिरादित्य सिन्धिया और सम्पन्न व्यापारी कमलनाथ अपने व्यक्तिगत प्रभावों से ही जीत दर्ज करा सके हैं। छत्तीसगढ में जीती इकलौती सीट का अंतर बहुत हास्यास्पद है तो बिहार में राजद से चुने गये बाहुबली पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन ने काँग्रेस का टिकिट लेकर मानो काँग्रेस पर कृपा कर दी हो। बंगाल में राष्ट्रपति के पुत्र ने चुनाव जीत कर योगदान दिया है तो बिहार और बंगाल से मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से एक एक मुस्लिम उम्मीदवार ने जीतकर लाज बचायी।  महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री ने तो हरियाणा में मुख्यमंत्री के रिश्तेदार ने जीत कर काँग्रेस की चवालीस की संख्या बनाने में मदद की है। शेष योगदान काँग्रेस शासित उत्तरपूर्व, कर्नाटक और केरल राज्यों का है।
भाजपा भले ही काँग्रेस को पराजित करने का श्रेय लेने में लगी हो पर सच तो यह है कि यह पार्टी तो खुद ही हारने में लगी हुयी थी। तामिलनाडु में इसे एआईडीएमके ने हराया तो उड़ीसा में बीजू जनता दल ने, सीमान्ध्र और तेलंगाना में तेलगु देशम, टीआरसी, और वायएसआर काँग्रेस ने तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस ने महाराष्ट्र में शिवसेना ने हराया पंजाब में आप ने।
जिस पार्टी को भाजपा से ज्यादा चन्दा मिलता हो अगर उसके मध्य प्रदेश कार्यालय की बिल न चुका पाने के कारण बिजली कटने की नौबत आ जाये और जो पार्टी राजनीतिक कारणों से करोड़ों में खेल रहे अपने सदस्यों पर लेवी भी न लगा सके तो उस पार्टी को हार ही जाना था। पर जो उसे हराने का दावा कर रहे हैं वे झूठे हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

शुक्रवार, जून 06, 2014

थरूरजी विचार जरूर कीजिये



थरूरजी विचार जरूर कीजिये
वीरेन्द्र जैन

       भारतीय राजनीति में जो थोड़े से युवा, सुदर्शन, कोमल और अभिजात्य व्यक्तित्व नजर आते हैं उनमें श्री शशि थरूर भी एक हैं जो पिछले दिनों यूपीए मंत्रिमण्डल में विभिन्न जिम्मेवारी के पद सम्हालते छोड़ते रहे हैं और अन्य व्यक्तिगत घटनाओं दुर्घटनाओं समेत आईपीएल व वायुयान के यात्रियों के वर्गीकरण में भी कैटिल क्लास जैसे जुमलों के लिए भी चर्चा में रह चुके हैं। ऐसे व्यक्ति का कभी कभी कुछ कुछ भावुक और काव्यात्मक हो जाना सहज सम्भव है। इसी भावभूमि में पिछले दिनों उन्होंने एनडीए सरकार के भाजपायी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में एक नये अवतार के दर्शन कर लिये और कांग्रेस के प्रवक्ता पद की कुर्सी से उनके समन्वित विकास के लिए राजनीतिक सहयोग के आवाहन से नई उम्मीदें बाँध लीं। ऐसा करते समय श्री थरूर यह भी भूल गये कि ये वही मोदी हैं जो कभी उनके प्रिय लोगों की कीमत भी आँक चुके हैं। पत्रकारिता के साथ साहित्य में भी रुचि के कारण मैं चाहता हूं कि थरूर जी से कविता की भाषा में ही बात करूँ।    
       हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि श्री मुकुट बिहारी सरोज की एक कविता ‘कैसे कैसे लोग रह गये’ की पंक्तियाँ कहती हैं कि – पानी पर दुनिया बहती है, आप हवा के साथ बह गये, कैसे कैसे लोग रह गये।
हवा के साथ बह जाने के कारण ही शायद थरूरजी को यह समझ में नहीं आया कि भले ही पिछला चुनाव भाजपा ने मोदी के नाम को केन्द्र में रख कर लड़ा गया था और एआईडीएमके की जयललिता, डीएमके के करुणानिधि, बीजू जनता दल के नवीन पटनायक, तेलगुदेशम के चन्द्रबाबू नायडू, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह, बहुजन समाज पार्टी की मायवती आदि की तरह ही उन्हें सजा धजा कर भाजपा का एकमात्र सुप्रीमो बना कर सामने रखा गया था फिर भी भाजपा और मोदी की डोर आरएसएस के हाथों में है, और संसद के पहले प्रवेश के दिन ही वे अडवाणी के कृपा शब्द के बहाने उस सुप्रीमो की भूमिका को नकार चुके हैं और प्रत्यक्ष में भाजपा पार्टी को और परोक्ष में संघ को अपनी माँ बता चुके हैं। स्मरणीय है कि संघ के एक इशारे पर अडवाणी जैसा सबसे शक्तिशाली और समर्थ नेता एक किनारे लगा दिया जाता है और उन्हें स्तीफा देते समय दस लोगों का साथ भी नहीं मिलता। इसलिए नेतृत्व भले ही नरेन्द्र मोदी का हो पर असल सूत्र संघ और उसकी विचारधारा के हाथ में ही होंगे। वे चुनाव जीतने के लिए मुखौटे चाहे जितने लगा लें पर उनके मूल चरित्र में कभी भी अंतर नहीं आ सकता। यह याद दिलाना जरूरी नहीं होना चाहिए कि इस देश का मानस जिन मिथकों के द्वारा निर्मित हुआ है उनमें रामकथा भी प्रमुख है जिसका सबसे शक्तिशाली खलनायक सीताहरण के लिए साधु का भेष धरकर आता है। हमारी राष्ट्रभाषा के मुहावरों में से ही एक ‘बगुला भगत’ भी है और दूसरा ‘ मुँह में राम बगल में छुरी’ भी है। इस देश के सबसे महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता, अभिनेता राजकपूर की फिल्म के गीत की पंक्ति कहती है कि – देखे पंडित ज्ञानी ध्यानी दया धर्म के बन्दे, रामनाम ले हजम कर गये गौशाला के चन्दे’ । यही कारण है कि शशि थरूर जी की समझ पर कांग्रेस समेत सभी सुनने वाले चौंक गये और काँग्रेस पार्टी को स्पष्ट करना पड़ा कि वह शशि थरूर के उक्त व्यक्तिगत विचारों से सहमत नहीं है।
       यद्यपि यह स्वाभाविक है कि देश का सबसे बड़ा पद मिलने के बाद वे खुद को पद के योग्य सिद्ध करने का प्रयास करेंगे पर अगर नरेन्द्र मोदी जी का किंचित भी ह्रदय परिवर्तन हुआ होता तो उन्होंने सबसे पहले 2002 में हुयी गलतियों के लिए क्षमा माँगी होती और अपने गर्वीले गुजरात के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए कदम उठाये होते।    
       असल में चुनाव प्रचार के दौरान मोदीजी ने अपनी छवि निर्माण के लिए जिस विदेशी कम्पनी का सहारा लिया उसी के द्वारा बताये गये डिजायनर कपड़े भी पहिने जो क्षेत्र विशेष के अनुसार बदलते रहे। यह उनके सलाहकारों की ही सलाह रही होगी जिसके अनुसार उन्होंने अपने संगठन के साम्प्रदायिक एजेंडे को सुविधानुसार निकाला और जहाँ जरूरत नहीं थी वहाँ नहीं निकाला। उल्लेखनीय है कि चुनाव प्रचार के दौरान ही पश्चिम बंगाल में उन्होंने कहा कि दुर्गा अष्टमी मनाने वाले तो भारत में रह सकते हैं बाकी सोलह मई के बाद बोरिया बिस्तर बाँध लें। उत्तरपूर्व में जाकर कहा कि गैंडों को मारकर उनके अभयारण्य को बंगलादेशियों के लिए खाली कराने की साजिश की जा रही है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में यह भी कहा कि गौपालकों की जगह बूचड़खाना चलाने वालों को अधिक महत्व दिया जा रहा है और काँग्रेस की आदत है कि वह मटर और मटन के चुनाव में मटन को प्राथमिकता देती है। वे यह कहने से भी नहीं चूके कि हरित या श्वेत क्रांति की जगह गुलाबी क्रांति की जा रही है। ये वही मोदीजी हैं जो नवाज़ शरीफ से गले मिलने से पहले कहा करते थे कि हमारे जवानों का सिर काटने वालों को बिरयानी खिलाई जाती है।
       पता नहीं कि थरूरजी मोदी के ड्रैस सैंस पर मुग्ध हो गये जो यह भी भूल गये कि मोदी से असहमत होने वालों को पाकिस्तान भेजने वाले गिरिराज सिंह के बयानों के खिलाफ मोदी ने सीधे सीधे कुछ नहीं कहा था और प्रमोद मुत्तालिक को पार्टी में सम्मलित कराने के संकेतों का लाभ लेकर फिर बाहर का रास्ता दिखा देने की योजना भी मोदी टीम की ही थी। रामदेव को गले लगा उनसे प्रचार करवाने वाले मोदी ने उनके कहने पर कई भगवा भेषधारियों को टिकिट दिये। चाँदनाथ, सुमेधानन्द, स्वामी सच्चिदानन्द, उमा भारती, निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ, आदि तो सदन की रंगत बढा ही रहे हैं। मुजफ्फरनगर दंगे के जिन संजीव बालियान पर शपथ ग्रहण समारोह वाले दिन ही दंगों के समय निषेधाज्ञा भंग करने के आरोप में मुकदमा दर्ज़ कराया गया उन्हें टिकिट देने के ही नहीं राज्यमंत्री बनाने का काम भी उन्हीं मोदीजी ने ही किया है जिन्होंने गुजरात में अमित शाह और माया कोडनानी को सब कुछ जानते हुये भी मंत्री बनाया था।
       सच तो यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान जो संयम बरता गया उसका कारण यह रहा कि किसी को भी इतने स्पष्ट बहुमत की उम्मीद नहीं थी और एनडीए के बाहर वाले दलों से सहयोग जुटाने के लिए मुखौटा लगाने की जरूरत थी। अगर थरूर जैसे जिम्मेवार नेता ही बिना गहन विचार के भ्रमित होने लगेंगे तो सीधी सरल जनता का आक्रामक प्रचार से धोखा खा जाना तो स्वाभाविक ही है।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629