संस्मरण /
श्रद्धांजलि
याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन
वीरेन्द्र जैन
अपने विचारों और भावनाओं को शब्द देने और उन्हें प्रकाशित देखने के सपने के
साथ मैं बैंक की नौकरी छोड़ कर भोपाल आ गया था। अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखे
जाने वाले लेखों के लेखकों में अपने को शामिल कराना मेरा लक्ष्य था। भोपाल में
प्रकाशन के तो भरपूर अवसर हैं, किंतु कुछ बड़े अखबारों को छोड़ कर उनमें से ज्यादातर
इसके लिए पारश्रमिक नहीं देना चाहते। चूंकि मैंने पेंशन का विकल्प चुने बिना नौकरी
छोड़ी थी इसलिए दूसरी इच्छा यह भी रहती थी कि लिखे हुए का पारिश्रमिक भी मिले तो
ठीक रहे। यही कारण रहा कि मैंने दैनिक भास्कर पर अपना ध्यान ज्यादा केन्द्रित किया
था। उसके व्यंग्य स्तम्भ राग दरबारी से शुरू करके सम्पादकीय, मध्य की लेख, और
दूसरे नये नये स्तम्भों में कई वर्ष लिखा। प्रदेश में सरकार के बदलने के साथ साथ
व्यावसायिक अखबारों के सम्पादक. लेखक व स्तम्भकार भी बदल जाते हैं । चूंकि मैं एक
विचार से जुड़ा हुआ था और उसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकता था इसलिए
सम्पादक के बदलते ही मेरे लिए भास्कर के दरवाजे सिकुड़ गये। मैंने भी दूसरे अखबारों
की ओर रुख किया। देशबन्धु के स्थानीय सम्पादक पलाश जी भास्कर, लोकजतन आदि में मेरे
लेख आदि पढते रहते थे और चाहते थे कि मैं देशबन्धु के लिए भी लिखूं। वे रोटरी क्लब
की एक इकाई के सचिव भी थे और उन्होंने एकाधिक बार उनके आयोजन में मेरा व्याख्यान
भी रखा था। इस तरह मैं देशबन्धु के लिए भी लिखने लगा।
प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार आ गयी थी और उनके निकट के एक आईएएस अधिकारी
को जन सम्पर्क के साथ साथ साहित्य संस्कृति से सम्बन्धित जिम्मेवारियां भी सौंप दी
गयी थीं। वे साहित्यिक समझ के एक कुशल अधिकारी हैं और जो जिम्मेवारी मिलती है उसे
पदासीन नेता की चाहत के अनुसार पूरा करते रहे हैं। सन 2006 में प्रदेश सरकार ने
अपना हिन्दूवादी रूप प्रकट करने के लिए फैसला लिया कि वे एक सांस्कृतिक कलेंडर
जारी करेंगे। एक बहुत कलात्मक् शक सम्वत का कलेंडर छपाया गया और उसे जारी करने के
लिए भारत भवन में एक शानदार कार्यक्रम रखा गया। कलेंडर का विमोचन करते हुए मुख्य
मंत्री ने एक भाषण दिया जिसमें भारतीय काल गणना की भूरे भूरि प्रशंसा करते हुए
ग्रेगेरियन कलेंडर को गुलामी का प्रतीक बताया गया। इस आयोजन से सम्बन्धित प्रकाशित
समाचार में बताया गया था कि ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे आगे से प्रदेश की सरकार के
सारे काम धाम शक सम्वत वाले कलेंडर से ही सम्पादित होंगे।
तत्कालीन घटना पर प्रतिदिन लिखने के लिए उतावले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह
एक विषय था, सो मैंने ‘कलेंडर प्रसंग’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इसमें मैंने लिखा कि
देशों की सीमाओं से मुक्त अब पूरी दुनिया में एक सर्वस्वीकृत कलेंडर चल रहा है
जिसके आधार पर ही सारे कामकाज चल रहे हैं। मुगल काल में भी सरकारी कामकाज हिजरी
कलेन्डर से नहीं चला, वह केवल धार्मिक कलेंडर ही रहा। मैंने लिखा कि प्रदेश का बजट
दिवाली से दिवाली तक का नहीं बनाया जा सकता। जिस कम्प्यूटर, इन्टरनेट का प्रयोग
करके सरकारी कामकाज चलता है, उसके लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्य कलेंडर का ही
प्रयोग करना पड़ेगा। मैंने सवाल किया कि इस कलेंडर के आधार पर क्या भाजपा का
स्थापना दिवस 25 सितम्बर की जगह देशी तिथि को मनाया जायेगा या अटल जी का जन्म दिवस
25 दिसम्बर की जगह देशी तिथि को आयोजित होगा जो किसी को याद तक नहीं होगी। देशी
कलैंडर को हम अपने त्योहार मनाने, शादी ब्याह के महूर्त निकालने में स्तेमाल करते
ही हैं और उसका वह महत्व बना रहने वाला है।
अन्य बातों के अलावा इस लेख में एक बात और कही गयी थी कि मुख्यमंत्री को तो
जैसा लिख के दे दिया जाता है वे उसे पढ देते हैं और पढने से पहले विचार भी नहीं
करते। बस यही बात उनके उक्त अधिकारी को खल गयी। एक दिन पलाश जी का फोन आया कि आप
अपने लेख सीधे रायपुर ही भेज दिया करें, अब पूरा सम्पादकीय पेज वहीं से बन कर
आयेगा। मैंने इसे सामान्य व्यवस्था समझा और लेख रायपुर भेजने लगा जो यथावत छपते
रहे।
बहुत दिनों बाद म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में कोई कार्यक्रम था और
मैं आदतन पीछे की कुर्सियों पर जाकर बैठ गया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब मैं
चलने लगा तो अचानक पलाशजी सामने आ गये। उन्होंने जाते देखा तो कहा कि आपकी ललित जी
से मुलाकात है? मेरे नकार के बाद वे मुझे उनके पास तक ले गये और परिचय कराते हुए
बोले ये वीरेन्द्र जैन हैं। पास में कुर्सियां खाली थीं और ललित जी मुझे बैठने के
लिए कह सकते थे किंतु उनकी विनम्रता और उदारता यह कि वे खुद उठ कर खड़े हो गये व
पहले हाथ मिलाया और फिर बगल की कुर्सी पर बैठा लिया। पलाश जी ने आगे जोड़ा कि ये ही
हैं जिनके लेख के कारण अपने विज्ञापन बन्द हो गये थे। ललित जी ने उन्हें रोका और
मुझ से कहा कि आपके लेख तो देशबन्धु में छप रहे हैं ना! मैंने सहमति में सिर
हिलाया, पर तब तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। इस पहली संक्षिप्त मुलाकात में फिर कुछ
और बातें भी होती रहीं जिनमें से ज्यादातर मेरे जीवन से सम्बन्धित निजी बातें थीं।
बाद में पता चला कि सम्बन्धित अधिकारी ने नाराजी में देशबन्धु भोपाल के
विज्ञापन बन्द कर दिये थे, जो ललित जी के व्यक्तित्व के कारण ही फिर से शुरू हो
सके थे, किंतु दोनों भाइयों में से किसी को भी मुझ से कोई शिकायत नहीं थी। शायद
इसी कारण उन्होंने सम्पादकीय पृष्ठ को रायपुर में ही अंतिम रूप देने का फैसला किया
हो।
उनसे अनेक मुलाकातें हुयीं लेकिन उस विशाल ह्रदय व्यक्ति के मन में मेरे प्रति
कभी मलाल नहीं दिखा। मैंने पिछले कुछ वर्षों से फेसबुक पर तात्कालिक छोटी
टिप्पणियों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया हुआ है, वे मेरे पेज पर आते रहे और
बड़े भाई की तरह अपनी प्रतिक्रिया देते रहे, जो अच्छा लगता था। एक सुख इस अहसास का
भी होता है कि कोई जानामाना व्यक्ति हमें निकट से जानता है। ललित जी ने यह सुख खूब
बांटा, प्रसाद मुझे भी मिला। वे याद आते रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें