बुधवार, नवंबर 04, 2015

भाजपा में निरंतर कमजोर होता आंतरिक लोकतंत्र


भाजपा में निरंतर कमजोर होता आंतरिक लोकतंत्र
वीरेन्द्र जैन     
            स्वतंत्रता के बाद बनी पहली सरकार में स्वतंत्रता के नायकों का नेतृत्व स्वाभाविक होता है। एक शांतिपूर्वक चले अहिंसक आन्दोलन द्वारा हमारे देश को मिली आज़ादी के बाद स्थापित लोकतंत्र में पहले आम चुनावों के समय लोकतांत्रिक चेतना अपनी शैशव अवस्था में थी और आज़ादी के लिए लड़े नेता ही पहली पसन्द हो सकते थे, इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सेक्युलर मूल्यों वाले श्री जवाहरलाल नेहरू देश के प्रिय नेता बने थे और आजीवन चुनौती विहीन प्रधानमंत्री पद पर रहे। चुनाव का अवसर उनके निधन के बाद आया जब श्री मोरारजी देसाई ने पहले लाल बहादुर शास्त्री और बाद में इन्दिरा गाँधी को चुने जाते समय अपनी दावेदारी भी आगे की थी। श्रीमती गाँधी के चुनाव के समय तो मतदान तक हुआ। उस समय तक काँग्रेस में लोकतंत्र था बाद में श्रीमती गाँधी को लगा कि काँग्रेस और देश अभी लोकतंत्र के लिए परिपक्व नहीं हुये हैं इसलिए उन्होंने पार्टी और देश दोनों को ही लोकप्रिय एकल शासन [ओटोक्रेसी] पर लगे लोकतंत्र के मुखौटे में बदल दिया। बाद में यही भारतीय राजनीति का मानक बन गया| इसमें बदलाव के विचार को रोकने के लिए इमरजैंसी का सहारा लेना पड़ा। 1977 में लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने के प्रयास हुये किंतु वे दो साल में ही असफल हो गये व श्रीमती गाँधी को पुनः सत्ता सौंपी गयी जिससे उनकी बनायी व्यवस्था को और बल मिला। बाद में भी संवैधानिक लोकतंत्र लाने के प्रयोग 1989, 1995, व 1996 में हुए पर विभिन्न कारणों से असफल होते गये। धीरे धीरे सभी पार्टियों में लोकतंत्र सिमिटता गया और एक नेता केन्द्रित व्यवस्था उभरती गयी। आज कम्युनिष्ट पार्टियों को छोड़ कर सभी पर्टियां व्यक्ति केन्द्रित पार्टियां हो गयी हैं। डीएमके [करुणानिधि] एआईडीएमके[जयललिता] बीजू जनता दल [नवीन पटनायक] तेलगुदेशम [चन्द्र बाबू नाइडू]  एआईएमएम [ओवैसी] टीसीआर[ आर सी राव] तृणमूल काँग्रेस[ममता बनर्ज्री] शिव सेना[उद्धव ठाकरे] एमएनएस [राज ठाकरे] राजद [लालू प्रसाद] जेडी-यू [नितीश कुमार] लोकदल [चौटाला] समाजवादी पार्टी [मुलायम सिंह] बहुजन समाज पार्टी[ मायावती] एनसीपी[शरद पवार] आमआदमी पार्टी [केजरीवाल], अकाली दल [बादल] नैशनल काँफ्रेंस[ फारुख अब्दुल्ला] आदि। इन सभी दलों में वंशवाद है या आगे उसका उभरना स्वाभाविक है।
           संघ के नियंत्रण में चलने वाली भाजपा ने पहले काँग्रेस की नकल करते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रीमती गाँधी की तरह स्थापित किया और छह वर्ष तक सरकार चलायी पर व्यवस्था वही रही। 2004 में सत्ताच्युत होने के बाद वे सोनिया गाँधी की काँग्रेस की तरह होते गये व 2014 आते आते पार्टी में लोकतंत्र को पूरी तरह समाप्त करके पार्टी नरेन्द्र मोदी के नाम कर दी। नैतिक मानदण्डों पर खरे न उतरने के बाद भी उनके चुनावी प्रबन्धन ने उन्हें सत्तारूढ कर दिया व एक भिन्न नाम से पार्टी अध्यक्ष पद पर भी उन्होंने अधिकार जमा लिया। इस समय अध्यक्ष पद पर बैठे श्री अमित शाह मोदी की इच्छाओं का पालन करने वाली मशीन से अधिक नहीं हैं। वरिष्ठ नेताओं को इस तरह से एक ओर धकेला गया कि यशवंत सिन्हा को कहना पड़ा कि 75 पार के नेताओं को ब्रेन डैड मान लिया गया है।
           कभी भाजपा अपने आप को एक भिन्न तरह की पार्टी बतलाती थी, भले ही वह संघ के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली से अधिक कुछ न हो। नरेन्द्र मोदी ने भी भले ही संघ के आदेशों/आदर्शों के अनुसार ही गुजरात में सब कुछ किया हो किंतु 2013 आते आते वे संघ से अपनी मर्जी के अनुसार आदेश निकलवाने लगे। उल्लेखनीय है कि 2002 में गुजरात में जो कुछ भी हुआ उस पर गुजरात सरकार की भूमिका के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। उस नरसंहार पर अटल बिहारी वाजपेयी ने तो प्रधानमंत्री पद की लाज रखते हुए राजधर्म का पालन करने जैसे गोलमोल बयान दिये किंतु संघ ने कभी आलोचना नहीं की अपितु हमेशा मोदी सरकार के कारनामों का बचाव किया। बाद में वाजपेयी सरकार के मंत्रियों समेत घूस लेते कैमरे के सामने पकड़े गये पार्टी अध्यक्ष के बारे में संघ ने कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की। अभी भी सरकार को अपने दरबार में हाजिरी लगवाने वाले संघ ने मोदी सरकार की प्रशंसा तो की किंतु मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ आदि की सरकारों द्वारा लगभग पुष्ट भ्रष्टाचार के प्रकरणों पर बोलने की जरूरत नहीं समझी। यह वृत्ति प्रकट करती है कि वे नई भाजपा के सलाहकार नहीं अपितु चौकीदार हैं, भागीदार हैं। आज भाजपा का मूल आधार सरकार से लाभ लेने वाले या भविष्य में लेने की उम्मीद रखने वाले ठेकेदार, सप्लायरनुमा लोग है। न वहाँ पार्टी के केन्द्र में विचार है, न विचारधारा, न विचारवान लोग। यही कारण है कि मोदी की भजनमंडली द्वारा जो पंक्ति उठायी जाती है उसे ही सब दुहराने लगते हैं। कभी कभी सम्पन्नता के कारण निर्भय हो चुके लोगों द्वारा कोई बात उठायी जाती है तो उसकी हालत वैसी ही हो जाती है जैसी कि भीड़ में नारा उठाने वाले की तब हो जाती है जब उसके नारे का कोई उत्तर नहीं आता। राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, गोबिन्दाचार्य भले ही देश में महत्वपूर्ण हों किंतु उनकी आवाज में आवाज मिलाने की हिम्मत नई भाजपा के किसी व्यक्ति में नहीं है। अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांताकुमार, आदि भूल चुके हैं कि पार्टी में कभी उनका अनुशरण करने वाले लोग भी हजारों की संख्या में थे। मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने पर जब अडवाणी और सुषमा स्वराज बिना भाषण दिये मुम्बई अधिवेशन से लौट आयीं, या जब अडवाणीजी ने त्यागपत्र की पेशकश की तब भले ही पार्टी के लोग हतप्रभ रह गये हों किंतु उनका साथ देने का साहस किसी ने नहीं दिखाया। पूरी पार्टी चढते सूरज को सलाम करने वालों की पार्टी हो चुकी है। चुनावी प्रबन्धक अमित शाह को गरिमापूर्ण अध्यक्ष पद पर बैठाने की इच्छा रखने वाला, नरेन्द्र मोदी के अलावा न तब कोई और था न अब कोई और है। यही कारण रहा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव हार जाने पर भी किसी ने चूँ तक नहीं की। जो पार्टी चुनावी प्रबन्धन पर शेष सारे वांछनीय गुणों को तिलांजलि देने को तैयार हो चुकी हो और चापलूसों, चाटुकारों, ठेकेदारों, सप्लायरों सत्तासुख लोलुपों की भीड़ में बदल चुकी हो वहाँ असहमति की आवाज़ नहीं सुनी जा सकती। भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी हैं इसलिए अडवाणी जी का अनुमान गलत नहीं है कि सरकार पर आने वाले किसी भी संकट से सुरक्षा का उपाय इमरजैंसी जैसी कोई व्यवस्था ही कर सकती है। साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों ने ध्यानाकर्षण के लिए सम्मान वापिसी का जो तरीका अपनाया है उसके विरोध में अरुण जैटली जैसे लोगों द्वारा उनके व्यक्तित्वों पर कुतर्कों से किया गया कुत्सित हमला, हताशा के संकेत देती है। देश केवल व्यापार के मामले में ही ग्लोबल नहीं होते अपितु उनकी कार्यप्रणाली का मूल्यांकन भी ग्लोबल मापदण्डों पर होता है, व उसका दूरगामी प्रभाव भी होता है। मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड दुनिया की निगाह में ठीक नहीं चल रहा। सुधार की शुरुआत उन्हें अन्दर से ही करना पड़ेगी।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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