शुक्रवार, जुलाई 22, 2016

क्या उत्तर प्रदेश में जनता जीतने वाली है

क्या उत्तर प्रदेश में जनता जीतने वाली है
वीरेन्द्र जैन



मंचों पर कविता पढने वालों में एक प्रवृत्ति घर कर जाती है कि वे अपनी प्रस्तुति को सफल बनाने के लिए पहले अपनी आजमायी हुयी कविता को ही सुनाते हैं तथा उसके ‘चल’ जाने के बाद नये प्रयोग को प्रस्तुत करते हैं। मैं भी कभी मंचों पर जाया करता था और उस दौर में वह एक कविता जरूर सुनाता था जिसे कई मंचों पर सफलता मिल चुकी थी। कविता की पंक्तियां थीं-
ये भी जीते, वे भी जीते
वोट डालते सालों बीते
हर चुनाव में जीते नेता जनता हारी है
जनता जीते, उस चुनाव की मांग हमारी है
इस कविता पर अनजाने में जयप्रकाश आन्दोलन के दौरान लोकप्रिय हुयी दिनकर जी की कविता  ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का प्रभाव भी रहा होगा क्योंकि यह उसी दौरान लिखी गई थी। उत्तर प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों की एक वर्ष पूर्व ही शुरू हो गयी गहमा-गहमी से इस प्रसंग की याद हो आई क्योंकि मुझे लगता है कि चुनावी शतरंज खेल रहे सभी चार प्रमुख दल अपनी पराजय टालने के लिए जी जान से जुट गये हैं व कोई भी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है।
इस समय वहाँ समाजवादी पार्टी की सरकार है, जो बहुजन समाज पार्टी को हरा कर इसलिए सत्ता में आ गयी थी क्योंकि उन्होंने नये प्रबन्धनों के द्वारा बहुजन समाज पार्टी से अधिक मत जुगाड़ लिये थे जबकि एनएचआरएम घोटाले में व्यापम की तरह अनेक सन्दिग्ध मौतों की बदनामी के बाबजूद बहुजन समाज पार्टी को पिछले चुनाव में मिले मतों की संख्या में कमी नहीं आयी थी। इस जीत की रणनीति तैयार करने के लिए मुलायम सिंह ने अपने अभिन्न मित्र अमर सिंह को पार्टी से बाहर बैठा दिया था और उनके कारण कभी बाहर चले गये आजम खान को भावप्रवण अभिनय के साथ गले लगा लिया था। ऐसा माना गया कि उनके आने से मुसलमानों के छिटके वोटों पर प्रभाव पड़ा था जिनके समाजवादी पार्टी के परम्परागत वोटों के साथ जुड़ जाने पर यह जीत मिल गई थी। पूरे चुनाव के दौरान उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया था कि जीतने के बाद उनकी पार्टी से मुख्यमंत्री कौन बनेगा पर जीतते ही उन्होंने अपने बड़े बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था जिसे थोड़ी मान मनौवल के बाद उनके भाई शिवपाल और असंतुष्ट आजम खान को स्वीकार करना पड़ा था। कहा जाता है कि पिछले साल तक उत्तर प्रदेश में चार-पाँच लोग मुख्यमंत्री की अनौपचारिक भूमिका निभाते रहे थे। अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में ही उनके  दबंग समर्थकों ने जिस अनुशासनहीनता का परिचय दिया था, वह भविष्य का संकेतक था और बाद में भी लगातार जारी रहा। समाजवादी दबंगों के आतंक की प्रतिक्रिया का प्रभाव 2014 के लोकसभा चुनावों में उ.प्र. से भाजपा की जीत में भी दिखा था। कुल मिला कर सच यह है कि समाजवादी पार्टी की सत्ता संस्कृति और सत्ता विरोधी रुझान के कारण जो वातावरण बना है उससे पैदा हुयी सम्भावित हार टालने के लिए वे निरंतर प्रयास कर रहे हैं। इसी प्रयास में निकाले गये जोड़तोड़ कुशल अमर सिंह और कुर्मियों के नेता बेनीप्रसाद वर्मा को दल में वापिस ले लेना भी सम्मलित है। इससे पहले वे बहुजन समाज पार्टी के शासन काल के दागी मंत्री बाबूलाल कुशवाहा के परिवार को पार्टी में सम्मालित कर चुके थे व बाद में एक फूहड़ सी कोशिश तो उन्होंने मुख्तार अंसारी को दल में लेने की की थी किंतु दल में ही विचार भिन्नता के कारण वे उसमें सफल नहीं हो सके। मथुरा काण्ड ने बहुत सारे लोगों की आँखें खोल दी हैं। यादव सिंह के यहाँ छापेमारी में जो दस्तावेज मिले हैं, उनके आधार पर मुलायम कुनबा कभी भी संकट में आ सकता है जिससे केन्द्र में सत्तारूढ भाजपा ही राहत दे सकती है। अमर सिंह को दल में वापिस ले लेने के बाद आज़म खाँ फिलहाल चुप्पी ओढे हुए हैं जो कभी भी टूट सकती है। हालत यह है कि वे भाजपा के साथ खुले में गठबन्धन नहीं कर सकते पर अपमानित आज़म खाँ की औचक प्रतिक्रिया के बाद अमित शाह व अमर सिंह के बीच किसी गुप्त समझौते की रणनीति भी बन सकती है।
भाजपा ने लोकसभा चुनावों के दौरान समय से ध्रुवीकरण करके व कुर्मी वोटों वाले अपना दल के साथ समझौता करके जो जीत हासिल की उसके अनुसार वे 213 विधान सभा क्षेत्र में आगे थे। इसी आधार पर वे उत्तर प्रदेश में जीत की उम्मीद करने लगे थे, पर कई उपचुनावों में मिली पराजय के बाद उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है। केन्द्र में काँग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए शासन के नकारात्मक प्रभाव से लाभान्वित नरेन्द्र मोदी की चमक फीकी पड़ चुकी है। घर वापिसी से लेकर कैराना तक के उनके हथकण्डे उजागर हो चुके हैं, हरियाणा में जाटों के उपद्रव के दौरान भाजपा शासन की जो कमजोरी प्रकट हुयी उसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को भयभीत कर दिया है। कुर्मी जाति के मतों पर प्रभाव रखने वाला अपना दल दो हिस्सों में विभाजित हो चुका है और उसके संगठन ने एनडीए से नाता तोड़ लिया है। बेनीप्रसाद वर्मा के समाजवादी पार्टी में जाने के बाद तो प्रभाव पड़ेगा ही दूसरी ओर नितीश कुमार के सक्रिय होने से भी इस जति के मतों का रुझान बदल सकता है। उनकी नीति बहुजन समाज पार्टी की बढत को रोकना है और उसके बिकाऊ नेतृत्व से सौदा करके उसे कमजोर होते दिखाना है जिससे खुद को विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सकें। हाल ही में बहुजन समाज पार्टी से जो नेता टूटे हैं वे भाजपा उन्मुख नजर आते हैं। उनका हर कदम और हर बयान केवल अवसरवादी राजनीति का संकेत देता है। अवसरवादियों को संतुष्ट करने की क्षमता इन दिनो भाजपा के पास ही है। बड़ा स्टाकिस्ट दिखने के लिए बिकने का इरादा करने वाले पुराने माल को सबसे अच्छे दामों में खरीदने की उनकी दुकान खुली हुयी है। उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ लोगों को सेवा निवृत्त की श्रेणी में डाल दिया गया है और युवाओं को मौका दिया जा रहा है। किन्तु प्रदेश उपाध्यक्ष ने अपने अति उत्साह में जो नुकसान कर दिया है उसने दलितों को मायावती के पक्ष में संघर्ष के लिए संगठित कर दिया है व भाजपा बैकफुट पर पहुँच गयी है। इस टकराव को दादरी की घटना के बाद पूरे प्रदेश का आतंकित मुस्लिम मतदाता बहुत गहराई से देख रहा है। साध्वी भेषधारी प्राची और आदित्यनाथ से लेकर साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति उमा भारती तक नवशिक्षित समाज के लिए आकर्षण के केन्द्र नहीं हैं। मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने वाले योगी आदित्यनाथ तो किसी अनुशासन में बँधने वाले लोगों में नहीं हैं क्योंकि पूर्वांचल में भाजपा उनके कारण है वे भाजपा के कारण नहीं हैं। हर चुनाव के अवसर पर वे भाजपा को धमकी देते हैं और हर बार भाजपा नेतृत्व को झुकना पड़ता है।
काँग्रेस जैसी पुरानी पार्टी, समाजवादी पार्टी और भाजपा के सत्ताविरोधी रुझानों पर उम्मीद लगा कर नये प्रयोगों से उम्मीद बाँधने में लगी है। वह प्रशांत किशोर जैसे आंकड़ा प्रबन्धकों को जोड़ कर हास्यास्पद प्रयोग कर रही है। राहुल गाँधी की छवि को खराब करने के लिए भाजपा ने अपने सोशल मीडिया वाले हजारों लोगों को लगा रखा है जिसका मुकाबला करने की जगह प्रियंका गाँधी को लाने की खबरें हैं जिनका प्रचार अभियान भीड़ तो बढा सकता है पर वोटों का रुझान नहीं बदल सकता है। काँग्रेस ने ब्राम्हणों को एक संगठित जाति के वोट बैंक के रूप में प्रस्तुत करने का सपना देखा है जिसके सहारे अगर वह जीतने का भ्रम पैदा करने में सफल हो पाती है तो उसे मुस्लिम वोट मिल सकते हैं किंतु यह दूर की कौड़ी है क्योंकि काँग्रेस वर्तमान में अधिक से अधिक किसी सम्मानजनक गठबन्धन तक पहुँचने का सपना ही देख सकती है। यदि बसपा इतनी कमजोर हो जाती है कि वह काँग्रेस से प्रत्यक्ष या परोक्ष समझौता कर ले तो दोनों को फायदा हो सकता है बशर्ते वे टिकिट देने के सबसे कम विवाद वाले किसी फार्मूले पर पहुँच सकें।
बहुजन समाज पार्टी के पास पिछले विधानसभा चुनावों तक अपना ऐसा वोट बैंक रहा है जो आँख कान बन्द करके मायावती के नाम पर वोट देता रहा है। उनके दल को आरक्षण का लाभ पाये हुए कर्मचारी और अधिकारियों का एक वर्ग भी आर्थिक व प्रशासनिक सहायता देता रहा है किंतु टिकिटों के बिक्रय के समाचारों और उसके द्वारा दलित विरोधी लोगों को सत्ता के द्वार तक पहुँचाने की घटनाओं ने मायावती की छवि को नुकसान पहुँचाया है। जातियों के विलीनीकरण के आन्दोलन को छोड़ कर उन्होंने जो दुकान खोल ली थी उसका नुकसान सामने आ गया है। अब बहुजन समाज पार्टी के पास बहुजन नहीं अपितु मायावती की अपनी जाति के लोग ही बचे रह गये हैं क्योंकि दूसरी जाति के लोगों ने दल में लोकतंत्र न होने के नाम पर अपनी अपनी जाति के अलग अलग दल बना लिये हैं व जाति गौरव का नारा देकर अपनी जातियों के वोटों की अलग दुकानें खोल ली हैं। अपने समर्थन की दम पर बहुजन समाज पार्टी ने कभी समाजवादी तो कभी भाजपा के साथ सरकार बनायी और हर बार इस निष्कर्ष पर पहुँची कि सारे दल उनके समर्थन का लाभ लेने के लिए ही तालमेल करते हैं व बाद में उनकी जातीय अस्मिता उभर आती है। अब वे गठबन्धन में भरोसा नहीं करते जिसका परिणाम यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में उनका कोई उम्मीदवार नहीं जीत सका भले ही उन्हें चार प्रतिशत मत मिले हों। मुख्तार अंसारी और ओवैसी मुस्लिम मतों को भटकाने के लिए अपने अलग उम्मीदवार उतार सकते हैं जो किसी को भी जिताने हराने का काम कर सकते हैं। ये समय और परिस्तिथियां ही बतायेंगीं कि वे किस पर कैसा प्रभाव डालते हैं।
घटनाएं और षड़यंत्र अभी और घटने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। टीवी लगातार राजनीतिक प्रशिक्षण दे रहा है इसलिए चुनाव परिणाम ही बतायेंगे कि कौन मतदाता कितना जातियों से ऊपर उठ  चुका है और कितने लोगों को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के षड़यंत्र समझ में आने लगे हैं, पर इतना तय है कि पुराने जातीय समीकरणों में परिवर्तन अवश्य ही परिलक्षित होगा। जब दलों की जीत की भविष्यवाणी करना मुश्किल हो जाये तो समझ लेना चाहिए की जनता की जीत का समय पास आ रहा है।
  वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629



      

शुक्रवार, जुलाई 15, 2016

कश्मीर के बाहर कश्मीर समस्या

कश्मीर के बाहर कश्मीर समस्या
वीरेन्द्र जैन

कश्मीर अगर समस्या बन गया है तो उसके दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा विभाजित हिन्दुस्तान में कश्मीर राज्य के विलय से सम्बन्धित है तो दूसरा हिस्सा भाजपा या संघ परिवार द्वारा अपने राजनीतिक हित के लिए उसको साम्प्रदायिक कोण से देखने की ही नहीं अपितु उसे और अधिक साम्प्रदायिक रूप से प्रस्तुत करने की भी है।
कश्मीर के इतिहास में कभी साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुये। उल्लेखनीय यह भी है कि देश विभाजन के दौर में जब गाँधीजी कश्मीर गये थे तब उनका स्वागत फूलमालाओं से किया गया था दूसरी ओर जब ज़िन्ना वहाँ गये थे तब उन्हें काले झंडे दिखाये गये थे। नब्बे के दशक में पाकिस्तान से घुसपैठ करके आये आतंकियों ने जब अपनी आतंकी कार्यवाहियों के साथ साथ कश्मीरी पंडितों पर भी हमले किये तो वे सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ से भाग कर राज्य के दूसरे इलाके जम्मू में बस गये। यह लगभग वैसा ही था जैसे कि चम्बल और बुन्देलखण्ड क्षेत्र में डकैतों के डर से साहुकार लोग गाँव छोड़ कर नगरों में बस गये या जातिवादी उत्पीड़न से बहुत सारे मजदूर दिल्ली में भवन निर्माण मजदूर हो गये, जहाँ भले ही उन्हें मजदूरी की राशि और महानगर के व्यय के अनुपात में कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं हुआ हो किंतु उन्हें जाति आधारित अपमान नहीं सहना पड़ता। बुन्देलखण्ड के छतरपुर, टीकमगढ, पन्ना, महोबा, बाँदा, आदि जिलों में सामंती उत्पीड़न की कहानियां बाहर तक नहीं आ पातीं। तत्कालीन सरकार द्वारा कूटनीतिक कारणों से कश्मीरी पंडितों को न केवल समुचित आर्थिक सहायता, राशन, व निवास स्थल ही दिया गया  अपितु उनकी समस्याओं व उन पर हुयी ज्यादतियों का भरपूर प्रचार भी किया गया। बाद में तो हालात यह हुयी कि उनमें से बहुत सारे लोग असुरक्षा के बहाने कश्मीर वापिस नहीं लौटना चाहते रहे पर अपनी पीड़ा का बयान पीड़ा से कई गुना अधिक करते रहे।
यह सच है कि विस्थापन पीड़ादायक होता है और जीवन पर बहुत दुष्प्रभाव डालता है, किंतु इतिहास में इस पीड़ा को झेलने वाले कश्मीरी पंडित अकेले नहीं हैं। देश के विभाजन के दौर में सिन्धियों, पंजाबियों, बंगालियों आदि की पीड़ाओं की असंख्य मार्मिक कथाएं हैं। आजादी के बाद विकास के नाम पर जो बाँध बनाये गये उनसे उजड़ने वालों की दर्दनाक कहानियां नर्मदा बचाओ आन्दोलन सहित इस क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के मुँह से सुनने पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उजड़ने का मुआवजा बाँटने वाले अफसरों के घरों से सैकड़ों करोड़ रुपये आये दिन पकड़े जा रहे हैं जो अपराधी गिरोह की हांड़ी के दो चार चावलों में से होते हैं। ये घटनाएं बताती हैं कि सरकारी कोष से मुआवजे के नाम पर निकाला गया अपर्याप्त पैसा भी पीड़ितों तक नहीं पहुँच पाता।  
भाजपा की विभाजनकारी राजनीति के प्रचार अभियान में कश्मीरी पंडितों का मामला हिन्दू मुस्लिम का मामला बना कर पेश किया जाता है। इस के साथ में वे यह झूठ भी लपेट देते हैं कि देश का विभाजन हिन्दू मुस्लिम देशों के रूप में हुआ था और हिन्दुओं के देश में ही हिन्दुओं को पलायन करना पड़ना रहा है व शरणार्थी की तरह रहना पड़ रहा है। नासमझ सरल लोग इस दुष्प्रचार में आ जाते हैं जब कि सच यह है कि देश के विभाजन के समय भले ही पाकिस्तान की पहचान एक मुस्लिम देश के रूप में बनी हो किंतु हिन्दुस्तान ने सर्वसम्मति से खुद को एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया था जिसमें नागरिकों के बीच लिंग, धर्म, जाति, रंग और भाषा के आधार पर कोई भेद न होने की घोषणा की गयी थी व बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों ने इसी देश में रहना मंजूर किया था। अम्बेडकर के नेतृत्व में पाँच लाख से अधिक दलितों द्वारा हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म अपनाने पर कोई हलचल नहीं हुयी थी।
यह इतिहास तो सर्वज्ञात है कि किस तरह महाराजा हरि सिंह के समानांतर कश्मीर में शेरे’कश्मीर शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में व्यवस्था चल रही थी व वे ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन से लेकर अनेक मांगें  मनवा चुके थे। जनता के प्रतिरोध से डर कर महाराजा हरि सिंह केवल जम्मू के महल तक सीमित होकर रह गये थे पर फिर भी वे अंत अंत तक यही चाहते रहे कि उनके राज्य का विलय न हिन्दुस्तान में हो और न ही पाकिस्तान में हो। जब किराये के अफगानी सैनिकों के सहारे पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला करा दिया जिसका मुकाबला शेख अब्दुल्ला के सैनिकों ने किया व भारत सरकार को साथ साथ मुकाबले के लिए कहा तब दबाव में महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये। इस तरह हम आधा कश्मीर बचा पाये। शेख अब्दुल्ला के साथ किये गये समझौते के भंग होने, कठपुतली सरकारों के बनते बिगड़ते रहने से कश्मीर में एक अलगाववादी आन्दोलन हमेशा बना रहा जो पाकिस्तान के समर्थन और घुसपैठियों के आतंकी कारनामों के कारण कम ज्यादा होता रहा। तत्कालीन परिस्तिथियों में भाजपा ने पीडीपी के नेतृत्व में बेमेल गठबन्धन की सरकार बनायी। इसी दौर में आतंकी गतिविधियों व घुसपैठियों के प्रवेश में बढोत्तरी हुयी।
अपने राजनीतिक लाभ के लिए भाजपा एक ओर तो नेहरू की छवि को ध्वस्त करने के लिए सारी समस्याओं का ठीकरा नेहरू के सिर फोड़ती रहती है व उनकी भक्त मंडली सोशल मीडिया पर अपशब्दों का प्रयोग करती रहती है। दूसरी ओर वह कश्मीर को हिन्दू बनाम मुसलमान की तरह प्रस्तुत करके यह प्रचारित करती रहती है कि कश्मीर के सारे मुस्लिम नागरिक  आतंकवाद के समर्थक हैं और वे पाकिस्तान से धन प्राप्त करके सेनाओं पर पत्थर फिंकवाते हैं। सच तो यह है कि नेहरू जो खुद कश्मीरी पंडित थे, के संकल्प के कारण ही कश्मीर भारत का हिस्सा बना रह सका। जिस कश्मीर में अब तक अलगाववादी आन्दोलन में 94000 से अधिक लोग मारे जा चुके हों वहाँ कूटनीतिक प्रयास ही करने पड़ेंगे। भाजपा को समझना चाहिए कि अब वह सत्ता में है और उसे खुद को विपक्षी दल समझने की आदत को भूल जाना चाहिए। जरूरी है कि वह विपक्षी के रूप में दिये गये असंगत बयानों से दूरी बना ले। कश्मीर का भूभाग ही नहीं अपितु उस क्षेत्र में रहने वाले भी हमारा अभिन्न अंग हैं, उन्हें दुश्मनों की तरह नहीं मारा जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

          

सोमवार, जुलाई 04, 2016

राज्यसभा के प्रतिनिधित्व का एक नमूना

राज्यसभा के प्रतिनिधित्व का एक नमूना

वीरेन्द्र जैन
एसोशियेशन आफ डेमोक्रेटिक रिफोर्म [एडीआर] एक ऐसी संस्था है जिसने देश में अनेक चुनाव सुधार करवाये हैं और अभी भी इस दिशा में लगातार सक्रिय है। सिद्धांत और व्यवहार का जो दोहरापन हमारे लोकतंत्र में चल रहा था उसे सामने लाकर इस संस्था ने देश की जनता और उसके कर्णधारों को सोचने के लिए दिशा दी है। इस संस्था के प्रयासों के कारण ही अब हर उम्मीदवार को अपनी शिक्षा सम्पत्ति और दायित्वों तथा उस पर चल रहे प्रकरणों के सम्बन्ध में शपथपत्र देना होता है। यह संस्था उन समस्त शपथपत्रों को समेकित करके रिपोर्ट तैयार करती है और सूचना माध्यमों द्वारा जनता के सामने रखती है।
जन विश्वास है कि चुनावी नेताओं द्वारा दिये गये शपथपत्र शतप्रतिशत भले ही तकनीकी रूप से सही हों किंतु वे चुनावों में जिस तरह से धन बहाते हैं उससे वे असत्य ही लगते हैं। एडीआर ने शपथपत्रों के आधार पर हाल ही में चुने गये 57 राज्यसभा सदस्यों के चरित्रों की जाँच पड़ताल की है। इसके निष्कर्ष संवेदनशील सामाजिक सोच वाले व्यक्तियों के लिए विचारोत्तेजक हो सकते हैं।   
·         चुने गये सभी 57 सदस्यों में से 55 [96%] करोड़पति हैं जिनसे समाज के अंतिम व्यक्ति की सेवा करने की उम्मीद की जाती है। इन सदस्यों की औसत सम्पत्ति 35.84 करोड़ रुपये है।
·         कुल 19 सांसदों पर एक करोड़ से अधिक की देनदारी भी है।
·         उम्र की दृष्टि से दोनों ओर के रिकार्ड बिहार की आरजेडी ने तोड़े हैं जिसमें एक ओर तो 92 वर्ष के रामजेठमलानी चुने गये हैं तो दूसरी ओर 41 वर्ष की मीसा भारती भी चुनी गयी हैं। बीच की उम्र के 25 [44%] 41 से 60 वर्ष के बीच के हैं तो 31 [54%] 61 से 80 वर्ष की उम्र के हैं।
·         33% महिलाओं का जोर शोर से समर्थन करने वाले दलों ने कुल 4 [7%] महिलाओं को उच्च सदन में भेजा ।  
·         इन सदस्यों में से सभी के पास शिक्षा के प्रमाणपत्र हैं जिनमें से 2 [4%] पीएचडी 33 [58%] स्नातकोत्तर, 18 [32%] स्नातक और 3 [5%] मैट्रिकुलेट हैं।
·         इन [सु]शिक्षित करोड़पति राजनेताओं में से 13 [23%] के खिलाफ आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं ऐसा उन्होंने अपने शपथपत्र में बताया है।
·         सबसे अधिक सम्पत्ति घोषित करने वालों में पहला नाम शरद पवार की पार्टी एन सी पी के प्रफुल्ल पटेल हैं जिनकी सम्पत्ति 252 करोड़ है तो दूसरे नम्बर पर काँग्रेस के कपिल सिब्बल हैं जिनकी सम्पत्ति 212 करोड़ है। तीसरे नम्बर पर भी भाजपा नहीं है अपितु बीएसपी के सतीश चन्द्र मिश्रा हैं जिनकी घोषित सम्पत्ति 193 करोड़ है।
·         सबसे कम सम्पत्ति वालों में भाजपा ने पहले दो स्थान अर्जित किये हैं जिनमें 66 लाख की सम्पत्ति घोषित करने वाले अनिल माधव दवे हैं तो 86 लाख की सम्पत्ति घोषित करने वाले रामकुमार हैं। तीसरे नम्बर पर् एक करोड़ आठ लाख घोषित करने वाले काँग्रेस के प्रदीप टम्टा हैं।
·         इनमें से कुछ दोबारा चुने गये हैं और पिछले चुनाव के दौरान घोषित सम्पत्ति की तुलना में इन्होंने चौंकाने वाली प्रगति दर्ज की है। एक बार फिर भाजपा के श्री अनिल माधव दवे का उल्लेख आया है जिन्होंने 2010 के चुनाव में कुल दो लाख पचहत्तर हजार की कुल सम्पत्ति से 2111% का विकास करके 66 लाख तक पहुँचे हैं। दूसरे नम्बर पर शिवसेना के श्री संजय राजाराम रावत हैं जिन्होंने 2010 में घोषित एक करोड़ 51 लाख से 14 करोड़ 22 लाख अर्थात 841% की आर्थिक प्रगति घोषित की है। तीसरे नम्बर पर प्रगति के प्रतिशत में बीएसपी के श्री सतीश चन्द्र मिश्रा हैं जिन्होंने 2010 में घोषित 24 करोड़ 18 लाख से 193 करोड़ तक पहुँच कर 698% विकास करने की घोषणा की है।
·         राजनीति से समाज सेवा करते हुए वर्ष 2014-15 की आयकर विवरणी में सबसे अधिक आय घोषित करने वाले काँग्रेस के कपिल सिब्बल हैं जिन्होंने 39 करोड़ से अधिक की आय घोषित की है तो दूसरे नम्बर पर भी काँग्रेस के श्री विवेक तन्खा हैं जिन्होंने 15 करोड़ 19 लाख से अधिक की आय घोषित की है। तीसरे नम्बर पर एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल हैं जिन्होंने भी 15 करोड़ से अधिक की पारिवारिक आय दर्शायी है।
आंकड़े बहुत सारे हैं पर सब का निष्कर्ष यही है कि राज्यसभा में पहुँचने वाले ज्यादातर पैसे वाले या उनके प्रतिनिधि ही होते हैं, जिनमें से भी ज्यादातर वकील होते हैं। विकास का पाठ पढाने वाले कालेजों को राज्यसभा के अनेक सांसदों को आमंत्रित कर आर्थिक विकास पर व्याख्यान आयोजित करवाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629