मंगलवार, दिसंबर 24, 2013

मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्रिमण्डल अयोग्य, मुख्यमंत्री योग्य

मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्रिमण्डल अयोग्य, मुख्यमंत्री योग्य
वीरेन्द्र जैन

एक लोक कथा के अनुसार दूल्हा का एक हाथ टूटा हुआ है, सिर पर बाल नहीं हैं, सुनाई कम देता है, भेंगा है, रंग गहरा काला है पर फिर भी उसे सुन्दर बताया जा रहा है क्योंकि उसका गुणगान करने वाले बहुत वाक्पटु हैं। मध्य प्रदेश की भाजपा की सरकार के तीसरी बार चुने जाने पर ही ऐसा ही गुणगान किया जा रहा है।
      प्रदेश की सरकार को मुख्यमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रि परिषद चलाती है जो लोकतांत्रिक ढंग से अपने फैसले लेती है, जिसे कार्यपालिका लागू करती है। किसी भी सरकार की उपलब्धियां उसके मंत्रिमण्डल के सामूहिक प्रयास का फल माना जाता है और उसी तरह उसके अलोकप्रिय फैसलों के लिए भी पूरी मंत्रिपरिषद जिम्मेवार होती है। किंतु पिछले वर्षों से यह देखा जा रहा है कि प्रदेश की सारी प्रचारित उपलब्धियों का श्रेय मुख्यमंत्री को दिया जाने लगा है जिसके परिणाम स्वरूप जनता के कटु अनुभवों का नुकसान तो सम्बन्धित विभाग के मंत्रियों को उठाना पड़ता है और प्रचार में खर्च किये गये अटूट धन का सारा लाभ मुख्यमंत्री की छवि चमकाने में लग जाता है। गत विधान सभा चुनावों में मंत्रिपरिषद के एक तिहाई वरिष्ठ मंत्रियों की पराजय और नये मंत्रिमण्डल में कुछ पुराने मंत्रियों को स्थान न दिये जाने से जो चित्र उभरता है वह सरकार के पिछले कार्यकाल के बारे में ऐसी कहानी कहता है जो सरकारी प्रचार से भिन्न है।   
1-      प्रदेश के वित्त योजना, आर्थिक और सांख्यकी तथा वाणिज्यिक कर मंत्री श्री राघव जी से एक असामाजिक अपराध के आरोप में त्यागपत्र ले लिया गया था। त्यागपत्र देने के बाद वे गायब हो गये थे और एक मकान से पुलिस ने उन्हें तलाश कर गिरफ्तार किया था। उनके निकटतम कुछ लोग जिन पर कुछ आर्थिक अनियमिताओं के आरोप भी थे, लगातार फरार रहे और चुनावों में अपनी भाजपा सरकार बन जाने के बाद ही आत्म समर्पण किया।
2-      प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा अपना चुनाव क्षेत्र बदलने के बाद भी हार गये। उससे पहले भी वे जमीन से जुड़े एक प्रकरण में मंत्रिमण्डल से हटाये जा चुके थे और लम्बे समय तक मंत्रिमण्डल से बाहर रह कर मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की आलोचना करते रहे थे।
3-      उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास, संस्कृति, जनसम्पर्क, धार्मिक न्यास और धर्मस्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा चुनाव हार गये। उनके चुनाव हार जाने के बाद ही करोड़ों रुपयों का व्यापम घोटाला उजागर हुआ जिसके बारे में पुलिस की खोजबीन से बचने के लिए वे अंतर्ध्यान हो गये। पूर्व मुख्यमंत्री उमाभारती ने सार्वजनिक बयान में कहा कि वे मुख्यमंत्री और संग़ठन के प्रिय व्यक्तियों में से एक हैं, मेरे भाई के समान हैं अतः उन्हें फरार न रह कर उपस्थित हो जाना चाहिए।
4-      राजस्व व पुनर्वास मंत्री करण सिंह वर्मा, चुनाव हार गये।
5-      किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री राम कृष्ण कुसमारिया खुद तो चुनाव हार ही गये उनके  साथ उनके ही विभाग के राज्य मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह भी चुनाव हार गये। स्मरणीय है कि संघ से जुड़े किसान संघ ने चुनावपूर्व वर्ष में हजारों किसानों के ट्रैक्टरों के साथ मुख्यमंत्री बंगला घेर लिया था और लगातार दो दिन तक घेरे रहे थे। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री स्वय़ं को किसान का बेटा बतलाते हैं।
6-      आदिमजाति और अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री हरिशंकर खटीक चुनाव हार गये हैं जो स्रकार के अनुसूचित जाति और जनजातियों के मंत्रालय के काम के बारे में मतदाताओं की प्रतिक्रिया का सूचक है।
7-      पशु पालन, मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विभाग, पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण, नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मंत्री अजय विश्नोई भी मतदाताओं द्वारा नकार दिये गये हैं। स्मरणीय है कि इससे पूर्व भी मंत्रिमण्डल से हटाये गये थे व उनके रिश्तेदारों के यहाँ आयकर विभाग की सर्च हो चुकी है। उनके साथ विभाग के राज्य मंत्री दशरथ सिंह भी पराजित हो गये।  
8-      सामान्य प्रशासन, नर्मदा घाटी विकास, और विमानन के राज्यमंत्री के एल अग्रवाल चुनाव हार गये हैं।
9-      किसान ही नहीं श्रमिकों के कल्याण के श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह को भी मतदाताओं ने हरा दिया है।     
10-   लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह ने तो भविष्य की सम्भावनाएं देखते हुए पहले ही हथियार डाल दिये थे और चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया था।
11-   परिवहन एवं जेल मंत्री रहे जगदीश देवड़ा चुनाव तो जीत गये किंतु लक्ष्मीकांत शर्मा की तरह शिवराज सिंह का दिल नहीं जीत पाये इसलिए उन्हें नये मंत्रिमण्डल में जगह नहीं मिली।
12-   स्कूल शिक्षा मंत्री रही अर्चना चिटनीस भी नये मंत्रिमण्डल में शामिल होने की योग्यता प्रमाणित नहीं कर सकीं।
13-   महिला एवं बाल विकास मंत्री रंजना बघेल भी लाड़ली लक्ष्मी योजना और कन्यादान योजना के व्यापक प्रचार का श्रेय मुख्यमंत्री से नहीं छीन सकीं और नये मंत्रिमण्डल में जगह नहीं बना सकीं।
14-   पर्यटन, खेल और युवा कल्याण मंत्री तुकोजी राव पंवार जिन्हें पिछली बार महिला निर्वाचन अधिकारी के साथ असंयत व्यवहार के बाद भी मंत्री बना दिया गया था पर इस बार मंत्री के योग्य नहीं पाया गया।
15-   गृह परिवहन और जेल के राज्यमंत्री बार बार यह शिकायत करते रहे कि पुलिस के थानेदार तक उनकी नहीं सुनते इसलिए उन्हें मंत्रिमण्डल में न लेकर अपने रिश्तेदारों की सेवाओं के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया।
16-   लोक स्वास्थ और परिवार कल्याण, चिकित्सा शिक्षा, आयुष, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास जैसे मंत्रालयों के राज्य मंत्री महेन्द्र हार्डिया अपने केबिनेट मंत्री नरोत्तम मिश्रा का सहयोग नहीं कर सके इसलिए उन्हें मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं दिया गया।
17-   वन और राजस्व विभाग में राज्यमंत्री रहे जय सिंह मरावी के मूल्यांकन ने उन्हें पुनः मंत्री बनाये जाने के योग्य नहीं पाया।
18-   नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के राज्यमंत्री मनोहर ऊँटवाल जिनके विशेष कर्तव्य अधिकारी के व्यवहार के कारण एक व्यक्ति ने ज़हर खा लिया था मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं पा सके।
19-   स्कूल शिक्षा मंत्री नानाभाऊ मोहोड़ भी अपनी केबिनेट मंत्री की तरह पुनः पद सुशोभित करने से वंचित रखे गये।     
   पूरे प्रदेश में झाड़ूमार जीत का दावा करने वाली पार्टी ने 51 में से 32 जिलों से कोई मंत्री नहीं बनाया है वहीं नये मंत्रिमण्डल के सात मंत्री ऐसे हैं जिन पर लोकायुक्त में प्रकरण लम्बित हैं। कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनावों में अच्छी उपलब्धि दिखाने का चारा डाल कर मंत्रियों के कुछ पद रिक्त रखे गये हैं। देखना होगा कि इस चारे में कितने विधायक फंसते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629


बुधवार, दिसंबर 18, 2013

आन्दोलन, पार्टी और प्रशासन के भेद व ‘आप’ का असमंजस

आन्दोलन, पार्टी और प्रशासन के भेद व ‘आप’ का असमंजस

वीरेन्द्र जैन
       दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने में आया गतिरोध भारतीय लोकतंत्र में नयी घटना है। ये इस बात का संकेत भी है कि अब कुछ ऐसा नया घट रहा है जिसे परम्परागत तरीकों से हल नहीं किया जा सकता। अब तक हमारे राजनीतिक दल किसी तरह चुनाव में वोट हस्तगत करके बहुमत के आधार पर सत्तारूढ हो जाया करते थे और स्पष्ट बहुमत न आने की दशा में भी वांछित संख्या में निर्दलीयों या दूसरे दलों के सदस्यों से समर्थन प्राप्त कर लेते थे। जिन्हें शासन करना नहीं आता था वे भी नौकरशाही के सहारे चार छह महीने खींच कर अपने अपने घर भर लेते थे, पर मौका कोई नहीं छोड़ता था। दलबदल विरोधी कानून आ जाने के बाद भी कई ऐसे छेद थे जिनमें से समर्थन देने वाले आते जाते रहते थे या त्यागपत्र देकर बहुमत की राह आसान कर देते थे। यह पहली बार हुआ है जब त्रिकोणीय मुकाबले में जीत के ऐसे आंकड़े सामने आये हैं कि सैद्धांतिक समझौता किये बिना कोई सरकार बना सकने की स्थिति में नहीं था व समझौते का अर्थ जनता के सामने नग्न हो जाने के बराबर था। आम आदमी पार्टी के सामने मुसीबत यह थी कि उसने सत्तारूढ कांग्रेस को मुख्य प्रतिद्वन्दी बताते हुये चुनाव लड़ा था और उसके प्रमुख नेता ने मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ कर उन्हें हराया भी था, इसलिए वे उनके साथ तुरंत सरकार बना नहीं सकते थे व कांग्रेस से तीन गुना अधिक सीटें जीत कर विजयी होने के कारण सरकार में सम्मलित हुए बिना बाहर से समर्थन देना भी सम्भव नहीं था। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया था किंतु उसने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे और मोदी जैसे नेताओं को आगे करने के कारण अपनी हालत अछूतों जैसी बना ली है जिसे उनके पुराने सहयोगी जेडी[यू] का इकलौता विधायक भी समर्थन देने पर सहमत नहीं हो सकता। यह दुर्लभ घटना है जब भाजपा सबसे बड़े दल होने के बाद भी गठबन्धन सरकार नहीं बना पायी अन्यथा उनके पास तो खरीद फरोख्त की अच्छी क्षमता और अभ्यास दोनों हैं।
       आम आदमी पार्टी का जन्म एक आन्दोलन से हुआ है, या यह कहना ज्यादा सही होगा कि एक आन्दोलन ने जनता के समर्थन को देखते हुए पार्टी बनाने, चुनाव लड़ कर विधान सभा में अपनी बात रख कर आन्दोलन को आगे बढाने का फैसला किया था। उन्हें शायद यह कल्पना भी नहीं थी कि चुनाव परिणाम उन्हें सरकार बनाने की कगार पर ला पटकेंगे। आन्दोलन करने, चुनाव लड़ने वाली पार्टी बनाने और सरकार चलाने वाली पार्टी के चरित्र में बहुत अंतर होता है। आज की बहुजन समाज पार्टी भी किसी समय एक आन्दोलन हुआ करती थी जो दलित और पिछड़ी जातियों के मानव अधिकारों को पाने, दलित समाज को आत्महीनता से उबार कर आत्म सम्मान बढाने के लक्ष्य को लेकर आगे बढी थी। यही कारण था कि उन्हें दलित समाज का व्यापक समर्थन तुरंत मिला था, पर जैसे ही वह चुनावी और सरकार बनाने वाली पार्टी में बदली तो उसका चरित्र ही बदल गया। बहुजन समाज पार्टी एक आन्दोलन से अपने समर्थन का सौदा करने वाली फर्म में बदल गयी और सत्ता के मायाजाल में उन्हीं तत्वों से सौदा करने के लिए विवश हो गयी जिनके खिलाफ उसने आन्दोलन शुरू किया था। एक राजनीतिक दल बनकर सरकार चलाने के बाद उसने उन लोगों के लिए कुछ भी नहीं किया जिनके हित के नाम पर उन्होंने आन्दोलन शुरू किया था। उनकी पार्टी पर भी उनके शत्रु समुदाय का नियंत्रण हो गया। ताजा चुनावों तक उनका समर्थन छीझ चुका है, उनकी सीटों और वोटों दोनों में गिरावट आयी है। उनके अन्ध समर्थक रहे लोग अब इस सोच के साथ अपने मतों का सौदा करने का अधिकार उन्हें नहीं देना चाहते कि अगर मतों का सौदा ही करना है तो वे स्वयं ही यह काम क्यों न करें।    
       आम आदमी पार्टी का नेतृत्व बहुजन समाज पार्टी की तुलना में अधिक शिक्षित और तकनीकी है। उसके पास दूसरों के अनुभवों से सीखने का अवसर है इसलिए अचानक सरकार बनाने का संयोग आ जाने पर खुशी की जगह उसके हाथ पाँव फूल गये। भविष्य के परिणामों की कल्पना करके उन्होंने सरकार बनाने की जल्दी करने की जगह अपने अन्दोलन को तब तक खींचना ठीक समझा जब तक उन्हें पूर्ण बहुमत मिल जाये या संसद में संतोषजनक प्रतिनिधित्व मिल जाये। विडम्बना यह है कि वे यह सच अपने मतदाताओं को नहीं बता सकते इसलिए उन्हें देर करने के लिए तरह तरह के बहाने बनाने पड़े। ये बहाने उनका पहला राजनीतिक पाठ है या कहें कि आन्दोलन से चुनावी पार्टी में बदलने का पहला कदम है। असम गण परिषद के छात्र आन्दोलन के सरकार में बदलने के बाद के अनुभवों द्वारा वे यह भी जानते हैं कि चुनावों की जीत से केवल मंत्रियों के नाम भर बदलते हैं पर व्यवस्था वही रहती है और उन्हें अपेक्षाकृत अधिक जागरूक शिक्षित मध्यमवर्ग का जो समर्थन मिला है वह व्यवस्था बदलने के लिए मिला है। सबसे बड़ा दल होते हुये भी सरकार न बना पाने से कुंठित भाजपा और पराजय से आहत कांग्रेस उन्हें जल्दी से जल्दी असफल होते देखना चाहेगी इसलिए इन दोनों ही दलों के समर्थन पर उन्हें बिल्कुल भी भरोसा नहीं है।
       आन्दोलन से सरकार बनाने का एक अनुभव कम्युनिष्टों का भी है जो कैडर आधारित संगठन होने के कारण कम से कम क्षति के शिकार हुये किंतु सरकार चलाने के बाद उनके आन्दोलन में कोई बढोत्तरी देखने को नहीं मिली। भले ही उन्होंने भ्रष्टाचार को सहन नहीं किया और चिन्हित व्यक्तियों के खिलाफ उचित समय पर कार्यवाहियां करके आरोपियों को बाहर का रास्ता दिखाया किंतु इन कार्यवाहियों का होना इस बात का प्रमाण भी है कि सरकार में आने के बाद उनके आसपास भी ऐसे लोग पैदा हुये जिन्होंने आन्दोलन को कमजोर किया। डीएमके, एआईडीएमके का आन्दोलन भी सरकार से जुड़ने के बाद समाप्त हुआ है। 
       आदर्श स्तिथि यह होगी जब आन्दोलनकारी, चुनावी पार्टी भी सफलतापूर्वक चलाने और अधिक अच्छी सरकार चला कर दिखा सकेंगे। देखना होगा कि ऐसी स्थिति कब तक निर्मित होती है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, दिसंबर 09, 2013

मताभिव्यक्ति और मतदान, सन्दर्भ म.प्र. विधानसभा चुनाव

मताभिव्यक्ति और मतदान, सन्दर्भ म.प्र. विधानसभा चुनाव  
वीरेन्द्र जैन

      लोकतंत्र नागरिक को मत व्यक्त करने की आजादी देता है। यही आज़ादी सरकार चुनने के लिए प्रत्येक नागरिक को आम चुनाव में मत देने का अधिकार देती है। किंतु देखा गया है कि सरकार बना कर सत्ता पर अधिकार करने की वासना पालने वाले तत्व चुनावों को ऎन केन प्रकारेण प्रभावित करने के लिए नागरिकों के स्वतंत्र विचारों को दुष्प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग मतदाता की वैचारिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर उसे एक सौदागर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं और इसी प्रभाव में सरल मतदाता त्वरित ठोस लाभ के लिए अपने मत चन्द रुपयों, कम्बलों, या शराब की बोतलों के बदले बेच कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पथभ्रष्ट कर देते हैं।

      गत दिनों हुये विधानसभा चुनावों में दिल्ली विधानसभा चुनाव के अंतिम दिन भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने अपनी प्रैस कांफ्रेंस में कहा कि उन्हें विश्वास है कि दिल्ली के मतदाता आम आदमी पार्टी को वोट देकर अपना वोट व्यर्थ नहीं करेगा। उनका यह कथन अलोकतांत्रिक है क्योंकि मतदान का अर्थ अपने विचार को आकार देने वाले उम्मीदवार को समर्थन देकर अपने मत की अभिव्यक्ति करना होता है। उम्मीदवार का प्रतिनिधि के रूप में चयन तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार अधिक मत मिलने का सहज परिणाम होता है। यदि कोई किसी खास उम्मीदवार को जीतने वाला बता कर सरल मतदाता को भ्रमित करने की कोशिश करता है तो वह लोकतांत्रिक भावना को भ्रष्ट करता है। ओपीनियन पोल या प्रीपोल सर्वेक्षण, जो कभी कभी ही संयोग से ठीक निकल आते हैं, भी इसी तरह का भ्रम पैदा कर मतदाता को भटकाने का काम करते हैं।

      उपरोक्त विधानसभा चुनावों में यदि हम नमूने के तौर पर मध्य प्रदेश का उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने गत विधानसभा चुनावों में जीती 143 सीटों की तुलना में 22 सीटें अधिक जीतकर यह संख्या 165 तक पहुँचा ली है। दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सीटें पिछले चुनाव में जीती 71 सीटों से घट कर 58 तक पहुँच गयी हैं। इन चुनावों का विश्लेषण करते हुए हमारे विद्वान समीक्षक भी चुनावी जीत को ही आधार बना कर ही कांग्रेस की नीतियों की समीक्षा कर रहे हैं जबकि चुनावों में जहाँ कोई उम्मीदवार तीस हजार वोट पाकर ही चुनाव जीत जाता है जैसे मेहगाँव से भाजपा प्रत्याशी मुकेश सिंह चौधरी तो कोई अस्सी हजार वोट पाकर भी चुनाव हार जाता है, जैसे मल्हारगढ विधानसभा क्षेत्र से काँग्रेस के श्यामलाल जोकचन्द। ये आँकड़े बताते हैं कि बहुदलीय चुनावों में जीत हार से केवल सरकार बनाने का अधिकार मिलता है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश के इन विधानसभा चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को पिछले आम चुनाव से पचास लाख वोट अधिक मिले हैं जो कुल मतदान का 39.3% हैं और 7% अधिक हैं फिर भी उसकी सीटें कम हुयी हैं क्योंकि अधिक मतदान और गैर भाजपा गैर कांग्रेस दलों के मतों में आयी जबरदस्त गिरावट के कारण भाजपा को 48.7% वोट मिले हैं जो पिछले आम चुनावों में मिले मतों से 69 लाख अधिक हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि छह लाख उन्नीस हजार वोट नोटा अर्थात उपरोक्त में से किसी को नहीं को दिये गये हैं जो कुल मतों के लगभग दो प्रतिशत हैं। यह संख्या कम से कम दस विधायकों को औसत विजयी बनाने के बराबर है। चौबीस विधान सभा क्षेत्रों में तो जीत हार का अंतर उन चुनाव क्षेत्रों में नोटा को गये वोटों से भी कम है।

      उल्लेखनीय है कि 2012 में हुये उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ बहुजन समाज पार्टी को गत चुनावों की तुलना में चौंतीस लाख वोट अधिक मिले थे फिर भी वे कम सीटें पाकर सत्ताच्युत हो गये थे। इसी तरह पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में बाम मोर्चा भी नौ लाख वोट अधिक पाकर भी सत्ता से दूर हो गया था।  

      अधिक सीटों की जीत के धूम धड़ाके में यह बात भुला दी जा रही है कि मध्य प्रदेश के दस मंत्री चुनाव में हार गये है ये मंत्री शिवराज मंत्रिमण्डल द्वारा बहु प्रचारित विकास के आंकड़ों के प्रमुख सूत्रधार रहे हैं। इन मंत्रियों में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास, संस्कृति, जनसम्पर्क, धार्मिक न्यास और धर्मस्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा, राजस्व व पुनर्वास मंत्री करण सिंह वर्मा, किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री राम कृष्ण कुसमारिया, और इसी विभाग के राज्यमंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह, आदिमजातिऔर अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री हरि शंकर खटीक, पशु पालन, मछुआ कल्याण एवं मत्सय विभाग, पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण, नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मंत्री अजय विश्नोई, सामान्य प्रशासन, नर्मदा घाटी विकास, और विमानन के राज्यमंत्री के.एल अग्रवाल, श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह, और दशरथ सिंह लोधी चुनाव हार गये हैं। लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह ने चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया था, और वित्त, योजना, आर्थिक विकास, भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास मंत्री राघव जी की कथा तो सब को पता ही है। जीत की संख्याओं के आगे ये मंत्रिपरिषद के सदस्यों की यह पराजय शासन के बारे में कुछ संकेत देती लगती है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन                                                         
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शुक्रवार, दिसंबर 06, 2013

संस्मरण के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे

संस्मरण
के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे
वीरेन्द्र जैन
के.पी.सक्सेना नहीं रहे। उनके स्वास्थ के बारे में चिंतित कर देने वाली खबरें बहुत दिनों से आ रही थीं। प्रमुख रूप से वे पत्र पत्रिकाओं के व्यंग्य लेखक के रूप में जाने जाते रहे पर उन्होंने जब भी लिखने का जो लक्ष्य बनाया उसमें सफलता पायी। पत्रिकाओं में निरंतर सक्रिय लेखन की ललक मुझे उनके लेखन से ही मिली और इस तरह वे मेरे मार्गदर्शक रहे। उनके लेखन की मात्रा, विषय वैविध्य और निरंतरता को देख कर आश्चर्य और ईर्षा होती थी।
      एक छोटे ‘ए’ क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में नौकरी करते हुये देश के कोने कोने में पन्द्रह साल के दौरान मेरे दस ट्रासफर हुये, क्योंकि इस बैंक में अधिकारियों के ट्रांसफर पूरे देश में कहीं भी हो सकते थे। इसी काल में मुझे एक बार हरदोई जिले के बेनीगंज में पदस्थ होना पड़ा जो लखनऊ के निकट था, अतः मेरी शनिवार की शाम और रविवार लखनऊ में ही गुजरता था। उस दौर के लखनऊ के समकालीन लेखकों में के पी का नाम सर्वाधिक चमकीला नाम था। वे अमीनाबाद के पास गुईन रोड पर किराये से रहते थे। लखौरी ईंटों से बना वह बड़े दरवाजे वाला घर था। उनसे पहली मुलाकात करने से पहले मैंने उन्हें जो पत्र लिखा था उसे न मिलना उन्होंने बताया था, पर उसके बाद भी मेरे नाम और लेखन से परिचित होने की जानकारी देकर उन्होंने थोड़ा सुख दिया था जिससे उनके साथ जल्दी सहज हो सका था। बाद में उन्होंने ही मुझे सूर्य कुमार पान्डेय और अनूप श्रीवास्तव आदि से मिलवाया था जिनसे बाद में लम्बा सम्पर्क और मित्रता रही। अभी बाद के दिनों में वे रामनगर में रहने लगे थे जहाँ उनके पड़ोस में नागरजी के पुत्र का मकान था और कभी कभी नागरजी भी वहाँ आते रहते थे। एक बार वे मुझे नागरजी से मिलवाने भी ले गये थे।
      वे उन दिनों लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और देश के प्रमुख राज्य की राजधानी के प्रमुख स्टेशन पर कार्यरत रहते हुए भी विपुल लेखन करते थे। उन दिनों आरक्षण की आज जैसी सुविधा नहीं थी तथा मुझे ट्रेन में स्थान दिलाने की व्यवस्था उन्होंने दर्ज़नों बार की। वे यह बताना भी नहीं भूलते थे कि उनके कार्यालय की जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूं उसी पर परसों कमलापति त्रिपाठी बैठे थे। ऐसी बातें सुन कर गर्व होता था। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि इतना लेखन करने के बाद भी उन्होंने कभी लेखन के लिए नौकरी से छुट्टी नहीं ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, माधुरी आदि उस समय की राष्ट्रव्यापी लोकप्रिय पारिवारिक पत्रिकाएं थीं जिनके होली. दिवाली, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, आदि अवसरों पर निकलने वाले विशेषांक के पी की रचनाओं के बिना पूरे नहीं होते थे। वे लखनऊ के दो प्रमुख दैनिक अखबारों में साप्ताहिक स्तम्भ लिखा करते थे, और देश भर की हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं की माँग को पूरा करते थे। जब दूरदर्शन और इतने सारे प्राईवेट चैनल नहीं थे तब आकाशवाणी के हास्य व्यंग्य के रेडियो नाटक बहुत चाव से सुने जाते थे और के पी उनके प्रमुख लेखकों में से एक थे। बाद में उन्होंने टीवी के लिए भी लिखा। हास्य व्यंग्य के नाटकों के अलावा उन्होंने कुछ गम्भीर नाटक भी लिखे हैं जिनमें से एक पर कभी मेरे अनुजसम मित्र इंजीनियर राजेश श्रीवास्तव ने लघु फिल्म बनानी चाही थी। उनसे अनुमति लेने के लिए हम लोग उनके ग्वालियर प्रवास के दौरान प्रदीप चौबे के निवास पर गये थे पर उन्होंने यह कहते हुए अनुमति देने में असमर्थता व्यक्त की थी क्योंकि उस नाटक पर फिल्मांकन की अनुमति वे पहले ही ओमपुरी को दे चुके थे। उस नाटक के कई भाषाओं में हुए अनुवाद और उसके प्रभाव में घटित घटनाएं भी उन्होंने विस्तार से बतायी थीं जिससे उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुये पहलू ज्ञात हुये थे। शरद जोशी के साथ उन्होंने भी कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य पाठ प्रारम्भ किया था और अपने क्षेत्र में वर्षों सक्रिय रहे।
      बाद में वे फिल्म लेखन से जुड़े और लगान जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म भी लिखी जो अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के साथ आस्कर पुरस्कार तक के लिए नामित हुयी थी। पिछले दिनों में कादम्बिनी के पुराने अंक पलट रहा था तो एक अंक में मुझे केपी सक्सेना का नींबू के गुणों पर लिखा एक लेख मिला। उससे मुझे याद आया कि उन्होंने धर्मयुग में रेलवे गार्डों की चुनौतीपूर्ण कार्यपद्धति से लेकर ‘शरबत का मुहर बन्द गिलास- दशहरी आम’ तक पर मुख्य लेख लिखा था। वे वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर थे।
      लखनऊ के दौरान हुयी मुलाकातों के दौर में एक बार उन्होंने कहा था कि वे ऐसे किसी पत्र पत्रिका के लिए नहीं लिखते जो लेखक को पारिश्रमिक नहीं देती। उनका कहना था कि पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में प्रकाशक को कागज़ वाला मुफ्त में कागज़ नहीं देता, कम्पोज़िंग सैटिंग वाला मुफ्त में काम नहीं करता, मुद्रक अपनी दर से भुगतान लेता है, डाकवाले अपना पूरा शुल्क वसूलते हैं और हाकर अपना कमीशन लेते हैं, तो फिर लेखक ही ऐसा क्यों रहे जो मुफ्त में अपनी रचना दे, और अपना अवमूल्यन कराये। उनके इन विचारों के प्रभाव में मैंने भी कई वर्षों तक ऐसी किसी पत्रिका के लिए नहीं लिखा जिसके परिणाम स्वरूप साहित्यिक [लघु] पत्रिकाओं से कटा रहा।
      एक बार वे अमीनाबाद में एक पत्रिका की दुकान पर अचानक मिल गये और तपाक से बोले कि बहुत दिनों से तुम्हरी कोई रचना नहीं पढी, आजकल कहाँ व्यस्त हो! विडम्बना यह थी कि उस सप्ताह और माह की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित थीं जिन्हें मैंने वहीं दिखा भी दीं। फिर हँसते हुए बोले कि बुरा मत मानना मैं लिखने और नौकरी में इतना व्यस्त रहता हूं कि दूसरों की रचनाएं कम ही पढ पाता हूं, अब ये सारी रचनाएं पढूंगा।
      उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी। बिल्कुल टंकित से छोटे सुन्दर और साफ स्पष्ट अक्षरों से उनका लिखा अलग से पहचाना जा सकता था। अपनी व्यस्तताओं के बाद भी वे पत्रों के उत्तर देने का समय निकाल लेते थे। उनके व्यंग्यों में लखनऊ की तहज़ीब उफनती थी जिनमें मिर्ज़ा नामक एक पात्र तो लखनऊ की मिलीजुली संस्कृति और मुहब्बत से सराबोर नौक झोंक का प्रतीक बन गया था। पुरस्कारों सम्मेलनों ने उनके दायित्व को बढाया और पद्मश्री मिलने के बाद उन्होंने लगान जैसी फिल्म लिखी।
      उनकी रचनाओं के संकलनों के पुस्तकाकार प्रकाशन तो बहुत हुये किंतु उन्होंने जो भी लिखा वह फुतकर ही लिखा। किताब के लिए लिखी गयी उनकी किताबें कम ही होंगीं। वे सरल, सहज, बोधगम्य और रोचक लिखते थे। उनकी रचनाएं एक बार में ही पढी जाने वाली संतुलित आकार की होती थीं। हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी, के बाद व्यंग्य लेखन में जो नाम आते हैं उनमें केपी का नाम प्रमुख नामों में एक है।
      श्री से. रा. यात्री की तरह ही वे अपने नाम के संक्षिप्तीकरण से इतने विख्यात थे कि बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि के.पी का पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था जो किसी किताब या पत्र पत्रिका में कभी नहीं लिखा गया। जब भी उनका समग्र लेखन रचनावली के रूप में प्रकाशित होगा तो वह आकार में अनेक रचनावलियों को पीछे छोड़ देगा।

वीरेन्द्र जैन
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संस्मरण---- राजेन्द्र यादव, लोकतांत्रिक, निर्भय, साहसी और तार्किक थे

संस्मरण
राजेन्द्र यादव, लोकतांत्रिक, निर्भय, साहसी और तार्किक थे

वीरेन्द्र जैन
      राजेन्द्र जी को निकट से जानने और उनके सम्पर्क में आने वालों की संख्या हजारों में तथा उनके प्रशंसकों, निन्दकों की संख्या लाखों में होगी इसलिए उन पर कुछ बहुत अलग से लिख पाने का सुपात्र मैं नहीं हूं, किंतु मैं जिस गहराई से उन्हें पसन्द करता रहा हूं, उसके आधार पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए कुछ लिखने से अपने आप को रोक भी नहीं सकता।
      मैंने जिन तीन लेखकों के सम्पादकीय लेखों को पढ कर अपना मानस गढा है, उनमें प्रेमचन्द, कमलेश्वर, और राजेन्द्र यादव की त्रयी आती है। प्रेमचन्द ने वे सम्पादकीय बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों के घटनाक्रम पर जागरण में लिखे थे तो कलेश्वर ने इमरजैंसी के खिलाफ बनी सरकारों के दौर में विचारहीन गठबन्धन सरकारों की कार्यप्रणाली पर सारिका में तथा बाद में स्तम्भ के रूप में विभिन्न समाचार पत्रों के लिये लिखे थे। राजेन्द्र यादव के सम्पादकीय लेख 1987 से उनके सम्पादन में पुनर्प्रकाशित हंस में प्रकाशित होते रहे हैं और उनकी धार निरंतर तीव्र से तीव्रतर होती गयी थी। कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव के लेखों का में समकालीन पाठक और प्रशंसक रहा हूं।
      मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शे’र कुछ कुछ ऐसा है-
देखिये तकरीर की लज़्ज़त कि उसने जो कहा
सुनने वाला भी ये समझे ये हमारे दिल में है
राजेन्द्रजी को पढते समय मुझे कई बार ऐसा लगता रहा है कि उन्होंने मेरे विचारों को ही शब्द दे दिये हैं। उनके बहुत कम ऐसे लेख मैंने पढे होंगे जो समझ में न आये हों या उनसे असहमति बनी हो। यही कारण रहा है कि लगातार पच्चीस वर्षों तक उनका सम्पादकीय पढने के लिए हर माह हंस के नये अंक का इंतज़ार बना रहा। सच कहने और सुनने का साहस और समझ रखने वाले वे दुर्लभ व्यक्तियों में से थे, जो अपनी बात को उसी तेवर के साथ अपने पाठकों, श्रोताओं को समझा भी सकता हो। उन्हें अपनी विचारधारा की ताकत और अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर इतना भरोसा था कि वे अपने घोर विरोधियों को उकसाते थे, उगलवाते थे, और बिना उत्तेजित हुये उनकी गलत बात को काट सकते थे। उनको पढ और सुन कर लगता था कि जो दूसरे लोग बहस से बचते हैं, उन्हें या तो अपनी विचारधारा पर भरोसा नहीं होता या उन्हें उसको प्रस्तुत करना नहीं आता है। अनेक नामधारी लोगों को उनकी बात की मार से बिलबिलाते देखा जाता रहा है। उनके सम्पादन के दौर में हंस मे सर्वाधिक बहसें चली हैं और उन बहसों में सभी पक्षों को समान अवसर मिलता रहा है। हंस और जनसत्ता ही ऐसे माध्यम रहे हैं जिनमें उनके सम्पादकों के खिलाफ भी कटुतम लिखा गया है और जो छपा भी है। पाठकों, लेखकों के निर्भीक पत्रों के लिए हंस में समुचित स्थान मिलता रहा है और उन पत्रों में भी रचना का आस्वाद व मौलिक विचारों के तेवर देखने को मिलते रहे हैं। लोकतांत्रिकता का जो प्रयोग हंस में होता रहा है उसके लिए बड़ा आत्मविश्वास चाहिये होता है, जो उनके पास था। कथाकार सत्येन कुमार या शैलेश मटियानी की गालियों को भी उनका बचकानापन सिद्ध करते हुये वे उनका मजाक बना सकते थे। जब सत्येन कुमार ने लिखा था कि जनवादी प्रगतिशील रेवड़ को एक गड़रिया हाँक रहा है तो उन्होंने उत्तर में याद दिलाया था कि वे हिन्दी के ऐसे इकलौते लेखक हैं जिनकी चार पीढियां ग्रेजुएट रही हैं और फिर भी उन्हें उनकी जाति याद दिलायी जा रही है। उन्होंने कहा था कि जिन्हें परम्परा से ऊँची जाति का स्वाभिमान मिला है उनकी प्रतिभा तो उधार की है। यही कारण था कि वे ठाकुर सत्येन कुमार को उधारीलाल कहने लगे थे।
      सचमुच यह कैसी बिडम्बना थी कि जब लोग उनकी प्रतिभा से मुकाबला नहीं कर पाते थे तो इस इक्कीसवीं सदी में भी जाति के आधार पर अपने आहत अहं को सांत्वना देते थे।
      जब शैलेश मटियानी ने अपना एक साम्प्रदायिक विचारों वाला लेख उन्हें भेजा और उसे हंस में छापने की चुनौती दी तो राजेन्द्र जी ने उस लेख को छापते हुये केवल एक टिप्पणी लगा दी थी कि इनका इतिहास मुसलमानों के आने के बाद ही शुरू होता है। इस एक टिप्पणी से शैलेश मटियानी का पूरा लेख ही हास्यास्पद हो गया था। जिन धार्मिक असहिष्णुताओं का अतिरंजित वर्णन उन्होंने उस लेख में किया था वैसी तो मुगलकाल के पूर्व के भारतीय इतिहास में भी भरी पड़ी हैं।
      6 दिसम्बर 92 के बाद जब पूरा देश और दुनिया हिन्दू कट्टरवाद को एक स्वर से गरिया रहा था तब राजेन्द्र जी ने जनवरी 93 के अंक में हंस का सम्पादकीय मुस्लिम कट्टरवाद की आलोचना से प्रारम्भ करते हुये लिखा था कि किसी भी मुल्क में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा उनके साम्प्रदायिक संगठन नहीं कर सकते क्योंकि हिंसक संघर्ष में तो बहुसंख्यकों का जीतना ही तय है। उसके लिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक देश में एक धर्मनिरपेक्ष वातावरण को बल दें, और उनका साथ दें। शाहबानो के मामले पर पर बोट क्लब में जुटी पाँच लाख मुसलमानों की भीड़ और ईंट से ईंट बज देने की चेतावनी के प्रभाव में राजीव सरकार द्वारा कानून बदलने को भी उन्होंने 6 दिसम्बर की घटना का बड़ा कारण माना था।
      साहित्य की दुनिया में वे जड़ता नहीं आने देते थे और समय समय पर साहित्य के मठाधीशों को चुनौती देते रहते थे। एक सम्मेलन के अवसर पर उन्होंने बर्र के छत्ते में यह कह कर हाथ डाल दिया था कि ये कालेज के प्रोफेसर केवल आलोचना या कविताएं ही क्यों लिखते हैं, कहानियां क्यों नहीं लिखते क्योंकि कहानियां लिखने में जान लगती है। आलोचना तो लिखे लिखाये को लिखना है। फिर क्या था सारे प्रोफेसर अपनी सफाई देने में निरंतर हास्यास्पद होते गये और राजेन्द्र जी दूर बैठ कर मजे लेते रहे।
      मुझे उन्हें सम्मेलनों, सेमिनारों, भाषण मालाओं, में तो सुनने का मौका मिला ही पर दस पाँच बार छोटे समूहों में भी साथ बैठ कर चर्चाओं में शामिल होने का अवसर भी मिला। एक बार तो शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान माला में मैं उनका मेजबान था और पूरे दिन उनके साथ सीधी लम्बी बातचीत हुयी जो ज़िन्दगी के यादगार अनुभवों में बनी रहेगी। तीन साल तक प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य रहने के अलावा उन्होंने कभी किसी सरकारी तंत्र का हिस्सा बनना पसन्द नहीं किया। प्रसार भारती बोर्ड का उनका कार्यकाल भी बहुत प्रभावकारी रहा और बोर्ड के इतिहास में ढेर सारी उपलब्धियों से भरा और निर्मलतम रहा।
      अनैतिकता और दूसरी नैतिकता के भेद को भी उन्होंने जिस साहस के साथ स्पष्ट किया वैसा साहस उनसे पहले कभी किसी ने नहीं दिखाया। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, हो या ‘कामरेड का कोट’ से लेकर उदय प्रकाश की अनेक कहानियों पर महीने दर महीने चली बहसों ने परत दर परत अंधेरे की चादर को जिस तरह चीर कर संवेदनात्मक ज्ञान की जिस लालिमा के दर्शन कराये हैं, उसके लिए कभी धर्मयुग में पढा एक नवगीत याद आता है-
रामदीन अँधियारे की कुछ परतें फाड़ रहे
खुरपी लेकर मरी भैंस की खाल उतार रहे
राजेन्द्रजी ने यह दलित कर्म पूरे मन और क्षमता से किया और साहित्य के सारे कथित सवर्णों को चुनौती देते हुए किया।
      लेनिन ने कहा था कि ‘अच्छा लीडर ज्यादा अनुयायी नहीं बनाता अपितु अपने जैसे ज्यादा लीडर बनाता है।‘ राजेन्द्र जी ने अपने लोकतांत्रिक आचरणों द्वारा अपने जैसे अनेक प्रतिभावान बुद्धिजीवी, लेखक, सम्पादक, पीछे छोड़े हैं। आज हंस की परम्परा में कई पत्रिकाएं निकल रही हैं। ये लोग राजेन्द्र जी की जगह की कमी को पूरा कर रहे हैं और करेंगे। उनका काम उनके बिना भी आगे बढेगा और वे बिना भरे हुये खाली स्थान की तरह नहीं अपितु पीछे आते कारवाँ के कारण लगातार याद किये जायेंगे। इस मामले में भी वे अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से भिन्न रहेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 30, 2013

फिल्म समीक्षा शाहिद – न्याय के लिए शहीद एक नौजवान राष्ट्रभक्त वकील की सच्ची कहानी

फिल्म समीक्षा
शाहिद – न्याय के लिए शहीद एक नौजवान राष्ट्रभक्त वकील की सच्ची कहानी
वीरेन्द्र जैन

       भोपाल में यह फिल्म केवल माल के मँहगे सिनेमाहालों के कुछ शो तक ही सीमित थी और मैं जब मैंटिनी शो में इसे देखने गया तो फिल्म शुरू होने के समय पूरे सिनेमा हाल में अकेला दर्शक था। बाद में कालेज के छात्र छात्रा के दो जोड़े और आ गये जो सम्भवतयः इस फिल्म को देखने नहीं अपितु कम दर्शकों वाले हाल में साथ बैठने के लिए ही आये थे। यह देश की एक ऎतिहासिक घटना से जुड़ी सच्ची कथा पर आधारित फिल्म है और बिडम्बना यह है कि इस इतनी महत्वपूर्ण घटना पर न तो हमपेशा वकीलों ने सम्वेदनशीलता से ध्यान दिया और न ही हमारी प्रैस और मीडिया ने इसे अपेक्षित स्थान दिया। ऐसी दशा में फिल्म निर्देशक हंशल मेहता ने व्यावसायिक खतरा उठा कर भी इस विषय पर फिल्म बना कर एक बड़ी सामाजिक जिम्मेवारी का काम किया है जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम है।
       एडवोकेट शाहिद आजमी की हत्या की खबर प्रतिदिन कई अखबार पढने वाले मेरे जैसे पाठक ने भी एक पत्रिका में लिखे लेख में पढी थी और जब उसके बारे में अपने अनेक वकील मित्रों से बातचीत की तो उनमें से किसी को भी न तो उस घटना की जानकारी ही थी और न ही उनके किसी संगठन ने शाहिद की हत्या का विरोध करते हुए उसके हत्यारों को पकड़ने के लिए कोई अभियान चलाने की कभी कोई जरूरत ही समझी। बाबरी मस्ज़िद को तोड़े जाने के विरोध में मुम्बई में उत्तेजित मुस्लिमों द्वारा किये गये विरोध के बाद उन पर संगठित हिंसक हमले हुए थे। उन हमलों के प्रत्यक्षदर्शी शाहिद के किशोर मन पर गहरा असर हुआ और वह प्रतिरोध में पाक घुसपैठियों द्वारा संचालित आतंकी प्रशिक्षण शिविर में पहुँच गया था किंतु जब वहाँ भी उसने आतंकियों को वैसा ही जुल्म करते देखा तो वह वहाँ से भाग आता है और लौट कर आने पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। पुलिस के दमन से टूटकर वह उनके द्वारा बताये गये इकबालिया बयान पर दस्तखत कर देता है जिससे उसे सजा हो जाती है। जेल में जहाँ एक ओर कैदियों को आतंकी बनाने वाले कट्टरवादी सक्रिय हैं तो दूसरी ओर व्यवस्था के विरोध का राजनीतिक पाठ पढाने वाले एक्टविस्ट भी सक्रिय हैं। वह कट्टरवादियों के प्रभाव से बच कर एक्टविस्टों के विचारों से प्रभावित होता है जो उसे जेल में न केवल ऎतिहासिक भौतिकवाद ही पढाते ही हैं अपितु वकील बन कर दूसरों को न्याय दिलाने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। उनकी बातों का उस पर गहरा असर होता है और वह जेल से बाहर निकल कर कानून  की पढाई में जुट जाता है। वकील बन कर वह बेसहारा लोगों की मदद के लिए जुटता है जिसके लिए उसे अपने सीनियर से अलग होकर अपना अलग चैम्बर खोलना पड़ता है।
       इस कठोर सच को प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद न्यायमूर्ति काटजू ने भी बताया था कि किसी भी आतंकी घटना की जिम्मेवारी किसी अज्ञात केन्द्र की सूचना द्वारा किसी कथित मुस्लिम संगठन द्वारा ले ली जाती है जिसे मीडिया उचाल देता है। पुलिस उसी के सहारे कुछ मुस्लिमों को गिरफ्तार कर दमन से मनवांछित स्वीकार करा के उन्हें जेल में सड़ाती रहती है। इसके दुष्परिणाम यह होते हैं कि असली अपराधी सुरक्षित रहते हैं और बेकसूर और उनके परिवारीजन प्रताड़ित होकर व्यवस्था पर भरोसा खोते जाते हैं। ऐसे लोग भावावेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले साम्प्रदायिक दलों का ही हित साधने का साधन बनते हैं, व इससे बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता करने वाले दल चुनावी लाभ में रहते हैं। यह शाहिद आज़मी ही था जिसने फीस की चिंता किये बिना ऐसे अनेक निर्दोषों का केस लड़ा और उन्हें ससम्मान मुक्ति दिलायी। इसी कारण से मिली ख्याति के कारण 26/11/08 को हुए मुम्बई हमलों के आरोपियों का केस भी उसके पास आया जिसे उसने इसलिए स्वीकार कर लिया कि उसमें कुछ निर्दोष भारतीय मुसलमानों को आतंकियों का सहयोगी बता कर पुलिस जबरदस्ती फँसा रही थी। शाहिद की पेशागत मेहनत और अकाट्य तर्कों के कारण देश के निर्दोष मुसलमान बाइज्जत बरी हुये व कसाव को फाँसी की सजा मिली। एक वकील के रूप में शाहिद आज़मी न केवल प्रशंसा का ही हकदार था अपितु उसके प्रयासों से देश के अल्पसंख्यकों के मन में न्याय व्यवस्था के प्रति जो भरोसा पैदा हुआ होगा उसका मूल्यांकन भी जरूरी है। किंतु दुर्भाग्य यह है कि उसके इस पवित्र काम के बदले उसे मौत मिली। कुछ अज्ञात लोगों ने देर रात को बुला कर उसे गोली मार दी थी। खेद की बात यह भी रही कि वकीलों के संगठन जो रेल में बिना टिकिट पकड़े गये वकीलों पर की गयी कार्यवाही के खिलाफ रेलवे स्टेशन फूंक देते हैं [जबलपुर 2010] उनमें से किसी ने कभी एक सम्भावनाशील वकील के साथ हुये ऐसे परिणाम के विरोध में कुछ भी नहीं किया और अगर यह फिल्म न बनी होती तो यह घटना तो किसी सामान्य घटना की तरह भुला ही दी गयी होती।
       राष्ट्रभक्ति केवल भारतमाता की जय के नारे या बन्दे मातरम गाने से ही प्रकट नहीं होती है अपितु वे सारे काम जिनसे देश के सारे नागरिकों में देश, संविधान, व संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भरोसा पैदा होता हो, राष्ट्रभक्ति की कोटि में आते हैं। शाहिद ने अपनी जान की परवाह किये बिना न्याय दिलाने का काम किया है जिसके लिए वह एक शहीद के गौरव का सच्चा हकदार था। उसकी जीवन गाथा को फिल्म के माध्यम से सामने लाने के लिए हंसल मेहता ने सही काम किया है। हंशल मेहता को इस बात के लिए भी बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने इस कहानी में बहुत सारे तत्वों को सामने लाने या रेखांकित करने का काम किया है। जिस तरह ‘दिल्ली वैली’ में दिल्ली का, ‘कहानी’ में कोलकाता का, ‘रांझणा’ में बनारस का, ‘शुद्ध देसी रोमांस’ में जयपुर के असली शहर और जीवनशैली का चित्रण है, उसी तरह ‘धोबीघाट’ के बाद ‘शाहिद’ में मुम्बई के घने बसे इलाकों का यथार्थवादी चित्रण है। शाहिद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार के रहन सहन की कठिन स्थितियां जिनमें बच्चों को पढने के लिए देर रात तक बिजली जलाने की भी सुविधा नहीं है। घने बसे होने और एक स्थान पर सीमित हो जाने के कारण सहजता से साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार हो जाना भी प्रदर्शित किया गया है। पुलिस के आम आदमी के साथ व्यवहार और अपराध स्वीकार कराने के लिए किये जाने वाले दमन के दृश्यों के साथ अदालतों द्वारा मुकदमों के लम्बन के कारण निर्दोषों को जेल में रहने की विवशता के दृश्य भी मार्मिक हैं। फिल्म के सारे कलाकारों ने बहुत ही स्वाभाविक अभिनय किया है और कहानी के साथ पूरा न्याय किया है। फिल्म बताती है कि साम्प्रदायिक सोच के लोग ही दुष्प्रचार से प्रभावित हो आरोपियों को अपराधी मान कर उनका मुकदमा लड़ने वाले वकीलों पर हमले नहीं करते, अपितु उनके परिवार के लोग भी घबरा कर उनका साथ छोड़ देते हैं। यह बताता है कि न्याय के पक्ष में लगातार खड़ा होना कितना कठिन होता जा रहा है, और एक साथ कितने स्तरों पर लड़ाइयां लड़ना पड़ती हैं।
       आतंकवाद और कट्टरतावाद से लड़ाई केवल बन्दूक और गोलियों के द्वारा ही नहीं लड़ी जा सकती अपितु उन्हें पैदा करने वाली परिस्थितियों को बदल कर व शीघ्र न्याय से भरोसा दिला कर भी लड़ी जा सकती है। इस सच्ची कथा के नायक की लड़ाई ऐसी ही लड़ाई है जो इसके हत्यारों को सजा दिला कर ही आगे बढाई जा सकती है। ऐसी फिल्मों को न केवल पुरस्कृत व मनोरंजन कर से मुक्त किया जाना चाहिए था अपितु टीवी के लोकप्रिय माध्यमों द्वारा जन जन तक पहुँकाने का काम भी सरकारी स्तर पर किया जाना चाहिए था। 
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अक्तूबर 24, 2013

न सुधरने को कृतसंकल्प रामदेव और कानून के हाथ

न सुधरने को कृतसंकल्प रामदेव और कानून के हाथ  
वीरेन्द्र जैन

      इस बात को अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं जब रामदेव किसी महिला के कपड़े पहिन कर रामलीला मैदान से भागे थे और उसके बाद जब अनशन करने का दावा किया था तब चौथे दिन ही कोमा में चले गये थे या बचे खुचे सम्मान को बनाये रख कर अनशन तोड़ने के लिए वैसा बहाना किया था। उस समय ऐसा लगता था कि उस भूल से उन्होंने सबक लिया होगा और असत्य को आधार बनाने के भाजपायी हथकण्डे से तौबा कर लेंगे, पर उनकी ताज़ा गतिविधियां ऐसा संकेत नहीं देतीं।
      यह मात्र संयोग ही है कि रामदेव ने अपने योग प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त समय पर प्रचार का उपयुक्त माध्यम पाया और उससे अर्जित लोकप्रियता को व्यावसयिकता में बदलवाने वाले सलाहकार भी पाये। भारत की इस प्राचीनतम विद्या के न तो वे अविष्कारक हैं और न ही पहले प्रशिक्षक। देश के विकासक्रम में तेजी से विकसित हुए उच्च मध्यम वर्ग के घर तक पहुँचने के रंगीन टीवी के अनगिनित चैनल जैसे माध्यम जिस काल में फैले उसी दौर में योगसनों की मांग भी सर्वाधिक पैदा हुयी। संयोग से ही रामदेव बाज़ारू उत्पाद के वैसे ही ब्रांड बन गये जो उचित समय पर बाज़ार में आने, और उचित वितरण एजेंसी हाथ लग जाने पर अचानक छा जाता है। जिस तरह अपने समय के लोकप्रिय फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को वस्तुओं के विज्ञापन करने की सलाह उचित समय पर मिली थी और जब उन्होंने संकोच छोड़ कर उसे अपनाया तो उससे अपने व्यावसायिक नुकसान की पूर्ति ही नहीं की अपितु वे इसके शिखर पर पहुँच गये। अमिताभ बच्चन एक सुशिक्षित और संस्कारवान परिवेश में विकसित हुये थे इसलिए उन्होंने कभी अपने बचपन के मित्र राजीव गान्धी के अनुरोध पर उनकी चुनावी सहायता तो की किंतु इस लोकप्रियता को राजनीतिक जगत के शिखर पर पहुँचने का साधन नहीं माना व उचित समय पर अपने मूल काम को अपना लिया। दूसरी ओर रामदेव को संयोगवश हाथ लगी व्यावसायिक सफलता ने भ्रमित कर दिया और वे अपने आप को जन्मजात दिव्य पुरुष समझने लगे। दुर्भाग्य से सिद्धांतहीन, विचारहीन राजनीति के इस दौर में जब ढेर सारी राजनीतिक पार्टियां किसी भी तरह की लोकप्रियता को अपने पक्ष में भुनाने को उतारू बैठी रहती हैं तब इन पार्टियों के आग्रह के प्रभाव में उनकी अमर्यादित महात्वाकांक्षाओं ने उन्हें स्वतंत्र राजनीतिक दल बनाने की ओर तक प्रेरित किया जिससे न केवल उनकी नासमझदारी ही प्रकट हो गयी अपितु वे उन राजनीतिक दलों की आँख की किरकिरी बन गये। भगवा रंग को थोक में भुनाने का एकाधार चाहने वाली भाजपा को उनका यह विचार सबसे अधिक खला था क्योंकि इस तरह वे अंततः उन्हीं के वोटों में सेंध लगाने वाले थे। स्मरणीय है रामदेव उर्फ राम किशन यादव की लोकप्रियता के विकसित होते समय भाजपा ही नहीं मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की यादववादी पार्टियां और कांग्रेस के नारायन दत्त तिवारी और सुबोधकांत सहाय जैसे नेताओं ने भी उनकी मदद की थी, किंतु अलग राजनीतिक दल बनाने के उनके विचार का किसी ने भी समर्थन नहीं किया। अपने अन्दाज़ में आलोचना करते हुए लालू प्रसाद ने तो कहा था कि पेट फुलाने पिचकाने से कोई राजनेता बनने की पात्रता अर्जित नहीं कर लेता।
      भाजपा के नेता, जो उन्हें दवा उद्योग चलाने और सेवादार के नाम से मजदूरों का शोषण कर अनैतिक मुनाफा कमाने में उनकी मदद करते रहे थे, भी उनके आलोचक बन गये थे। उत्तराखण्ड में जिस भाजपा शासन ने उन्हें कौड़ी के मोल कीमती ज़मीनें देकर बदले में चुनाव के लिए समुचित चन्दा भी हस्तगत किया था, अपने सहयोगी हाथ सिकोड़ लिये थे। जब अन्ना हजारे के अनशन के समय वे मंच की ओर बढने जा रहे थे तब अपने आन्दोलन को गैरराजनीतिक मानने वाले अन्ना के समर्थकों ने उन्हें खदेड़ दिया था। सच है कि राजनीतिक दल उनकी लोकप्रियता का लाभ लेना चाहते थे किंतु उन्हें स्वतंत्र रूप से राजनीतिक दल के रूप में मान्यता देने के विचार से सहमत नहीं थे।
      रामदेव किसी विचार या मुद्दे को लेकर राजनीति में नहीं आये थे अपितु राजनीति में प्रवेश करने के लिए उन्होंने मुद्दा आयात किया। वे विदेशों में जमा काले धन के जिस अस्पष्ट  मुद्दे को लेकर सामने आये वह बामपंथी पार्टियों द्वारा बहुत वर्षों से उठाया जाता रहा था व पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जेडी-यू व भाजपा ने भी उस पर काफी जोर दिया था। मुद्रास्फीति के इस दौर में उन्होंने काले धन को नियंत्रित करने के लिए बड़े नोटों को बन्द करने का अव्यवहारिक विचार दिया जो उनकी अनुभवहीनता का नमूना था। रामदेव के गुरु एक दिन अचानक ही गायब हो गये थे किंतु उन्होंने उनके गायब होने की कोई चिंता नहीं की, अपितु उस घटना पर चर्चा से ही परहेज करते रहे। रामदेव की क्षमता केवल योगासनों के प्रशिक्षक तक तो ठीक थी और तब विचार देने का काम उनके सहयोगी राजीव दीक्षित किया करते थे जिनका अचानक ही संदिग्ध स्थितियों में निधन हो गया जिससे रामदेव का संस्थान विकलांगता महसूस करने लगा। भाजपा के चतुर नेताओं ने उन्हें उनकी हैसियत समझा दी और राजनीतिक दल बनाने का विचार छोड़ देने को विवश करते हुए उन्हें अपना प्रचारक बना लिया।
      एक्टविस्ट और कुशल वक्ता राजीव दीक्षित के निधन के बाद रामदेव के मुँह से जो निजी विचार निकले उसने उनकी कलई खोल दी। न उनके पास विचार हैं, न भाषा, और न ही शिष्टता, विनम्रता, करुणा जैसे गुण ही हैं, जो उन्हें राजनेता और संत दोनों के लिए अयोग्य होने को प्रकट करते हैं। उनका हाल पंचतंत्र की कथा में शेर की खाल ओढ लेने वाले पशु की तरह से हो गया जो जब अपने स्वर में बोलने लगा तो उसकी पहचान हो गयी और उसी अनुरूप में उसने दण्ड भुगता।
      रामदेव ने अपनी लोकप्रियता से जो ब्रांडवैल्यू अर्जित की उससे उन्होंने अपने को जिस व्यापार की दुनिया में उतारा उसमें भी सारी व्यापारिक अनियमितताएं अपनायीं जिसमें मिलावट, श्रम कानूनों के उल्लंघन से लेकर कर वंचना तक के हथकण्डे सम्मलित रहे। योगप्रशिक्षक की अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए उन्होंने दूसरी कम्पनियों में निर्मित किराना सामग्री से लेकर टूथब्रुश तक सब कुछ बेचना चाहा। सरकारी संस्थानों को गलत जानकारियां देकर अनुचित लाभ उठाया और योग प्रशिक्षण के नाम पर ज़मीन हस्तगत कर उसे उद्योग व व्यापार के लिए उसका स्तेमाल किया। इस पर भी जब वे भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे किसी राजनीतिक दल के प्रचारक बन कर चुनाव वाले राज्यों में योग के बहाने अभद्र भाषा में नैतिकता का पाठ पढाने की कोशिश करने लगे तो सूप और चलनी वाली कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगी। उनके भाषणों के विषय को देखते हुए चुनाव आयोग को उनकी सभाओं के खर्च को भाजपा के चुनाव खर्च में जोड़ने के आदेश देने पड़े। ऐसा लगता है कि वे अपनी अनियमित्ताओं को राजनीतिक विषय के साथ जोड़ कर कार्यवाही से बचने का वैसा ही बहाना ले रहे हैं जिस तरह से सीबीआई की सम्भावित कार्यवाही से सुरक्षा के लिए मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर दिया है। पर लालूप्रसाद, जगन्नाथ मिश्र, और आशाराम के खिलाफ चली कार्यवाहियों ने उम्मीद बँधायी है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है और वह भले ही देर कर दे पर अपना काम करेगी। बकरी की माँ कब तक खैर मनायेगी!
वीरेन्द्र जैन
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म.प्र. में निर्वाचन आयोग के निर्देशों को नकारती भाजपा

म.प्र. में निर्वाचन आयोग के निर्देशों को नकारती भाजपा
वीरेन्द्र जैन

      किसी भी लोकतंत्र में ईमानदार निर्वाचन के लिए एक स्वतंत्र, सक्षम और समर्थ निर्वाचन आयोग जरूरी होता है जिसकी उपस्थिति ही हमारे देश में लोकतंत्र को बनाये हुये है जबकि हमारे अनेक पड़ोसी देशों में उसकी कमी साफ नजर आती है। खेद की बात है कि येन केन प्रकारेण सत्ता हस्तगत करने को उतावली रहने वाली भाजपा, जिसकी मातृपितृ संस्था पर हिटलर की नीतियों का पूर्ण प्रभाव है और जो उसके निर्देश पर काम करती है, द्वारा निर्वाचन आयोग के नीति निर्देशों को खुली चुनौती दी जा रही है। ऐसी स्थिति में पाँच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा शासित राज्यों में स्वतंत्र चुनाव कठिन दिखायी देने लगे हैं।       
      किसी भी चुनाव में जन समर्थन के आधार पर जीत हार होती है जिसे स्वीकारना ही लोकतांत्रिक होना है, पर इतिहास गवाह है कि भाजपा अपनी हार को लोकतांत्रिक तरीके से स्वीकारने में सदैव ही हिचकती रही है और निर्वाचन से जुड़ी व्यवस्था को ही निशाना बनाती रही है। जब 1971 के लोकसभा चुनावों में श्रीमती इन्दिरा गान्धी द्वारा उठाये गये बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति जैसे कदमों के कारण उनकी पार्टी को व्यापक समर्थन मिला था, तब भाजपा[जनसंघ] के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने रूस से आयात स्याही द्वारा मतपत्रों में पैदा बदलाव के नाम पर उन परिणामों को नकारा था। यह आरोप हमारे निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता पर सीधा हमला था जिसे सिर्फ भाजपा[जनसंघ] ने लगाया था। बाद में उस हास्यास्पद आरोप की विश्वव्यापी निन्दा के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने लीपा पोती करने की कोशिश की थी। पिछले लोकसभा चुनावों में भी अपनी पराजय के वाद उन्होंने ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर सन्देह प्रकट किया था जबकि इन्हीं मशीनों के आधार पर लगभग आठ विधानसभा चुनावों में उनके दल या गठबन्धन को मिले समर्थन पर उन्हें इन से कोई शिकायत नहीं रही। 2002 में सरकारी संरक्षण में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार हुआ था व उससे जनित ध्रुवीकरण के चलते सचाई सामने आने से पहले नरेन्द्र मोदी शीघ्र से शीघ्र चुनाव करा लेना चाहते थे, पर जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह ने राज्य के अधिकारियों से मिली रिपोर्ट के आधार पर चुनाव की तिथियां आगे बढायीं तब इन्हीं मोदी ने, जो आज भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित हैं, उस ईमानदार और निष्पक्ष चुनाव आयुक्त के खिलाफ जैसी भाषा का स्तेमाल किया था वैसी भाषा का प्रयोग देश के किसी अन्य प्रमुख राजनीतिक दल के नेताओं ने कभी नहीं किया।
      गत दिनों मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के उद्योगमंत्री ने निर्वाचन आयोग को धमकियां देने की नीति का श्रीगणेश कर दिया है। उन्होंने सार्वजनिक मंच से दशहरा के अवसर पर राजपूत समाज के शस्त्र पूजन समारोह में न केवल भाग लिया अपितु कहा कि आचार संहिता की चिंता मैं नहीं करता जो कहती है कि युवतियों को भेंट मत दो, सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों का हिस्सा मत बनो, ऐसी आचार संहिता को मैं ठोकर मारता हूं। चुनाव आयोग को मैंने कहा कि अपनी बात मत थोपो, व्यवहारिक बात करो। इससे पहले दिन भी उन्होंने शहर के चौराहे पर उद्योग विभाग का एक बड़ा भवन बनाने और सेंट्रल इंडिया का पावर हाउस बनाने की घोषणा की थी, जिसे सामाजिक सांस्क्रतिक धार्मिक ओट देना सम्भव नहीं है। [दैनिक भास्कर भोपाल 15/10/2013]         
      जहाँ सरकार के उद्योग मंत्री धर्म संस्कृति के नाम पर निर्वाचन आयोग के निर्देशों का उपहास कर रहे हैं तो दूसरी ओर राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव योग प्रशिक्षण के नाम पर भाजपा के विरोधियों को राक्षस घोषित करके उन्हें ईवीएम मशीन की मदद से नष्ट करने का आवाहन कर रहे हैं। यह संयोग नहीं है कि योग के प्रचार का बुखार उन्हें आगामी आम चुनावों वाले राज्यों में ही लगातार घुमा रहा है। उल्लेखनीय है कि उनकी छत्तीसगढ यात्रा के दौरान उनके वचनों का संज्ञान लेते हुए निर्वाचन आयोग ने उनका राज्य अतिथि का दर्ज़ा खत्म करा दिया था और उनका सारा खर्च भाजपा के चुनाव खर्च में जोड़ने के निर्देश दिये थे, पर इसके बाद भी उन्होंने खजुराहो में स्वयं को निर्वाचन आयोग का ब्रांड एम्बेसडर बताते हुए व्यंजनापूर्ण भाषण दिया।
      मध्यप्रदेश के डबरा कस्बे में ही जब निर्वाचन आयोग के निर्देशों के परिपालन में प्रशासन ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पथ संचालन की वीडियोग्राफी कराना चाही तो स्वयं सेवकों ने वीडियोग्राफर से कैमरा छीन कर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया और तहसीलदार को डबरा पुलिस थाने में जिला संघ चालक सहित तीन स्वयं सेवकों के खिलाफ मामला दर्ज़ कराना पड़ा। इसी दिन राजधानी भोपाल में पुलिस ने तलवारें छुरियों के एक ज़खीरे को बरामद किया जिसमें उसे 603 तलवारें और 45 छुरियां मिलीं। इस निर्माण स्थल पर उसे ग्राइन्डर, कटर, छेनी, हथौड़े की मदद से तलवारें छुरियां बनाते छह लोग मौके पर ही मिले। समाचार पत्रों में आरोपियों के नाम धरम विश्वकर्मा,, राम सिंह, तिलक सिंह, बदन सिंह, राजा विश्वकर्मा और जितेन्द्र दांगी बताये हैं, पर सावधानीवश इतने बड़े आर्डर को देने वाले का नाम अभी नहीं बताया गया है। चुनावों के दौरान जब खंडवा जेल से फरार सिमी के खूंखार आतंकियों का अभी तक कोई पता नहीं चल पाया है, ऐसे में हथियारों का यह ज़खीरा पकड़ा जाना स्वतंत्र निर्वाचन में आने वाली बाधाओं के संकेत दे रहा है।
      सरकारी दल, उसके नेता, उसके घोषित-अघोषित प्रचारकों के कारनामे इस बात के संकेत हैं कि भाजपा किसी भी तरह से यह चुनाव जीतना चाहती है जिसके बारे में उसके राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेता लगातार एक वर्ष से कहते आ रहे हैं कि पार्टी की जीत सरल नहीं है और प्रदेश के नेता 2004 जैसी गलतफहमी के शिकार हैं। ऐसी ही परिस्तिथियों में ये विचार परवान चढते हैं कि राज्यों के चुनाव राष्ट्रपति शासन के दौरान ही स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकते हैं और ऐसे विचारों के लिए भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच व कार्यप्रणाली जिम्मेवार है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, अक्तूबर 16, 2013

पशुबलि और राजनीति

पशुबलि और राजनीति
 वीरेन्द्र जैन

  वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है।
 इतिहासकार बताते हैं कि प्राचीनकाल में जब यज्ञ, धर्म और राजनीति का अटूट हिस्सा माने जाते थे तब यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थीं जिसकी अनेक विधियां पुराणों में वर्णित हैं। अश्वमेघ यज्ञ की विधियों के बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं जो बहुत ही जुगुप्सापूर्ण है। यज्ञों के कई प्रसंग तो ऐसे हैं जिन्हें आज लिखा तक नहीं जा सकता। यद्यपि जैन लोग इसे स्वीकार नहीं करते किंतु इतिहासकार मानते हैं कि जैन धर्म का उद्भव और विकास यज्ञों में पशुओं की बलि के विरोध में ही हुआ था। जिन गौतम बुद्ध का सन्देश पूरी दुनिया में फैला उनकी जीवनी में पहला महत्वपूर्ण प्रसंग उनके भाई द्वारा किसी पक्षी का तीर से शिकार करना और बुद्ध द्वारा उसकी रक्षा करने के सन्दर्भ वाला ही आता है। आज की दुनिया के बहुसंख्यक मांसाहारी किसी पशु को स्वयं मार नहीं सकते और अगर पशु वधग्रह बन्द हो जायें तो मांसाहारियों की संख्या दस प्रतिशत से कम रह जाने का अनुमान है। आज पशुवध का व्यवसाय करने वालों के अलावा यह धर्मान्धता ही है जो अन्य लोगों से भी पशुवध करवाती है। हिन्दुओं में शाक्त लोग देवी के मन्दिर में पशु बलि देते हैं, पूजा में अंडा फोड़ते हैं, तो मुसलमान ईदुज्जुहा के दिन भेड़ बकरी ऊंट आदि की कुर्बानी देते हैं। भारत के अलावा दूसरे देशों के मुसलमान अन्य पशुओं के साथ साथ गायों बैलों आदि की कुर्बानी भी देते हैं, पर हमारे देश में अनेक राज्यों में गौकशी पर प्रतिबन्ध है। शाकाहारी लोग मांसाहारियों से नफरत करते हैं क्योंकि उनके परिवार और परिवेश में उन्हें बचपन से ही मांसाहार और मांसाहारियों से नफरत करना सिखाया जाता है। इस नफरत का स्तेमाल कुछ साम्प्रदायिक राजनीतिक दल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए करते हैं क्योंकि नफरत का यह तैयार बीज उन्हें परम्परा से सहज ही मिल जाता है। कुटिलता की राजनीति करने वाले मतदाताओं की हर कमजोरी का लाभ लेने की कोशिश करते हैं जिनमें मांसाहार से नफरत भी शामिल है। चुनावी वर्ष में वे इसका भी स्तेमाल कर रहे हैं। पिछले दिनों सम्पन्न हुए ईदुज्जुहा के अवसर पर भाजपा समर्थक सोशल मीडिया के प्रचारकों ने पशुबलि की भयावहता और मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली पोस्टों की जो बाढ पैदा की वह चिंता पैदा करने वाली है। ऐसे प्रचार ही साम्प्रदायिक दंगों की भावभूमि तैयार कर देते हैं जिससे मामूली सी दुर्घटना भी बड़े दंगों का कारण बन जाती है। देश में संस्थागत रूप से साम्प्रदायिकता फैलाने वाली शक्तियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष शक्तियां शिथिल हैं। जिन साम्प्रदायिक शक्तियों ने पशु बलि के खिलाफ या कहें कि उसके बहाने नफरत फैलाने का जो अभियान चलाया है, उन्हें उस विषय पर बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि वे स्वयं ही उस धर्म के नाम की राजनीति करते हैं जिसमें पशुबलि की भी परम्परायें हैं। भीष्म साहनी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’, जिस पर एक सफल धारावाहिक भी बन चुका है, में संघ के स्वयं सेवक को मुर्गी काटना सिखा कर हिंसा से उसकी हिचकिचाहट को दूर करते हुए दर्शाया गया है। उल्लेखनीय है कि जब भाजपा नेता और तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने तामिलनाडु से भारत यात्रा का प्रारम्भ किया था तब उसकी सफलता के लिए पशुबलि दिये जाने का समाचार प्रकाश में आया था। हिन्दुओं में शाकाहारियों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं है और हिन्दुओं की साम्प्रदायिक पार्टी शाकाहार को आधार नहीं बना सकती इसलिए पशुबलि के नाम से मुसलमानों के त्योहार का विरोध कर रही है। दूसरी ओर अल्पसंख्यक मोर्चा बना कर ये मतदान के लिए मुसलमानों को बरगलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और ईदुज्जहा पर मुसलमानों को बधाई देने में ईदगाह पर सबसे आगे खड़े होने की कोशिश करते हैं। यहाँ सवाल पशुबलि के विरोध या पक्षधरता से ज्यादा एक राजनीतिक पार्टी के रवैये और उसके दुहरे चरित्र का है। ये बहुसंख्यकों का समर्थन पाने के लिए उस हर वस्तु का विरोध करते हैं जो अल्पसंख्यकों की आस्था या पहचान से जुड़ा है, और पशुबलि विरोध भी उनमें से एक है। जरूरत इनकी चाल और चरित्र को पहचानने की है।

शनिवार, सितंबर 28, 2013

राष्ट्रीय एकता परिषद का सोशल मीडिया पर गुस्सा

राष्ट्रीय एकता परिषद का सोशल मीडिया पर गुस्सा
वीरेन्द्र जैन
       गत दिनों एक अरसे बाद आयोजित राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक का अपने उद्देश्यों में असफल होना चिंता का विषय है। ऐसी बैठकें किसी घटना के बाद राजनीतिक दलों, केन्द्र व राज्यों की सरकारों और कुछ चयनित बुद्धिजीवियों का सामूहिक स्यापा और कभी पूरा न होने वाले संकल्पों की औपचारिकता के बाद समाप्त हो जाती रही हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। ऐसा महसूस किया गया है कि वे सही विन्दु पर पहुँचना ही नहीं चाहते इसलिए औपचारिकता का निर्वाह भर कर के रह जाते हैं। मुज़फ्फरनगर की हिंसा के बाद आयोजित सन्दर्भित बैठक इस बार सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर सारी जिम्मेवारी डाल कर और प्रधानमंत्री के दृढ संकल्प के दुहराव के साथ समाप्त हो गयी। इस बैठक में व्यक्त विचारों से ऐसा लगा जैसे कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग ही समस्या की असली जड़ है जबकि यह साम्प्रदायिक संगठनों के हाथ में आया केवल एक नया साधन भर है, जिसका प्रयोग धर्मनिरपेक्षता के हित में भी किया जा सकता है। असल समस्या तो धर्मान्धता, और राजनीतिक आर्थिक हित में उस अन्धत्व का लाभ उठाने वालों से निबटने की है। वोटों की राजनीति के शिकार जनता से कटे हुए दल तरह तरह के बहानों से इस अन्धत्व निवारण के बड़े परिश्रम से बचते लगते हैं, जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिक दल इसी अन्धत्व में अपना हित पाने के कारण उसे बनाये ही नहीं रखना चाहते अपितु उसमें वृद्धि करने के प्रति निरंतर सक्रिय हैं।
       मूल लड़ाई निष्क्रिय धर्मनिरपेक्षता और सक्रिय साम्प्रदायिकता के बीच है जिसमें लगातार धर्मनिरपेक्षता कमजोर पड़ कर पराजित हो रही है और साम्प्रदायिकता अपनी पूरी कुटिलता के साथ नये नये दाँव चलती जा रही है। उत्तर प्रदेश की ताज़ा घटनाएं, जिनके कारण इस बैठक को आहूत किया गया था, इसी का परिणाम हैं।
       सोशल मीडिया के दुरुपयोग करने में साम्प्रदायिक संगठन अग्रणी रहे हैं  और लाखों की संख्या में छद्म पहचानों से नफरत फैलाने के काम को आगे बढाया है। ऐसा वे इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास पहले से ही एक बड़ा प्रचारतंत्र कार्यरत था। इस मीडिया के प्रारम्भ के साथ ही वे बहुत कुशलता से तर्क विहीन धार्मिकता और भौगोलिक राष्ट्रवाद को बढावा देने की ओट में नफरत भरे लेखों और टिप्पणियों की बाढ ले आये थे तथा गलत नामों वाली पहचानों से उन पर पसन्दगी के ढेर लगाने लगे जिससे ऐसा भ्रम फैले कि उनकी बात को सबसे ज्यादा पसन्द किया जा रहा है। कुछ एग्रीगेटर ज्यादा पसन्दगी के आधार पर प्रतिदिन मेरिट लिस्ट बनाते थे जिसमें इसी झूठी पसन्दगी के आधार पर साम्प्रदायिकों की पोस्टों को पहली दस पोस्टों में आना तय होता था। इस कारण से इन पोस्टों को दूसरे वे लोग भी पढने की कोशिश करते थे जिन्होंने इन्हें पहले नहीं पढा होता था। यही छद्म नाम गन्दी गन्दी गालियों से छुटपुट रूप से आने वाली धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर पोस्टों को हतोत्साहित करने में जुट जाते थे। इन छद्म नामधारियों की टिप्पणियों के पोस्टिंग समय को देख कर ऐसा लगता रहा है कि ये किसी व्यक्ति विशेष के विचार भर नहीं हैं अपितु किसी सुव्यवस्थित कार्यालय से संचालित हो रही हैं एक ही छद्म नाम से विभिन्न वेबसाइटों पर चयनित अद्यतन सूचनाओं से भरी पूरे चौबीसों घंटे टिप्पणियां आते रहना किसी एक व्यक्ति का काम नहीं हो सकता। गत वर्ष गुजरात के विधानसभा चुनाव के दौरान यह सच सामने आया था कि मोदी के प्रचारक ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम पैदा करा रहे हैं। अक्टूबर 2012 में लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं।  सूचना तकनीक बहुत आगे बढ चुकी है और हम लोग दावा करते हैं कि हमारे यहाँ ऐसे तकनीकी विशेषज्ञ लाखों की संख्या में निकल रहे हैं तो क्यों नहीं झूठ पर आधारित साम्प्रदायिकता फैलाने वाली इन पोस्टों के छद्मनामों से सक्रिय अपराधियों की पहचान इसके प्रारम्भ से ही किये जाने की कार्यवाही की गयी और न अब की जा रही है। यदि ऐसा किया जा सके तो उनके सांगठनिक जुड़ाव का खुलासा किया जा सकता है।
       तकनीक पर आधारित सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए इसे तकनीकी विशेषज्ञों की मदद और प्रशासनिक कार्यवाहियों से ठीक किया जा सकता था। उल्लेखनीय है कि जब से एक खास संगठन से निकले लोग आतंकी गतिविधियों के लिए पहचाने और पकड़े गये थे तब से देश में आतंकी गतिविधियां न केवल बन्द हो गयी हैं अपितु उन से जुड़े राजनीतिक दल को आतंकवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या बताने के बहाने एक खास समुदाय को निशाना बना कर साम्प्रदायिकता फैलाने का काम करना स्थगित करना पड़ा था। यदि करकरे जैसे पुलिस अधिकारियों की शहादत से सबक लेते हुए उनके कार्यकाल के दौरान उनका विरोध करने वालों की पहचान कराने का काम लगातार चलाया जाता तो साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को रक्षात्मक बनाया जा सकता था। स्मरणीय है कि शहीद करकरे की पत्नी ने उनकी शहादत के बाद मोदी द्वारा दी गयी एक करोड़ की रकम को इसीलिए ठुकरा दिया था क्योंकि उनके जीवनकाल में मोदी गिरोह ही उनके महत्वपूर्ण कार्यों का लगातार विरोध कर रहा था, और उनके खिलाफ आन्दोलन की धमकियां दे रहा था।
       भले ही राष्ट्रीय एकता परिषद की उपलब्धियां हमें वांछित लक्ष्यों तक नहीं पहुँचा सकी हों किंतु उसमें  उन तक पहुँचने के संकल्प बिन्दु होने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। ये कैसी दुखद स्थिति है कि कुछ खास पार्टियों के मुख्यमंत्री और नेता जानबूझ कर इसकी बैठक से अनुपस्थित रहते हैं और इसमें उपस्थित होने वाले उनकी जिम्मेवारियों से विमुख होने को ढंग से प्रचारित भी नहीं कर पाते। इस बात को बार बार रेखांकित किये जाने की जरूरत है कि साम्प्रदायिक दंगों को उनके प्रारम्भ होने के कारणों तक सीमित रखने से काम नहीं चलने वाला अपितु उस षड़यंत्रपूर्ण कूटनीति के विरुद्ध लगातार काम करने की जरूरत है जो घटना के पात्रों को तुरंत ही समुदायों के कामों में बदल देने का माहौल बनाने में निरंतर सक्रिय रहती हैं। इसके साथ ही सुरक्षा बलों और प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यकलापों की निरंतर समीक्षा किये जाने और सक्षम अधिकारियों को जानकारी देने का काम भी राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा किये जाने का तंत्र बनाया जाना चाहिए।  
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, सितंबर 16, 2013

प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी पर मोदी के चयन से नया कौन जुड़ेगा?

 प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी पर मोदी के चयन से नया कौन जुड़ेगा?
वीरेन्द्र जैन

       बुन्देली भाषा में एक वाक्यांश आता है- मुँह का ज़बर होना। जब कोई अतार्किक ढंग से अपनी बात ठेलता हुआ दूसरे को बोलने ही नहीं देता तो उसे मुँह का ज़बर कहा जाता है। भारतीय राजनीति में कहा जा सकता है कि भाजपाई मुँह के ज़बर हैं। जो लोग भी टीवी चैनलों पर होने वाली बहसें सुनते हैं वे जानते हैं कि अधिकांश भाजपाइयों या भाजपा समर्थकों की यह कोशिश रहती है वे निरर्थक और अतार्किक बातों से इतना समय खराब कर दें ताकि उनसे भिन्न विचार रखने वालों को अपनी बात रखने का अवसर कम से कम मिले। संसद के सदनों में वे शोर मचा कर सदन को चलने नहीं देते ताकि तर्क और तथ्यों को स्थान नहीं मिले। जो नारेबाजी सड़कों पर करना चाहिए उसे वे संसद में करते हैं और सदन को स्थगित करना पड़ता है। इस तरह वे बहस को ठेल कर अपना काम तो चला लेते हैं पर इससे उनका अपराधबोध प्रकट हुए बिना नहीं रहता। उनके इस कारनामे से कुछ कुशिक्षित लोग भले ही बरगलाये जा सकते हों पर समझदार लोगों के सामने उनकी कार्यप्रणाली और चरित्र स्पष्ट हो जाता है।  
       जिन मोदी को सोचे समझे ढंग से एन केन प्रकारेण लगातार प्रचारित किया जाता रहा है उनके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने पर ऐसा प्रकट किया गया है जैसे वे एनडीए के एक दल के बहुमत से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी की जगह प्रधानमंत्री ही बन गये हों। यह तूमार उनकी छवि सुधारने और उनको जबरन जनता में रोपने के लिए बाँधा जा रहा है। स्मरणीय है कि गत वर्ष लालकृष्ण अडवाणी ने खेद के साथ साफ साफ कहा था कि जनता भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देख रही। इस बीच हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में मोदी के प्रचार में सक्रिय होने के बाद भी भाजपा ने अपने समर्थन और सरकारों को खोया है। उत्तर प्रदेश में तरह तरह की नौटंकियां करने के बाद वे सीटों की संख्या और वोट प्रतिशत में घटे हैं और उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की सरकारों को उन्होंने खोया है। ऐसा तब हुआ है जब यूपीए शासन के खिलाफ लगातार लम्बे चौड़े आरोप लगाये जा रहे थे और मँहगाई अपने चरम की ओर बढ रही थी। उल्लेखनीय है कि जहाँ भाजपा की राज्य सरकारें रहीं हैं वहाँ भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में जाँच के बाद उनके पदाधिकारियों व जनप्रतिनिधियों की संलिप्तता पायी गयी है और आम अपराधियों की तरह अदालतों में वे सुनवाइयां टलवाने की कोशिशें करते पाये जाते हैं। ऐसे मामलों में जल्दी फैसला नहीं होने देने के उनके प्रयास उनकी प्रणाली के संकेत देते हैं। लोकायुक्तों की स्थापनाओं को वे टालते हैं [गुजरात] और जहाँ वह स्थापित है वहाँ उन्हें काम नहीं करने देते [मध्य प्रदेश] जहाँ काम करता है वहाँ उससे असहयोग करते हैं [कर्नाटक]।  
       सवाल उठता है कि ऐसे कौन से कारक हैं जो मोदी को प्रधानमंत्री की तरह दिखाने की नौटंकियां करने के लिए नकली लाल किला या नकली संसद भवन तक बनवाने, और 15अगस्त को समानांतर भाषण देने को प्रेरित करते हैं! सच तो यह है कि अन्दर से कमजोरी महसूस करने के बाद ही वे ये काम एक  भ्रम पैदा करने के लिए करते हैं। पार्टी का प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित हो जाने के बाद मोदी कैमरों की सीमा में इस तरह से लोगों के पाँव छू रहे थे गोया प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी की जगह प्रधानमंत्री ही बन गये हों।
       मोदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बदनाम व्यक्तित्वों में से आते हैं। अमेरिका उन्हें वीसा नहीं देना चाहती, ब्रिटेन को उनके प्रति नरम होने की खबरों का खण्डन करना पड़ता है, उनकी पार्टी के गठबन्धन के सदस्य उनके कारण उनका गठबन्धन छोड़ कर चले जाते हैं,[जनतादल-यू, तृणमूल कांग्रेस, लोकजनशक्ति, नैशनल कांफ्रेंस, बीजू जनता दल , नैशनल कांफ्रेंस आदि] जिनमें छोटे दलों से लेकर बड़े दल भी होते हैं। नोबल पुरस्कार से सम्मानित भारत रत्न अर्थशास्त्री उन्हें पसन्द नहीं करते[अमृत्य सेन]। सामाजिक कार्यकर्ताओं पर जब उनके प्रति नरम होने का आरोप लगाया जाता है तो वे सफाई देने में देर नहीं करते [अन्ना हजारे]। गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर को जब उनके समर्थक होने का भ्रम फैलाया जाता है तो वे कानूनी नोटिस देने की बात करते हैं [अमिताभ बच्चन]। वे केवल एक राज्य में लोकप्रिय हैं, पर पूरे देश और दुनिया में अलोकप्रिय हैं, लोग उनसे घृणा करते हैं। बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा जैसी कहावत के अनुरूप उनकी बदनामी को भाजपा भुनाना चाहती है। भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से लालकृष्ण अडवाणी को पिछली बार प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बना कर परखा जा चुका है व अटलबिहारी चुनाव में भाग लेने लायक स्वस्थ नहीं हैं। यही कारण है कि मोदीजी अपनी मुखरता, के कारण नये युवा नेतृत्व की तरह उभरे हैं। 2002 में हुए मुसलमानों के नरसंहार के बाद वे साम्प्रदायिकता से दुष्प्रभावित राज्य के बड़े वर्ग के बीच  दृढ नेतृत्व की तरह प्रचारित किये गये हैं। उनके मंत्रिमण्डल के सबसे वरिष्ठ मंत्री को जेल की यात्रा करनी पड़ी और उसके बाद अदालती आदेश से उसका प्रदेशनिकाला हुआ। उनकी दूसरी महिला मंत्री को आजन्म कैद की सजा हुयी है और उसके साथी को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी है। ये सब उस स्थिति में हुआ है जब उक्त लोगों को बचाने में पूरी सरकारी मशीनरी झौंक दी गयी। उनके मंत्रिमण्डल के एक सदस्य की हत्या हुयी और उसके पिता ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के सामने सरे आम हत्या की ज़िम्मेवारी मोदी पर लगायी। झूठे एनकाउंटर के लिए जेल में बन्द डीजीपी ने जब यह काम उनके आदेश पर करने सम्बन्धित पत्र लिख कर उन पर लगे आरोप को पुष्ट कर दिया तब उन्हें और अपने आप को बचाने के लिए भाजपा को उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करना पड़ा क्योंकि अब बचने का कोई दूसरा रास्ता शेष नहीं था।
       स्मरणीय है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी जल्दी से जल्दी बनाने अन्यथा पार्टी के हिट विकट हो जाने का खतरा बताने वाले राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जैटली ने इस बयान के कुछ ही दिन पहले कहा था कि पार्टी में मोदी समेत कम से कम दस लोग सम्भावित प्रत्याशी हैं। जैटली का बयान बंजारा के पत्र खुलासे के समानांतर आया जिससे पता चलता है कि इस पत्र की जानकारी मिलते ही उनके विचार बदल गये थे, और आनन फानन में मोदी के अभिषेक जैसा तुमुल कोलाहल पैदा कर दिया गया। स्मरणीय है कि मोदी की हरियाणा में हुयी रैली के बाद ही एक अखबार [दैनिक भास्कर 16 सितम्बर 2013] में इस आशय का समाचार प्रकाशित हुआ कि बंजारे के पत्र के पीछे भाजपा के ही एक गुजरात से सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री [अर्थात अडवाणी] का हाथ है। यह बंजारा के पत्र के खुलासे को दलीय प्रतिद्वन्दता में बदल कर उसके महत्व को कम करने का षड़यंत्र है।   
       सच तो यह है कि मोदी को यह प्रत्याशी पद देने के पीछे उनके कारनामों से उन्हें सुरक्षा दिलाने से अधिक कुछ भी नहीं है। मोदी के आने पर दुन्दभि बजाने वाले सब किराये के लोग हैं। उनके आने से न कोई दल उनके गठबन्धन से जुड़ रहा है और न ही जनता का कोई वर्ग। उद्योग जगत का एक हिस्सा केवल धन दे सकता है जिसके नियमानुसार उपयोग के लिए निर्वाचन आयोग अपनी पूरी सख्ती से कमर कसे हुए है। मध्यम वर्ग के जिस कुशिक्षित हिस्से के उनके दृढ अनुशासन, आर्थिक ईमानदारी, आंकड़ागत विकास जैसी हवाई बातों से प्रभावित होने का प्रचार किया जा रहा है उसका किंचित असर होने पर भी मोदी के कारण जितना नुकसान होने जा रहा है वह कई गुना अधिक है। अभी भी हमारे यहाँ मतदान को जातियों, सम्प्रदायों, क्षेत्रीयताओं, लुभावने व्यक्तित्वों, पैसों और दबावों आदि से मुक्त नहीं किया जा सका है। इसलिए यह मानना चाहिये कि सारी कवायद मोदी और उनके सहयोगियों को कानूनी कार्यवाही से कुछ समय के लिए बचाने से अधिक कुछ नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
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