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शुक्रवार, दिसंबर 04, 2020

संस्मरण / श्रद्धांजलि याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन

 

संस्मरण / श्रद्धांजलि

याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन



वीरेन्द्र जैन

अपने विचारों और भावनाओं को शब्द देने और उन्हें प्रकाशित देखने के सपने के साथ मैं बैंक की नौकरी छोड़ कर भोपाल आ गया था। अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखे जाने वाले लेखों के लेखकों में अपने को शामिल कराना मेरा लक्ष्य था। भोपाल में प्रकाशन के तो भरपूर अवसर हैं, किंतु कुछ बड़े अखबारों को छोड़ कर उनमें से ज्यादातर इसके लिए पारश्रमिक नहीं देना चाहते। चूंकि मैंने पेंशन का विकल्प चुने बिना नौकरी छोड़ी थी इसलिए दूसरी इच्छा यह भी रहती थी कि लिखे हुए का पारिश्रमिक भी मिले तो ठीक रहे। यही कारण रहा कि मैंने दैनिक भास्कर पर अपना ध्यान ज्यादा केन्द्रित किया था। उसके व्यंग्य स्तम्भ राग दरबारी से शुरू करके सम्पादकीय, मध्य की लेख, और दूसरे नये नये स्तम्भों में कई वर्ष लिखा। प्रदेश में सरकार के बदलने के साथ साथ व्यावसायिक अखबारों के सम्पादक. लेखक व स्तम्भकार भी बदल जाते हैं । चूंकि मैं एक विचार से जुड़ा हुआ था और उसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकता था इसलिए सम्पादक के बदलते ही मेरे लिए भास्कर के दरवाजे सिकुड़ गये। मैंने भी दूसरे अखबारों की ओर रुख किया। देशबन्धु के स्थानीय सम्पादक पलाश जी भास्कर, लोकजतन आदि में मेरे लेख आदि पढते रहते थे और चाहते थे कि मैं देशबन्धु के लिए भी लिखूं। वे रोटरी क्लब की एक इकाई के सचिव भी थे और उन्होंने एकाधिक बार उनके आयोजन में मेरा व्याख्यान भी रखा था। इस तरह मैं देशबन्धु के लिए भी लिखने लगा।

प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार आ गयी थी और उनके निकट के एक आईएएस अधिकारी को जन सम्पर्क के साथ साथ साहित्य संस्कृति से सम्बन्धित जिम्मेवारियां भी सौंप दी गयी थीं। वे साहित्यिक समझ के एक कुशल अधिकारी हैं और जो जिम्मेवारी मिलती है उसे पदासीन नेता की चाहत के अनुसार पूरा करते रहे हैं। सन 2006 में प्रदेश सरकार ने अपना हिन्दूवादी रूप प्रकट करने के लिए फैसला लिया कि वे एक सांस्कृतिक कलेंडर जारी करेंगे। एक बहुत कलात्मक् शक सम्वत का कलेंडर छपाया गया और उसे जारी करने के लिए भारत भवन में एक शानदार कार्यक्रम रखा गया। कलेंडर का विमोचन करते हुए मुख्य मंत्री ने एक भाषण दिया जिसमें भारतीय काल गणना की भूरे भूरि प्रशंसा करते हुए ग्रेगेरियन कलेंडर को गुलामी का प्रतीक बताया गया। इस आयोजन से सम्बन्धित प्रकाशित समाचार में बताया गया था कि ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे आगे से प्रदेश की सरकार के सारे काम धाम शक सम्वत वाले कलेंडर से ही सम्पादित होंगे।

तत्कालीन घटना पर प्रतिदिन लिखने के लिए उतावले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह एक विषय था, सो मैंने ‘कलेंडर प्रसंग’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इसमें मैंने लिखा कि देशों की सीमाओं से मुक्त अब पूरी दुनिया में एक सर्वस्वीकृत कलेंडर चल रहा है जिसके आधार पर ही सारे कामकाज चल रहे हैं। मुगल काल में भी सरकारी कामकाज हिजरी कलेन्डर से नहीं चला, वह केवल धार्मिक कलेंडर ही रहा। मैंने लिखा कि प्रदेश का बजट दिवाली से दिवाली तक का नहीं बनाया जा सकता। जिस कम्प्यूटर, इन्टरनेट का प्रयोग करके सरकारी कामकाज चलता है, उसके लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्य कलेंडर का ही प्रयोग करना पड़ेगा। मैंने सवाल किया कि इस कलेंडर के आधार पर क्या भाजपा का स्थापना दिवस 25 सितम्बर की जगह देशी तिथि को मनाया जायेगा या अटल जी का जन्म दिवस 25 दिसम्बर की जगह देशी तिथि को आयोजित होगा जो किसी को याद तक नहीं होगी। देशी कलैंडर को हम अपने त्योहार मनाने, शादी ब्याह के महूर्त निकालने में स्तेमाल करते ही हैं और उसका वह महत्व बना रहने वाला है।

अन्य बातों के अलावा इस लेख में एक बात और कही गयी थी कि मुख्यमंत्री को तो जैसा लिख के दे दिया जाता है वे उसे पढ देते हैं और पढने से पहले विचार भी नहीं करते। बस यही बात उनके उक्त अधिकारी को खल गयी। एक दिन पलाश जी का फोन आया कि आप अपने लेख सीधे रायपुर ही भेज दिया करें, अब पूरा सम्पादकीय पेज वहीं से बन कर आयेगा। मैंने इसे सामान्य व्यवस्था समझा और लेख रायपुर भेजने लगा जो यथावत छपते रहे।

बहुत दिनों बाद म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में कोई कार्यक्रम था और मैं आदतन पीछे की कुर्सियों पर जाकर बैठ गया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब मैं चलने लगा तो अचानक पलाशजी सामने आ गये। उन्होंने जाते देखा तो कहा कि आपकी ललित जी से मुलाकात है? मेरे नकार के बाद वे मुझे उनके पास तक ले गये और परिचय कराते हुए बोले ये वीरेन्द्र जैन हैं। पास में कुर्सियां खाली थीं और ललित जी मुझे बैठने के लिए कह सकते थे किंतु उनकी विनम्रता और उदारता यह कि वे खुद उठ कर खड़े हो गये व पहले हाथ मिलाया और फिर बगल की कुर्सी पर बैठा लिया। पलाश जी ने आगे जोड़ा कि ये ही हैं जिनके लेख के कारण अपने विज्ञापन बन्द हो गये थे। ललित जी ने उन्हें रोका और मुझ से कहा कि आपके लेख तो देशबन्धु में छप रहे हैं ना! मैंने सहमति में सिर हिलाया, पर तब तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। इस पहली संक्षिप्त मुलाकात में फिर कुछ और बातें भी होती रहीं जिनमें से ज्यादातर मेरे जीवन से सम्बन्धित निजी बातें थीं।

बाद में पता चला कि सम्बन्धित अधिकारी ने नाराजी में देशबन्धु भोपाल के विज्ञापन बन्द कर दिये थे, जो ललित जी के व्यक्तित्व के कारण ही फिर से शुरू हो सके थे, किंतु दोनों भाइयों में से किसी को भी मुझ से कोई शिकायत नहीं थी। शायद इसी कारण उन्होंने सम्पादकीय पृष्ठ को रायपुर में ही अंतिम रूप देने का फैसला किया हो।

उनसे अनेक मुलाकातें हुयीं लेकिन उस विशाल ह्रदय व्यक्ति के मन में मेरे प्रति कभी मलाल नहीं दिखा। मैंने पिछले कुछ वर्षों से फेसबुक पर तात्कालिक छोटी टिप्पणियों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया हुआ है, वे मेरे पेज पर आते रहे और बड़े भाई की तरह अपनी प्रतिक्रिया देते रहे, जो अच्छा लगता था। एक सुख इस अहसास का भी होता है कि कोई जानामाना व्यक्ति हमें निकट से जानता है। ललित जी ने यह सुख खूब बांटा, प्रसाद मुझे भी मिला। वे याद आते रहेंगे।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629   

 

रविवार, दिसंबर 30, 2018

श्रद्धांजलि ; शिवमोहन लाल श्रीवास्तव वह बाजी जीत कर चला गया


श्रद्धांजलि ; शिवमोहन लाल श्रीवास्तव



वह बाजी जीत कर चला गयाImage may contain: Shiv Mohan Lal Shrivastav, eyeglasses
वीरेन्द्र जैन
जिस बात के अनेक सिरे होते हैं तो समझ नहीं आता कि बात कहाँ से शुरू करूं। आज मेरे सामने भी यही मुश्किल है। मैं कम्प्यूटर और इंटरनैट से 2008 में जुड़ा, और लगातार इस बात का अफसोस रहा कि क्यों कम से कम पाँच साल पीछे रह गया। बहरहाल जब जुड़ा तो मेरे हाथ में कारूं का खजाना लग गया था। यही ऐसा उपकरण था जो मुझे चाहिए था। मेरा कीमती समय इतना इंटरनैट को अर्पित हो गया कि पुस्तकें और पत्रिकाएं पढने की आदत छूट गयी। इसी दौरान नैट पर एक ‘डैथ मीटर’ की साइट मिली। इसमें कुछ कालम भरने पर मृत्यु के वर्ष की घोषणा की जाती थी। इन कालमों में जन्मतिथि, लम्बाई, बजन, बाडी मास इंडेक्स, सिगरेट, शराब, तम्बाखू की आदतें, अब तक हो चुकी व साथ चलने वाली बीमारियां, आपरेशन, जाँच रिपोर्टों के निष्कर्ष, पैतृक रोग, मां बाप की मृत्यु के समय उम्र, आदि पचास से अधिक कालम थे और इस आधार पर मृत्यु के वर्ष की घोषणा की जाती थी। उत्सुकतावश मैंने भी उक्त कालम भरे और निष्कर्ष निकाला। मेरी मृत्यु का वर्ष 2018 निकला। मैं इससे संतुष्ट था क्योंकि अपेक्षाकृत अच्छी आदतों वाले मेरे पिता भी 65 वर्ष ही जिये थे।
शिवमोहन के जीवन और याद करने वाली घटनाओं पर अगर जाऊंगा तो यह टिप्पणी कभी खत्म ही नहीं हो पायेगी पर संक्षिप्त में बता दूं कि शिव के पिता और मेरे पिता न केवल परिचित लोगों में थे अपितु 25000 की आबादी वाले नगर दतिया में एक दौर के सुपरिचित बौद्धिक लोगों में गिने जाते थे। छोटे नगर में वैसे तो सब एक दूसरे को जानते ही हैं, पर मेरा शिवमोहन से निकट का परिचय तब हुआ जबकि मैं बीएससी करने के बाद शौकिया एमए कर रहा था और मेडिकल में प्रवेश से बहुत किनारे से चूकने के बाद पढाई के प्रति बिल्कुल भी गम्भीर नहीं था। हम लोगों का ना तो कोई भविष्य था और ना ही उसके प्रति कोई चिंता ही थी। मुझे पत्रकारिता व साहित्य आकर्षित करता था और एक दबी इच्छा थी कि पत्रिकाओं में लिख कर पहचान बनाऊं और उसके सहारे कवि सम्मेलनों के मंच से जीवन यापन लायक धन कमाऊं। कस्बाई राजनीति समेत नाम रौशन करने वाली हर गतिविधि में शामिल होने की कोशिश करता था, पत्र पत्रिकाएं पढता था और उनके सहारे मंच पर छोटा मोटा भाषण भी दे लेता था। धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकता घर से मिली थी इसलिए जनसंघ को पसन्द नहीं करता था। वाम की ओर झुकाव वाली राजनीति पसन्द थी क्योंकि मैं हिन्दी ब्लिट्ज़ का नियमित पाठक था। चौराहे के होटल हम जैसे युवाओं के स्थायी अड्डे थे जहाँ पर राजनीतिक चर्चा के अलावा रेडियो पर क्रिकेट की कमेंट्री व बिनाका गीतमाला भी सुनी जाती थी। कभी किसी विषय पर कोई बयान दिया तो अखबार वाले ने मेरे नाम के साथ ‘छात्रनेता ने कहा’, लिख कर छापा तो अच्छा लगा। इसी काल में मेरी कुछ छोटी छोटी कविताएं भी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छप चुकी थीं और कवि गोष्ठियों में बुलाया जाने लगा था। शिवमोहन बड़े बड़े सुन्दर व स्पष्ट अक्षरों में लिखते थे और उनका गद्य हर तरह की पत्र पत्रिकाओं में खूब छपता था। मुझे उनसे ईर्षा होती थी। याद नहीं कि किस तरह हम दोनों का ही अहंकार टूटा और हम लोग साथ साथ बैठने लगे।
नगर में एक दो स्थानीय अखबार थे जो साप्ताहिक थे और नियमित भी नहीं थे किंतु दो तीन क्षेत्रीय अखबार आते थे। इनके हाकर ही इनके सम्वाददाता हुआ करते थे जो या तो जनसम्पर्क के प्रैसनोटों को ही सीधे भेज देते थे या किसी दूसरे से खबरें लिखवाते थे। कुछ ऐसा हुआ कि हम लोग उनकी खबरें लिखने लगे। इस काम का मेहनताना इस तरह वसूलते थे कि एकाध खबर अपने नाम की भी डाल कर खुश हो जाते थे। युवा थे इसलिए   मजे के लिए कुछ लड़कियों के शार्ट नाम भी उनमें जोड़ देते थे। खबर बनाने में मरने वाले सेलीब्रिटीज बहुत काम आते थे। इनकी कपोल कल्पित शोकसभा आयोजित होती थी जिसकी खबरों में अध्यक्षता कभी मैं करता था तो कभी शिवमोहन, कभी अवधेश पुरोहित तो कभी अशोक खेमरिया। इस तरह हम लोगों के नाम अखबार में छपा करते थे। नगर के सब महत्वपूर्ण लोग हम लोगों के नाम से परिचित हो चुके थे। इतना ही नहीं हम लोग अपने नाम के आगे कुछ विशेषण भी लगाते रहते थे।
वक्त बीता मैं बैंक की नौकरी पर निकल आया और शिवमोहन स्कूल टीचर होते हुए स्कालरशिप पर रूस चले गये। वहाँ से लौट कर फिर सेंट्रल गवर्नमेंट में राजभाषा अधिकारी होते हुए भिलाई, रावतभाटा [राजस्थान], शिवपुरी, इन्दौर, कलप्पकम [तामिलनाडु] हैदराबाद में डिप्टी डायरेक्टर आफीसियल लेंगवेज के पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके लिखे हुए पत्रों और प्राप्त पत्रों की संख्या लाखों में होगी और उसी तरह हर स्तर के विशिष्ट व सामान्य व्यक्तियों से उनके परिचय का दायरा देश विदेश में फैला हुआ है। लेखक, पत्रकार, सम्पादक, संयोजक, मंच संचालक, विदेशी भाषा के ज्ञाता, सामाजिक कार्यकर्ता, ज्योतिषी, से लेकर सनकी, झगड़ालू, मुँहफट आदि अनेकानेक विशेषण उनके साथ लगते रहे हैं। एक अध्यापिका से प्रेमविवाह किया जो पंजाबी हैं, बड़ी संतान बेटी जो आस्ट्रेलिया पढने गयी तो वहीं की होकर रह गयी, बेटे ने कोई नौकरी नहीं करना चाही तो फ्रीलाँस है। उन्होंने भी यायावरों की तरह मनमर्जी का जीवन जिया तो कभी दतिया, कभी इन्दौर, कभी भोपाल, कभी विशाखापत्तनम, कभी हैदराबाद पड़े रहे। ज्योतिष और तंत्र में भरोसा न होने पर भी उसकी प्रैक्टिस करते रहे और बड़े बड़े लोग उनके क्लाइंट रहे। [बाद में हम लोग उन नासमझों पर हँसते भी रहे] उनके सोते सोते दुनिया छोड़ देने तक पूरा जीवन घटना प्रधान रहा।
अब भूमिका की बात। जब मैंने उनसे कहा कि मेरा डैथ मीटर बोल रहा है कि मैं 2018 में नहीं रहूंगा तो मेरा श्रद्धांजलि लेख तुम्हें लिखना होगा। वे कहते कि मैं उम्र में तुम से बड़ा हूं इसलिए मेरा श्रद्धांजलि लेख तुम्हें ही लिखना होगा। 2018 शुरू होते ही जब फोन पर या चैटिंग से बात होती थी तब वे याद दिलते थे कि अठारह चल रहा है। मैं कहता था कि अभी बीता तो नहीं है, और फिर यह तो एक बिना जाँचा परखा कैलकुलेशन है कोई तुम्हारा ज्योतिष तो नहीं है कि इसमें विद्या की बेइज्जती हो जायेगी।  
शिवमोहन मेरे जीवन का एक हिस्सा थे। सच तो यह है कि वे साहित्यकार नहीं थे अपितु साहित्यिक पत्रकार थे। वे उत्प्रेरक थे। उन्होंने कविता कहानी व्यंग्य आदि में हाथ जरूर आजमाया होगा किंतु उसे मान्यता नहीं मिली। किंतु उन्होंने विभिन्न विषयों पर खूब लेख लिखे, खूब छपे और साहित्य की मुख्यधारा में बने रहे। उनका जीवन लगातार उन संघर्षों में बीता जिन्हें वे खुद आमंत्रित करते थे। गालिब के शब्दों में –
मेरी हिम्मत देखिए, मेरी तबीयत देखिए
जब सुलझ जाती है गुत्थी, फिर से उलझाता हूं मैं
यही उनकी भी प्रकृति थी।
विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए वादा करता हूं कि समय मिलने पर उनके जीवन के बारे में भी जरूर लिखूंगा। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629