शनिवार, नवंबर 19, 2022

समीक्षा नरेन्द्र मौर्य के गज़ल संग्रह ‘सदी पत्थरों की ‘ पर कुछ बेतरतीब विचार

 

समीक्षा

नरेन्द्र मौर्य के गज़ल संग्रह ‘सदी पत्थरों की ‘ पर  कुछ बेतरतीब विचार


वीरेन्द्र जैन

दुष्यंत कुमार के बाद हिन्दुस्तानी [ हिन्दी-उर्दू ] भाषा में व देवनागरी लिपि में लिखी गयी गज़लों की बाढ आ गयी क्योंकि यह विधा पाठकों और कवियों दोनों को भा रही थी। इस विधा ने हिन्दी के गीतों और दूसरे छन्दों को पीछे छोड़ दिया। नरेन्द्र मौर्य की ‘अपनी बात’ के अनुसार वे भी गत तीस वर्षों से इसी भाषा और लिपि में रचनारत हैं जिसे गज़ल या हिन्दी गज़ल कहा जाता है। इसे मैं गज़ल की मूल विधा या कहें कि उर्दू गज़ल से थोड़ा भिन्न इसलिए मानता हूं क्योंकि बहुत सारे रचनाकारों ने इसके मूल अनुशासन को तोड़ कर अपनी बात कही है और जहाँ कथ्य में दम था वहाँ शिल्प को नकार कर भी रचना स्वीकारी गयी है। चूंकि यह बाढ दुष्यंत कुमार के प्रभाव के बाद आयी थी इसलिए इसमें स्वातंत्रोत्तर राजनीति का मूल्यांकन प्रमुख रूप से उभरा। नरेन्द्र मौर्य लिखते हैं कि उन्होंने पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लिखते हुए भी अपने संकलन को लाने का विचार तब किया जब उन्हें श्री अनवारे इस्लाम जैसे उस्ताद शायर की सलाह प्राप्त हुयी जिसके आधार पर उन्होंने पर्याप्त सुधार किये। उस्ताद की सलाह पर आये संकलनों को परोक्ष में संयुक्त उपक्रम माना जा सकता है जिसके लिए रचनाकार ने पुस्तक में आभार प्रकट किया ही है।

मैं भी दुष्यंत के बाद तेजी से फैली इस विधा को पसन्द करने वाले लोगों में रहा हूं इसलिए अनेक रचनाकार मुझे भी अपनी कृति भेंट करने की कृपा करते हैं और सौजन्यतावश उस पर अपने विचार बताने की व्यवहारिकता निभाते हैं, जबकि मेरे साथ वे भी जानते होंगे कि मैं पाठकीय प्रतिक्रिया ही दे सकता हूं और एक अधिकृत समीक्षक नहीं हूं। सन्दर्भित संकलन ‘ सदी पत्थरों की ‘ पर भी अपने विचार इन्हीं सीमाओं में रह कर व्यक्त कर रहा हूं।

गज़ल में मतले के शे’र में व्यक्त तुकांत के बाद का अनुशरण करते हुए भिन्न भिन्न रंग के शे’र कहे जा सकते हैं जो उसी बहर और काफिये में अलग विषय पर हो सकते हैं। इस संकलन में संकलित बहुत सारी गज़लों के शे’र , गीतों की तरह एक ही विषय पर कहे गये शे’र हैं। हिन्दी गज़ल के शे’र गज़लों की पुरानी परम्परा के अनुसार निजी प्रेम के सुख दुखों पर या महबूबा के सौन्दर्य या कोमलकांत व्यवहार, बफा बेबफाई आदि तक सीमित नहीं हैं अपितु उनमें जमाने भर के दुख दर्द शामिल हैं। रहबरों की रहजनों की तरह की जाने वाली हरकतों का वर्णन है।

मेरा मानना है कि वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक विचारधारा साथ साथ नहीं चल सकती । बहुत सारे लोग यह घपला कर रहे हैं किंतु नरेन्द्र की गज़लों में कथित धार्मिकों और धर्म के ठेकेदारों के कारनामों की कलई खोली गयी है। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में कुछ ना कहते हुए भी वे उसके ठेकेदारों द्वारा बनायी गयी दुर्व्यवस्था पर निरंतर सवाल उठाते हैं।

ये सरफिरा भी कैसे खुरापात करे है

अल्ला मियां से कैसे सवालात करे है

कैसी इमारतों मे खुदा कैद हो गया

खुद अपने घर को कौन हवालात करे है। [पृष्ठ 11 ]

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झूठ के देवता को नहीं मानते

जा तिरे हम खुदा को नहीं मानते

राम का नाम लेकर करें कत्ल जो

उस सियासी फ़जा को नहीं मानते [पृष्ठ 12]

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भूखे पेटों को रोटी चाहिए

जो भरे हैं पेट उनको राम दे  [पृष्ठ 27 ]

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हम तुम तो अपना हुनर बेचते हैं

शातिर, खुदाओं का डर बेचते हैं [ पृष्ठ 31 ]

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कहाँ वीरानियों में दिल लगे है

अकेला आदमी पागल लगे है

कहाँ जायें भला फरियाद करने

खुदा ही जानिए कातिल लगे है  [पृष्ठ 35]

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कितने पंडे पुजारी हैं मुल्ला यहाँ

और कितने तुझे अर्दली चाहिए [पृष्ठ 46 ]
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पता ही नहीं जिसकी मौजूदगी का

कभी दर पै उसके भी झुकना पड़ा है  [पृष्ठ 64 ]

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वही पत्थर जिसे हम पूजते थे

उसी से चोट खाना पड़ गया है [पृष्ठ 69 ]
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खुदाया लूट कर हमको तिरे खादिम यूं कहते हैं

जो मुश्किल में है पैगम्बर तो फिर तेरी गुजर क्यों हो [पृष्ठ 69 ]

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उनकी गज़लों में सियासत की बातें बहुत ही स्पष्ट और साफ साफ कही गयी हैं। गत तीस वर्षों की उनकी गज़लों के शे’रों में वर्तमान की राजनीति के चेहरे भी साफ पहचाने जा सकते हैं –

विरासत की बड़ी ऊंची इमारत

सियासत को गिराने की पड़ी है

नहीं कोई मियां सुनने को राजी

सभी को बस सुनाने की पड़ी है [ पृष्ठ 37 ]

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जो मानो तो ये फलसफा हो गया

वो झुक कर जरा सा, बड़ा होगया

जो पियक्कड़ थे खामोश पीते रहे

कठमुल्लों को लेकिन नशा हो गया

राह सूझी नहीं, बैठे जब तक रहे

उठके चलने लगे रास्ता हो गया

जमाने का उसपै असर ये हुआ

मदारी था अब मसखरा हो गया [ पृष्ठ 45 ]

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तेरे कायदे कानून दुनिया से निराले है

       लुटेरा भी यहाँ देखो तो पहरेदार मांगे है  [पृष्ठ 47 ]

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डोले है ये धरती जब अपनी ही मस्ती में

चाँद सितारों को आने लगते हैं चक्कर से

सरकस जैसी लगती है अब मुझे सियासत भी

जिसमें करतब करते रहते नेता जोकर से    [पृष्ठ 56 ]

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इस दौरे तरक्की के वल्लाह दो चेहरे हैं

इंडिया में उजाला है, भारत में अंधेरे हैं   [पृष्ठ 60 ]

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धर्म अहिंसा की पोथी तो बाँध के रख दी है सबने

अब तो भाई के सीने पर भाई ही गोली दागे है [पृष्ठ 95 ]

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जबसे हुजूर बज्मे सियासत में आ गये

जितने तमाशेबाज थे हरकत में आ गये

यार तू कातिल की भी दरियादिली तो देख

खुद कत्ल करके बेहया मैयत में आ गये [पृष्ठ 96 ]

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नाज था जिस पर सियासत देख ले

वो तेरा किरदार तो बौना हुआ    [पृष्ठ 100 ]

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करो फैसला और छोड़ दो लोगों पर

ये जनता की राय वाय अब छोड़ो भी

देखा है वादों का जुमला बन जाना

कितने धोखे खाय वाय अब छोड़ो भी

इन्हीं मसखरों से चलना है देश मने

कौन रहनुमा आय जाय अब छोड़ो भी [पृष्ठ 124 ]  

इस संग्रह में और कुछ याद रह जाने वाले शे’र हैं-

बहुत मुश्किल है यूं चुपचाप जीना

कभी तो आस्मा सर पर उठा रख

भले ही आंसुओं से सींच लेकिन

बस उम्मीद का पौधा हरा रख  [ पृष्ठ 24 ]

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छोड़ दे हमको किसी भी मोड़ पर

और उनको चाहे चारों धाम दे [ पृष्ठ 24 ]

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नहीं तो फकत खाली धुंआ है

बरस जाये तभी बादल लगे है  [ पृष्ठ 35 ]

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खोल में सब अपनी अपनी बन्द हैं

       लोग भी खुल कर यहाँ मिलते नहीं

उसको इक अच्छा सा नौकर चहिए

क्या करें पर बेजुबां मिलते नहीं   [ पृष्ठ 43 ]

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झूठ बोलना गुनाह है

सच कहूं तो दिल्लगी लगे  [पृष्ठ 58 ]

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शहर तक जो अभी पहुंचा नहीं है

उसे फिर गाँव जाना पड़ गया है  [पृष्ठ 69 ]

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कैसे जाहिल थे हम भी, शहर में ऐसे आ पहुंचे,

बच्चा ये स्कूल तो पहुंचा, घर में बस्ता भूल गया  [पृष्ठ 71 ]

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दो और दो अब चार नहीं होगा हमसे

कहता है सरकार नहीं होगा हमसे

बढता पानी देख डरे है दिल मेरा

अब ये दरिया पार नहीं होगा हमसे [पृष्ठ 106 ]

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समाज में निरंतर सूखती जा रही संवेदनाओं ने मानव जाति को जिस तरह के पत्थर में बदल दिया है उसे महसूस करके ही उन्होंने अपने संग्रह का नाम ‘ सदी पत्थरों की ‘ रखा है।   

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वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

रविवार, सितंबर 11, 2022

स्मृति पखवाड़ा ; मेरी स्मृतियों के खजाने में बसे लोग

 

स्मृति पखवाड़ा ; मेरी स्मृतियों के खजाने में बसे लोग


वीरेन्द्र जैन

देशी कलेन्डर के हिसाब से आज पितृपक्ष का पहला दिन है। मेरे लिए यह इसलिए भी विशेष है कि मेरे तीन जन्मदिनों में से एक यह भी है। मेरी माँ इस दिन को ही मेरे जन्मदिन के रूप में याद रखे थी। कभी बचपन में इस दिन को मेरी माँ मुहल्ले की कुछ महिलाओं को बुला कर गीत गववाती थी और उन्हें एक एक कटोरी बताशे देती थी। यह सिलसिला मेरे चार या पाँच साल के होने तक ही चला होगा। उसके बाद लगभग पचास साल तक कोई आयोजन नहीं हुआ।

पता नहीं कि कब कैसे स्कूल में मेरी जन्मतिथि बदल गयी और यह 12 जून हो गयी। कभी अंग्रेजी कलेन्डर से अपने जन्मवर्ष में पितृपक्ष के पहले दिन की तलाश करायी तो वह 8 सितम्बर निकली। इस तरह मेरे तीन जन्मदिन हुये। अगर यह खुशी का दिन होता है तो मुझे तीन गुना खुशी मिलना चाहिए थी किंतु किसी एक जन्मदिन को भी खुश होने का कोई कारण समझ में नहीं आया। स्न 2000 में जब मैं नौकरी छोड़ कर भोपाल आकर रहने लगा तो एक उत्सवधर्मी मित्र जब्बार ढाकवाला को कुछ वर्षों तक पार्टी करने के एक और बहाने के रूप में मेरा स्कूली जन्मदिन मिल गया था। वे आई ए एस अधिकारी थे इसलिए इस दिन के सारे फैसले और इंतजाम वे खुद करते थे। 2010 में एक कार दुर्घटना में उनकी और उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद मेरा जन्मदिन फेसबुक तक ही सीमित होकर रह गया जिसमें शुभकामना सन्देशों के साथ साथ कभी कोई गुब्बारे, गुलदस्ते, या मोमबत्ती वाले केक के फोटो भी नत्थी कर देता है।

आज के दिन मैं थोड़ा अधिक ही भावुक हो रहा हूं। कारण यह है कि पिछले दिनों मेरा इंटरनैट लम्बे समय तक खराब रहा और मैंने अपना समय पुरानी रचनाओं व पोस्टों पर दृष्टि डाल कर बिताने की कोशिश की। इस कोशिश ने मुझे तब डरा दिया जब श्रद्धांजलि फाइल में मैंने पाया कि मेरी जिन्दगी में आये कितने सारे लोग इस दुनिया से जा चुके हैं और उनकी जगह भरने वाला कोई नहीं मिला। नैट जुड़ने के बाद जब और सर्च की तो सूची और बढ गयी।

सोचा कि आज का दिन उन लोगों को याद करने की कोशिश करूं जो दुनिया से जाकर भी मेरे दिल में ऐसी स्मृति बना कर गये हैं जो जिन्दगी भर बनी रहेगी। पिछले पन्द्रह सालों में नहीं रहे लोगों के निधन पर मैंने ब्लाग या फेसबुक पर श्रद्धांजलि लेख, टिप्पणियां या संस्मरण लिखे हैं।

सबसे पहले तो मैं अपने पिता [1975]  माँ,[1994] चाचा [2006]  बड़ी बहिन, [2014] दो बहनोई [2008 एवं 2017], एक भांजे [1997] और एक भांजे दामाद [2020]  को याद करना चाहूंगा जिसमें से कुछ असमय और बहुत जल्दी चले गये। ये मिले हुए रिश्ते थे व इनका मूल्य उनके जाने के बाद ही समझ में आया। उन पर कुछ अलग सा लिख रखा है।

कुछ ऐसे वैचारिक मित्र थे जो उम्र में तो एक, पौन या आधी पीढी बड़े थे किंतु मित्रता मानते थे और उसी स्तर पर विचार विमर्श करते थे, इनमें वंशीधर सक्सेना, राम प्रसाद कटारे, दाउ साहब भूपेन्द्र सिंह याद आते हैं।

अर्जित रिश्तों में विभिन्न कालखण्डों में बन गये मित्र, साहित्यकार, पत्रकार, वैचारिक साथी, कार्यालयीन सहयोगी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि रहे। इनमें से प्रत्येक के जाने के साथ साथ में निर्बल होता गया।

कुछ मेरी पसन्द के विचारक, साहित्यकार, और कलाकार थे जो मेरे प्रिय थे, आदर्श थे। उनसे कभी निकटता नहीं रही, वे मुझे नहीं जानते थे किंतु मैं उन्हें उनके योगदान के कारण उस हद तक जानता था जिस हद तक उनके बारे में सार्वजनिक होता रहा। इनमें ओशो रजनीश, अमृताप्रीतम, भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई, दुष्यंत कुमार, रवीन्द्र नाथ त्यागी, मुश्ताक अहमद यूसिफी, अहमद फराज, निदा फाज़ली, हबीब तनवीर, बलवीर सिंह रंग, कृष्ण बिहारी नूर, राहत इन्दौरी, गोपलदास नीरज आदि रहे। [ वैसे भीष्म साहनी और परसाईजी से सामान्य पहचान और कुछ मुलाकातें रहीं, कभी नीरज जी का बड़ा प्रशंसक रहा, अनेक मुलाकातें रहीं, किंतु मेरे जैसे उनके न जाने कितने हजार  प्रशंसक रहे होंगे, इसलिए वे मुझे निजी तौर पर याद कर सकते हैं, इस बात में हमेशा सन्देह रहा ] मेरे वैचारिक आदर्शों में कामरेड सव्यसाची, मुकुट बिहारी सरोज, शीलजी, ऐसे थे जो मेरे बारे में थोड़ा सा जानते थे, उनसे अपने सुख दुख बाँट सकता था और वे घर के बड़े बुजुर्ग की तरह सलाह भी देते थे। उनसे परिचय एक आश्वस्ति देता था। धर्मवीर भारती, रामावतार चेतन, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, कैलाश सेंगर, दक्षिण समाचार के सम्पादक और कल्पना के सम्पादकीय विभाग के पूर्व वरिष्ठ सम्पादक मुनीन्द्रजी का आत्मीय स्नेह मिलता रहा। उम्र में बड़े वैचारिक साथी वेणु गोपाल ने भी कुछ अमिट छापें छोड़ी हैं। इसी दौर में वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश ‘निर्मल’ और कन्नड़ भाषी व्यंग्य लेखक एम उपेन्द्र, प्रभु जोशी का प्रेम भी मिला। हैदराबाद में जिन लोगों से परिचय हुआ था उनमें एक मित्र बालकृष्ण ‘रोहिताश्व’ भी थे जो गोवा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो गये थे। दो बार की गोवा यात्रा में उन्होंने मेजबान की तरह व्यवहार किया था विश्व विद्यालय में मुझे अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया था दो साल पहले अचानक ही उनकी म्रत्यु की खबर मिली। नईम जी तो जितने मिले, हमेशा बहुत अपने लगते रहे।   

मैं गर्व से कहता रहा हूं कि मुझे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, अदम गोंडवी, माणिक वर्मा, जैसे वरिष्ठ अखिल भारतीय कवियों व शरद जोशी, शंकर पुंताम्बेकर और केपी सक्सेना जैसे लेखकों का साथ मिला और वे मुझे कवि साथी से कुछ अधिक ही जानते रहे। दतिया के साहित्यकारों में मुझे वासुदेव गोस्वामी, डा. सीता किशोर खरे, राधारमण वैद्य, राम रतन अवस्थी, का स्नेह मिलता रहा।  कामता प्रसाद सड़ैया, दिनेश चन्द्र दुबे  श्रीवास्तव व जगदीश सुहाने भी सम्मानीय मित्रों में से थे।  

समकालीनों में लोकप्रिय लोगों को निजी मित्र बताना, कम लोकप्रिय लोगों को अच्छा लगता है, उस पर भी अगर उनसे उदार व्यवहार मिले तो वे जितने होते हैं उससे भी अधिक अपने लगने लगते हैं। साहित्य के क्षेत्र के ऐसे प्रतिष्ठित लोगों में जो दुनिया में नहीं रहे मुझे अक्षय कुमार जैन, कमला प्रसाद, भगवत रावत, स्वयं प्रकाश, श्याम मुंशी, राजेन्द्र अनुरागी, जब्बार ढाकवाला, अंजनी चौहान, विनय दुबे, विनोद तिवारी, रमेश यादव, शिव कुमार अर्चन, प्रदीप चौबे, हरिओम बेचैन, जहीर कुरेशी, राम अधीर, महेन्द्र गगन, बनाफर चन्द्र, चित्रकार किशोर उमरेकर, पत्रकार राजेन्द्र जोशी का स्नेह मिला।    

मेरे निजी दोस्त जो परिवार के लोगों से भी अधिक होते हैं, को भी मैंने खोया। इनमें से एक थे ओम प्रकाश गोस्वामी जो मुझे दिल से समझते थे, का बहुत महत्व था। मैंने पैसा नहीं कमाया, जबकि ओम प्रकाश ने कमाया था और मुझे भरोसा था कि किसी आपत्ति काल में वह मेरे लिए हाथ नहीं सिकोड़ेगा। वह असमय चला गया।  दूसरा बड़ा नुकसान हरीश दुबे की मृत्यु से हुआ, वह ऐसा दोस्त था जिसके सामने दिल और दिमाग खोल कर कैसी भी बात की जा सकती थी। वह उम्र से छोटा था किंतु दिल से बहुत बड़ा था, यही भावुकता उसे ले बैठी। एक बहुत ईमानदार मित्र प्रतिपाल सिंह पाली था। कनाडा चला गया था, किंतु,  अपनी माँ और बहिन के लिए लौट कर आ गया था और अपनी कमाई हुयी धन राशि अपनी भलमनसाह्त के कारण लुटाता रहा। अचानक ह्रदयाघात का शिकार हो गया। छतरपुर के एक प्रमोद पांडे थे जो प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव रहे कमला प्रसाद जी के भाई थे किसी भावुकता में आत्महत्या कर बैठे और खबर सुन कर उनकी पत्नी ने भी जान दे दी। जब मैं हरपालपुर में था तो वही एक थे जिनसे वैचारिक साम्य था। जब भी सरकारी काम से छतरपुर जाना होता तो उन्हीं के घर में ठिकाना होता और देर रात तक बातें होती रहतीं। उनकी पत्नी भी विदुषी थीं। दतिया में शम्भू तिवारी की कार्यशैली से लगता था कि उनके साथ मिल कर स्थानीय स्तर पर एक वामपंथी आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है किंतु उनकी दबी हुयी महात्वाकांक्षाएं उन्हें पहले काँग्रेस और फिर भाजपा तक ले गयीं, बाद में उन्होंने अनेक तनावों में घिर कर खुद को गोली मार ली थी। बैंक की नौकरी करते हुए मैं अपने विचारों को छद्म नाम से एक स्थानीय अखबार में व्यक्त करता था। उसके प्रकाशक सम्पादक रमेश मोर भी पिछले वर्षों में नहीं रहे। दतिया के प्रतिष्ठित वस्त्र व्यापारी और मेरे सहपाठी रहे मोहन गन्धी को उनकी पत्नी और रिश्तेदार सहित कोरोना ने लील लिया। कोरोना में ही मेरे एक चचेरे भाई भी नहीं रहे।  

मैं जो सपने लेकर भोपाल आया था उनको 2001 में कामरेड शैलेन्द्र शैली की मृत्यु से बहुत धक्का लगा और वे चकनाकूर हो गये। शैली जैसे युवा प्रतिभावान, ऊर्जावान, व्यवहारिक, खुशमिजाज नेता की आत्महत्य से भोपाल आने की योजना बिखर गयी थी, विश्वास डिग गया था। किसी तरह पत्रकारिता की एक दूसरी लाइन पकड़ी थी कि जब्बार ढाकवाला और उनकी पत्नी की दुर्घटना में मृत्यु ने फिर मुझे तोड़ दिया। मैंने तब कहा था कि उसके साथ आधा तो मैं मर गया हूं, और यह सच भी था।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

मंगलवार, अगस्त 23, 2022

फिल्म लाल सिंह चड्ढा – इसके बायकाट पर हतप्रभ दर्शक

 

फिल्म लाल सिंह चड्ढा – इसके बायकाट पर हतप्रभ दर्शक

वीरेन्द्र जैन


जब खबर मिली की फिल्म लाल सिंह चड्ढा के बायकाट का प्रभाव हुआ है और टिकिट खिड़की पर पिट जाने के कारण सिनेमा घरों में यह आगे उपलब्ध नहीं होगी तो गुरुवार को अपनी व्यस्तता में से समय निकाल कर देखने जाना पड़ा। दिन में पौने बारह बजे जिस राज टाकीज में शो था उसने दर्शकों के अभाव में शो चलाने में असमर्थता व्यक्त कर दी। भागे भागे बारह बजे के शो वाले संगम सिनेमा हाल में गये तो उसने हम दो दर्शकों के होते हुए भी शो चलाने की सहमति दी। बाद में क्रमशः पाँच दर्शक और जुड़े जिनमें से भी दो किशोर किशोरी थे जो फिल्म देखने की जगह कम भीड़ वाले शो में एकांत का सुख लेने आये प्रतीत होते थे क्योंकि शो शुरू होते ही वे हमारे आगे की सीट से उठकर किसी कोने वाली सीट पर जाकर बैठ गये थे।

फिल्म समाप्त होने के बाद मेरे साथ गये दर्शक के मुँह से बायकाट कराने वालों के लिए एक भद्दी सी गाली निकली जो इस बात के लिए थी कि इस फिल्म में उन्हें बायकाट के लायक कुछ भी नजर नहीं आया जबकि पिछले दशक की दर्ज़न भर उन सफल फिल्मों के नाम और दृश्य उन्हें याद आ रहे थे जिनका कोई विरोध नहीं हुआ था। इस बायकाट के पीछे उन्हें इसे चर्चित करने के हथकण्डे की आशंका भी नजर आयी। सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें उन मूर्ख लोगों पर आया जिन्होंने बिना जाँचे परखे इस बायकाट का समर्थन करते हुए फिल्म से दूरी बनाये रखी। पूरी फिल्म बहुत शांत भाव से साहिर की युद्ध विरोधी नज़्म का पाठ सा करती नजर आती है, जिसमें नायक के नाना, परनाना, और पड़नाना क्रमशः पहले दूसरे विश्वयुद्ध और फिर पकिस्तान के साथ हुये युद्ध में शहीद हुये थे।  

यह आज़ादी के दो दशक बाद सिख परिवार में पैदा हुये उस मन्द बुद्धि कैलीपर्स के सहारे चलने वाले बच्चे की कहानी है जिसे अपनी शारीरिक और मानसिक कमजोरी के कारण समाज में अपनी माँ को छोड़ कर हर तरफ से नफरत झेलने को मिलती है तो दूसरी ओर घर से बाहर कहीं कहीं से मिली सहानिभूति की किरणों के सहारे वह अपनी कमजोरियों पर विजय पाता है और सन्देश देता है कि नफरत की तुलना में प्रेम ज्यादा शक्तिशाली होता है। इसमें उसकी माँ द्वारा जगाया गया यह आत्मविश्वास भी प्रेरक शक्ति बनता है कि वह किसी से कम नहीं है। आत्मविश्वास की जिस कमी के कारण उसे कैलीपर्स पहिनने पड़ते थे किंतु एक संकट के समय जब वह बचकर भागता है तो न केवल कैलीपर्स से मुक्त हो जाता है, अपितु वह अपने स्कूल कालेज की रेस में भी अव्वल नम्बर पर  आने लगता है। इसी प्रतिभा के सहारे उसे उसकी सहपाठी लड़की की ओर से न केवल सहानिभूति व प्रोत्साहन मिलता है अपितु अपने नानाओं के कदमों का अनुशरण करते हुए फौज में जाने का मौका मिलता है। फौज में उन अनुशासित लोगों को बहुत पसन्द किया जाता है जो यंत्रवत अपने कमाण्डर के दिमाग से काम करते हैं। वे निर्भय होते हैं और चालाकी उन्हें नहीं आती। बच्चे सबको इसीलिए तो अच्छे लगते हैं क्योंकि वे निश्छल होते हैं। लाल सिंह चड्ढा भी निश्छल और साहसी है। वह दिये गये आदर्शों से प्रेरित है और निस्वार्थ भाव से लोगों और अपने साथियों की सहायता करता है। जहाँ अन्याय देखता है वहाँ बिना आगा पीछे देखे भिड़ जाता है।

बचपन से जवान होने तक देश में घटी कुछ घटनाओं से वह प्रभावित है जिसमें खालिस्तानी आन्दोलन के दौरान अमृतसर के स्वर्ण  मन्दिर में छुपे आतंकियॉं पर गोलीबारी भी एक है, संयोग से उस समय वह वहीं पर होता है, दूसरी घटना श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के विरोध में दिल्ली में सिख समुदाय के खिलाफ घटित हिंसा में फंस जाने के कारण बचने के लिए उसे केश कटवाना पड़े थे। बाबरी मस्ज़िद तोड़ने का माहौल बनाने के लिए अडवाणी की रथयात्रा, मस्ज़िद टूटने के बाद मुम्बई के साम्प्रदायिक दंगे, मण्डल कमीशन लागू करने के बाद आरक्षण के विरोध का सवर्ण छात्रों का आन्दोलन आदि उसकी स्मृतियों में दर्ज होते हैं और वह घर से बाहर नहीं आता क्योंकि उसकी माँ ऐसे अवसरों पर कहती थी कि बाहर मत निकलना, बाहर मलेरिया फैला हुआ है।

 सेना के प्रशिक्षण के दौरान उसकी दोस्ती ऐसे ही एक दक्षिण भारतीय सैनिक से होती है जिसके दिमाग में एक चड्ढी बनियान बनाने की फैक्ट्री डालने का सपना है जिसे वह रिटायरमेंट के बाद मिले पैसे से पूरा करना चाहता है। इसके लिए वह लाल सिंह को पार्टनर बनने का प्रस्ताव देता है जिसे वह स्वीकार करके पूरा करने का वचन देता है। इसी बीच कारगिल में घुसपैठ हो जाती है जिसका पता सुरक्षा बल को बकरियां चराने वालों से मिलता है। लाल सिंह और उसके सिपाही मित्र को फ्रंट पर भेजा जाता है जहाँ वह पूरी मुस्तैदी से न केवल अपना काम पूरा करता है अपितु युद्ध में घायल सिपाहियों को इतने सेवा भाव से बचाता है कि उसमें अपनी सेना के सिपाहियों और दुश्मन देश के सिपाही में भेद नहीं करता। लड़ाई में उसका सिपाही मित्र बाला शहीद हो जाता है।

बचपन से ही उसके साथ सहानिभूति रखने वाली लड़की एक गरीब परिवार से आती है जिसके पिता ने उसकी माँ को कुछ रुपयों के लिए मार डाला होता है। अनाथ लड़की अपनी एक रिश्तेदार के यहाँ शरण लेने को मजबूर होती है और वह रिश्तेदार लाल सिंह के परिवार में काम करने वाली बाई होती है जिस कारण लाल सिंह उसके साथ ही बड़ा होता है। गरीबी के दारुण अनुभवों से दुष्प्रभवित सुन्दर लड़की के मन में किसी भी तरह धनी बनने की महात्वाकांक्षा है, इसलिए वह मन्दबुद्धि लालसिंह के व्याह रचाने के प्रस्ताव पर ध्यान केन्द्रित करने की जगह, माडल से अभिनेत्री बनने की राह पर है जिसके लिए वह अपराधी माफिया की रखैल बन कर रहती है।

कहानी का समापन इस तरह से होता है कि रिटायरमेंट के बाद लाल सिंह अपने गाँव लौट आता है और अपने दोस्त बाला को दिये वचन के अनुसार चड्ढी बनियान का काम शुरू कर देता है, जिसमें बाद में वह पकिस्तानी सिपाही भी जुड़ जाता है जिसके इलाज के दौरान दोनों पैर कट जाते हैं और उसके देश की सेना उसे अपना मान कर वापिस ले जाने से इंकार कर चुकी है।

      इस बीच में जिस माफिया सरगना ने नायिका को रखैल बना कर रखा हुआ था, उसके पीछे पुलिस है इसलिए वह लाल सिंह के पास आकर रहने लगती है। बाद में वह माफिया पकड़ा जाता है और नायिका को भी पुलिस पकड़ने आती है तो वह लालसिंह को बिना बताये पुलिस के साथ चली जाती है। जब दोबारा उसे उसकी प्रेमिका मिल कर बिछुड़ जाती है व उसकी माँ की मृत्यु हो चुकी होती है तो वह देश भर की सड़्कों पर निरुद्देश्य दौड़ लगाना शुरू करता है। राष्ट्रपति से शौर्य पुरस्कार प्राप्त सैनिक के लगातार निरुद्देश्य दौड़ से वह देश के मीडिया के आकर्षण का केन्द्र बनता है। इस बीच नायिका कुछ महीने की सजा काट कर वापिस आती है तो उसे मीडिया से उसके दौड़ने की खबर मिलती है, पर निश्चित पता ठिकाना नहीं मिलता। जेल जाने से पहले लाल सिंह के साथ बिताये कुछ दिनों के परिणाम स्वरूप जेल से बाहर आने के बाद वह एक बच्चे को जन्म दे चुकी होती है, जिसका नाम वह अमन चड्ढा रखती है। देश भर की परिक्रमा पूरी कर एक दिन थक कर जब लाल सिंह वापिस लौटता है तब उसे उसका नौकर उसकी प्रेमिका द्वारा भेजी गयी ढेर सारी चिट्ठियां देता है। उनके सहारे वह नायिका तक पहुंचता है, जहाँ उसे उसके पिता बनने की जानकारी मिलती है। नायिका बीमार है और कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो जाती है।

राजकपूर के स्कूल को आगे बढाने वाले आमिरखान ने पीके और तारे जमीं पर की तरह श्रेष्ठ अभिनय किया है। कहानी में कुछ कुछ ‘उसने कहा था’ की झलक भी मिलती है। फिल्म में इस सिरे से उस सिरे तक कहीं भी ऐसा कुछ नहीं था कि दक्षिणपंथी हिन्दूवादी संगठन इसके बायकाट का आवाहन करें। उन्होंने और उनके अन्ध समर्थकों ने उनकी बात मान कर अपनी मूर्खता का ही परिचय दिया है, जिसके लिए उन्हें माफी मांगना चाहिए।   

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023      

रविवार, जून 26, 2022

 

संस्मरण

शाहनाज इमरानी – जिसके बारे में उसकी मौत के बाद जान सका

वीरेन्द्र जैन


मनोज कुलकर्णी का सन्देश व्हाट्स एप्प और फेसबुक पर मिला कि कवि शाहनाज इमरानी नहीं रहीं। पढते ही एक चेहरा तो याद आ गया किंतु उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्वरूप एकदम से नहीं उभर सका। बाद में लगातार राम प्रकाश त्रिपाठी, राजेश जोशी, शैलेन्द्र कुमार शैली, आदि के सूचनात्मक शोक सन्देश मय फोटो के मिले तो एकदम से याद आ गया कि एक दो साल पहले मेरे फेसबुक पेज पर नियमित रूप से लाइक और कमेंट करने वाली युवती ही शाहनाज इमरानी थी। मेरी उससे इतनी ही जान पहचान थी कि साहित्यिक सांस्कृतिक जगत पर निरंतर हो रहे हमलों के खिलाफ चौराहों और पार्कों आदि में जो विरोध प्रदर्शन होते थे उसमें एक अनिवर्य उपस्थिति शाहनाज की भी होती थी।

वह सुन्दर थी किंतु इतनी सादा थी कि किसी को भी उसे देख कर बहनापा महसूस हो सकता था। सादा कपड़ों में उसका सात्विक भाव श्रद्धा जगाता था। पिछले दशक से मैंने कवि गोष्ठियों में जाना छोड़ दिया था इसलिए उसके कवि रूप को नहीं जान सका था। उसकी मृत्यु के वाद देश के जिन जाने माने कवियों और कला समीक्षकों ने अपने श्रद्धांजलि लेख में जो कविताएं उद्धृत कीं उन्हें पढ कर लगा कि उसकी कविताएं भी उसके जैसी ही सादा थीं और एक अवसाद को बुनती दिखती थीं। [वैसे मैंने कुछ ही कविताएं पढी हैं ] ।

उसकी म्रत्यु के बाद ही पता चला कि उसके पिता कामरेड थे और उसकी माँ की मृत्यु के समय वह कुल दो वर्ष की थी। इसलिए वह मशहूर कवि शायर फज़ल ताबिश के यहाँ पल कर बड़ी हुयी। फज़ल ताबिश बड़े सिर वाले ही नहीं बहुत बड़े दिल वाले इंसान थे और भोपाल के समस्त प्रगतिशील जनवादी साहित्यकारों के यार थे। कविता के संस्कार उसने वहीं पर पाये थे। बताया गया कि उसका विवाह सात साल तक चला जिससे उसकी एक बेटी भी हुयी जो उसके संरक्षण में ही बड़ी हुयी और इन दिनों कालेज में है। ये बात अलग है कि शाहनाज को देख कर लगता था कि जैसे उसकी उम्र रुक सी गयी है। सुन्दर दंतपंक्ति और मुस्कान की मालिक के अन्दर क्या गम थे ये किसी को पता नहीं थे क्योंकि कि वह किसी को अपने दुखों के बारे में कुछ बताती ही नहीं थी, जबकि दूसरों के दुख में मदद करने के लिए वह सबसे आगे रहती थी।

उसे कैंसर हो गया था, उससे पहले उसे कोरोना हो चुक था और एक स्कूटर की टक्कर में अपना पैर भी तुड़वा चुकी थी। शायद परेशानियों ने उसका पीछा कभी नहीं छूटा था। उसकी शोकसभा में भोपाल साहित्य जगत की सभी चुनिन्दा हस्तियां जैसे विजय बहादुर सिंह, राम प्रकाश त्रिपाठी, राजेश जोशी, कुमार अम्बुज, नीलेश रघुवंशी, रमाकांत, सुबोध श्रीवास्तव,बादल सरोज, सन्ध्या शैली, जसविन्दर सिंह, पलाश सुरजन, प्रज्ञा रावत, प्रतिभा गोटेवाले, श्रुति कुशवाहा, वसंत सकरगाये, अवधेश, बालेन्दु परसाई, डा.स्वतंत्र सक्सेना, शैलेन्द्र कुमार शैली, बद्र वास्ती, शायान कुरैशी उसकी बेटी, फज़ल ताबिश का परिवार, शाहनवाज खान, आदि ने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये। मुझे यही अफसोस रहा कि अमृता प्रीतम की किसी कथा नायिका जो हम सब के बीच विचरण कर रही थी, मैं उसके बारे में अनजान रहा।

सोशल मीडिया पर भी शरद कोकास और सुरेन्द्र रघुवंशी आदि के संस्मरणात्मक लेख भरपूर देखे गये। उसकी कविता पुस्तक की चर्चा हुयी व अप्रकाशित कविताओं को प्रकाशित करने का संकल्प लिया गया। देखना होगा कि यह संकल्प कब तक पूरा हो पता है।  

वीरेन्द्र जैन

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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

शनिवार, जून 18, 2022

गामा पहलवान के नाम से जुड़ी यादें

 गामा पहलवान के नाम से जुड़ी यादें

वीरेन्द्र जैन


मेरा जन्म 1949 में हुआ था और उसी वर्ष मेरे पिता का ट्रांसफर ललितपुर से दतिया हो गया था अतः मैं अपना जन्म स्थान दतिया ही मानता रहा हूं क्योंकि 1971 में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त करने तक मैं दतिया में ही रहा हूं। बाहर जाने पर अपने परिचय में दतिया का नाम जोड़ने पर लोग दो बातें ही याद करते थे, एक गामा पहलवान की, दूसरी दतिया को ‘गले का हार’ बताने वाली कहावत की। बचपन में मैं इतना दुबला था कि मुझे गामा की नगरी से जोड़ने के बाद लोग मुस्कराते जरूर थे।
प्रसिद्ध लोगों और विधाओं को अपने राज्य के साथ जोड़ कर राजा लोग सुख पाते थे। गामा पहलवान को दतिया महाराज भवानी सिंह ने राजाश्रय दिया था क्योंकि गामा का ननिहाल दतिया में ही था। कहते हैं कि उनकी खुराक बहुत अधिक थी जिसमें दॆढ पाउंड बादाम, दस सेर दूध, मटन, छ्ह देशी मुर्गे आदि शामिल थे। बड़े लोगों को आश्रय भी उनके अनुकूल चाहिए होता है, इसलिए बाद में पटियाला महाराज ने उन्हें बुलवा लिया था, व बाद में जो जमीन उन्होंने उन्हें दी थी वह बंटवारे के बाद पाकिस्तान में आ गयी थी, इसलिए उन्हें पाकिस्तान गया हुआ मान लिया गया। 1947 के बद भी वे लगातार हिन्दुस्तान आते रहे क्योंकि एकीकृत देश का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने जो सम्मान पाया, उसकी स्मृति ने उन्हें कभी विभाजन को स्वीकार नहीं करने दिया।
दतिया के होली पुरा पर इनकी एक हवेली थी। वह हवेली धीरे धीरे ध्वस्त होकर खण्डहर में बदल गयी थी। लोग रात विरात उसमें से निर्माण सामग्री ले जाते थे। उसी मुहल्ले में रहने वाले मेरे पिता के आफिस के एक गार्ड रात्रि में उसमें से कुछ मटेरियल उठाने गये थे कि दीवार और पत्थर गिर गये। उन्हें अस्पताल भिजवाया गया जहाँ उन्हें खून की उल्टी हुयी। डाक्टर समेत सारे लोग घबरा गये। बाद में पता चला कि खून का महत्व समझते हुये उनके सिर से जो खून बह रहा था उसे वे पीते गये थे वही उल्टी में निकला था। गामा के नाम से मेरा यह पहला परिचय था।
एक दो बार गामा और उनके भाई दतिया में आये जिनका अतिथ्य दतिया के नगर सेठ रतन लाल अग्रवाल करते थे जिनके परिवार के अनेक लोगों को पहलवानी का शौक था और उन्होंने अपने बगीचे ‘मोदी का बाग’ में अखाड़ा बनवा रखा था। यह स्थान लगातार कई तरह से चर्चित रहा है। हमारे दौर के युवाओं में से दर्जनों लोग वहाँ जाकर अखाड़ेबाजी और कसरत करते रहे। किवदंति रही है कि उस बाग में गामा कसरत करते रहे थे।
1989 से चले अयोध्या के रामजन्मभूमि अभियान के बाद जो साम्प्रदायिक वातावरण बना उसने मुझे बहुत संवेदनशील कर दिया था। मैं राजेन्द्र यादव, प्रभाष जोशी आदि से प्रेरित हो रहा था। उस समय मैं कई राज्यों में घूम घाम कर दतिया लौट आया था और वहाँ के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। साहित्य के साथ साथ मैं एक स्थानीय दैनिक अखबार में कबीर नाम से एक स्तम्भ भी लिखता था। इस तरह से मैं अपने राजनीतिक सामाजिक विचार भी व्यक्त करता रहता था। यह 1993-94 की बात रही होगी जब मध्य प्रदेश के सभी जिलों में खेल स्टेडियम का निर्माण करवाया गया था। दतिया में भी हुआ और उसके नामकरण का प्रस्ताव भी चर्चा में आया। मैंने अखबार के अपने स्तम्भ में लिखा कि गामा पहलवान का सम्बन्ध दतिया से रहा है इसलिए स्टेडियम का नाम गामा स्टेडियम ही ठीक रहेगा।
दतिया के एक खिलाड़ी और खेल प्रशिक्षक श्री बाबूलाल पटेरिया थे। वे हाकी खिलाड़ी के रूप में बड़े बड़े मैच खेल चुके थे, और ध्यान चन्द आदि के समकालीन थे। उनका उठना बैठना मेरे पिताजी के साथ भी रहा था। अपने योगदान को देखते हुए और उम्र को देखते हुए उनकी इच्छा थी कि स्टेडियम उनके नाम पर हो तो ठीक रहेगा। जब उन्होंने मेरा स्तम्भ पढा तो उन्होंने अखबार के कार्यालय में जाकर मालूम किया कि कबीर कौन हैं। वे चल कर मेरे कार्यालय में आये और अपना परिचय देने लगे। मैंने उठ कर उनके पांव छुये और अपना परिचय दिया कि आप तो मेरे पिताजी के साथियों में से हैं। आप दतिया में दशकों पूर्व लगातार जो हाकी टूर्नामेंट करवाते रहे हैं उसकी ख्याति से कौन परिचित नहीं हैं। नामकरण के बारे में मैंने तो केवल अपना विचार व्यक्त किया था अंतिम निर्णय तो जिलाधीश के नेतृत्व वाली समिति को लेना है।
रोचक यह रहा कि मेरा विचार तत्कालीन जिलाधीश को भी पसन्द आ रहा था। उस समिति में भाजपा के दो नेता भी थे, उनमें से एक ने कहा कि गामा पाकिस्तान चले गये थे इसलिए उनके नाम से स्टेडियम का नाम नहीं रखा जाना चाहिए किंतु उसी बैठक में दूसरे भाजपा नेता जो एक प्रसिद्ध वकील थे और जिनसे अक्सर मेरी नोक झोंक चलती रहती थी ने गामा के नाम का पक्ष लिया और कहा कि अल्लामा इकबाल भी तो पाकिस्तान चले गये थे फिर क्यों उनके ‘सारा जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा को क्यों गाते हो’। बहस आगे बढ गयी तो समिति ने फैसला किया कि स्टेडियम का नाम ‘दतिया स्टेडियम’ ही रख दिया जाये।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, मार्च 24, 2022

समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था

 

समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था

संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक

वीरेन्द्र जैन

मुक्तिबोध ने कहा था कि साहित्य संवेदनात्मक ज्ञान है। उन्होंने किसी विधा विशेष के बारे में ऐसा नहीं कहा अपितु साहित्य की सभी विधाओं के बारे में टिप्पणी की थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस रचना में ज्ञान और संवेदना का संतुलन है वही साहित्य की श्रेणी में आती है।  

खुशी की बात है कि विधाओं की जड़ता लगातार टूट रही है या पुरानी विधाएं नये नये रूप में सामने आ रही हैं। दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम हो या कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान , काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी हो या वीरेन्द्र जैन [दिल्ली] का डूब, सबने यह काम किया है। पंकज सुबीर की जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ थाइसीकी अगली कड़ी है।

       अमूमन उपन्यास अनेक चरित्रों की अनेक कहानियों का ऐसा गुम्फन होता रहा है जिनके घटित होने का कालखण्ड लम्बा होता है और जो विभिन्न स्थलों पर घटती रही हैं। यही कारण रहा है कि उसे उसकी मोटाई अर्थात पृष्ठों की संख्या देख कर भी पहचाना जाता रहा है। चर्चित पुस्तक भी उपन्यास के रूप में सामने आती है। इसका कथानक भले ही छोटा हो, जिसका कालखण्ड ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास नरक यात्राकी तरह एक रात्रि तक सिमिटा हो किंतु तीन सौ पृष्ठों में फैला इसमें घटित घटनाओं से जुड़ा दर्शन और इतिहास उसे सशक्त रचना का रूप देता है भले ही किसी को उपन्यास मानने में संकोच हो रहा हो। ईश्वर की परिकल्पना को नकारने वाली यह कृति विश्व में धर्मों के जन्म, उनके विस्थापन में दूसरे धर्मों से चले हिंसक टकरावों, पुराने के पराभवों व नये की स्थापना में सत्ताओं के साथ परस्पर सहयोग का इतिहास विस्तार से बताती है। देश में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर समकालीन राजनीति तक धार्मिक भावनाओं की भूमिका को यह कृति विस्तार से बताती है। इसमें साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक छात्र को दुष्चक्र से निकालने के लिए उसके साथ किये गये सम्वाद के साथ उसके एक रिश्तेदार से फोन पर किये गये वार्तालाप द्वारा लेखक ने समाज में उठ रहे, और उठाये जा रहे सवालों के उत्त्तर दिये हैं। पुस्तक की भूमिका तो धार्मिक राष्ट्र [या कहें हिन्दू राष्ट्र] से सम्बन्धित एक सवाल के उत्तर में दे दी गयी है, जिससे अपने समय के खतरे की पहचान की जा सकती है।

 
       “जब किसी देश के लोग अचानक हिंसक होने लगें। जब उस देश के इतिहास में हुए महापुरुषों में से चुन-चुन कर उन लोगों को महिमा मंडित किया जाने लगेजो हिंसा के समर्थक थे। इतिहास के उन सब महापुरुषों को अपशब्द कहे जाने लगेंजो अहिंसा के हामी थे। जब धार्मिक कर्मकांड और बाहरी दिखावा अचानक ही आक्रामक स्तर पर पहुँच जाए। जब कलाओं की सारी विधाओं में भी हिंसा नज़र आने लगेविशेषकर लोकप्रिय कलाओं की विधा में हिंसा का बोलबाला होने लगे। जब उस देश के नागरिक अपने क्रोध पर क़ाबू रखने में बिलकुल असमर्थ होने लगें। छोटी-छोटी बातों पर हत्याएँ होने लगें। जब किसी देश के लोग जोम्बीज़ की तरह दिखाई देने लगेंतब समझना चाहिए कि उस देश में अब धार्मिक सत्ता आने वाली है। किसी भी देश में अचानक बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और हिंसा ही सबसे बड़ा संकेत होती है कि इस देश में अब धर्म आधारित सत्ता आने को है।’’ रामेश्वर ने समझाते हुए कहा।      

 

इस पुस्तक में टेलीफोन के इंटरसेप्ट होने के तरीके से इतिहास पुरुषों में ज़िन्ना, गाँधी, नाथूराम गोडसे के साथ सम्वाद किया गया है जैसा एक प्रयोग फिल्म लगे रहो मुन्नाभाईमें किया गया था। इस वार्तालाप से उक्त इतिहास पुरुषों के बारे में फैलायी गयी भ्रांतियों या दुष्प्रचार से जन्मे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं। कथा के माध्यम से निहित स्वार्थों द्वारा कुटिलता पूर्वक धार्मिक प्रतीकों के दुरुपयोग का भी सजीव चित्रण है।

नेहरूजी के निधन पर अपने सम्वेदना सन्देश में डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि टाइम इज द एसैंस आफ सिचुएशन, एंड नेहरू वाज वैल अवेयर ओफ इट। महावीर के दर्शन में जो सामायिक है वह बतलाता है कि वस्तुओं को परखते समय हम जो आयाम देखते हैं, उनमें एक अनदेखा आयाम समय भी होता है क्योंकि शेष सारे आयाम किसी खास समय में होते हैं। जब हम उस आयाम का ध्यान रखते हैं तो हमारी परख सार्थक होती है। पंकज की यह पुस्तक जिस समय आयी है वह इस पुस्तक के आने का बहुत सही समय है। कुटिल सत्तालोलुपों द्वारा न केवल धार्मिक भावनाओं का विदोहन कर सरल लोगों को ठगा जा रहा है, अपितु इतिहास और इतिहास पुरुषों को भी विकृत किया जा रहा है। पुराणों को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को झुठलाया जा रहा है। आधुनिक सूचना माध्यमों का दुरुपयोग कर झूठ को स्थापित किया जा रहा है जिससे सतही सूचनाओं से कैरियर बनाने वाली पीढी दुष्प्रभावित हो रही है जिसका लाभ सत्ता से व्यापारिक लाभ लेने वाला तंत्र अपने पिट्ठू नेताओं को सत्ता में बैठा कर ले रहे हैं। ऐसे समय में ऐसी पुस्तकों की बहुत जरूरत होती है। यह पुस्तक सही समय पर आयी है। हर सोचने समझने वाले व्यक्ति की जिम्मेवारी है कि इसे उन लोगों तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शायद यही कारण है कि देश के महत्वपूर्ण चिंतकों ने सुबीर को उनके साहस के लिए बधाई देते हुए उन्हें सावधान रहने की सलाह दी है।       

इस कृति की कथा सुखांत है, किंतु इसके सुखांत होने में संयोगों की भी बड़ी भूमिका है। कितने शाहनवाजों को रामेश्वर जैसे धैर्यवान उदार और समझदार गुरु मिल पाते हैं! कितने जिलों के जिलाधीश वरुण कुमार जैसे साहित्य मित्र होते हैं, विनोद सिंह जैसे पुलिस अधीक्षक होते हैं, और भारत यादव जैसे रिजर्व फोर्स के पुलिस अधिकारी मिल पाते हैं, जो रामेश्वर के छात्र भी रहे होते हैं व गुरु की तरह श्रद्धाभाव भी रखते हैं। आज जब देश का मीडिया, न्यायव्यवस्था, वित्तीय संस्थाएं, जाँच एजेंसियों सहित अधिकांश खरीदे जा सकते हों या सताये जा रहे हों, तब ऐसे इक्का दुक्का लोगों की उपस्थिति से क्या खतरों का मुकाबला किया जा सकता है या इसके लिए कुछ और प्रयत्न करने होंगे?

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड

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