राष्ट्रीय एकता
परिषद का सोशल मीडिया पर गुस्सा
गत
दिनों एक अरसे बाद आयोजित राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक का अपने उद्देश्यों में
असफल होना चिंता का विषय है। ऐसी बैठकें किसी घटना के बाद राजनीतिक दलों, केन्द्र
व राज्यों की सरकारों और कुछ चयनित बुद्धिजीवियों का सामूहिक स्यापा और कभी पूरा न
होने वाले संकल्पों की औपचारिकता के बाद समाप्त हो जाती रही हैं। इस बार भी ऐसा ही
हुआ है। ऐसा महसूस किया गया है कि वे सही विन्दु पर पहुँचना ही नहीं चाहते इसलिए
औपचारिकता का निर्वाह भर कर के रह जाते हैं। मुज़फ्फरनगर की हिंसा के बाद आयोजित
सन्दर्भित बैठक इस बार सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर सारी जिम्मेवारी डाल कर और
प्रधानमंत्री के दृढ संकल्प के दुहराव के साथ समाप्त हो गयी। इस बैठक में व्यक्त
विचारों से ऐसा लगा जैसे कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग ही समस्या की असली जड़ है जबकि
यह साम्प्रदायिक संगठनों के हाथ में आया केवल एक नया साधन भर है, जिसका प्रयोग
धर्मनिरपेक्षता के हित में भी किया जा सकता है। असल समस्या तो धर्मान्धता, और राजनीतिक
आर्थिक हित में उस अन्धत्व का लाभ उठाने वालों से निबटने की है। वोटों की राजनीति
के शिकार जनता से कटे हुए दल तरह तरह के बहानों से इस अन्धत्व निवारण के बड़े
परिश्रम से बचते लगते हैं, जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिक दल इसी अन्धत्व में अपना
हित पाने के कारण उसे बनाये ही नहीं रखना चाहते अपितु उसमें वृद्धि करने के प्रति
निरंतर सक्रिय हैं।
मूल
लड़ाई निष्क्रिय धर्मनिरपेक्षता और सक्रिय साम्प्रदायिकता के बीच है जिसमें लगातार धर्मनिरपेक्षता
कमजोर पड़ कर पराजित हो रही है और साम्प्रदायिकता अपनी पूरी कुटिलता के साथ नये नये
दाँव चलती जा रही है। उत्तर प्रदेश की ताज़ा घटनाएं, जिनके कारण इस बैठक को आहूत
किया गया था, इसी का परिणाम हैं।
सोशल
मीडिया के दुरुपयोग करने में साम्प्रदायिक संगठन अग्रणी रहे हैं और लाखों की संख्या में छद्म पहचानों से नफरत
फैलाने के काम को आगे बढाया है। ऐसा वे इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास पहले से ही
एक बड़ा प्रचारतंत्र कार्यरत था। इस मीडिया के प्रारम्भ के साथ ही वे बहुत कुशलता
से तर्क विहीन धार्मिकता और भौगोलिक राष्ट्रवाद को बढावा देने की ओट में नफरत भरे
लेखों और टिप्पणियों की बाढ ले आये थे तथा गलत नामों वाली पहचानों से उन पर
पसन्दगी के ढेर लगाने लगे जिससे ऐसा भ्रम फैले कि उनकी बात को सबसे ज्यादा पसन्द
किया जा रहा है। कुछ एग्रीगेटर ज्यादा पसन्दगी के आधार पर प्रतिदिन मेरिट लिस्ट
बनाते थे जिसमें इसी झूठी पसन्दगी के आधार पर साम्प्रदायिकों की पोस्टों को पहली
दस पोस्टों में आना तय होता था। इस कारण से इन पोस्टों को दूसरे वे लोग भी पढने की
कोशिश करते थे जिन्होंने इन्हें पहले नहीं पढा होता था। यही छद्म नाम गन्दी गन्दी
गालियों से छुटपुट रूप से आने वाली धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर पोस्टों को
हतोत्साहित करने में जुट जाते थे। इन छद्म नामधारियों की टिप्पणियों के पोस्टिंग
समय को देख कर ऐसा लगता रहा है कि ये किसी व्यक्ति विशेष के विचार भर नहीं हैं
अपितु किसी सुव्यवस्थित कार्यालय से संचालित हो रही हैं एक ही छद्म नाम से विभिन्न
वेबसाइटों पर चयनित अद्यतन सूचनाओं से भरी पूरे चौबीसों घंटे टिप्पणियां आते रहना
किसी एक व्यक्ति का काम नहीं हो सकता। गत वर्ष गुजरात के विधानसभा चुनाव के दौरान
यह सच सामने आया था कि मोदी के प्रचारक ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम पैदा
करा रहे हैं। अक्टूबर 2012 में लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का
पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने
वाली साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं। सूचना तकनीक बहुत आगे बढ चुकी है और हम लोग
दावा करते हैं कि हमारे यहाँ ऐसे तकनीकी विशेषज्ञ लाखों की संख्या में निकल रहे हैं
तो क्यों नहीं झूठ पर आधारित साम्प्रदायिकता फैलाने वाली इन पोस्टों के छद्मनामों
से सक्रिय अपराधियों की पहचान इसके प्रारम्भ से ही किये जाने की कार्यवाही की गयी
और न अब की जा रही है। यदि ऐसा किया जा सके तो उनके सांगठनिक जुड़ाव का खुलासा किया
जा सकता है।
तकनीक
पर आधारित सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए इसे तकनीकी विशेषज्ञों की मदद
और प्रशासनिक कार्यवाहियों से ठीक किया जा सकता था। उल्लेखनीय है कि जब से एक खास
संगठन से निकले लोग आतंकी गतिविधियों के लिए पहचाने और पकड़े गये थे तब से देश में
आतंकी गतिविधियां न केवल बन्द हो गयी हैं अपितु उन से जुड़े राजनीतिक दल को आतंकवाद
को देश की सबसे बड़ी समस्या बताने के बहाने एक खास समुदाय को निशाना बना कर
साम्प्रदायिकता फैलाने का काम करना स्थगित करना पड़ा था। यदि करकरे जैसे पुलिस
अधिकारियों की शहादत से सबक लेते हुए उनके कार्यकाल के दौरान उनका विरोध करने
वालों की पहचान कराने का काम लगातार चलाया जाता तो साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को
रक्षात्मक बनाया जा सकता था। स्मरणीय है कि शहीद करकरे की पत्नी ने उनकी शहादत के
बाद मोदी द्वारा दी गयी एक करोड़ की रकम को इसीलिए ठुकरा दिया था क्योंकि उनके
जीवनकाल में मोदी गिरोह ही उनके महत्वपूर्ण कार्यों का लगातार विरोध कर रहा था, और
उनके खिलाफ आन्दोलन की धमकियां दे रहा था।
भले
ही राष्ट्रीय एकता परिषद की उपलब्धियां हमें वांछित लक्ष्यों तक नहीं पहुँचा सकी
हों किंतु उसमें उन तक पहुँचने के संकल्प
बिन्दु होने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। ये कैसी दुखद स्थिति है कि
कुछ खास पार्टियों के मुख्यमंत्री और नेता जानबूझ कर इसकी बैठक से अनुपस्थित रहते
हैं और इसमें उपस्थित होने वाले उनकी जिम्मेवारियों से विमुख होने को ढंग से
प्रचारित भी नहीं कर पाते। इस बात को बार बार रेखांकित किये जाने की जरूरत है कि
साम्प्रदायिक दंगों को उनके प्रारम्भ होने के कारणों तक सीमित रखने से काम नहीं
चलने वाला अपितु उस षड़यंत्रपूर्ण कूटनीति के विरुद्ध लगातार काम करने की जरूरत है
जो घटना के पात्रों को तुरंत ही समुदायों के कामों में बदल देने का माहौल बनाने
में निरंतर सक्रिय रहती हैं। इसके साथ ही सुरक्षा बलों और प्रशासनिक अधिकारियों के
कार्यकलापों की निरंतर समीक्षा किये जाने और सक्षम अधिकारियों को जानकारी देने का
काम भी राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा किये जाने का तंत्र बनाया जाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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