मंगलवार, जून 03, 2014

इस बहुमत में निहित चुनौतियां और देशहित



इस बहुमत में निहित चुनौतियां और देशहित

वीरेन्द्र जैन
            पिछले दिनों हुये आम चुनाव और चुनावों के परिणामस्वरूप गठित सरकार से देश के विशाल बहुमत की उम्मीदें बहुत अधिक हैं क्योंकि अतिशय प्रचार के खाद पानी से जो सपने बोये गये हैं उनसे उम्मीदों की फसल बहुत लहलहा रही है। आम जनता को लगता है कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिला आशा से अधिक बहुमत आनन फानन में सारे वादे पूरे कर के दिखा देगा। इसके विपरीत सच यह है कि लोकतंत्र में सरकारों की सफलताएं न केवल चुनावों से मिले बहुमत अपितु जनता की सक्रिय भागीदारी से ही सम्भव हो पाती हैं। चुनाव परिणामों के बाद अपने चुनाव क्षेत्र बड़ोदा में दिये अपने पहले भाषण में प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनता से सक्रिय सहयोग की अपेक्षा करते हुए कहा था कि देश के सवा सौ करोड़ लोग अगर एक कदम भी चलते हैं तो देश सवा सौ करोड़ कदम आगे जा सकता है। यह एक स्पष्ट संकेत है कि किसी भी सामाजिक बदलाव के लिए केवल शासन प्रशासन ही नहीं अपितु जनता को मतदाता की भूमिका से आगे किसी स्पष्ट रणनीति के अंतर्गत बदलाव का सिपाही बनना होता है।
      प्रधानमंत्री की ये अपेक्षाएं तब ही पूरी हो सकती हैं जब जनता अपने राजनीतिक विचार को एक जन आन्दोलन बनाये अन्यथा देश में अब तक के पदारूढ रहे किसी भी प्रधानमंत्री की सद्भावनाओं में कोई कमी नहीं रही है। आइए भाजपा और एनडीए की अप्रत्याशित जीत से उठे जयकारों के तुमुल कोलाहल में बहुमत बनाने वाले कर्णधारों को पारखी नज़र से देखने की कोशिश की जाये और यह न भूला जाये कि इससे भी अधिक अप्रत्याशित बहुमत पहले भी देखा जा चुका है और उम्मीदों की खेती पहले भी कई बार ऐसी ही लहलहा कर मुरझा चुकी है।
      यह सच है कि भाजपा की पितृ संस्था आरएसएस समेत उसके किसी भी नेता को अपने दल के चरित्र और जनता में उसके प्रभाव के आधार पर इतना समर्थन तो क्या साधारण बहुमत की भी उम्मीद नहीं थी इसलिए उसने इसे युद्ध स्तर पर लड़ने की तैयारी की और लड़ा भी। भाजपा के स्वाभाविक वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी को उम्मीदवार न बना कर पूर्व से गुजरात के बहुचर्चित कार्यरत मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर चुनाव अभियान चलाया और उनके तथा सहयोगी दल के वरिष्ठ नेता बालठाकरे द्वारा अपने अंतिम दिनों में सुझाये गये अन्य विकल्प सुषमा स्वराज के नाम को भी स्वीकार नहीं किया। अडवाणीजी द्वारा सुषमा स्वराज के साथ मुम्बई कार्यकारिणी की बैठक छोड़ कर आने और फिर त्यागपत्र की पेशकश करने का भी उनके फैसले पर कोई फर्क नहीं पड़ा था।
      मोदी के नेतृत्व में बनी चुनाव प्रचार की योजना में सबसे पहले नितिन गडकरी को फिर से अध्यक्ष बनाये जाने की संघ की इच्छा को नकारा गया और समझौते के रूप में केवल शोभा के लिए  राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद पर बैठा दिया गया। बाद में उन्होंने पूरे चुनाव के दौरान मोदी के कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका भर निभायी और मंत्रिमण्डल में भी उसी तरह पदस्थ हुये। गठबन्धन सरकार बनने की स्थिति में मोदी की स्वीकारिता पर सम्भावित आशंका को ध्यान में रखते हुए अडवाणीजी को अंतिम सूची में टिकिट तो दिया पर भोपाल से चुनाव लड़ने की उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी, और उसके विपरीत गाँधीनगर से ही चुनाव लड़वाया गया। अडवाणीजी ही नहीं वरिष्ठ नेताओं में लखनऊ से लालजी टण्डन और भोपाल से कैलाश जोशी का टिकिट काट दिया गया। राजनाथ सिंह को गाज़ियाबाद से लखनऊ भेज दिया गया व मुरली मनोहर जोशी को बनारस से कानपुर भेज दिया गया। उमाभारती, जिन्हें पहले मध्यप्रदेश से दूर करने के लिए उत्तर प्रदेश से विधायक चुनवा दिया था, अब झाँसी से टिकिट दिया गया। टिकिट वितरण से लेकर दूसरे दलों से चुनावी गठबन्धन करने के सारे फैसले नरेन्द्र मोदी की अपनी चुनावी टीम ने ही किये और उससे अलग किसी भी वरिष्ठ नेता से कोई सलाह नहीं ली। एक खबर के अनुसार जब झाँसी की प्रत्याशी उमा भारती ने संसाधनों के संकट की बात की तो अमित शाह ने उनसे कहा कि अगर उनके पास पासपोर्ट है तो बेहतर है वे विदेश चली जायें और जब लौट कर आयें तो एक लाख से अधिक की जीत का सर्टिफिकेट उनके पास से ले लें। मोदी टीम के निर्देश के अनुसार ही अरुण जैटली जो आम चुनावों से दूर रहना ही पसन्द करते रहे थे उनको राज्यसभा का सदस्य होते हुए भी अमृतसर से चुनाव लड़ना पड़ा और पराजित होने का दंश सहना पड़ा। सारे मोहर मोदी-टीम ने ही सजाये।
      संयोगवश दस साल की एंटी इंकम्बेंसी, मँहगाई, भ्रष्टाचार के खुलासों और गठबन्धन के कमजोर हो जाने से यूपीए विरोधी लहर बनने व संघ परिवार के खुल कर आने, कुशल प्रबन्धन सहित मीडिया व कार्पोरेट जगत से अपेक्षित सहयोग के कारण मोदी टीम ने अबकी बार मोदी सरकार का सपना तो साकार कर लिया पर इसमें एनडीए और भाजपा संगठन ही नहीं, पार्टी और सरकार पर आरएसएस के नियंत्रण को भी कमजोर कर दिया है। चुनाव परिणामों में भाजपा विरोधी दल ही चुनाव नहीं हारे अपितु एनडीए के जो सहयोगी गठबन्धन सरकार में दबाव बना कर सरकार में क्षमता से अधिक हिस्सा पाने के सपने देख रहे थे, उनके सपने भी चूर हुए हैं। अब वे टीम-मोदी की इच्छा के अनुरूप ही गठबन्धन और सरकार में रह सकते हैं। मंत्रिमण्डल गठन के पहले दौर में शिवसेना ने कमजोर से नानुकुर के बाद जो और जैसा मंत्रालय मिला उसे ग्रहण कर लिया। राजस्थान की मुख्यमंत्री भी अपने प्रदेश में पूरी सीटें जिताने के बाद भी मंत्रिमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व नहीं पा सकीं और कहीं शिकायत भी नहीं कर सकीं। यही हाल हिमाचल और उत्तराखण्ड के नेताओं का भी रहा। काँग्रेस, राजद, टीडीपी समेत अनेक दलों से जो अनुभवी नेता आयात किये गये हैं वे अपने व्यक्तिगत प्रभाव और भाजपा के प्रबन्धन से चुनाव तो जीत गये हैं पर अपने कार्य का उचित पुरस्कार नहीं पा सके हैं। जो नेता अपने निजी हितों के लिए अपने वर्षों पुराने दल को छोड़ सकते हैं उनकी निष्ठा हमेशा सन्दिग्ध ही रहती है। इस बहुमत को बनाने में देश भर के सेलिब्रिटीज को टिकिट देकर उनकी लोकप्रियता का लाभ लिया गया है। ये लोग जिनमें से कई अपनी लोकप्रियता को वस्तुओं के विज्ञापन करके भी भुनाने के अभ्यस्त रहे हैं, सांसद के रूप में देश सेवा करने की जगह अपने कार्यक्षेत्र में लौटना ज्यादा पसन्द करेंगे। पहले भी देखा गया है कि ऐसे लोग केवल चुनावों के दौरान ही मतदाता को दुलराने का काम करने के बाद वापिस हो जाते हैं और क्षेत्र की जनता को उनकी तलाशी के लिए पोस्टर छपवाने पड़ते हैं। इस बहुमत को जुटाने की यह कैसी विडम्बना है कि जिस गुजरात में मोदी के नाम का डंका बजता हुआ बताया जा रहा हो वहाँ अहमदाबाद से चुनाव लड़ने के लिए अमेरिका में शूटिंग कर रहे परेश रावल को शूटिंग छोड़ कर बुलवाना पड़ा था, जिनके सार्वजनिक कार्यों का कोई इतिहास ज्ञात नहीं है।
      उल्लेखनीय है कि अखिल भारतीय स्तर पर चुनाव लड़ने वाला तीसरा दल आम आदमी पार्टी था जिसने पहली बार में ही किसी भी दूसरे दल से अधिक उम्मीदवार खड़े किये थे और बिना संगठन व संसाधनों के एक करोड़ बारह लाख वोट मत अर्जित कर लिये। इस दल समेत सभी ने भी जिन दस करोड़ नये मतदाताओं को आकर्षित किया है वे फास्ट फूड और कम्प्यूटर- नेट वाली पीढी के लोग हैं और तुरंत परिणाम चाहते हैं। जब दिल्ली राज्य में बेमन से बनी आम आदमी पार्टी की अल्पमत सरकार से लोग केवल 49 दिन में ही परिणाम की अपेक्षा करने लगे थे तब भले ही मोदी सरकार के लिए वे सौ दिन की प्रतीक्षा कर लें पर इन सौ दिनों में भी वे प्रतिदिन सकारात्मक गतिविधियां होते देखना चाहेंगे। क्या ऐसा बहुमत उनकी अपेक्षाएं पूरी कर सकेगा? विडम्बनापूर्ण यह है कि इस बहुमत के निर्माण हेतु चुना गया जो नई पीढी का भी हिस्सा है वह भी इस पुरातनपंथी पार्टी की विचारधारा का है और बहुत सारे अपने परिवार की विरासत को ही आगे बढाने के लिए आये हैं। कैसी विसंगति है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील वाले दिन ही उनकी पार्टी की बाराबंकी की सांसद ने अपील की भावनाओं के विपरीत अपने पिता को ही सांसद प्रतिनिधि बना दिया था और मोदीजी को उन्हें खुद फोन करके चेताना पड़ा। पहला परिवर्तन इस बहुमत की सोच में परिवर्तन लाने का करना पड़ेगा जिसकी क्या तैयारियाँ हैं?
वीरेन्द्र जैन
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