बुधवार, दिसंबर 16, 2020

श्रद्धांजलि / संस्मरण सैयद मुहम्मद अफज़ल

 


 

श्रद्धांजलि / संस्मरण 

सैयद मुहम्मद अफज़ल 


वीरेंद्र जैन

कुछ लोग थोड़ी सी मुलाकातों में ही अपने लगने लगते हैं और उनके निधन से इतना दुख होता है जैसे पुरानी पहचान हो। यह 2020 का साल न जाने कितने और दुख देकर जायेगा।

सैयद मुहम्मद अफज़ल की एक कहानी हंस में छपी थी और ये वे दिन थे जब मैं हंस को किसी धर्मग्रंथ की तरह पढता था। यह कहानी अकबर के सेनापति अबुल फज़ल की समाधि से जुड़ी थी। अबुल फज़ल का कत्ल दक्षिण विजय से लौटते हुए रास्ते में हो गया था। कत्ल का स्थल दतिया से ग्वालियर के बीच के जंगलों में था।  

      इस कत्ल के सम्बन्ध में मेरे पिता ने एक कहानी सुनायी थी। अबुल फज़ल अकबर के सबसे विश्वस्त सलाहकार सेनापति थे और जहाँगीर [फिल्मी सलीम] से उनके विवादों के सन्दर्भ में अकबर उन्हीं से सलाह लेते थे और उन पर चलते भी थे, जिस कारण जहाँगीर उनसे नाराज रहता था। यही कारण रहा कि उनको दूर करने के लिए जहाँगीर ने उन्हें ही दक्षिण विजय के लिए भिजवाया था। संयोग से अबुल फज़ल ने दक्षिण पर विजय प्राप्त की और वह वहाँ से बहुत सारा धन और सोना लेकर आ रहा था। उस समय दतिया नगर नहीं बसा था और आज की छोटी बड़ोनी के जागीरदार श्री वीर सिंह देव थे, जो ओरछा के राजा के भाई थे। उनकी बहादुरी और अच्छे शिकारी होने का यश जहाँगीर को ज्ञात था। जहाँगीर ने उन्हें बुलवाया और अबुल फजल का सिर काट कर लाने की सुपारी दी। बदले में उसके द्वारा जीत कर लाया हुआ सारा धन देने का वादा भी किया। वीरसिंह देव महात्वाकांक्षी थे और छोटी सी रियासत से खुश नहीं थे।

      अबुल फज़ल अस्थमा का मरीज था। उन दिनों पक्के रास्ते नहीं थे और जंगलों में से रास्ता बनाते हुए चलना होता था। अपनी बीमारी के कारण अबुल फज़ल घोड़ों की टापों से उड़ने वाली धूल से बचने के लिए फौज़ से दूर हाथी पर कम सैनिकों के साथ चलता था और ज्यादातर रात्रि में सफर करता था। जब वह रात्रि में सफर कर रहा था तब वीर सिंह देव ने रास्ता भटकाने के लिए पेड़ों पर दीपक लटका दिये थे। उसके साथ के लोगों को गाँव के गलत दिशा में होने का भ्रम हो गया और वे रास्ता भटक गये। इसी दौरान वीर सिंह देव ने उनका सिर काट लिया और सिर लेकर सीधे आगरा पहुंचे जहाँ वह सिर जहाँगीर को भेंट किया। जब अबुलफज़ल के सैनिकों को पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अभी ग्वालियर से पहले आंतरी गांव में अबुलफज़ल की समाधि है। वीरसिंह देव के इस काम के बदले में उन्हें ओरछा जैसी बड़ी रियासत का राजा बना दिया गया था और बहुत सारा धन दिया गया था। वीरसिंह देव के भाई और तत्कालीन राजा बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उन्होंने अपने भाई के लिए यह सत्ता परिवर्तन सहज स्वीकार कर लिया था और देवपूजा में लिप्त हो गये थे। जो धन जहाँगीर ने उन्हें दिया था वह बहुत अधिक था। उससे उन्होंने 52 इमारतों की नींव रखी थी। इनमें दतिया व ओरछा के सात खण्डों वाले महल भी शमिल हैं और दतिया के पास चन्देवा की बावड़ी भी है। [ओरछा के महल को तो अभी पिछले ही दिनों राष्ट्रीय धरोहर के रूप में मान्यता मिली है।] अभी भी दतिया की उड़नू की टौरिया के पास लोग खुदाई करते हुए पकड़े जाते हैं। शायद मेरे पिता को यह कहानी झांसी के सुप्रसिद्ध पुरातत्व व इतिहास विशेषज्ञ लखपत राम शर्मा ने सुनायी थी। उन्होंने ही सरकार को दतिया के गुजर्रा में सम्राट अशोक के शिलालेख की जानकारी दी थी।

जैसा कि ऐतिहासिक कहानियों में होता है अफजल साहब की कहानी में मेरे द्वारा सुनी कहानी से थोड़ा सा भेद था और में उनसे बात कर के उसका मिलान करना चाहता था। पर यह बात दिमाग में ही रही। बीच में एक शोकसभा में मेरी उनसे मुलाकात हुयी तो मैंने उनसे कहा कि आपकी वह कहानी मैंने पढी है और उसकी ऐतिहासिकता पर चर्चा करना चाहता हूं। वे खुश हुये और उन्होंने कभी भी आने को कहा। किंतु मैं अपनी व्यस्तताओं में समय नहीं निकाल सका और वैसे भी किसी जिम्मेदार अधिकारी से मुलाकात के लिए मैं उसके आमंत्रण की प्रतीक्षा की बुरी आदत से ग्रस्त हूं, सो मुलाकात नहीं हो सकी।

दूसरी मुलाकात पंकज सुबीर के उपन्यास ‘जिन्हें जुर्मे इश्क पै नाज था’ पर चर्चा के दौरान हुयी। तब तक कई वर्ष बीत चुके थे और मैं उन्हें तब तक पहचान नहीं सका जब तक कि वे बोलने के लिए मंच पर नहीं पहुंचे। उस दिन उन्होंने उपन्यास की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में जो बोला उससे मुझे ऐसा लगा कि वे म.प्र. पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उक्त आयोजन पर टिप्पणी लिखते हुए मैंने ऐसा लिख भी दिया था । यह तो बाद में पता चला कि मैं गलत था। इससे मुझे और खुशी हुयी कि नौकरशाही में अभी भी उम्मीदें बची हुयी हैं। उनसे लम्बी मुलाकात करने की इच्छा और बलवती हो गयी। वे आईपीएस थे और वर्तमान में आर्थिक अपराध शाखा में एडीजी थे। साहित्य से जुड़े मुहम्मद अफज़ल ज़ामिया और अलीगढ विश्व विद्यालय में रजिस्ट्रार भी रहे।  

आज फिर मुनीर नियाजी की वह नज़्म याद आ रही है- हमेशा देर कर देता हूं मैं। मुझे अफसोस रहेगा कि उनसे लम्बी चर्चा नहीं हो सकी।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629       

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2020

संस्मरण / श्रद्धांजलि याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन

 

संस्मरण / श्रद्धांजलि

याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन



वीरेन्द्र जैन

अपने विचारों और भावनाओं को शब्द देने और उन्हें प्रकाशित देखने के सपने के साथ मैं बैंक की नौकरी छोड़ कर भोपाल आ गया था। अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखे जाने वाले लेखों के लेखकों में अपने को शामिल कराना मेरा लक्ष्य था। भोपाल में प्रकाशन के तो भरपूर अवसर हैं, किंतु कुछ बड़े अखबारों को छोड़ कर उनमें से ज्यादातर इसके लिए पारश्रमिक नहीं देना चाहते। चूंकि मैंने पेंशन का विकल्प चुने बिना नौकरी छोड़ी थी इसलिए दूसरी इच्छा यह भी रहती थी कि लिखे हुए का पारिश्रमिक भी मिले तो ठीक रहे। यही कारण रहा कि मैंने दैनिक भास्कर पर अपना ध्यान ज्यादा केन्द्रित किया था। उसके व्यंग्य स्तम्भ राग दरबारी से शुरू करके सम्पादकीय, मध्य की लेख, और दूसरे नये नये स्तम्भों में कई वर्ष लिखा। प्रदेश में सरकार के बदलने के साथ साथ व्यावसायिक अखबारों के सम्पादक. लेखक व स्तम्भकार भी बदल जाते हैं । चूंकि मैं एक विचार से जुड़ा हुआ था और उसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकता था इसलिए सम्पादक के बदलते ही मेरे लिए भास्कर के दरवाजे सिकुड़ गये। मैंने भी दूसरे अखबारों की ओर रुख किया। देशबन्धु के स्थानीय सम्पादक पलाश जी भास्कर, लोकजतन आदि में मेरे लेख आदि पढते रहते थे और चाहते थे कि मैं देशबन्धु के लिए भी लिखूं। वे रोटरी क्लब की एक इकाई के सचिव भी थे और उन्होंने एकाधिक बार उनके आयोजन में मेरा व्याख्यान भी रखा था। इस तरह मैं देशबन्धु के लिए भी लिखने लगा।

प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार आ गयी थी और उनके निकट के एक आईएएस अधिकारी को जन सम्पर्क के साथ साथ साहित्य संस्कृति से सम्बन्धित जिम्मेवारियां भी सौंप दी गयी थीं। वे साहित्यिक समझ के एक कुशल अधिकारी हैं और जो जिम्मेवारी मिलती है उसे पदासीन नेता की चाहत के अनुसार पूरा करते रहे हैं। सन 2006 में प्रदेश सरकार ने अपना हिन्दूवादी रूप प्रकट करने के लिए फैसला लिया कि वे एक सांस्कृतिक कलेंडर जारी करेंगे। एक बहुत कलात्मक् शक सम्वत का कलेंडर छपाया गया और उसे जारी करने के लिए भारत भवन में एक शानदार कार्यक्रम रखा गया। कलेंडर का विमोचन करते हुए मुख्य मंत्री ने एक भाषण दिया जिसमें भारतीय काल गणना की भूरे भूरि प्रशंसा करते हुए ग्रेगेरियन कलेंडर को गुलामी का प्रतीक बताया गया। इस आयोजन से सम्बन्धित प्रकाशित समाचार में बताया गया था कि ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे आगे से प्रदेश की सरकार के सारे काम धाम शक सम्वत वाले कलेंडर से ही सम्पादित होंगे।

तत्कालीन घटना पर प्रतिदिन लिखने के लिए उतावले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह एक विषय था, सो मैंने ‘कलेंडर प्रसंग’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इसमें मैंने लिखा कि देशों की सीमाओं से मुक्त अब पूरी दुनिया में एक सर्वस्वीकृत कलेंडर चल रहा है जिसके आधार पर ही सारे कामकाज चल रहे हैं। मुगल काल में भी सरकारी कामकाज हिजरी कलेन्डर से नहीं चला, वह केवल धार्मिक कलेंडर ही रहा। मैंने लिखा कि प्रदेश का बजट दिवाली से दिवाली तक का नहीं बनाया जा सकता। जिस कम्प्यूटर, इन्टरनेट का प्रयोग करके सरकारी कामकाज चलता है, उसके लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्य कलेंडर का ही प्रयोग करना पड़ेगा। मैंने सवाल किया कि इस कलेंडर के आधार पर क्या भाजपा का स्थापना दिवस 25 सितम्बर की जगह देशी तिथि को मनाया जायेगा या अटल जी का जन्म दिवस 25 दिसम्बर की जगह देशी तिथि को आयोजित होगा जो किसी को याद तक नहीं होगी। देशी कलैंडर को हम अपने त्योहार मनाने, शादी ब्याह के महूर्त निकालने में स्तेमाल करते ही हैं और उसका वह महत्व बना रहने वाला है।

अन्य बातों के अलावा इस लेख में एक बात और कही गयी थी कि मुख्यमंत्री को तो जैसा लिख के दे दिया जाता है वे उसे पढ देते हैं और पढने से पहले विचार भी नहीं करते। बस यही बात उनके उक्त अधिकारी को खल गयी। एक दिन पलाश जी का फोन आया कि आप अपने लेख सीधे रायपुर ही भेज दिया करें, अब पूरा सम्पादकीय पेज वहीं से बन कर आयेगा। मैंने इसे सामान्य व्यवस्था समझा और लेख रायपुर भेजने लगा जो यथावत छपते रहे।

बहुत दिनों बाद म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में कोई कार्यक्रम था और मैं आदतन पीछे की कुर्सियों पर जाकर बैठ गया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब मैं चलने लगा तो अचानक पलाशजी सामने आ गये। उन्होंने जाते देखा तो कहा कि आपकी ललित जी से मुलाकात है? मेरे नकार के बाद वे मुझे उनके पास तक ले गये और परिचय कराते हुए बोले ये वीरेन्द्र जैन हैं। पास में कुर्सियां खाली थीं और ललित जी मुझे बैठने के लिए कह सकते थे किंतु उनकी विनम्रता और उदारता यह कि वे खुद उठ कर खड़े हो गये व पहले हाथ मिलाया और फिर बगल की कुर्सी पर बैठा लिया। पलाश जी ने आगे जोड़ा कि ये ही हैं जिनके लेख के कारण अपने विज्ञापन बन्द हो गये थे। ललित जी ने उन्हें रोका और मुझ से कहा कि आपके लेख तो देशबन्धु में छप रहे हैं ना! मैंने सहमति में सिर हिलाया, पर तब तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। इस पहली संक्षिप्त मुलाकात में फिर कुछ और बातें भी होती रहीं जिनमें से ज्यादातर मेरे जीवन से सम्बन्धित निजी बातें थीं।

बाद में पता चला कि सम्बन्धित अधिकारी ने नाराजी में देशबन्धु भोपाल के विज्ञापन बन्द कर दिये थे, जो ललित जी के व्यक्तित्व के कारण ही फिर से शुरू हो सके थे, किंतु दोनों भाइयों में से किसी को भी मुझ से कोई शिकायत नहीं थी। शायद इसी कारण उन्होंने सम्पादकीय पृष्ठ को रायपुर में ही अंतिम रूप देने का फैसला किया हो।

उनसे अनेक मुलाकातें हुयीं लेकिन उस विशाल ह्रदय व्यक्ति के मन में मेरे प्रति कभी मलाल नहीं दिखा। मैंने पिछले कुछ वर्षों से फेसबुक पर तात्कालिक छोटी टिप्पणियों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया हुआ है, वे मेरे पेज पर आते रहे और बड़े भाई की तरह अपनी प्रतिक्रिया देते रहे, जो अच्छा लगता था। एक सुख इस अहसास का भी होता है कि कोई जानामाना व्यक्ति हमें निकट से जानता है। ललित जी ने यह सुख खूब बांटा, प्रसाद मुझे भी मिला। वे याद आते रहेंगे।

वीरेन्द्र जैन

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सोमवार, नवंबर 23, 2020

श्रद्धांजलि अरविन्द जैन : इस समय में क्या कोई इतना भी भला हो सकता है

 


श्रद्धांजलि

अरविन्द जैन : इस समय में क्या कोई इतना भी भला हो सकता है

वीरेन्द्र जैन

शोक सम्वेदना के अवसरों पर कई बार यह सुनने को मिलता रहा है, कि अच्छे लोगों की भगवान को भी जरूरत होती है, इसलिए वह उन्हें जल्दी बुला लेता है। समझ में नहीं आने वाली समस्त घटनाओं को लोग भगवान की मर्जी कह कर संतोष पाने का प्रयास करते हैं। इस बात में भरोसा न होने के बाबजूद भी मुझे यह वाक्य याद आ गया। अवसर था श्री अरविन्द जैन के निधन के समाचार का। खबर सुन कर मैं हक्का बक्का रह गया।

अरविन्द जी रिश्ते में मेरे भांजेदामाद लगते थे। जब मेरी बड़ी बहिन की शादी हुयी थी तब मैं कुल एक वर्ष का था इसलिए मेरे आठ भांजे भांजियों में से अधिकांश मेरे हम उम्र से रहे हैं। अरविन्द जी और मुझ में कई समानताएं थीं। पहली तो यह कि हम दोनों ही बैंक की नौकरी में थे। दूसरी यह कि वे भी एक मध्यमवर्गीय परिवार से आते थे व दोनों के पिता आदर्शवादी, परहितकारी और समाजसेवी रहे। उनके पिता एक आदर्शवादी अध्यापक थे और उन्होंने अपने पुत्र को भी यही शिक्षा दी थी। मैंने तो अपने साहित्यिक लगाव के कारण एक कदम के बाद प्रमोशन के लिए प्रयास नहीं किया किंतु अरविन्द जी अपनी मेहनत, लगन और समर्पण से स्टेट बैंक आफ इन्दौर में स्केल थ्री मैनेजर के पद तक पहुंचे। सरकारी योजनाओं के अंतर्गत दिये जाने वाले ऋणों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण जो गिरोह तैयार हो जाता है उसे ईमानदार व्यक्ति पसन्द नहीं आता। इसी द्वन्द में उन्होंने अपने शिखर के काल में नौकरी को ठोकर मार दी और सेवा निवृत्ति के कई साल पहले स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली थी। वे कहते थे कि जो ऋण हमारे कार्यकाल से पहले के प्रबन्धकों ने दबाव और लालच में बांटे हैं, उनमें रिकवरी का लक्ष्य पूरा न होने के लिए उत्तराधिकारी को कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, जबकि सरकारी विभाग इसमें कोई मदद नहीं कर रहा हो। यह सच भरी सभा में कहने का साहस उनमें था। ऐसा ही दुस्साहस मैं भी करता रहा हूं। हम दोनों के साथ एक प्लस प्वाइंट यह रहा है कि हम लोगों के काम में ऐसी कोई त्रुटि नहीं थी कि नाराज होकर अधिकारी बदला ले सकें। जो वे कर सकते थे वह उन्होंने मेरे दूर दराज तक 15 स्थानंतरण करके किया था। मैंने सब सहन किया और अपनी जरूरतें कम से कम रखीं जिससे काम चल गया। उन्होंने भी इसी तरह के दण्ड सहे और अंततः नौकरी को ठोकर मार कर चले आये। इसके लिए भी शायद उन्होंने मुझ से कुछ प्रेरणा ली हो क्योंकि उनसे पहले मैं स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना की ओट लेकर समय से नौ साल पहले सेवा निवृत्ति ले चुका था। आम तौर पर जब एक से जाब में काम करने वाले लोग मिलते हैं तो डीए वेतन या पेंशन संशोधन आदि के बारे में ही बातें करते हैं किंतु उन्होंने कभी इस तरह की बातें नहीं कीं।

अरविन्द जी के बारे में कोई नहीं कह सकता कि कभी उन्होंने निजी हित के लिए झूठ बोला हो, गलत बयानी की हो, या किसी को धोखा दिया हो। उनका हमेशा एक सात्विक हँसमुख व्यक्तित्व नजर आता था। व्यवहारिकता इतनी थी कि हर रिश्ते में उनके उपहार सामने वाले की तुलना में इक्कीस ही रहते थे और उन्होंने कभी ये कोशिश नहीं कि किसी का कुछ अधिक उनके पास रह जाये। उनके जीवन की बैलेंस शीट में वे हमेशा भारी ही रहे। बड़ी संख्या में रिश्तेदारियों के बाबजूद उन्होंने कभी किसी का विवाह समारोह या जीवन के अन्य संस्कारों में भाग लेने में चूक नहीं की। वे ऐसे अपवाद थे कि उनके पीठ पीछे भी उनकी बुराई करने वाला कोई कभी नहीं मिला।   

हम लोगों में एक अंतर रहा कि वे परम्परागत रूप से धार्मिक थे और प्रतिदिन गाँधी टोपी लगा कर मन्दिर जाते थे और एक घंटे से अधिक पूजा करते थे, पर्व के दिनों में जूते भी नहीं पहिनते थे, जबकि मैं घोर नास्तिक व धार्मिक कर्मकांड का विरोधी रहा। इसके बाबजूद भी वे इतने उदार, सहिष्णु और पंथनिरपेक्ष थे कि अन्य कट्टर धार्मिकों की तरह ना तो मुझ से और ना और किसी दूसरे धर्म के मानने वालों से ही नफरत करते थे। वे जैन परम्परा का पालन करते हुए रात्रि से पहले भोजन कर लेते थे किंतु हम जैसे दूसरे लोगों को रात्रि भोजन करने या जैन परम्परा में वर्जित प्याज लहसुन आदि खुद ही परोस देते थे। एक बार मैंने कई लोगों के बीच में कह दिया कि जैन मुनियों की संलेखना तो एक तरह से आत्महत्या है तो उन्होंने बिना उत्तेजित किये हुए कहा कि नहीं आत्महत्या तो टेंशन से की जाती है और संलेखना इन्टेंशन से की जाती है, इसलिए दोनों अलग हैं। मुझे लगा था कि ये पढे लिखे धार्मिक हैं और दूसरों से भिन्न हैं।

परिचितों, रिश्तेदारों से निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए मोबाइल फोन आने के बाद वे प्रत्येक के जन्मदिन. वैवाहिक वर्षगांठ आदि पर उसके पूरे परिवार को फोन करते थे, बधाई देते थे। उन्हें सारे बच्चों के नाम याद थे। जब उनके पिता बहुत बीमार थे उस दिन भी उन्होंने बारह जून को पहले मेरे जन्मदिन की सुबह फोन करके बधाई दी, और बाद में बताया कि पिताजी का निधन हो गया है।

सादा जीवन और पर्याप्त पेंशन के कारण उन्हें कोई अभाव नहीं रहा व उनके सेवानिवृत्त होने तक उनके दोनों पुत्र काम पर लग चुके थे, अपनी बीमार मां के अंतिम दिनों में उन्होंने अपने धार्मिक नियम भी शिथिल कर के जो सेवा की वह कोई श्रवण कुमार भी शायद नहीं कर सके। माँ के निधन के बाद उन्होंने परिवार को साथ लेकर जो तीर्थयात्राएं शुरू कीं तो पूरा देश लांघ डाला। आये दिन फेसबुक पर डले स्टेटस से पता चलता था कि वे कहाँ पर हैं। प्रसिद्ध जैन मुनियों के प्रवास पर हजारों की संख्या में जैन श्रद्धालु पहुंचते हैं, ऐसे अवसरों पर वे भी उनमें से एक स्थायी व्यक्ति होते थे।

अधिक धार्मिकता की झौंक में नासमझ लोग साम्प्रदायिकता की चपेट में आ जाते हैं किंतु अरविन्द जी ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखे मेरे लेखों और पोस्टों को हमेशा लाइक किया, जो उनकी विचारधारा को प्रकट करता है। अपने से जुड़े किसी भी व्यक्ति का जाना बुरा लगता है किंतु आपके मन में जिस व्यक्ति के प्रति अपार प्रशंसा व श्रद्धाभाव हो उसका जाना और भी बुरा लगता है। अरविन्द जी का स्वास्थ इतना अच्छा, व जीवन सादा था कि यह उम्र उनके जाने की नहीं थी किंतु कोरोना काल में भी अपने तीर्थयात्रा प्रेम में कहीं संक्रमित हो गये और जब तक पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

अब जब भी किसी रिश्तेदार को अपने जन्मदिन की याद आयेगी उसे अरविन्द जी की याद अवश्य आयेगी।   

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

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मंगलवार, नवंबर 03, 2020

श्री विनोद निगम का मेरा प्रिय गीत ' खुली चांदनी का गीत' - [संस्मरण]

 श्री विनोद निगम का मेरा प्रिय गीत ' खुली चांदनी का गीत' - [संस्मरण]

शरद पूर्णिमा और होली की रात चाँद अपनी पूरी प्रखरता से चमकता है।
चन्द्रमा को Luna कहा जाता है और इस दिन सबसे अधिक लोगदीवाने होते हैं इसीलिए इन दीवानों/ पागलों को Lunatic कहा जाता है। इन रातों को सबसे अधिक लोग आत्महत्या भी करते हैं।
बात 1968-69 की रही होगी, तब मेरी उम्र 18-19 वर्ष की थी। उन दिनों कादम्बिनी में प्रकाशित एक गीत पढा जिस पर में मुग्ध हो गया। गीतकार का नाम छपा था विनोद निगम। वह गीत मेरे प्रिय गीतों में शामिल रहा। उस गीत के गीतकार का कद मेरी निगाह में बहुत ऊंचा रहा और उसी के अनुसार उनकी उम्र का अनुमान भी बना। लगभग 40 साल उनके कभी दर्शन नहीं हुये। जब मैं भोपाल रहने लगा तब जन सम्पर्क के अधिकारी रघुराज सिंह ने उन पर केन्द्रित एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें उन्होंने बोलचाल की शैली में लिखे गये अनेक गीत व कविताएं सुनायीं। जो अच्छी लगीं। तब तक मैं अपने प्रिय गीत के रचनाकार का नाम भूल चुका था। फिर किसी को उल्लेखित करने के लिए मैंने गीत को तलाशा तो नाम देखने पर याद आया कि ये तो वही विनोद निगम जी हैं जो उम्र में मुझ से कुछ ही वर्ष बढे हैं। दो चार बार उनसे मुलाकात हो चुकी है किंतु वे मुझे गीत प्रेमी व्यक्ति और रचनाकार के रूप में नहीं पहचानते, पर मैं उनका प्रशंसक हूं। क्यों हूं इसके लिए आप उक्त गीत पढ कर देखें =
खुली चाँदनी का गीत
और अधिक इस खुली चांदनी में मत बैठो
जाने कब, संयम के कच्चे धागे
अलग अलग हो जाएँ
वैसे ही यह उम्र
बहुत ज्यादा सहने के योग्य नहीं है
जो अधरों पर लिखा हुआ है
वह कहने के योग्य नहीं है
फिर यह बहकी हवा सिर्फ
बैठे रहने के योग्य नहीं है
और अधिक इस खुली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब यह आकर्षण
सारी मर्यादाएँ धो जाए
इस खामोशी में
वैसे ही अस्थिर और निरंकुश है मन
फिर इतना सामीप्य किसी का
झुकी डाल सा सहज समर्पण
भरी नदी के खुले किनारों सा
नम नयनों का आमन्त्रण
और अधिक मनचली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब यह आकर्षण
सारी मर्यादाएँ धो जाए
मौसम का यह रंग
स्वयं पर भी कौई विश्वास नहीं है
फिर ये भीगी हुई बहारों के दिन हैं
सन्यास नहीं है
जो स्वाभाविक है
उसको कुछ दूर नहीं है पास नहीं है
और अधिक विषघुली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब, चंदन-क्षण,
जीवन भर के लिये तपन बो जाएँ
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रविवार, अक्तूबर 25, 2020

श्रद्धांजलि/ संस्मरण - हरीश दुबे [स्मृति तिथि 28 अक्टूबर] साहित्य से जनित आभासी संसार का नागरिक था वह

 

श्रद्धांजलि/ संस्मरण - हरीश दुबे [स्मृति तिथि 28 अक्टूबर]

साहित्य से जनित आभासी संसार का नागरिक था वह  




वीरेन्द्र जैन

वे कालेज से निकलकर रोजगार की खोज वाले दिन थे जब उससे परिचय हुआ था। दतिया जैसे कस्बे में काफी हाउस कल्चर नहीं था और ना ही रोज रोज काफी हाउस का बिल चुका सकने की क्षमता वाले लोग थे. पर उसका विकल्प सस्ती चाय के होटल के रूप में मौजूद था। किला चौराहा इकलौता केन्द्रीय स्थान था जहाँ रोज हाजिरी लगाना हर जागरूक नागरिक का कर्तव्य भी था और मजबूरी भी थी क्योंकि इस स्थान के इर्दगिर्द ही नब्बे प्रतिशत बसाहट थी और कहीं भी जाने के लिए यहीं से होकर गुजरना होता था। हम लोगों जैसे बेरोजगार या खुद के घेरे से से बाहर निकल कर सामाजिक कार्यकर्ता बनने का ‘प्रशिक्षण’ लेने वाले युवा, पत्रकार, लेखक, संगीतकार, बुद्धिजीवी आदि कुछ ज्यादा ही समय उन चाय के होटलों में बिताते थे जिनमें बैठकर क्रिकेट की कमेंट्री भी सुनी जाती थी और बिनाका गीतमाला भी [ तब टीवी नहीं आया था]। इन होटलों में चार पाँच अखबार भी आते थे जिन्हें पढने के लालच में वे सात्विक लोग भी आ जाया करते थे जो होटल के कपों, गिलासों में चाय पीना पसन्द नहीं करते थे। बहरहाल सुन्दर और नरसू के इन दो होटलों में बैठ कर पूरे नगर के प्रमुख लोगों से मिला जा सकता था या उस समय उनकी स्थिति का पता मिल सकता था।

हायर सेकेंड्री स्कूल के एक लेक्चरर दार्शनिक किस्म के श्री वंशीधर सक्सेना की वह स्थायी बैठक थी और वे जब अपने स्कूल या सोने व खाना खाने घर न गये हों तो वहीं मिलते थे। वेतन मिलते ही वे पूरे पैसे लाकर सुन्दर [सिन्धी होटल मालिक]  को सौंप देते थे, और जब जितनी जरूरत पड़ती थी उतने मांगते रहते थे। न उन्होंने कभी हिसाब मांगा और न ही सुन्दर ने कभी खयानत की। वंशीधर मास्साब के बच्चे नहीं थे व उनकी पत्नी दृष्टिहीन थीं, वे अपने बड़े भाई के साथ संयुक्त परिवार में पैतृक मकान में रहते थे। खाने पीने व पहनावे में लापरवाह, वे उम्र का लिहाज किये बिना सबके मित्र, सखा, अभिभावक थे। खूब पढे लिखे थे, पर अपनी पढाई के अहंकार से दूर, और हर विषय पर सहज और निरपेक्ष भाव से बात कर लेने वाले व्यक्ति थे। झेन दर्शन के सहज भाव वाले व्यक्ति वंशीधर जी चुटकलों वाले फिलास्फर ही थे जो बेल्ट नहीं मिलने पर अपनी पेंट को नाड़े से भी बाँध सकते थे। वैसे वे अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र में एमए थे। मेरे कुछ अधिक ही मित्र थे क्योंकि वे कहते थे कि मित्रता के लिए उम्र नहीं मानसिकता समान चाहिए होती है। मैं उनकी उदारता के बाद भी उनकी वरिष्ठता का सम्मान करता था किंतु हरीश में बचपना था व वह उनके मुँह लगा हुआ था। वह उम्र को नजर अन्दाज कर खुला सम्वाद कर लेता था। वैसे भी वह जीवन भर मुँहफट रहा।  

सथियों की कमजोरियों का उपहास उस स्थान का मुख्य शगल था। सब एक दूसरे की कमजोरियों का मजाक बना के खूब खिलखिलाते थे और यह काम तब कुछ अधिक ही होता था जब सम्बन्धित अनुपस्थित हो, इसलिए सबकी कोशिश यह होती थी कि समूह के जुटने से पहले ही पहुँच जाये, नहीं तो उसीकी छीछालेदर हो रही होती। उन दिनों हम लोगों के बीच आचार्य रजनीश चर्चा में थे, जो उनके द्वारा खण्डन का दौर था। इन अर्थों में हम सब क्रांतिकारी भी थे।  

यह बहुत बाद में पता चला कि समूह के लोगों में उम्र में सबसे छोटा हरीश बहुत कठिन समय में गुजर रहा था और फिर भी खूब खिलखिला लेता था, और बेलिहाज हो गया था।

दतिया उस सामंती प्रभाव वाला क्षेत्र था जहाँ ज्यादातर लोग निर्धन थे पर ‘गरीब’ नहीं थे। उनके इस चरित्र को कभी किसी ने शब्द दिये थे जो कहावत बन गये। वे शब्द थे-

ऎंठ दतिया में, / पेंठ दतिया में, / सज्जन, सुजान सें न भेंट दतिया में,

मिर्चुन [बिरचुन अर्थात बेरों का चूर्ण] घोर खांय पथरोटिया में।

अर्थात पत्थर की प्याली में बेरों के चूर्ण को घोल कर पीने वाले भी अपनी अकड़ और स्थान बना कर रखते हैं और व्यवहार में सरल व विनम्र लोगों से भेंट होना दुर्लभ ही है। कहने वाले के अपने अनुभव रहे होंगे।  

ये सारी कहावतें मध्यम वर्ग या मध्यमवर्गीय जातियों के चरित्र को लेकर ही बनायी जाती रही हैं क्योंकि उस दौर में निम्न वर्ग या निम्न मानी जाने वाली जातियां तो नगर के चरित्र की पहचान नहीं बनाती थीं। हरीश न केवल जाति से ब्राम्हण था, अपितु स्कूल इंस्पेक्टर के पद पर रहे पिता की सात संतानों में सबसे छोटा था। अपनी नौकरी और जाति के कारण पिता में एक कड़कपन और स्वभाव में कठोरता थी। उन्होंने न केवल अपनी संतानों को बड़ा किया था अपितु उन्हें सरकारी स्कूल में अपने समय की यथा सम्भव उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने को प्रेरित किया था। उनके सबसे बड़े बेटे रमेश उस दौर में एमबीबीएस थे अपितु फौज में कैप्टन रहे। उनसे छोटे सुरेश हाईकोर्ट ग्वालियर में अपने समय के सफल वकील रहे। उनसे छोटे लेखक दिनेश चन्द्र दुबे न केवल एडीशनल डिस्ट्रिक्ट जज रहे अपितु अपने लीक से हट कर न्यायिक फैसले लिखने के लिए भी जाने जाते रहे। वे कई कथा व कविता पुस्तकों के लेखक और कवि भी रहे।  प्रारम्भिक दौर में निर्भीकता से उन्होंने आमजन को न्याय दिलाने में स्थापित परम्परा से हट कर भी निर्णय किये। हाईकोर्ट की अनुमति के बिना किसी फिल्म में जज का अभिनय कर लेने के कारण उन्हें समय से पहले सेवा निवृत्त भी होना पड़ा। उनसे छोटे प्रेमचन्द्र दुबे चीफ म्युनिसिपल आफीसर रहे और उनसे छोटे प्रकाश चन्द्र दुबे एमबीबीएस सरकारी चिकित्सक रहे। प्रेम और प्रकाश दोनों बीएस-सी में मेरे क्लासफैलो भी रहे। इनसे छोटे गिरीश चन्द्र दुबे पेशे से तो हायर सेकेंड्री स्कूल में लेक्चरर रहे किंतु इसके अलावा भी अन्य गतिविधियों में सक्रिय रहे। हरीश सबसे छोटा था। हाँ इन सबकी एक बड़ी बहिन भी थीं जिनका विवाह एक डाक्टर साहब से हुआ था जो मध्य प्रदेश के गुना जिले में सिविल सर्जन होकर सेवानिवृत्त हुये। हरीश के चाचा हाईकोर्ट के जज व ला कमीशन के सदस्य रहे और चचेरे भाई भी डिस्ट्रिक्ट जज आदि रहे। अगर हरीश के भाइयों के रिश्तेदार व भतीजी भतीजों के बारे में भी चर्चा की जाये तो उनके सामाजिक रुतबे की बात बहुत दूर तलक चली जायेगी।

इतनी रिश्तेदारियों के बीच भी वह अकेला था और अब कह सकता हूं कि वह हम सब की तरह निर्धन ही था और वह यह बात जानता था। उसने कभी बताया था कि पिता ने अपनी शुरू की संतानों को कठोर अनुशासन में प्रारम्भिक पढाई का माहौल तो दिया किंतु लगभग उन सबने अपना कैरियर खुद ही बनाया, घर में दो एमबीबीएस डाक्टर, एक जज, एक हाई कोर्ट का वकील, एक मुख्य नगर पालिका अधिकारी, एक बेटा लेक्चरर, और एक एपीपी [हरीश] हुये। पिता ने अपने कुल गोत्र अनुसार उनका ब्याह करना अपना दायित्व या कहें कि अधिकार माना व कई मामलों में पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध भी उनका ब्याह कर दिया था। हरीश मुझ से कुछ ज्यादा ही खुला हुआ था।  उसमें लेखक हो सकने की पूरी सम्वेदनशीलता मौजूद थी। वह दृष्टा की तरह अपने और अपने परिवेश के जीवन को तट्स्थ भाव से देख सकता था, उनकी अच्छाइयां, बुराइयां मुझे बता सकता था। उसने हँसते हुए बताया था कि उसके एक प्रेमी रहे भाई की शादी के समय उनको घोड़े पर बैठाने के बाद पिताजी ने दो बन्दूक वाले भी लगाये थे ताकि वे भाग न सकें। विवाह के बाद अपने भाइयों को पिता की तरह पालना सबके लिए कठिन होता है जो उनके भाइयों को भी रहा होगा। हरीश के बड़े भाइयों ने अपने से छोटों को अभिभावक बन कर पढाया और अनुशासित रखा किंतु भाई व भाभियों का अनुशासन माता पिता के अनुशासन से अलग महसूस होता है। जिनमें स्वाभिमान की मात्रा कुछ अधिक हो उसे कुछ ज्यादा ही महसूस होता होगा। फिर सबसे बड़े भाई साहब कैप्टन रमेश शार्ट सर्विस कमीशन से जल्दी रिटायर होकर आ गये व फौज की कुछ ऐसी आदतें लेकर आये जो सिविल जीवन के अनुकूल नहीं मानी जाती थीं। वे इतने एडिक्ट हो गये थे कि शराब न मिलने पर टिंचर तक पी जाते थे। उनकी ग्वालियर मे नियुक्त व्याख्याता पत्नी बच्चों ने उनसे दूरी बना ली थी और बाद में हरीश के माँ बाप ने उन्हें भी छोटे बच्चे की तरह पाला। पिता की पेंशन से काम नहीं चलता था इसलिए माँ गाहे बगाहे घर के गहने भी बेच देती थीं।

ऊपर से दूसरे नम्बर के भाई वकील सुरेश चन्द्रजी के संरक्षण में रहने पर हरीश आदि भाइयों को हिसाब से स्कूल फीस, किताबों, कपड़ों के लिए पैसे तो मिल जाते थे किंतु किशोर और युवा मन को अगर सिनेमा देखने के लिए पैसों की जरूरत हो तो वह काम अनैतिक माना जाता था, व भाभी के ताने भी सुनना होते थे। जिन्हें हर समय याद आ जाता था कि तुम्हारी माँ ने हमारे सारे गहने रख लिये हैं। ये ताने माँ के प्रतिनिधि के रूप में हरीश को ही सुनने और सहन करने पड़्ते थे, शायद दूसरे भाइयों को भी सुनने पड़े हों। बाद में इन भाभी ने आत्महत्या कर ली थी।

 जब हरीश दिनेश चन्द्र जी के साथ रहे तो जज के भाई होने के कारण कुछ सम्मान सुविधाएं तो मिलीं किंतु वहाँ भी उनकी सोच के अनुसार चलना पड़ता, जैसा वे चलना नहीं चाहते थे। वैसे दिनेश जी, इस सबसे छोटे भाई को अपने दोस्त का दर्जा भी देते थे, पर यहाँ भी भाभी फैक्टर काम करता था। हरीश को दिनेशजी से साहित्य में कैरियर बनाने से लेकर साहित्य पढने की रुचि भी मिल गयी थी। दिनेशजी हर काम आक्रामक रूप से करना पसन्द करते थे और पद के सहारे कर भी लेते थे। उन्हें छपना पसन्द था और जज होने के कारण उन्हें वरीयता भी मिल जाती थी। हरीश को भी उसका कुछ लाभ मिलने लगा। उस दौर को उसने अपनी परिष्कृत रुचि को और संवारने में लगाया। दिनेशजी के घर पर आने वाली ढेरों पत्र पत्रिकाओं के अलावा उसने लाइब्रेरी और हिन्दी के प्रोफेसरों से प्राप्त कर खूब सारा अच्छा कथा साहित्य पढा, और अपने जीवन के अनुभवों से मिला कर उसके मर्म तक भी पहुंचा। निर्मल वर्मा, गिरिराज किशोर आदि उसके प्रिय लेखक रहे।

उसने कविताएं, कहानियां, और गज़लें लिखीं। इसी साहित्य ने हरीश को गढा। और इसी के कारण उसका जीवन, असामान्य होकर सामाजिक मान्यताओं के अनुसार, बिगड़ा भी। विपुल कथा साहित्य पढ लेने के बाद वह मेरे साथ बैठ कर वह किसी के भी जीवन का विश्लेषण कर उसकी कमजोरियों पर कटाक्ष कर सकता था। इसमें वह मेरे जीवन और परिवार को भी नहीं बख्शता था। उसके कटाक्ष ने मुझे समय समय पर बहुत कुछ संवरने. सुधरने का मौका भी दिया। वह इतना सद्भावी था कि उस निन्दक को आंगन कुटी छवा कर नियरे राखने का मन करता था। ह्रदय से निर्मल होने के कारण मित्रों के घर की महिलाओं के साथ भी वह सबके सामने बेलिहाज बात कर लेता था और उसका कोई बुरा नहीं मानता था। वकार सिद्दीकी साहब बहुत वरिष्ठ थे और मेरे माध्यम से ही वह उनके सम्पर्क में आया था किंतु उनकी पत्नी उसकी सगी भाभी जैसी हो गयी थीं।   

मेरे प्रति हरीश की रुचि इसलिए ही जगी थी क्योंकि मैं उन दिनों धर्मयुग में लगातार छप रहा था और एक खास घटना के कारण मेरे नाम के आगे दतिया भी लिखा जाने लगा था। श्रेष्ठ पत्रिका में प्रकाशित लेखक प्रमाणित लेखक भी माना जाता है क्योंकि उसकी रचनाएं अपने समय के कठोर परीक्षक की निगाह से गुजर कर ही प्रकाशित हो पाती हैं। हरीश ने इस बीच में निर्मल वर्मा आदि को पढा और पसन्द किया। इसी बीच कमलेश्वर सम्पादित सारिका की समानान्तर कहानियां भी उसे पसन्द आती रहीं। उसके जीवन में उतार चढाव आते रहते थे, दिनेश जी के साथ रहता था तो जज के भाई के रूप में प्राप्त विशिष्ट व्यवहार पाता और दतिया में रहता था तो खाली जेब पाया जाने वाला जूनियर दोस्त होता था, जिसे सीनियर पैसे देकर सिगरेट लाने भेज सकते थे। सहकारी पार्टियों में उसे निःशुल्क शामिल किया जाता था। किसी तरह एलएलबी कर लेने के बाद उसे जरूरत थी नौकरी और निर्मल वर्मा के पात्रों की तरह भावुक प्रेम की। दोनों ही कठिन थे, क्योंकि वह निर्मल वर्मा की कहानियों के परिवेश में नहीं ठेठ देशी कस्बे में रह रहा था। इसी दौरान उसने एलएलबी करने के बाद प्रैक्टिस शुरू कर दी। उसके आदर्श विचारों को न तो प्रैक्टिस सूट कर रही थी और न ही वांछित भावुक प्रेम मिल पा रहा था। सामान्य लड़कियों को प्रेमी भी वैसा चाहिए होता है जो जल्दी ही कमाऊ पति होता दिखायी दे रहा हो। रिश्ते की बहिनों का सहारा लेकर उसने कई जगह सम्भावनाएं तलाशीं, पर गहरी समझ और भावुक, त्याग करने वाला प्लेटोनिक लव कहीं नहीं मिला। सारी लड़कियों को पिता व भाई की अनुमति से सुरक्षित जीवन का भरोसा देने वाला पति चाहिए था।

 उसकी उम्र बढ रही थी। खाली जेब वकील के स्वरूप से मुक्त होने के लिए उसने सबसे पहले नौकरी प्राप्त की जिसमें उसकी उच्च पद वाली रिश्तेदारियां भी कुछ काम आयीं और वह असिस्टेंट पब्लिक [तब पुलिस] प्रासीक्यूटर [एपीपी] हो गया। राहत मिली, पर काम चाहता था कि धारा के साथ बहो, जो उसे मंजूर नहीं था। कार्यालय में पीने के पानी के लिए घड़े नहीं होते थे, चैम्बर नहीं था, परदे नहीं थे, यहाँ तक कि विभागीय लाइब्रेरी भी नहीं होती थी। एपीपी को लाइब्रेरी के लिए किसी बड़े वकील के चैम्बर में जाना होता था और उनका अहसान लेना होता था। जिन आरोपियों के खिलाफ उसे पुलिस की ओर से मुकदमा लड़ना होता था उनमें से कई के पास खूब पैसा होता था और वे बड़े बड़े वकील करते थे। वह कहता था कि आम आदमी को न्याय दिलाना बहुत कठिन काम है, क्योंकि पूरी व्यवस्था उसके खिलाफ काम कर रही होती है। सजा दिलाने से पुलिस इंस्पेक्टर का रिकार्ड सुधरता है इसलिए वह कोर्ट साहब [एपीपी] के लिए डायरी में पैसे रख कर लाता है। हरीश ने वे पैसे लेने से मना कर दिया जिसका उसके साथी एपीपियों को बुरा लगा तो पुलिस भी सोचती थी कि कहीं एपीपी साहब नाराज तो नहीं। उसने बाद में पैसे की जगह विकल्प के रूप में पुलिस इंसपेक्टर से आफिस में नये घड़े रखवाने, परदे लगवा देने या भोपाल से कानून की किताबें मंगवा देना स्वीकार करना शुरू कर दिया। आफिस के साथियों को वह सनकी और अलग तरह से काम करने वाला लगने लगा इसलिए चतुर वरिष्ठों ने विभाग का कचरा काम उसकी ओर खिसकाना शुरू कर दिया व कमाई वाला काम खुद लेने लगे। जब उसे लगा कि ये लोग उसे बेबकूफ समझ रहे हैं तो उसने काम के नियमपूर्वक वितरण का सवाल उठाया। परिणाम यह हुआ कि उस की झूठी शिकायत कर साथियों ने उसे ही सस्पेंड करवा दिया। सस्पेन्ड करने वाले कलैक्टर थे श्री अरविन्द जोशी जो बाद में अपनी आईएएस पत्नी सहित कई सौ करोड़ की अवैध कमाई के आरोप में जेल में रहे हैं। उस समय उसकी पोस्टिंग मुरैना में थी और वह ग्वालियर रहता था। शादी की उम्र निकली जा रही थी और वह अपनी भाभियों, भाइयों के तनावपूर्ण रिश्ते देख कर पत्नी नहीं, अपितु प्रेमिका पत्नी की तलाश में था।  

इसी बीच ग्वालियर से मुरैना जाते हुए उसकी मुलाकात ट्रेन में साधना [पत्नी] से हुयी और साधना के घरवालों की असहमति के बाबजूद हिन्दुओं की शादी के आफ सीजन में भी सभी दोस्तों ने मिल कर एक मन्दिर में शादी करा दी। उस दिन तिथि थी आठ आठ अठासी। शादी में बाद में विधायक रहे शम्भू तिवारी समेत लगभग सभी हिन्दू, मुस्लिम सिख, सिन्धी, जैन, ईसाई मित्र सम्मलित थे, और सबको लग रहा था कि कोई ठीक काम किया है, शादी में उसने मित्र अकील वेग से मांग कर लगभग नई कमीज पहिनी थी। वह अपने अध्ययन से जनित भावना के साथ अपनी पत्नी से भरपूर प्रेम करने लगा व उन मित्रों से कट गया जो कभी उसके लिए भाइयों और रिश्तेदारों से भी बढ कर थे। वैसा ही प्रेम उसका बच्चों के साथ भी रहा। वह बच्चों की इच्छा पर उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता था। उस लाढ-प्यार और बच्चों के साथ दोस्तों जैसी बातों ने बच्चों के दिमाग में भी उसकी आम पापा से भिन्न छवि निर्मित कर दी थी । बच्चे अपने पिता को सक्षम समझते थे क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उसका पिता अपने बच्चों की इच्छाएं कैसे पूरी करता है। वह बेईमानी नहीं करता था किंतु बच्चों के लिए अपने सक्षम मित्रों से उधार लेने में कोई संकोच नहीं करता था।   

उसकी पत्नी साधना का परिवार भी अपने उत्थान पतन का रोचक इतिहास रखता था। साधना के पिता भी कभी मजिस्ट्रेट हुआ करते थे किंतु अपनी सिद्धांतवादिता में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी व प्रैक्टिस करने लगे थे। वे योग्य थे किंतु अच्छी प्रैक्टिस के लिए जो व्यवहारिक व्यावसायिकता चाहिए होती है उसका अभाव था। उनके तीन बेटियां थीं, जब उनकी मृत्यु हुयी तो केवल बड़ी बेटी की शादी हुयी थी। साधना सबसे छोटी थी। सबसे बड़ी बेटी की शादी आगरा में श्री लवानिया जी से हुयी थी जो वहाँ वकील थे और भाजपा के सक्रिय नेता थे। बाद में वे आगरा के मेयर भी चुने गये थे। मझली बेटी बाद में हायर सेकेंडरी स्कूल में लेक्चरर नियुक्त हुयीं। उन्हें जिन से शादी करनी चाही थी उनकी पहले कभी शादी हो चुकी थी व तलाक का केस चल रहा था, जो चलता रहा व उसके फैसले की प्रतीक्षा में इतना लम्बा समय निकल गया और दोनों के दिल से विवाह की तमन्ना ही निकल गयी, पर वे अभिन्न मित्र बने रहे। उन दिनों लिव इन रिलेशन शब्द नहीं आया था और वैसी स्थिति को सामाजिक स्वीकृति नहीं थी। हरीश भी अपनी सैद्धांकिता में उन्हें पसन्द नहीं करता था। साधना के भी ऐसे ही विचार थे। कभी मजिस्ट्रेट रहे साधना के पिता ने जरूरत पड़ने पर किसी साहूकार से पैसे उधार लिये थे और मकान कुर्क होने की नौबत आने पर आगरा वाले दामाद ने वह उधार चुका दिया था। उन्होंने अपनी नैतिकिता में नगर के मुख्य मार्ग पर स्थित अपना मकान दामाद के न चाहते हुए भी उनके नाम कर दिया था। बाद में उन्होंने भी अपनी वसीयत में  वह मकान अपनी पत्नी समेत तीनों बहिनों के नाम कर दिया था जिसके आधार पर साधना और हरीश भी उसके एक हिस्से के हकदार हुये। जब साधना को उसकी मझली बहिन और माँ ने बड़ा किया था। उसे अपनी बड़ी बहिन का मित्र पसन्द नहीं आता था इसलिए बड़ी बहिन से तनाव के सम्बन्ध रहते थे। पर वे ही घर की प्रमुख थीं। घर में परम्परागत रूप से किसी पुरुष का संरक्षण और अनुशासन नहीं था। शिक्षा पूरी करते ही साधना ने पोस्टल विभाग में अस्थायी नौकरी भी की थी और हरीश के अनुसार संरक्षण की चाह में उसकी इच्छा रही होगी कि जल्दी से जल्दी उसकी शादी हो जाये ताकि यह असुरक्षित घर छूटे। इसी दौरान उसकी मुलाकात हरीश से हो गयी थी और जल्दी ही वे अंतरंग हो गये और दोनों ने विवाह का फैसला कर लिया था। घर में पिता नहीं थे, बड़ी बहिन ने माँ की देखभाल का जिम्मा लिया हुआ था और जो खुद की शादी न करने का फैसला कर चुकी थी। बड़ी बहिन की दशा तक पहुँचने से बचने के लिए ही साधना ने हरीश से शादी जल्दी में मन्दिर में गैर परम्परागत ढंग से की थी, जिसमें केवल हरीश के दोस्त ही सम्मलित हुये थे।

कुछ समय बाद हरीश की पोस्टिंग गुना हो गयी। बच्चे हुये। हरीश दोस्तों और उनकी महफिलों को भूल गया। बच्चों से उसने डूब कर प्यार किया। वह परिवार के रहन सहन में शाह खर्च था। उसके पास ना तो कुछ अतिरिक्त आय थी और ना ही किसी मुश्किल वक्त के लिए कुछ बचा कर रखने की आदत थी। स्वाभिमान इतना था कि भाइयों से सहायता मांगना उसे मंजूर नहीं था क्योंकि वे पैसे की जगह अपना जीवन दर्शन देने लगते थे, जिसके प्रति उसे वितृष्णा थी। कुछ समय बाद उसके मिलने जुलने वालों मित्रों का भी यही हाल हो गया, जो सलाह भी साथ में देने लगे थे। अभावों में भी उसने अपने मित्रों ही नहीं अपितु वरिष्ठ अधिकारियों से भी अपने सिद्धांतों के विपरीत किसी तरह का समझौता नहीं किया। खीझ कर उन्होंने उसे मुख्यधारा से हटाने के लिए उसका ट्रांसफर पुलिस प्रशिक्षण संस्थान में करवा दिया। उसका विचार था कि यह ट्रांसफर नियमानुसार नहीं है क्योंकि वह पुलिस विभाग का कर्मचारी नहीं है और प्रासीक्यूशन का डायरेक्टोरेट अलग है। बच्चे गुना के सबसे अच्छे स्कूल में पढ रहे थे और वह उन्हें दूसरी जगह नहीं ले जाना चाहता था। वह ट्रांसफर पर नहीं गया, इसलिए फिर सस्पेंड कर दिया गया। स्वाभिमान की इस लड़ाई में वह दो साल तक सस्पेंड रहा। इस दौरान भी उसने अपने बच्चों की पढाई और खर्चों में किसी तरह की कमी नहीं की। अभावों से परिवार में तनाव बढने लगा और पत्नी ने अपनी बहिन से सहायता मांगी जो उन्होंने दी। हरीश को लगा कि यह मकान के हिस्से के रूप में दी जा रही है। हरीश डिप्रैशन जैसी दशा में चला गया। जब उधार ज्यादा बढ गया तो उन्होंने पत्नी के कहने पर गुना छोड़ देने का निश्चय किया या कहें कि उसे छोड़ना पड़ा।

इस बीच उसकी माँ का निधन हो चुका था और बेसहारे वृद्ध पिता को उनके एक भतीजे ने सहारा दिया व अपने साथ ले गये। पिता ने भी अपने इलाज आदि खर्च पूरे करने के लिए मकान को उसके नाम कर दिया था जिसने देख रेख न कर पाने के कारण बेच दिया था। पिताजी ज्यादा दिन नहीं रहे। अब हरीश के पास कहीं भी कोई अपना मकान नहीं था। उसे ससुराल में ही आकर रहना पड़ा। बड़े हो चुके बच्चों को उस तरह से रहने की आदत नहीं थी। बहिन ने बड़े बच्चे का प्रवेश इन्दौर के एक इंजीनियरिंग कालेज में करा दिया। लड़का इस माहौल से बाहर तो निकलना चाहता था किंतु इंजीनियरिंग नहीं पढना चाहता था। बहरहाल उसको घुटन से राहत मिली। पर हरीश की घुटन बढ गयी थी। संयोग से उन दिनों प्रदेश के गृहमंत्री दतिया से ही थे, जिन से कह कर बड़ी बहिन और पत्नी साधना ने सस्पेंसन हटवा दिया और शाजापुर के आगर मालवा में पोस्टिंग मिली। रोचक यह रहा कि हरीश किसी के भी पास खुद आवेदन लेकर नहीं गया। शायद डाक्टर की सलाह पर वह प्रतिदिन एक घंटे किसी आत्मीय मित्र से बात करना चाहता था और उसके पास वह मित्र मैं ही था, इसलिए रोज फोन पर बातें होती थीं। ऐसा महीनों चला। फिर उसे सरकारी क्वार्टर भी मिल गया व परिवार भी आ गया। बाद में उसका ट्रांसफर भोपाल हुआ।

भोपाल में उसकी नौकरी के सस्पेंशन आदि के समय का निराकरण भी हो गया और सर्विस में ब्रेक नहीं माना गया। पूरी तनख्वाह मिलने लगी, पिछला बकाया भी कुछ मिला, वरिष्ठता भी मिली। बड़े बेटे ने अपने आप इंजीनियरिंग छोड़ कर मीडिया की पढाई शुरू कर दी। हरीश फिर मुझ से कट गया। कई साल बाद उसका रिटायरमेंट आ गया तो वह सेवानिवृत्ति पर मिला पैसा शाही तरीकों से बच्चों पर खर्च करने लगा। एकाध बार मैंने उसे टोका भी किंतु वह हमेशा की तरह मेरी मितव्यता पर हँस दिया। मैं बुझ गया। सलाहों से बचने के लिए उसने मिलना जुलना और बात करना भी बन्द कर दिया था।

शायद उसके साथ फिर ऐसा हो गया था जिसे वह मुझे तक बताना नहीं चाहता था। वह डिप्रेशन में चला गया था। घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया था और घुलता जा रहा था। एक दिन साधना का फोन आया कि मैं उन्हें समझाऊं। वह कभी घर पर नहीं बुलाता था, इसलिए मैंने उसे यूनीवर्सिटी में बुलाया जिसके सामने के भवन में वह रहता था। उसने कुछ नहीं बताया किसी सवाल का जबाब नहीं दिया। उसकी काया बिल्कुल जर्जर हो चुकी थी। वह केवल इतना कह रहा था कि सब कुछ बर्बाद हो गया। समझ में आ गया कि उसमें अब जीने की कोई इच्छा बाकी नहीं है। बिना पूरा सन्दर्भ जाने मैंने उसे कुछ सलाहें सी दीं और चला आया। मैं जानता था कि जब वह मुझ से ही कुछ बात नहीं करना चाहता तो और किसी से क्या बात करेगा! वही हुआ, 28 अक्टूबर 2018 के दिन उसके ना रहने की प्रत्याशित खबर भर आयी। उसकी मृत्यु को मैं पहले ही जी चुका था, और निरुपाय था।

उसने खुद कई बार मेरे आक्रोश में लिये फैसलों पर मुझे सम्हाला था और बताया था कि अपने जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे दुख सुख आते रहते हैं। मैं उसका अहसानमन्द था किंतु उसके लिए कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं था। इस स्मृति को मैंने हरीश की सामाजिक परिस्तिथियों तक ही सीमित रखा है, उसके निजी जीवन, रचनात्मक योगदान, और उसके विश्लेषणों पर लिखना बाकी है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023