शनिवार, मई 31, 2014

बदलाव की दिशा



बदलाव की दिशा
वीरेन्द्र जैन
      प्राकृतिक जल के प्रवाह को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने के दो प्रमुख मार्ग होते हैं जिनमें से एक का नाम नदी होता है और दूसरे को नहर कहते हैं। नदी, उपलब्ध भूगोल में पानी द्वारा अपना मार्ग बनाने और लम्बे काल खण्ड में अवरोधों से निरंतर टकरा कर उसे सुगम बनाते रहने से बनती है, जबकि नहर को अपनी जरूरत के अनुसार निकाला जाता है और जल प्रवाह की दिशा को मनचाहा मोड़ दिया जाता है। आदर्श लोकतंत्र, नदी जैसे स्वाभाविक प्रवाह और सतत स्वाभाविक टकराहटों का ही नाम है, पर जब जनमानस को नहर जैसे मार्ग से बहा ले जाकर अपना स्वार्थ हक किया जाने लगता है तो लोकतंत्र की आत्मा कुंठित होती है।
      हमारे देश में 2014 के आम चुनाव द्वारा हुये राजनीतिक परिवर्तन, जनमानस रूपी जल के किसी नहर की तरह के स्थान परिवर्तन जैसे हैं जिन्हें कुशल प्रबन्धन द्वारा संभव बनाया गया है। यदि नैतिक मूल्यों को अलग रख कर इस प्रबन्धन को परखा जायेगा तो इस के लिए किये गये प्रयासों और कौशल की प्रशंसा करनी होगी। ऐसे परिवर्तन घटना होते हैं इतिहास नहीं। इन ताश के महलों को निरंतर साधना पड़ता है। उपलब्ध आंकड़ों और तथ्यों द्वारा इसे समझा जा सकता है।
      स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस आन्दोलन से जन्मी कांग्रेस, अर्धसामंतवादी, अर्धपूंजीवादी समाज में एक स्वाभाविक पार्टी थी और तब सत्ता में आने की हक़दार थी। पर उसके दो दशक बाद ही समाज में तेजी से पैदा हुयी अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने के कारण उसने अपनी चमक खो दी थी, तब उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गयी जिसे श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में नई कांग्रेस द्वारा पूरा किया गया। बैंकों और बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण, पुराने राजपरिवारों के विशेष अधिकारों और प्रिवीपर्स की समाप्ति, सर्वजनिक क्षेत्रों का विकास, आदि के साथ साथ गरीबी हटाओ का नारा भी दिया गया था। इसी दौरान साम्यवादी रूस के साथ कई व्यापार समझौतों ने पार्टी को पुनर्जीवित कर दिया। इन समझौतों का परिणाम कृशि के क्षेत्र में हमारी आत्म निर्भरता के साथ पाकिस्तान के विभाजन के दौरान अमेरिका के सातवें बेड़े को इस महाद्वीप तक न पहुँचने देने के रूप में भी देखने को मिला था। इतना ही नहीं उस समय की कांग्रेस ने देश के तत्कालीन प्रमुख साम्यवादी दल से राजनीतिक गठबन्धन करके स्वयं को जनपक्षधर प्रचारित कर दिया था, जिसका प्रभाव उस दौरान हुये विभिन्न आमचुनावों के परिणामों में देखने को मिल रहा था। देश का एक विशाल जनमानस श्रीमती गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस के साथ खड़ा हो गया था जिसका चुनावी मुकाबला करने के लिए विभिन्न दक्षिणपंथी दलों और अलग हुये कांग्रेस के हिस्से ने अपने सैद्धांतिक मतभेद भुला कर समझौता कर लिया था। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा श्रीमती गाँधी के चुनावों से सम्बन्धित फैसले को आधार बना और मँहगाई व भ्रष्टाचार के नाम पर जयप्रकाश नारायण को आगे करके आन्दोलन किया गया जो बाद में इमरजैंसी लागू किये जाने की जरूरतों तक गया। इमरजेंसी के बाद 1977 में जो आम चुनाव हुआ वह बहुत हद तक पहला आम चुनाव था जिसे राजनीतिक आधार पर लड़ कर विपक्षी गठबन्धन ने जीता था व सत्तारूढ दल की हार हुयी थी। वह ऐसा दुर्लभ आम चुनाव भी था जिसमें मुस्लिम समुदाय के मतदाताओं ने राजनीतिक आधार पर मतदान किया था। उसके बाद के आमचुनाव या तो भावनात्मक आधार पर हुये या नकारात्मक आधार पर। हर बार मतदाताओं को लुभाने के लिए पैसा या शराब वितरित करने में वृद्धि होती गयी। करोड़पति और बाहुबली उम्मीदवारों की संख्या में बढोत्तरी होती गयी व चुनावी हिंसा व बूथ लूटने की घटनाएं बढती गयीं। फिल्म व टीवी के स्टार, क्रिकेट खिलाड़ी, कलाजगत के लोकप्रिय व्यक्ति, धार्मिक पोषाकों वाले धर्मगुरू, उद्योगपति व राजपरिवारों से जुड़े लोगों की संख्या बढने लगी। 1989 से अल्पसंख्यक सरकारों का जो दौर शुरू हुआ उसमें छोटे छोटे समर्थक दलों का महत्व और सौदेबाज़ी की ताकत बड़ी जिससे क्षेत्रीय दलों ने अपना विस्तार किया और केन्द्र की सरकारें दबावों में काम करने लगीं। 2004 की यूपीए-1 और 2009 की यूपीए-2 की सरकारें इसका उदाहरण हैं।
      2014 के आम चुनाव के दौरान मँहगाई अपने शिखर पर थी और भ्रष्टाचार के अतिरंजित प्रचार का आरोप भी सत्तारूढ गठबन्धन के प्रमुख दल पर लग रहा था भले ही उसके लिए गठबन्धन के घटक दल अधिक ज़िम्मेवार हों। विडम्बना यह थी कि भ्रष्टाचार के ऐसे ही आरोपों से सबसे बड़े विपक्षी दल की राज्य सरकारें भी घिरी थीं पर उनका गठबन्धन प्रचारतंत्र में मजबूत था जिसकी दम पर उन्होंने सारे तीर केन्द्र में सत्तारूढ दल की ओर मोड़ दिये थे। भाजपा के प्रबन्धन ने सबसे पहला काम यह किया कि अपने उम्रदराज नेताओं को एक किनारे लगाकर अपने सर्वाधिक ऊर्जावान युवा नेता को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करके चुनाव को युद्ध की तरह लड़ा और उसका नाम ही भारत विजय रखा। नेतृत्व उस नेता को दिया जिसके राज्य ने उनके द्वारा शासित दूसरे राज्यों की तुलना में भ्रष्टाचार कम था और कई दशकों से चल रही विकास की परम्परा को वह अपने नाम पर गिना रहा था। अपनी पार्टी के नाम और काम तक को उस नेता के आगे ढक जाने दिया गया, व इसके विरुद्ध पार्टी में कहीं भी विरोध नहीं पनपने दिया। पार्टी से बाहर गये येदुरप्पा, उमाभारती, कल्याण सिंह, आदि को पार्टी में सम्मलित कर लिया। बिहार में रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी, और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी, उ.प्र. में स्व. सोनेलाल पटेल की पुत्री अनुप्रिया पटेल का अपना दल, समेत दक्षिण के अनेक छोटे दलों को सहयोगी दल बना लिया। पूर्व इनकम टैक्स कमिश्नर उदितराज जैसे दलित नेता समेत प्रत्येक चर्चित नाम को आकर्षित किया और सेना के सेवा निवृत्त जनरल वीके सिंह, मुम्बई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह, पूर्व आईएएस अधिकारी भागीरथ प्रसाद, आदि नौकरशाहों को टिकिट देकर चुनाव में उतारा। चुनाव जीतने के लिए दलबदल का ऐसा नंगा खेल खेला कि कुछ ही दिन पहले तक केन्द्र में यूपीए सरकार में मंत्री रहे जगदम्बिकापाल, और मानव संसाधन विकास मंत्री डी पुष्पेन्दरी ही नहीं कांग्रेस के होशंगाबाद के सांसद उदय प्रताप सिंह, भिण्ड के घोषित प्रत्याशी भगीरथ प्रसाद, बाड़मेर से कर्नल सोना राम, पाटलिपुत्र से राजद के रामकृपाल यादव को टिकिट देकर जीत सुनिश्चित की। नोएडा के कांग्रेस प्रत्याशी को तो नाम वापिसी की तिथि निकल जाने के बाद भाजपा में सम्मलित करवा लिया गया, जिससे कांग्रेस की हार सुनिश्चित हो गयी। फिल्मी और मंचीय कलाकारों में हेमामालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, परेश रावल, किरण खेर, स्मृति ईरानी, मनोज तिवारी, बप्पी लहरी, बाबुल सुप्रियो, आदि को उतारा गया जिनमें से ज्यादातर ने अपनी लोकप्रियता के आधार पर चुनाव जीत भाजपा के सिद्धांतों की लोकप्रियता के डंकॆ पिटवाये हैं। क्रिकेट खिलाड़ियों में से कीर्ति आज़ाद इस बार भी जीत गये हैं। चुनावों के दौरान ही प्रसिद्ध पत्रकार एमजे अकबर, और उत्तराखण्ड के पूर्व कांग्रेसी मंत्री सत्यपाल महाराज, कामेडियन राजू श्रीवास्तव, को ही भाजपा से नहीं जोड़ा गया अपितु दक्षिण के रजनीकांत को भी समर्थक बनाया गया।  
      विकास के नाम पर चुनाव लड़ने का दावा करने वाले व्यक्ति ने न केवल फैज़ाबाद में मंच पर राम मन्दिर के चित्र वाला बैनर ही लगाया अपितु गंगा पूजा न कर पाने का लाभ भी लिया। इतना ही नहीं उन्होंने भगवा वेषधारी साध्वी उमा भारती, स्वामी सच्चिदानन्द साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ, सुमेधानन्द सरस्वती, चाँदनाथ आदि को टिकिट देकर पार्टी की धार्मिक पहचान बनाये रखी।             
      रैलियों में समुचित भीड़ की न केवल व्यव्स्था ही की गयी अपितु उसे अतिरंजित करने वाले कैमरों के द्वारा बढा चढा कर भी चैनलों तक पहुँचवाया गया। सबसे अधिक कर्ज़ वाले गुजरात से उद्योग जगत को जो सुविधाएं मिली हैं तो बदले में उन्होंने भी उसके अनुकूल उदारता दिखायी। विजुअल मीडिया ने एक स्वर से पक्षधरता की जिनके मालिक उद्योग जगत के लोग ही थे। थ्री डी चुनाव प्रचार सभायें ही नहीं अपितु चाय पर चर्चाएं तक आयोजित की गयीं। सोशल मीडिया के अतिरंजित प्रचार की योजना तो बहुत पहले से ही बना ली गयी थी जिसकी बहुत सारी कहानियां पहले ही सामने आ चुकी थीं और कुछ अब सामने आ रही हैं। अमेठी में तो विपक्षी के खिलाफ अश्लील कहानियों की पुस्तिकाएं भी चोरी छुपे बँटवायी गयीं। 
      कुल मिला कर कहा जा सकता है कि भरपूर साधनों की मदद से यह एक प्रबन्धन का चुनाव था जिसका लाभ दूसरे दल नहीं उठा सके या उनकी नैतिकता में यह नहीं आता। देश में प्रचलित प्रणाली के अनुसार यह सब लगभग विधि के अनुसार ही है कि इस तरह से अर्जित कुल मतों का 31 प्रतिशत और देश के कुल मतों का 20 प्रतिशत पाने वाला दल पूर्ण बहुमत पा कर शासन करे। जिन्हें चिंता है वे प्रणाली में बदलाव के बारे में सोचें।
वीरेन्द्र जैन
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