गुरुवार, दिसंबर 24, 2015

जैटली प्रसंग के कुछ और आयाम

जैटली प्रसंग के कुछ और आयाम
वीरेन्द्र जैन
भाजपा नेतृत्व अपने वोटरों के एक बड़े वर्ग को नासमझ मानता है और तमाम ऐसी झूठे व अनर्गल वादे करता रहता है जिन पर उसका खुद भी भरोसा नहीं रहता है। वे अपने लक्ष्य को पाने के लिए संसदीय व्यवस्था की ओर बहुत उम्मीद लगाये रहे हैं व किसी भी तरह चुनाव जीतने व सरकार बना कर संस्थाओं पर अधिकार करने के लिए सिद्धांतहीन समझौते करने, गैरजिम्मेवार बयान देने व वादे करने से परहेज नहीं करते रहे। इतना सब करने के बाद भी उन्हें भरोसा नहीं रहता था कि वे अपनी दम पर सरकार बना सकेंगे और उनसे वादों का हिसाब भी मांगा जायेगा। मोदी के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत के साथ 2014 का लोकसभा का चुनाव जीतना उनके लिए बड़ी सुखद दुर्घटना की तरह था और पूर्व में उनके द्वारा विपक्षी दल के रूप में निभायी गयी भूमिका व बयान अब उन्हें परेशानी में डाल रहे हैं। वे अपने विपक्ष से वे ही सारी अपेक्षाएं कर रहे हैं जिन पर उन्होंने कभी आचरण नहीं किया। जिन मुद्दों का उन्होंने हमेशा विरोध किया वे ही अब उन्हें लागू करवाना चाहते हैं। विडम्बना यह है कि कानून बनाने के लिए उनके पास राज्य सभा में बहुमत नहीं है और तमाम तरह की अवैध सुविधाएं देने के वादे पर भी कोई विपक्षी पार्टी राजनीतिक नुकसान की कीमत पर उनसे कोई सौदा नही कर सकती। कुछ विशेष परिस्तिथियों में सफल हुये चुनावी प्रबन्धन को उन्होंने जीत का फार्मूला समझ लिया और दिल्ली व बिहार में धोखा खाया। इससे लोकसभा में उनका बहुमत तो रहा पर उनकी चमक उतर गयी।
अरुण जैटली का प्रकरण ऐसे ही समय में सामने आया है जिसमें विपक्ष के अलावा सत्तापक्ष के कुछ सांसदों की प्रत्यक्ष और कुछ की परोक्ष भूमिका है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि देश में क्रिकेट, हाकी, फुटबाल आदि के मैच मनोरंजन, उत्तेजना, और सट्टे के रूप में जुये के साथ साथ लोकप्रिय हो गये  खिलाड़ियों सहित सीधे प्रसारण के दौरान दिखाये जाने वाले विज्ञापनों के सहारे समुचित धन जुटाते हैं, जिसके व्यय करने का खुला अवसर बोर्ड के अधिकारियों को मिलता है। यही कारण है कि देश में विभिन्न सत्तारूढ दलों के नेता अपने अति व्यस्त समय के बाद भी इन बोर्डों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं, भले ही उन्हें खेलों में कोई रुचि न हो। अनेक टीवी की बहसों में खिलाड़ियों द्वारा इस पर बात की जा चुकी है कि राजनेताओं का इन बोर्डों में सम्मिलित होना अच्छा नहीं है। परोक्ष में अजय माकन द्वारा खेल बोर्डों के गठन के सम्बन्ध में प्रस्तावित बिल को समर्थन न मिलना भी सवाल खड़े कर गया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि खेल बोर्डों के धन का कुशल या अकुशल तरीके से दुरुपयोग होता है। यदि जैटली प्रकरण में भी न्यायिक दाँव उल्टा बैठा तो उनके विपरीत परिणाम आ सकता है और वे मोदी की उम्मीदों के अनुसार बेदाग भी निकल सकते हैं। उल्लेखनीय है कि श्री राम जेठमलानी ने मोदी के बयान के बाद कहा था कि श्री अडवाणी हवाला काण्ड में इसलिए बेदाग बरी हो सके क्योंकि उनकी पैरवी उन्होंने की थी। यह बयान बतलाता है कि न्यायिक निर्णय तो वकालत पर निर्भर होते हैं। उनके कहने का दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि अगर उन्होंने वकालत नहीं की होती तो फैसला विपरीत भी आ सकता था।
इस पूरे प्रकरण में डीडीसीए का भ्रष्टाचार या उसमें जैटली की सम्ब्द्धता इतना महत्व नहीं रखती जितना कि भाजपा के अन्दर चल रही अन्दरूनी गुटबाजी के संकेत महत्व रखते हैं। उल्लेखनीय है कि श्री कीर्ति आज़ाद गत नौ वर्षों से इस सवाल को उठाते रहे हैं, फिर भी राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के दावेदार श्री जैटली उनका टिकिट नहीं कटवा सके थे। श्री आज़ाद ने सुषमा स्वराज ललित मोदी प्रकरण में सार्वजनिक बयान दिया था कि इसमें किसी आस्तीन के साँप की भूमिका है और उस समय भी बात सामने आयी थी कि उनका इशारा श्री जैटली की तरफ था। उल्लेखनीय है कि वे श्री राजनाथ सिंह की मंत्रिमण्डल में नम्बर दो की भूमिका से खुश नहीं थे और राजनाथ के पुत्र के किसी उद्योगपति के साथ सम्भावित सौदे की खबर के पीछे भी उन्हीं की भूमिका अनुमानित की गयी थी। इस प्रकरण में प्रधानमंत्री कार्यालय से सफाई भी दी गयी थी। मार्गदर्शक मण्डल के नाम पर रिटायर कर दिये गये पार्टी के वरिष्ठ नेता भी उनसे खुश नहीं हैं। जब सुश्री उमा भारती ने टीवी चैनलों के सामने अटल बिहारी और अडवाणी जी को खरी खोटी सुनाते हुए कहा था कि एक वरिष्ठ नेता अखबारों में खबरें प्लांट करवाता है तब उनका संकेत अरुण जैटली की तरफ ही था। कहा जाता है कि दुबारा मुख्यमंत्री न बनाये जाने की दशा में उमाजी द्वारा जहर खा लेने की धमकी वाली खबर की सूचना श्री जैटली के माध्यम से ही प्रैस तक पहुँची थी।
      प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी अपने मंत्रिमण्डल में अगर किसी को प्रतियोगी समझ सकते हैं तो वह अब श्री जैटली ही हैं, जो मोदी के चुने जाने तक पीएम पद प्रत्याशी की दौड़ में रहे थे। मोदी द्वारा उनके बेदाग होने की सम्भावना व्यक्त करते समय श्री अडवाणी का उदाहरण देना भी इस सम्भावना को बल देता है कि वे चाहते थे कि श्री जैटली भी अडवाणी की तरह त्यागपत्र देकर न्यायिक लड़ाई जीतें। इसमें उनको निर्दोष मानने के कोई संकेत नहीं हैं अपितु न्यायिक विजय की सम्भावना भर व्यक्त की गयी है, जो उनके अच्छे वकील होने व साधन सम्पन्न होने के कारण सहज सम्भव है। वित्तमंत्री बनने के आश्वासन का संकेत पाकर ही भाजपा में सम्मलित होने वाले सुब्रम्यम स्वामी चाहते हैं कि वित्तमंत्री का पद जल्दी खाली हो यही कारण है कि उन्होंने कीर्ति आज़ाद को निलम्बन नोटिस का जबाब लिखवाने का प्रस्ताव तुरंत दिया। जैटली लम्बे समय से राज्यसभा में इसलिए ही हैं क्योंकि जनता के बीच से न निकलने के कारण वे लोकसभा का चुनाव नहीं जीत सके। राज्यसभा में रहते हुए भी उन्होंने वकालत का अपना काम जारी रखा था और पिछले आठ वर्षों में ही उनकी आय में सौ करोड़ से अधिक की वृद्धि दिखायी गयी है। अरविन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों के खिलाफ लगाये गये मानहानि के मुकदमे को लड़ने का प्रस्ताव राम जेठमलानी ने स्वय़ं दिया है। भाजपा के साथ जो नया युवा वर्ग जुड़ा था वो ऐसा आपसी संघर्ष देख देख कर भ्रमित हो रहा है।  
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यूपीए सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच ऐसे आरोपों से मुक्त नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को मिले समर्थन के कारण ही लोकसभा में भाजपा की बड़ी जीत सम्भव हो सकी थी। उन्होंने देश और विदेश में भी अपने मंत्रिमण्डल के साफसुथरे होने की बार बार शेखी बघारी थी। अब जब कटु भाषा में आरोप पार्टी के अन्दर से ही सामने आ रहे हैं तो मोदी अपनी छवि सुधारने के लिए कितना प्रबन्धन करेंगे और प्रवक्ता ललित गेट से लेकर व्यापम, खनन और चावल घोटाले के साथ कब तक ढीठता दिखा सकेंगे। अगर वे पिछले पन्द्रह साल से जुड़े कीर्ति आज़ाद को काँग्रेस की परम्परा से जोड़ कर गाली देते हैं तो अब तो एक सौ सोलह से ज्यादा लोकसभा सदस्य ऐसे हैं जो दूसरे दलों से आये हैं। जब सत्तारूढ दल में राजनीतिक संकट पैदा होता है तो उसका असर देश पर भी पड़ता है। ऐसी समस्याओं के दूरगामी हल निकालने पर विचार होना चाहिए, ताकि स्पष्ट बहुमत वाली सरकार अपना कार्यकाल तो पूरा कर सके।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

             

बुधवार, दिसंबर 02, 2015

स्वाभिमान शेष भाजपायी कब तक ढोयेंगे अमित शाह को?

स्वाभिमान शेष भाजपायी कब तक ढोयेंगे अमित शाह को?
वीरेन्द्र जैन

       अमित शाह भाजपा के ऐसे अध्यक्ष हैं जिन्हें नरेन्द्र मोदी के अलावा किसी भी दूसरे ऐसे व्यक्ति ने नहीं चुनना चाहा था जो इस पद के चुनाव के लिए अपना मत व्यक्त करने का अधिकार रखता है। उनसे पहले जो कम राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति नितिन गडकरी, वैक्य्या नायडू, बंगारू लक्षमण आदि इस पद पर पहुँचे हैं उनकी कोई नकारात्मक पहचान नहीं रही थी जबकि अमित शाह के खिलाफ न केवल गम्भीर आरोप थे अपितु उन्हें गुजरात हाईकोर्ट ने अपने प्रदेश में प्रवेश से प्रतिबन्धित कर दिया था। उन्हें अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित करने के पीछे केवल नरेन्द्र मोदी द्वारा सरकार और संगठन दोनों पर पूर्ण अधिकार कर लेने की योजना थी और अमितशाह उनके सबसे विश्वसनीय और समर्पित साथियों में से एक थे।
       श्री शाह की प्रतिभा को यह कह कर महिमा मण्डित किया गया कि उनकी योजनाओं और प्रबन्धन के कारण ही 2014 में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजय मिली। जबकि सच यह था कि पूंजीपतियों द्वारा साधनों के खुले प्रवाह से मीडिया का प्रबन्धन, पहली बार संघ का खुल कर समर्थन में आना, और आधुनिक तकनीक का भरपूर व बेहतर स्तेमाल ही अन्दर से कमजोर व बदनाम यूपीए सरकार को हराने में काम आया। इस दौरान भाजपा में शिखर के कुछ नेता मोदी के समर्थन में नहीं थे इसलिए उन्होंने अपने खास लोगों के हाथों में चुनाव का वह काम सौंपना चाहा जिसमें बहुत कुछ गोपनीय होता है और अमित शाह मोदी के लिए सबसे उपयोगी माने गये थे। बाद में इसी भरोसे पर ही श्री नरेन्द्र मोदी ने अध्यक्ष पद उनके नाम पर अपने ही पास रखा। इन परिस्तिथियों में जब शाह से बेहतर और वरिष्ठ सैकड़ों लोग पार्टी में हों और उन्हें छोड़ कर अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया हो तब श्री लाल कृष्ण अडवाणी को इमरजैन्सी जैसे हालात की याद आना स्वाभाविक ही था क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भी उक्त दौर में दोनों पद अपने पास ही रखे थे। ध्यान आकर्षित करने वाली बात यह भी है कि बिहार चुनाव के बीचों बीच देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को यह बयान देने की क्या जरूरत पड़ी थी कि श्री शाह चुनाव के बाद भी पार्टी के अध्यक्ष बने रहेंगे।
       मोदी मंत्रिमण्डल में आपसी तनाव के समाचार प्रैस जगत में रिसते रहते हैं। कहा जाता है कि वित्त मंत्री श्री अरुण जैटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता पद पर रहते हुए खुद को अडवाणी के बाद सबसे उपयुक्त प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी मानते थे और नरेन्द्र मोदी को इस पद का प्रत्याशी स्वीकारने में उन्होंने समुचित समय लिया था। वे कहते रहे थे कि भाजपा में इस पद के योग्य दस से अधिक लोग हैं। जब उन्होंने जीतने की परिस्तिथियां देखते हुए मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था तब उनका बयान था कि भाजपा को हिट विकेट होने से बचने के लिए जल्दी से जल्दी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर देना चाहिए। इसी दौर में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष के रूप में श्री राजनाथ सिंह की अपनी अलग हैसियत थी। लोकसभा चुनाव में राजनाथ सिंह जीत गये थे और जैटली हार गये थे फिर भी पराजित जैटली को वित्त और रक्षा जैसे दो सबसे बड़े विभाग दिये गये थे व प्रधानमंत्री पद की समानांतर प्रतियोगी रही सुषमा स्वराज को बड़े मंत्रालयों में सबसे छोटा मंत्रालय दिया गया था। परम्परा के अनुसार प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नम्बर का मंत्रालय गृह ही माना जाता रहा है जिसे संघ के इशारे पर राजनाथ सिंह को दिया गया था भले ही जैटली को यह फैसला अच्छा नहीं लगा हो क्योंकि वे मंत्रिमण्डल में प्रधान मंत्री के बाद दूसरे नम्बर पर रहना चाहते थे। शायद वे अभी भी मानते हैं कि अपनी सम्बोधन शैली और संवाद क्षमता के कारण जनता के बीच भले ही मोदी सर्वमान्य लोकप्रिय नेता हों किंतु प्रशासनिक क्षमता में वे सबसे आगे हैं। राजनाथ सिंह के पुत्र से सम्बन्धित एक अफवाह फैली थी जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से सफाई भी दी गयी थी पर जब उस सफाई का आधार पूछा गया था तो उस पर कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया था। संघ गृह मंत्रालय में श्री राजनाथ सिंह को ही पसन्द करता है क्योंकि उनके यहाँ समर्पण को सदैव ही क्षमताओं से आगे माना जाता है।
दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनावों की बागडोर भी अमितशाह के हाथों में रही और नरेन्द्र मोदी इकलौते चुनाव प्रचारक रहे। इन दोनों ही चुनावों में अमितशाह ने दो तिहाई सीटों पर जीतने का दावा किया किंतु दोनों ही जगह भाजपा की जो दुर्दशा हुयी उससे उनकी चुनावी प्रबन्धन की इकलौती प्रचारित क्षमता गलत साबित हो चुकी है। दिल्ली चुनाव के बाद उनकी गलत नीतियों के कारण भितरघात के आरोप लगे थे तो बिहार चुनाव के दौरान ही सांसद श्री आर के सिंह ने सार्वजनिक आरोप लगाया कि दो करोड़ रुपये लेकर शातिर अपराधियों को टिकिट बेचे गये हैं इसलिए वे उनके लिए चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। श्री आर के सिंह एक व्यक्ति नहीं अपितु अपने शानदार रिकार्ड के कारण एक संस्था का दर्ज़ा रखते हैं। यह स्मरणीय है कि श्री सिंह आईएएस थे और भाजपा की ओर से लोकसभा प्रत्याशी बनने से पूर्व तक देश के गृह सचिव थे। अगर उन्होंने भाजपा की ओर से आया यह प्रस्ताव स्वीकार न किया होता तो नितिश कुमार का बिहार में विशेष कर्तव्य अधिकारी का प्रस्ताव उनके पास था। वे उस समय बिहार में आरा के कलैक्टर थे जब अपनी रथयात्रा के दौरान श्री अडवाणी को गिरफ्तार किया गया था। बाद में जब श्री अडवाणी गृहमंत्री बने तो उन्होंने अपने मंत्रालय में उन्हें उप सचिव नियुक्त किया था। मुख्य सचिव के रूप में उन्होंने बिहार के रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन के अध्यक्ष के रूप में बिहार में सड़कों का जाल बिछा दिया तो चिदम्बरम ने उन्हें गृह सचिव के रूप में पदस्थ किया। कहने का अर्थ यह है कि अपनी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के कारण वे दलों के ऊपर सबको स्वीकार हैं और उनका कथन कुछ मतलब रखता है। स्थानीय पार्टी सदस्यों के प्रति चुनाव में उपेक्षा भाव रखने की जो शिकायत बिहार में छोटे वाजपेयी के रूप में जाने जाने वाले भोला सिंह ने बाद में की उसे सांसद शत्रुघ्न सिन्हा पहले ही व्यक्त करते रहे हैं और कीर्ति आज़ाद उससे भी बहुत पहले बोल कर चुप हो गये थे। यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेता तो बहुत पहले ही कह चुके थे कि अब पार्टी के पचहत्तर पार नेताओं को ब्रेन डैड समझा जा रहा है।
अमित शाह भाजपा में अध्यक्ष जैसे सर्वोच्च पद के लिए मोदी के अलावा न किसी की पसन्द थे न किसी की पसन्द हैं। उन्हें चुनाव प्रबन्धन की जिस कथित प्रतिभा के नाम पर थोपा गया था उसकी कलई उतर चुकी है इसलिए आगामी अध्यक्ष के रूप में उनका समर्थन केवल मोदी के अन्ध चापलूस ही कर सकते हैं। लगातार मिली चुनावी पराजयों और गुजरात के पटेल आन्दोलन के साथ साथ वादों की पूर्ति की दिशा में कोई ठोस काम न दिखने के कारण मोदी की लोकप्रियता में गिरावट आयी है। ऐसी दशा में अमितशाह को अध्यक्ष पद पर और सहन करना भाजपा के सदस्यों के बीच विचारवान और स्वाभिमानी हिस्से को स्वीकार नहीं होगा।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629

            

शुक्रवार, नवंबर 27, 2015

अमर मुलायम फिर से गलबहियां करते हुये

अमर मुलायम फिर से गलबहियां करते हुये
                                                                            वीरेन्द्र जैन

      कभी अपने आप को मुलायम सिंह का हनुमान और कभी टेलर बताने वाले अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद धमकी दी थी कि अगर उन्होंने मुँह खोल दिया तो सपा नेता जेल में होंगे। बहरहाल उनका मुँह नहीं खुल सका था व राजनीति में उन्होंने काँग्रेस अध्यक्ष के दरवाजे पर ढोक देने और जयप्रदा से दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करके देख लिया था पर अंत में मुलायम सिंह की शरण में आना पड़ा।
      जहाँ तक मुलायम सिंह से उनकी पुरानी मित्रता का सवाल है तो उसे वे तिलांजलि दे चुके थे। वे एक दूसरे के पूरक रहे हैं। ठाकुर अमर सिंह के राजनीतिक उत्थान और उसके सहारे हुये उनके आर्थिक उत्थान में यादव जाति के समर्थन से नेता बने मुलायम सिंह यादव का समुचित योग दान रहा था। दूसरी ओर राजनीति में अर्थजगत के महत्व को उन्होंने ही पहलवान मुलायम सिंह को समझाया था। इस दौरान वे दो जिस्म एक जान थे। उनके ब्रेकअप प्रमाण तो उनके निम्नांकित बयानों से ही मिलता रहा था जिनका ना तो उन्होंने कभी खण्डन किया और ना ही ये कहा था कि ये प्रैस ने तोड़ मरोड़ कर छाप दिये हैं-  
 -मुम्बई। अमर सिंह ने कहा कि सपा का अर्थ मुलायम सिंह और उनका परिवार है और कुछ नहीं।[अगस्त 2010]
      -इलाहाबाद। समाजवादी पार्टी के पूर्व महा सचिव अमर सिंह ने रविवार को सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव पर अब तक का सबसे करारा हमला बोला है। अमर ने कहा है कि उनके जीने से ज्यादा जरूरी है मुलायम सिंह यादव का मरना। मुलायम सिंह ने मुसलमानों को हमेशा धोखा दिया है। [10 अगस्त 2010]
      -रायबरेली। सोनिया के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में दंगल प्रतियोगिता के उद्घाटन में शामिल होने आये समाजवादी पार्टी के निष्कासित नेता अमर सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गान्धी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जम कर तारीफ की साथ ही सोनिया गान्धी को अच्छे व्यक्तित्व वाली दुनिया की सबसे बेहतर नेता भी बताया। [1 सितम्बर 2010]
लखनउ। अमर सिंह ने यहाँ आयोजित देश के मौजूदा हालात और मुसलमान विषय पर आयोजित कार्यक्रम में कहा कि चौदह साल तक जिनकी जबान को कुरान की आयत और गीता का श्लोक समझा उन्हीं ने हमें रुसवा किया। मुलायम सिंह ने ही कल्याण सिंह को सपा में शामिल किया। व्यक्तिगत रूप से में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह से बेहतर व्यक्ति मानता हूं क्योंकि वे साफ बात करते हैं और अपने कार्यों को स्वीकार करते हैं। कभी हमारे बगलगीर रहे मुलायम वर्ष 2003 में जनादेश की वजह से नहीं बल्कि मेरी कलाकारी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रह सके थे। राज बब्बर को समाजवादी पार्टी में लाने और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ विष्णु हरि डाल्मियाँ के बेटे संजय डाल्मियाँ को पार्टी का कोषाध्यक्ष और सांसद बनाने वाले मुलायम सिंह ही हैं। [19 अक्टूबर 2010]
      नई दिल्ली। मुलायम सिंह मेरे घर पर कब्जा किये हुये हैं और खाली नहीं कर रहे हैं। महारानी बाग का यह घर मैंने ही मुलायम सिंह को दिया था जिसका किरायानामा राम गोपाल के नाम से बना हुआ है जो मुलायम सिंह के निकट के रिश्तेदार हैं [नवम्बर 2010]
      कभी सोनिया गान्धी को प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए विदेशी मूल का मुद्दा उछालने वाले अमर सिंह उस समय प्रति दिन मुलायम सिंह को कोसते रहते हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब वे मुलायम सिंह और उनके रिश्तेदारों, भाई भतीजों के खिलाफ असंसदीय भाषा में कुछ न कुछ नहीं कहते रहे हों। अपने एक बयान में उन्होंने कहा था आजम खान यह समझ लें कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो मुलायम सिंह यादव मुश्किल में पड़ जायेंगे, उनको जेल जाना पड़ सकता है, जो आजम खान मुझे दलाल कह रहे हैं, पहले वे जरा यह बताएं कि मैंने उन्हें क्या क्या दिया है। मुझे सप्लायर कहने वाले समाजवादी पार्टी के अन्य नेता भी आगे आकर बताएं कि मैंने उन्हें या मुलायम सिंह को क्या सप्लाई किया है,
इतना सब कुछ कह लेने के बाद उन्होंने और क्या छुपा लिया, और क्या छुपाना चाहते थे? यह राजनीतिज्ञों की भाषा नहीं अपितु ब्लेकमेलरों की भाषा थी। पता नहीं कि वे सार्वजनिक रूप से अपने पूर्व मित्र जिन मुलायम सिंह यादव के मरने तक की कामना करते थे उन्हें जेल जाने से वे क्यों बचाना चाहते रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी कोई बात कहने पर वे खुद किसी अधिक बड़े मामले में सम्मलित हों और उसी से बचने के लिए वे गोलमाल भाषा में धमकी देते रहे हों।
       जनाधार विहीन नेता हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़े तमाशे की तरह हैं जो जनता को निरी मूर्ख और स्मृतिहीन मानते हैं। ऐसे लोग ही लोकतंत्र को जोड़तोड़ और जनसमर्थन को कारपोरेट घरानों के यहाँ गिरवी रखवाने का काम करते रहते हैं। लायजिनिंग का जो काम नीरा राडिया राजनीति में आये बिना करती रहीं वही काम कुछ लोग राज्यसभा की सदस्यता हथिया कर उससे मिली विशिष्ट स्तिथि का दुरुपयोग करते हुये करते रहे हैं।
            अमर और आज़म दोनों एक साथ नहीं रह सकते। आज़म जनाधार वाले नेता हैं और अमर जोड़तोड़ वाले नेता है। दोनों में से किसी का भी विरोध मुलायम को मँहगा पड़ने वाला है।
वीरेन्द्र जैन      
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो.  9425674629  



रविवार, नवंबर 22, 2015

बिहार में पराजय, मोदी के मुखौटे का रंग उतरना है

बिहार में पराजय, मोदी के मुखौटे का रंग उतरना है
वीरेन्द्र जैन
बिहार विधानसभा के चुनाव अभियान के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कह कर बिहार की जनता को डराया था कि अगर भूल से भी भाजपा बिहार में हार गयी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। उनका यह चुनावी जुमला बताता है कि बिहार में जीत का उनके लिए क्या महत्व था, जिसे प्राप्त करने के लिए वे जनता की देशभक्ति की भावना को भड़काने के लिए भय का एक नकली वातावरण बनाने के लिए तैयार थे। यह तब था जब मोदी-शाह युग्म ने मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण समारोह में पहली बार पाकिस्तान समेत सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया था। वे अभी भी अंतर्र्राष्ट्रीय समारोहों में अपनी समस्याओं को बातचीत के आधार पर सुलझाने के नेहरूयुग के जुमले दुहराते रहते हैं। यह बात अलग है कि नेहरू की इस नीति की सबसे अधिक आलोचना जनसंघ ही करती रही थी। भाजपा का यही दुहरापन उनकी हर बात में रहता है। उन्होंने भाजपा को देश और राष्ट्रभक्ति का पर्याय प्रचारित करना चाहा है, जबकि उनके कर्मों के परिणाम सर्वाधिक देश विरोधी हैं ।
राजनीतिक पंडित कहते हैं और सही ही कहते हैं कि देश पर शासन करने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार को जीतना जरूरी होता है। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता के पीछे इन प्रदेशों में काँग्रेस विरोधी लहर होने व चुनाव को काँग्रेस बनाम भाजपा में बदल देने की नीति काम आ गयी थी। पर काठ की हांडी बार बार नहीं चढती है। वे अभी तक किसी आरोपी काँग्रेसी नेता के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सके हैं।
बिहार चुनाव में उनकी पराजय का कथानक तो बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गया था। बिहार में कुछ मुस्लिम बाहुबलियों के अपराधी माफिया गिरोहों और उसी तरह के हिन्दू बाहुबलियों और माफिया गिरोहों के बीच टकराव तो चलता रहा है किंतु यह टकराव साम्प्रदायिक आधार पर नहीं रहा। इसका एक कारण हिन्दुओं में जातिवादी टकराव का तेज होना भी है। भयंकर आर्थिक असमानता वाले समाज में गरीब वर्ग दोनों ही तरह के अपराधी गिरोहों से प्रभावित व प्रताड़ित रहा है। बिहार में भाजपा की उपस्थिति गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से भिन्न रही है क्योंकि यहाँ उसका प्रसार गैर काँग्रेसवाद वाले समाजवादी धड़े के गले लग कर उसे हड़पते जाने से हुआ है। भारतीय इतिहास में अंग्रेजों की चला चली के समय को छोड़ कर कहीं धार्मिक आधार पर समाज में तनाव की कथाएं नहीं मिलतीं। जबकि पहले धार्मिक़ आधार पर हिन्दुओं और बौद्धों के बीच बहुत हिंसक संघर्ष हुये जिनमें लाखों लोग मर गये। देश में राजनीतिक लाभ उठाने के लिए साम्प्रदायिकता पैदा की जाती है क्योंकि वह स्वभाव में विद्यमान नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में दूसरे प्रत्याशियों से अधिक मत प्राप्त कर लेने वाले को शासन का अधिकार मिल जाता है इसलिए साम्प्रदायिकता का चुनावी लाभ हमेशा बहुसंख्यक वर्ग को मिलता है। यही कारण है कि बहुसंख्यक वर्ग इसे पैदा करने के लिए झूठ फैलाते हैं, गलत इतिहास गढवाते हैं, व नफरत के संस्थान चलाते हैं।
बिहार में भाजपा को संविद सरकारों के दौरान प्रवेश का मौका मिला और उसने अपनी कूटनीति व खेलकूद के नाम पर बनाये गये संगठन के सहारे दूसरे दलों को हड़पने का दुष्चक्र चला कर अपना विस्तार तो किया किंतु वे कभी भी स्वतंत्र रूप से अपनी सरकार नहीं बना सके। पिछली लोकसभा के चुनाव परिणाम देख कर उन्हें लगने लगा था कि शायद पहली बार यह सम्भव हो जाये।
मोदी पार्टी की पराजय में एक कारण तो यह था कि उक्त चुनाव न तो काँग्रेस के खिलाफ था न ही लालू प्रसाद के खिलाफ था अपितु यह नितीश कुमार के समक्ष लड़ा गया था, जिनके ऊपर कोई गम्भीर आरोप नहीं थे और छवि खराब करने वाला अस्त्र नहीं चल पाया। दूसरे भाजपा स्वयं भी उन्हीं के साथ लम्बे समय तक सहयोगी रही थी। नितीश की छवि स्वच्छ, व कर्मठ प्रशासक की रही जिन्होंने लोकसभा में पार्टी की पराजय की जिम्मेवारी लेते हुए स्वैच्छिक त्यागपत्र दे दिया था और एक महादलित को मुख्यमंत्री बना कर सत्ता मोह के ऊपर सिद्धांतवादिता की मिसाल पेश की। इसके विपरीत किसी भी कीमत पर पद से जुड़ने के लिए लालायित भाजपा ने बागी मांझी को समर्थन देने का फैसला किया जो उल्टा पड़ा। दूसरी ओर वे जिस आधार पर मांझी का समर्थन कर रहे थे उसी आधार के विरुद्ध उनका मूल सवर्ण वोट बैंक है। इसी के समानांतर भाजपा जैसी सवर्ण समर्थन वाली पार्टी के साथ गलबहियां करके माँझी ने अपने दलित नेता होने का नैतिक अधिकार ही खो दिया था, व आंकड़ागत नासमझी का ही परिचय दिया था। टीवी चैनलों पर उनके साक्षात्कार उनसे सहानिभूति को घटा ही रहे थे। भाजपा ने न तो उन्हें उचित सीटें ही दी थीं और न ही मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा ही की थी। यही कारण रहा को उनको दी गयी सीटों पर पराजय देखने को मिली। अब उनका कोई राजनीतिक भविष्य शेष नहीं रह गया है।
माँझी, पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा, अपने पदों के कारण अपने उम्मीदवारों के लिए तो कुछ हद तक जातिवादी वोट ले सके किंतु उन वोटों को अपने गठबन्धन की दूसरी पार्टियों को ट्रांसफर कराने में समर्थ नहीं हो सके। जिस आधार पर जातिवादी दलों का गठन होता है उसके कारण वे उन मतों को सवर्ण समर्थन वाले दलों तक ट्रांसफर कराने में वैसे भी सफल नहीं हो सकते हैं, जब तक कि किसी जातिभाई को मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी न घोषित कर के चुनाव न लड़ा जा रहा हो। मायावती इसीलिए बिना किसी समझौते के चुनाव लड़ती हैं। इतने अधिक दलित व पिछड़े दलों के साथ चुनावी समझौते के लिए मजबूर होकर भाजपा का सवर्ण अपराधबोध खुद भी प्रकट हो रहा था। दूसरी ओर सवर्ण समर्थन कभी भी किसी दलित या पिछड़े को मुख्यमंत्री बनते नहीं देख सकता। यही विसंगति रही कि भजपा को इकतरफा समर्थन ही मिला। चुनावों के दौरान ही भाजपा को नरेन्द्र मोदी की जाति का उल्लेख करना पड़ा। किसी राष्ट्रीय पार्टी द्वारा अपने प्रधानमंत्री की जाति का खुले आम किये गये उल्लेख का यह दुर्लभ उदाहरण है, और पद की गरिमा के प्रतिकूल है।
ओवैसी द्वारा पहले सभी चुनाव क्षेत्रों में प्रत्याशी लड़ाने की घोषिणा की गयी थी जिससे यह संकेत गया था कि वे भाजपा के पक्ष में सौदेबाजी कर के यह सब कर रहे हैं। उनके इस फैसले का भाजपा के क्षेत्रों में जिस तरह से स्वागत हुआ उससे मुस्लिम वोट शंकित हो गया । अचानक ओवैसी ने प्लान बदलते हुए कुल छह स्थानों से उम्मीदवार उतारे जिससे मुस्लिम मत एकजुट हो कर महागठबन्धन के पक्ष में गये।
मोदी की ताबड़तोड़ सभायें व स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिये बिना बाहरी लोगों के सहारे पूरा चुनाव अभियान चलाने से उनके डिगे हुये हौसले के संकेत गये। कीर्त आज़ाद, शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, राम जेठमलानी, गोबिन्दाचार्य, अरुण शौरी, के बयानों से संकेत गया कि लोकसभा में संख्या बल के अलावा भाजपा में सब कुछ सामान्य नहीं है। भगवाभेषधारी हिन्दुत्ववादी नेताओं के कुटिल और उत्तेजक बयानों से कभी तो लगा कि यह योजनाबद्ध है, और कभी लगा कि ये सब नियंत्रण से बाहर हैं व आगे भी यही सब चलने वाला है।
दादरी की हिंसा और उसमें भाजपा के लोगों की सम्बद्धता के आरोपों के बाद उनके किये गये बचावों के साथ साथ चुनाव में गाय का स्तेमाल इस आरोप की पुष्टि कर गया कि ये चुनाव जीतने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हो सकते हैं। श्री आर के सिंह ने तो खुले आम कहा कि इन्होंने दो करोड़ रुपये लेकर कई अपराधियों को टिकिट बेचा। इसके विपरीत जिसे जंगलराज बताया जा रहा था उसमें कई चरण के चुनावों के दौरान न कोई बूथ कैप्चरिंग हुयी न कोई हिंसा व दबाव डालने की घटना सामने आयी। इसके उलट कुछ उन लोगों को वोट डालने का अवसर मिला जिनको पिछले साठ सालों में वोट नहीं डालने दिया गया था। राम जेठमलानी जैसे वरिष्ठतम वकील ने कहा कि मोदी ने देश को धोखा दिया है और मैं बिहार में उनके विरुद्ध काम करूंगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने तो भाजपा में रहते हुए भी विरोधियों जैसी भूमिका निभायी और प्रचार का अवसर न देने का आरोप भी लगाते रहे। चुनाव के बाद वरिष्ठ सांसद भोला सिंह ने तो स्थानीय नेतृत्व को प्रचार अभियान से दूर रखने को गम्भीरता से लेते हुए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव बताया। आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी के कारण मँहगाई, कालेधन के बारे में किये गये वादे को पूरा न करना और चुनावी जुमला बताना प्रमाण बन गया कि इनके चुनावी वादों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जल्दबाजी में भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना और उसे पास न करा पाना, राज्यसभा में अवरोध का हल न निकाल पाना, आदि से मोदी की पिछली गढी हुयी छवि खंडित हो चुकी है, और काँग्रेस से उपजी निराशा में जो काम आ गयी थी उसका मुलम्मा उतर चुका है। सारी नकारात्मकता मोदी-शाह के खिलाफ ही गयी।
भाजपा के पास कुल आठ-नौ प्रतिशत स्थायी मत हैं और इनमें वृद्धि के लिए हर चुनाव में नये नये झूठ गढने पड़ते हैं, नये हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। उनका लक्ष्य मुख्य रूप से कम राजनीतिक चेतना वाला वर्ग रहता है जिसे वे किराये के मीडिया के सहारे झूठ फैला कर साधते हैं। किंतु सूचना माध्यमों की विविधता के कारण सच की किरणें कहीं न कहीं से फूट ही पड़ती हैं। जब ये पार्टी के अन्दर से निकलती हैं तो अधिक रोशनी करती हैं।
बिहार की पराजय केवल एक विधानसभा चुनाव की पराजय नहीं है अपितु उनकी गाड़ी के उस इंजन का ही खराब हो जाना है, जो उन्हें इतनी दूर लाकर बीच रास्ते में अटक गया है और ड्राइवर ने शेष सारे साधनों को नष्ट करवा दिया था।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]

मोबाइल 9425674629 

बुधवार, नवंबर 04, 2015

भाजपा में निरंतर कमजोर होता आंतरिक लोकतंत्र


भाजपा में निरंतर कमजोर होता आंतरिक लोकतंत्र
वीरेन्द्र जैन     
            स्वतंत्रता के बाद बनी पहली सरकार में स्वतंत्रता के नायकों का नेतृत्व स्वाभाविक होता है। एक शांतिपूर्वक चले अहिंसक आन्दोलन द्वारा हमारे देश को मिली आज़ादी के बाद स्थापित लोकतंत्र में पहले आम चुनावों के समय लोकतांत्रिक चेतना अपनी शैशव अवस्था में थी और आज़ादी के लिए लड़े नेता ही पहली पसन्द हो सकते थे, इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सेक्युलर मूल्यों वाले श्री जवाहरलाल नेहरू देश के प्रिय नेता बने थे और आजीवन चुनौती विहीन प्रधानमंत्री पद पर रहे। चुनाव का अवसर उनके निधन के बाद आया जब श्री मोरारजी देसाई ने पहले लाल बहादुर शास्त्री और बाद में इन्दिरा गाँधी को चुने जाते समय अपनी दावेदारी भी आगे की थी। श्रीमती गाँधी के चुनाव के समय तो मतदान तक हुआ। उस समय तक काँग्रेस में लोकतंत्र था बाद में श्रीमती गाँधी को लगा कि काँग्रेस और देश अभी लोकतंत्र के लिए परिपक्व नहीं हुये हैं इसलिए उन्होंने पार्टी और देश दोनों को ही लोकप्रिय एकल शासन [ओटोक्रेसी] पर लगे लोकतंत्र के मुखौटे में बदल दिया। बाद में यही भारतीय राजनीति का मानक बन गया| इसमें बदलाव के विचार को रोकने के लिए इमरजैंसी का सहारा लेना पड़ा। 1977 में लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने के प्रयास हुये किंतु वे दो साल में ही असफल हो गये व श्रीमती गाँधी को पुनः सत्ता सौंपी गयी जिससे उनकी बनायी व्यवस्था को और बल मिला। बाद में भी संवैधानिक लोकतंत्र लाने के प्रयोग 1989, 1995, व 1996 में हुए पर विभिन्न कारणों से असफल होते गये। धीरे धीरे सभी पार्टियों में लोकतंत्र सिमिटता गया और एक नेता केन्द्रित व्यवस्था उभरती गयी। आज कम्युनिष्ट पार्टियों को छोड़ कर सभी पर्टियां व्यक्ति केन्द्रित पार्टियां हो गयी हैं। डीएमके [करुणानिधि] एआईडीएमके[जयललिता] बीजू जनता दल [नवीन पटनायक] तेलगुदेशम [चन्द्र बाबू नाइडू]  एआईएमएम [ओवैसी] टीसीआर[ आर सी राव] तृणमूल काँग्रेस[ममता बनर्ज्री] शिव सेना[उद्धव ठाकरे] एमएनएस [राज ठाकरे] राजद [लालू प्रसाद] जेडी-यू [नितीश कुमार] लोकदल [चौटाला] समाजवादी पार्टी [मुलायम सिंह] बहुजन समाज पार्टी[ मायावती] एनसीपी[शरद पवार] आमआदमी पार्टी [केजरीवाल], अकाली दल [बादल] नैशनल काँफ्रेंस[ फारुख अब्दुल्ला] आदि। इन सभी दलों में वंशवाद है या आगे उसका उभरना स्वाभाविक है।
           संघ के नियंत्रण में चलने वाली भाजपा ने पहले काँग्रेस की नकल करते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रीमती गाँधी की तरह स्थापित किया और छह वर्ष तक सरकार चलायी पर व्यवस्था वही रही। 2004 में सत्ताच्युत होने के बाद वे सोनिया गाँधी की काँग्रेस की तरह होते गये व 2014 आते आते पार्टी में लोकतंत्र को पूरी तरह समाप्त करके पार्टी नरेन्द्र मोदी के नाम कर दी। नैतिक मानदण्डों पर खरे न उतरने के बाद भी उनके चुनावी प्रबन्धन ने उन्हें सत्तारूढ कर दिया व एक भिन्न नाम से पार्टी अध्यक्ष पद पर भी उन्होंने अधिकार जमा लिया। इस समय अध्यक्ष पद पर बैठे श्री अमित शाह मोदी की इच्छाओं का पालन करने वाली मशीन से अधिक नहीं हैं। वरिष्ठ नेताओं को इस तरह से एक ओर धकेला गया कि यशवंत सिन्हा को कहना पड़ा कि 75 पार के नेताओं को ब्रेन डैड मान लिया गया है।
           कभी भाजपा अपने आप को एक भिन्न तरह की पार्टी बतलाती थी, भले ही वह संघ के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली से अधिक कुछ न हो। नरेन्द्र मोदी ने भी भले ही संघ के आदेशों/आदर्शों के अनुसार ही गुजरात में सब कुछ किया हो किंतु 2013 आते आते वे संघ से अपनी मर्जी के अनुसार आदेश निकलवाने लगे। उल्लेखनीय है कि 2002 में गुजरात में जो कुछ भी हुआ उस पर गुजरात सरकार की भूमिका के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। उस नरसंहार पर अटल बिहारी वाजपेयी ने तो प्रधानमंत्री पद की लाज रखते हुए राजधर्म का पालन करने जैसे गोलमोल बयान दिये किंतु संघ ने कभी आलोचना नहीं की अपितु हमेशा मोदी सरकार के कारनामों का बचाव किया। बाद में वाजपेयी सरकार के मंत्रियों समेत घूस लेते कैमरे के सामने पकड़े गये पार्टी अध्यक्ष के बारे में संघ ने कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की। अभी भी सरकार को अपने दरबार में हाजिरी लगवाने वाले संघ ने मोदी सरकार की प्रशंसा तो की किंतु मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ आदि की सरकारों द्वारा लगभग पुष्ट भ्रष्टाचार के प्रकरणों पर बोलने की जरूरत नहीं समझी। यह वृत्ति प्रकट करती है कि वे नई भाजपा के सलाहकार नहीं अपितु चौकीदार हैं, भागीदार हैं। आज भाजपा का मूल आधार सरकार से लाभ लेने वाले या भविष्य में लेने की उम्मीद रखने वाले ठेकेदार, सप्लायरनुमा लोग है। न वहाँ पार्टी के केन्द्र में विचार है, न विचारधारा, न विचारवान लोग। यही कारण है कि मोदी की भजनमंडली द्वारा जो पंक्ति उठायी जाती है उसे ही सब दुहराने लगते हैं। कभी कभी सम्पन्नता के कारण निर्भय हो चुके लोगों द्वारा कोई बात उठायी जाती है तो उसकी हालत वैसी ही हो जाती है जैसी कि भीड़ में नारा उठाने वाले की तब हो जाती है जब उसके नारे का कोई उत्तर नहीं आता। राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, गोबिन्दाचार्य भले ही देश में महत्वपूर्ण हों किंतु उनकी आवाज में आवाज मिलाने की हिम्मत नई भाजपा के किसी व्यक्ति में नहीं है। अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांताकुमार, आदि भूल चुके हैं कि पार्टी में कभी उनका अनुशरण करने वाले लोग भी हजारों की संख्या में थे। मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने पर जब अडवाणी और सुषमा स्वराज बिना भाषण दिये मुम्बई अधिवेशन से लौट आयीं, या जब अडवाणीजी ने त्यागपत्र की पेशकश की तब भले ही पार्टी के लोग हतप्रभ रह गये हों किंतु उनका साथ देने का साहस किसी ने नहीं दिखाया। पूरी पार्टी चढते सूरज को सलाम करने वालों की पार्टी हो चुकी है। चुनावी प्रबन्धक अमित शाह को गरिमापूर्ण अध्यक्ष पद पर बैठाने की इच्छा रखने वाला, नरेन्द्र मोदी के अलावा न तब कोई और था न अब कोई और है। यही कारण रहा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव हार जाने पर भी किसी ने चूँ तक नहीं की। जो पार्टी चुनावी प्रबन्धन पर शेष सारे वांछनीय गुणों को तिलांजलि देने को तैयार हो चुकी हो और चापलूसों, चाटुकारों, ठेकेदारों, सप्लायरों सत्तासुख लोलुपों की भीड़ में बदल चुकी हो वहाँ असहमति की आवाज़ नहीं सुनी जा सकती। भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी हैं इसलिए अडवाणी जी का अनुमान गलत नहीं है कि सरकार पर आने वाले किसी भी संकट से सुरक्षा का उपाय इमरजैंसी जैसी कोई व्यवस्था ही कर सकती है। साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों ने ध्यानाकर्षण के लिए सम्मान वापिसी का जो तरीका अपनाया है उसके विरोध में अरुण जैटली जैसे लोगों द्वारा उनके व्यक्तित्वों पर कुतर्कों से किया गया कुत्सित हमला, हताशा के संकेत देती है। देश केवल व्यापार के मामले में ही ग्लोबल नहीं होते अपितु उनकी कार्यप्रणाली का मूल्यांकन भी ग्लोबल मापदण्डों पर होता है, व उसका दूरगामी प्रभाव भी होता है। मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड दुनिया की निगाह में ठीक नहीं चल रहा। सुधार की शुरुआत उन्हें अन्दर से ही करना पड़ेगी।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629

                  

बुधवार, अक्तूबर 07, 2015

अडवाणी जी के नाम खुला खत

 अडवाणी जी के नाम खुला खत
वीरेन्द्र जैन

मान्यवर,
अभिवादन, और उम्मीद कि आप सदा की तरह स्वस्थ होंगे।
पत्र प्रारम्भ करने से पहले एक लतीफा।
एक अध्यापक ने कक्षा में आकर छात्रों से कहा कि एक सवाल का उत्तर बताओ। ‘ दिल्ली से मुम्बई की ओर एक जहाज पाँच सौ किलोमीटर प्रति घंटा की गति से उड़ता है तो मेरी उम्र क्या है?’ यह सवाल सुन कर सारे छात्र हक्के बक्के रह गये किंतु पीछे बैठने वाले कक्षा के सबसे शैतान छात्र ने हाथ खड़ा कर दिया। वह इकलौता था इसलिए  अध्यापक ने उसे उत्तर बताने की अनुमति दी। उसने उत्तर में कहा कि ‘सर आपकी उम्र चालीस साल है’। उत्तर सुन कर अध्यापक गदगद हो गये और उसकी पीठ ठोकते हुए बोले, शाबाश, तुम इस कक्षा के सबसे समझदार लड़के हो, अब तुम इन मूर्खों को बताओ कि तुमने कैसे हिसाब लगाया और सही उत्तर तक पहुँचे।
छात्र गम्भीरतापूर्वक बोला- सर, मेरा एक भाई है, जो आधा पागल है और उसकी उम्र बीस साल है।
यह लतीफा आप पर लागू नहीं होता क्योंकि आप भारतीय राजनीति के सबसे वरिष्ठ, समझदार और चतुर राजनेता हो किंतु अगर किसी अन्य व्यक्ति ने वह बयान दिया होता जो आपने आगरा में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह के दौरान दिया, जिसमें आपने कहा कि ‘दादरी कांड पर यदि मैं कुछ बोलूंगा तो अटलजी नाराज हो जायेंगे’ तो उस पर यह अवश्य लागू हो जाता।  
देश के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी उम्र और स्वास्थ की उस अवस्था में हैं जब व्यक्ति नाराज होना भूल जाता है, यह बात आप अच्छी तरह से जानते हैं। ऐसी दशा में आप जैसे वरिष्ठ और सुलझे हुए व्यक्ति का उपरोक्त बयान हमें उस दशा में छोड़ देता है जो दशा हिन्दी के सामान्य पाठक की किसी बहु-पुरस्कृत कवि की नईकविता पढने के बाद होती है, जिसमें वह मानता तो है कि कविता उसे समझ में नहीं आयी किंतु वह दोष कवि की रचना प्रक्रिया को देने की जगह खुद की नासमझी को ही देता है।
आदरणीय, आप चाहते तो ‘नो कमेंट’ कह कर भी काम चला सकते थे, किंतु आपने वैसा नहीं किया। आप चाहते तो दादरी के हत्यारों को बेकसूर बता सकते थे, महेश शर्मा की तरह इसे दुर्घटना बता सकते थे व सत्तरह साल की लड़की को हाथ न लगाने के महान त्याग का बखान कर सकते थे, पर आपने वैसा भी नहीं किया। दूसरी ओर आपने खानपान के नाम पर मुसलमान परिवार को हमले का लक्ष्य बनाने की भावना की निन्दा भी नहीं की, उसमें कोई राजनीति भी नहीं देखी। आपने कहा कि ‘सरकार काम कर रही है। लेकिन आगे और बहुत कुछ करना होगा’। इस वाक्य में भी समर्थन और विरोध दोनों ही निहित हैं। परिणाम भी ऐसा ही निकला है जिसमें समर्थकों ने समर्थन तलाश लिया और विरोधियों ने विरोध के संकेत पा लिये। पहले भी आपके बयान इतने बहुअर्थी हुआ करते थे कि आपको बयान बदलने या उसे तोड़ मोड़ कर पेश करने वाला बताने की अधिक जरूरत नहीं पड़ी।
पिछले दिनों वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा था कि वर्तमान सरकार ने अपने पचहत्तर पार नेताओं को ब्रेन डैड मान लिया है। उनका आशय था कि अनुभवी स्वस्थ नेताओं का उनके कद के अनुरूप कोई सदुपयोग नहीं किया जा रहा है। जाहिर है कि इनमें वे स्वयं अपनी और विशेष रूप से आप, शांता कुमार और मुरली मनोहर जोशी की ओर इंगित करते महसूस हो रहे थे। उनके इस स्पष्ट बयान के बाद भी पार्टी में कोई हलचल नहीं हुयी। इस जैसे अन्य कई बयान भी सूखी रेत में गिरे पनी की तरह सोख लिये गये। सवाल यह है कि क्या भाजपा अब जीवंत लोगों का समूह है या केवल मृतक समान लोगों की भीड़ भर होकर रह गयी है। आप पार्टी के सबसे वरिष्ठ, सबसे अनुभवी, सबसे चतुर, राजनेता थे जो कई बार राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे, पार्टी निर्माण की सबसे प्रमुख योजनाओं के वास्तुकार रहे, संवैधानिक पदों पर रहे तथा उपप्रधानमंत्री के रूप में काम करते हुए परोक्ष में प्रधानमंत्री रहे। पार्टी में आपके प्रशंसक भी समुचित रहे। फिर ऐसा क्या हो गया था कि जब मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में मनोनीत करने के खिलाफ आपने त्यागपत्र दिया तो आपके साथ बहुत  सारे लोग खड़े नहीं हुये जबकि शांता कुमार और शिवराज सिंह चौहान जैसे बहुत सारे लोग मोदी को उस पद पर नहीं देखना चाहते थे। कहने का अर्थ यह है कि पार्टी जिस लोकतांत्रिक स्वरूप का दावा करती थी वह कहीं नजर नहीं आया। तय था कि प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी का चुनाव अगर लोकतांत्रिक तरीके से हुआ होता तो आपका पलड़ा भारी रहा होता भले ही चुनाव परिणाम कुछ भिन्न आते। संजय जोशी को बाहर करने के मामले में भी कहीं लोकतंत्र नजर नहीं आया। सच्चा लोकतंत्र तब ही होता है जब फैसला बहुमत का माना जाये किंतु उस फैसले की आशंका से अल्पमत खुद ही अपनी आवाज दबा देने को मजबूर न हो। चिंता की बात तो यह है कि भाजपा में आवाज उठना ही बन्द हो गयी है। इमरजैंसी के दौरान इन्दिरा गाँधी की चापलूसी करने इन्दिरा को इंडिया बतलाने या संजय गाँधी के जूते उठाने वालों की सबसे कटु निन्दा भाजपा के नेता ही करते रहे हैं। काश आपने मध्य प्रदेश के वर्तमान पार्टी अध्यक्ष द्वारा मोदी और शिवराज को भगवान व देवता बताये जाने वाले भाषण सुने हों। जब राम जेठमलानी, शांता कुमार, आर के सिंह, या शत्रुघ्न सिन्हा कोई अलग बात कहते हैं तो सबके मुँह में दही जम जाता है। उन बयानों पर कोई तर्क वितर्क नहीं होता। अमित शाह जैसे व्यक्ति को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में बिना चूं चपड़ के सह लिया जाता है। आखिर ऐसा क्या डर है कि आप जैसा वरिष्ठ नेता भी अपनी बात को घुमा फिरा कर कहे जिसका कोई स्पष्ट सन्देश नहीं जा रहा हो। क्या जीवन की लम्बाई इतनी कीमती है कि आदमी अपनी जुबान कटा कर और हाथ पैर बँधवा कर भी बना रहे। मुँह से गों गों की ऐसी आवाज निकाले जो किसी की समझ में ही नहीं आये। आप जैसे अनुभवी व्यक्ति को संकेत मिल रहे होंगे कि असंतोष कितना है किंतु वह अन्दर ही अन्दर खलबला रहा है। जार्ज आरवेल के ऎनिमल फार्म  सोल्झेनित्सिन के वार्ड नम्बर नौ या ‘1984’  से भी बुरे हाल हैं।
आदरणीय, इस आवाज को बाहर निकलने के लिए कुछ कीजिए बरना यह अन्दर ही अन्दर जहर बन जायेगी और यह जहर कब, कहाँ, कैसे फूटेगा यह कहा नहीं जा सकता।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629

      

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2015

यह एक ‘अखलाक’ की नहीं अखलाक की हत्या है

यह एक ‘अखलाक’ की नहीं अखलाक की हत्या है
वीरेन्द्र जैन

            आम आदमी तो कभी भी कहीं भी मर सकता है, वह सड़क पर दुर्घटना में मर सकता है, भूकम्प में मर सकता है, वह मस्ज़िद में क्रेन गिरने से मर सकता है, मन्दिर में जल्दी दर्शन की भगदड़ में मर सकता है, केदारनाथ के तूफान में मर सकता है, किसी रथयात्रा या कुम्भ के शाही स्नान में कुचला जा सकता है। वह कांवड़ियों के रूप में ट्रक के नीचे आ सकता है, असली नकली आतंकियों के विस्फोटों का शिकार हो सकता है, वह ट्रेन दुर्घटना में मर सकता है या किसी फैक्ट्री में लगी आग या निर्माणाधीन इमारत के गिर जाने से मर सकता है| अगर आप आम आदमी हैं, तो आपकी मौत देश और समाज की अपूरणीय क्षति नहीं होती। वह चर्चा और सूचना माध्यमों की खबर भी नहीं बनती। उस आदमी की मौत तब ही चर्चा का विषय बनती है जब वह असमय और अस्वाभाविक हो। ऐसा इसलिए होता है कि मृत्यु को थोड़ी दूर मानने वाले समाज के दूसरे लोगों की कल्पना में उनकी अपनी मौत नाचने लगती है।
      नोएडा जिले के बसोहड़ा गाँव में अखलाख की हत्या देश की अपूर्णीय क्षति के रूप में नहीं देखी जायेगी, क्योंकि वह एक मामूली लोहार था। पर उसकी हत्या जिस समय, जिस तरह से,  जिन कारणों से, की गयी वह देश देश को ऐसी क्षति पहुँचा सकती है जिसकी पूर्ति होने पर भी निशान सदा बना रहता है। 
      पुराने लोग कहते थे कि झगड़े के मुख्य रूप से तीन कारण होते हैं, ज़र [धन], ज़ोरू और ज़मीन। ग्राम बसोहड़ा में घटी उपरोक्त तरह की घटनाओं में प्राथमिक रूप से तीनों कारण ही नज़र नहीं आते। यही कारण है कि ये अधिक चिंता का विषय हो जाता है। दुश्मन या बीमारी का पता हो तो उसे रोकने का प्रयास किया जा सकता है, सावधानी रखी जा सकती है, किंतु जब बीमारी और दुश्मन अमूर्त हो तो खतरा कभी भी हो सकता है। खेद का विषय है कि हम खतरों के प्रति लगातार लापरवाह बने हुए हैं। असमय मौतों की कथाएं मुआवजे के साथ ही समाप्त मान ली जाती हैं। न तो उनके कारणों की गहराई में जाया जाता है, और न ही ऐसे उपाय तलाशे जाते हैं ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। 
      अखलाक की हत्या की सच्ची या झूठी जिम्मेवारी किसी ने नहीं ली। पुलिस द्वारा गिरफ्तार प्रत्येक व्यक्ति हमेशा की तरह खुद को निर्दोष व घटनास्थल से अनुपस्थित बतला रहा है जो इस बात का संकेत है कि या तो यह हत्या किसी विचार से जुड़ी नहीं है या हत्यारे खुद भी उस विचार को सामने रखने का साहस नहीं रखते और किसी टुच्चे अपराधी की तरह अपना सीमित स्वार्थ हल करना चाहते थे। अपराधियों से मृतक का न तो कोई सम्पत्ति का विवाद था, न लेन देन का। उन्होंने न तो चोरी की और न ही बलात्कार के इरादे से आये थे। जब ये कुछ नहीं था तो इस घटना के पीछे जिन कारणों के संकेत मिलते हैं वो वही सबसे बड़ा खतरा हैं। सूचना माध्यमों के विस्तार, उनके डिजिटिलीकरण ने सन्देशों को क्षणों में विश्वव्यापी कर देने की क्षमता प्राप्त कर ली है। सूचना की इस शक्ति को अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग निशि-दिन हाथ में लिए घूमते हैं। यही कारण है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से लाभान्वित होने वाले लोग चुनावों के दौरान एक दूर की जगह साम्प्रदायिकता फैला कर दूसरी जगह लाभ उठाने का प्रयास करने लगे हैं। 
      खतरा यह है कि वे अपराधी देश की राजनीति की मुख्यधारा में आ गये हैं जो जर जोरू जमीन के लिए सत्त्ता पर अधिकार करना चाहते हैं, व किये हुए अधिकार को बढाना और बनाये रखना चाहते हैं। किंतु यही लोग देश के मिजाज को समझते हुए अपने मूल स्वरूप में सामने नहीं आना चाहते इसलिए मुखौटा ओढ कर अपने दोहरे चरित्र से वे अपने ही लोगों को धोखा दे रहे हैं और उन्हें साम्प्रदायिकता की आग में झौंक कर उस रास्ते पर धकेलने के लिए षड़यंत्र रचते रहते हैं जिस रास्ते पर देश के लोग चलना नहीं चाहते।
 जिस मुहल्ले में अखलाक रह्ता था वह हिन्दू बहुल मुहल्ला है और उस मुहल्ले में सबके बीच में बसे मुसलमानों के केवल दो घर थे। उनके वर्षों से वहाँ रहने पर न तो किसी को कोई परेशानी थी और न ही जमीन का कोई विवाद था। ईदुज्जहा के दिन मुसलमानों के यहाँ कुर्बानी की जो परम्परा है उसमें किसी भी पशु की कुर्बानी दी जा सकती है, इसलिए यह समझ में आने वाली बात नहीं है कि घने बसे हिन्दू बहुल मुहल्ले में रहने वाले मृतक के परिवार ने अपने घर में गाय की कुर्बानी दी होगी। यदि ऐसा होता तो कई दिन पहले से घर में गाय आ गयी होती या बाद में उसकी खाल, सींग, आदि बरामद हुआ होता। यदि यह काम घर से बाहर किया गया होता तो भी एक बड़े पशु का मांस उस छोटे से परिवार के उपयोग से बहुत अधिक होता, इसलिए इस तरह के काम में अन्य परिवार भी सम्मलित होने चाहिए थे। अगर ऐसा था तो हमला अखलाक पर ही क्यों हुआ। बसोहड़ा एक छोटे सा कस्बेनुमा गाँव है इस में भी इस कहानी को फैलाने के लिए व्हाट’स एप्प या लाउडस्पीकर जैसे पहचान छुपाने वाले माध्यमों का स्तेमाल यह बताता है कि अपराधी दूसरों को उत्तेजित कर अपनी पहचान छुपाये भी रखना चाहते थे।
      बिहार में चुनाव चल रहे हैं व उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले हैं। गत लोकसभा चुनाव में इसी तरह मुज़फ्फरनगर में फैलायी गयी हिंसा का लाभ लेकर उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति की स्थिति बदली जा चुकी है। बिहार चुनाव में बहुत सारे राजनेताओं का भविष्य दाँव पर लगा है। यही कारण है कि पड़ोसी राज्य झारखण्ड में मस्ज़िद के आगे कटा हुआ सुअर फेंका जा चुका है क्योंकि वहाँ पक्ष का शासन है। दिल्ली के चारों ओर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का जो विस्तार हुआ है तथा स्मार्ट सिटी के जो तरह तरह के शगूफे हवा में हैं उससे नगरों के चारों ओर ज़मीनों की लूट शुरू हो गयी है। बहुत सम्भव है कि किसी दूरगामी योजना के अंतर्गत अखलाक को उस मुहल्ले से उजाड़ कर उस गाँव के सारे मुसलमानों को एक तरफ करने के लिए यह योजना बनायी गयी हो। गौ हत्या के झूठे आरोप या लव ज़ेहाद व बहू-बेटी बचाओ जैसे नारे सामान्य लोगों को भी जल्दी से उत्तेजित करने के लिए काफी होते हैं। स्मरणीय है कि अप्रैल 2013 में भाजपा की राष्ट्रीय नेता उमा भारती ने मुज़फ्फरनगर में एक समारोह के दौरान कहा था कि अगर पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बन गयी तो कागज पर बनी गाय के काटने पर भी प्रतिबन्ध लगा देंगे। गम्भीर बात यह भी है कि मंडल के समय में उभरे दलों को मुलायम ने अकेला छोड़ दिया है और मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। अमर सिंह मुलायम और भाजपा दोनों के नेताओं से मिलते रहते हैं व आज़म खान भी चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे समय में ओवैसी की अति सक्रियता क्या गुल खिलायेगी? काँग्रेस सिपाहियों के बिना जरनलों की फौज़ है और मायवती के समर्थक दलितों के केवल वोटर बना कर छोड़ दिया गया है। वामपंथी अपने कोने जरूर सम्हाले हैं, पर मध्य में वे बयानों से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे।  
काश इस कठिन समय में भाजपा में सम्मलित हो गये पूर्व सैनिकों और पुलिस अधिकारियों में से कुछ लोग आर के सिंह की तरह सामने आकर शत्रुघ्न सिन्हा की तरह मुखर हो सकें। देश तभी बचेगा।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629