शुक्रवार, जुलाई 15, 2016

कश्मीर के बाहर कश्मीर समस्या

कश्मीर के बाहर कश्मीर समस्या
वीरेन्द्र जैन

कश्मीर अगर समस्या बन गया है तो उसके दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा विभाजित हिन्दुस्तान में कश्मीर राज्य के विलय से सम्बन्धित है तो दूसरा हिस्सा भाजपा या संघ परिवार द्वारा अपने राजनीतिक हित के लिए उसको साम्प्रदायिक कोण से देखने की ही नहीं अपितु उसे और अधिक साम्प्रदायिक रूप से प्रस्तुत करने की भी है।
कश्मीर के इतिहास में कभी साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुये। उल्लेखनीय यह भी है कि देश विभाजन के दौर में जब गाँधीजी कश्मीर गये थे तब उनका स्वागत फूलमालाओं से किया गया था दूसरी ओर जब ज़िन्ना वहाँ गये थे तब उन्हें काले झंडे दिखाये गये थे। नब्बे के दशक में पाकिस्तान से घुसपैठ करके आये आतंकियों ने जब अपनी आतंकी कार्यवाहियों के साथ साथ कश्मीरी पंडितों पर भी हमले किये तो वे सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ से भाग कर राज्य के दूसरे इलाके जम्मू में बस गये। यह लगभग वैसा ही था जैसे कि चम्बल और बुन्देलखण्ड क्षेत्र में डकैतों के डर से साहुकार लोग गाँव छोड़ कर नगरों में बस गये या जातिवादी उत्पीड़न से बहुत सारे मजदूर दिल्ली में भवन निर्माण मजदूर हो गये, जहाँ भले ही उन्हें मजदूरी की राशि और महानगर के व्यय के अनुपात में कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं हुआ हो किंतु उन्हें जाति आधारित अपमान नहीं सहना पड़ता। बुन्देलखण्ड के छतरपुर, टीकमगढ, पन्ना, महोबा, बाँदा, आदि जिलों में सामंती उत्पीड़न की कहानियां बाहर तक नहीं आ पातीं। तत्कालीन सरकार द्वारा कूटनीतिक कारणों से कश्मीरी पंडितों को न केवल समुचित आर्थिक सहायता, राशन, व निवास स्थल ही दिया गया  अपितु उनकी समस्याओं व उन पर हुयी ज्यादतियों का भरपूर प्रचार भी किया गया। बाद में तो हालात यह हुयी कि उनमें से बहुत सारे लोग असुरक्षा के बहाने कश्मीर वापिस नहीं लौटना चाहते रहे पर अपनी पीड़ा का बयान पीड़ा से कई गुना अधिक करते रहे।
यह सच है कि विस्थापन पीड़ादायक होता है और जीवन पर बहुत दुष्प्रभाव डालता है, किंतु इतिहास में इस पीड़ा को झेलने वाले कश्मीरी पंडित अकेले नहीं हैं। देश के विभाजन के दौर में सिन्धियों, पंजाबियों, बंगालियों आदि की पीड़ाओं की असंख्य मार्मिक कथाएं हैं। आजादी के बाद विकास के नाम पर जो बाँध बनाये गये उनसे उजड़ने वालों की दर्दनाक कहानियां नर्मदा बचाओ आन्दोलन सहित इस क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के मुँह से सुनने पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उजड़ने का मुआवजा बाँटने वाले अफसरों के घरों से सैकड़ों करोड़ रुपये आये दिन पकड़े जा रहे हैं जो अपराधी गिरोह की हांड़ी के दो चार चावलों में से होते हैं। ये घटनाएं बताती हैं कि सरकारी कोष से मुआवजे के नाम पर निकाला गया अपर्याप्त पैसा भी पीड़ितों तक नहीं पहुँच पाता।  
भाजपा की विभाजनकारी राजनीति के प्रचार अभियान में कश्मीरी पंडितों का मामला हिन्दू मुस्लिम का मामला बना कर पेश किया जाता है। इस के साथ में वे यह झूठ भी लपेट देते हैं कि देश का विभाजन हिन्दू मुस्लिम देशों के रूप में हुआ था और हिन्दुओं के देश में ही हिन्दुओं को पलायन करना पड़ना रहा है व शरणार्थी की तरह रहना पड़ रहा है। नासमझ सरल लोग इस दुष्प्रचार में आ जाते हैं जब कि सच यह है कि देश के विभाजन के समय भले ही पाकिस्तान की पहचान एक मुस्लिम देश के रूप में बनी हो किंतु हिन्दुस्तान ने सर्वसम्मति से खुद को एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया था जिसमें नागरिकों के बीच लिंग, धर्म, जाति, रंग और भाषा के आधार पर कोई भेद न होने की घोषणा की गयी थी व बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों ने इसी देश में रहना मंजूर किया था। अम्बेडकर के नेतृत्व में पाँच लाख से अधिक दलितों द्वारा हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म अपनाने पर कोई हलचल नहीं हुयी थी।
यह इतिहास तो सर्वज्ञात है कि किस तरह महाराजा हरि सिंह के समानांतर कश्मीर में शेरे’कश्मीर शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में व्यवस्था चल रही थी व वे ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन से लेकर अनेक मांगें  मनवा चुके थे। जनता के प्रतिरोध से डर कर महाराजा हरि सिंह केवल जम्मू के महल तक सीमित होकर रह गये थे पर फिर भी वे अंत अंत तक यही चाहते रहे कि उनके राज्य का विलय न हिन्दुस्तान में हो और न ही पाकिस्तान में हो। जब किराये के अफगानी सैनिकों के सहारे पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला करा दिया जिसका मुकाबला शेख अब्दुल्ला के सैनिकों ने किया व भारत सरकार को साथ साथ मुकाबले के लिए कहा तब दबाव में महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये। इस तरह हम आधा कश्मीर बचा पाये। शेख अब्दुल्ला के साथ किये गये समझौते के भंग होने, कठपुतली सरकारों के बनते बिगड़ते रहने से कश्मीर में एक अलगाववादी आन्दोलन हमेशा बना रहा जो पाकिस्तान के समर्थन और घुसपैठियों के आतंकी कारनामों के कारण कम ज्यादा होता रहा। तत्कालीन परिस्तिथियों में भाजपा ने पीडीपी के नेतृत्व में बेमेल गठबन्धन की सरकार बनायी। इसी दौर में आतंकी गतिविधियों व घुसपैठियों के प्रवेश में बढोत्तरी हुयी।
अपने राजनीतिक लाभ के लिए भाजपा एक ओर तो नेहरू की छवि को ध्वस्त करने के लिए सारी समस्याओं का ठीकरा नेहरू के सिर फोड़ती रहती है व उनकी भक्त मंडली सोशल मीडिया पर अपशब्दों का प्रयोग करती रहती है। दूसरी ओर वह कश्मीर को हिन्दू बनाम मुसलमान की तरह प्रस्तुत करके यह प्रचारित करती रहती है कि कश्मीर के सारे मुस्लिम नागरिक  आतंकवाद के समर्थक हैं और वे पाकिस्तान से धन प्राप्त करके सेनाओं पर पत्थर फिंकवाते हैं। सच तो यह है कि नेहरू जो खुद कश्मीरी पंडित थे, के संकल्प के कारण ही कश्मीर भारत का हिस्सा बना रह सका। जिस कश्मीर में अब तक अलगाववादी आन्दोलन में 94000 से अधिक लोग मारे जा चुके हों वहाँ कूटनीतिक प्रयास ही करने पड़ेंगे। भाजपा को समझना चाहिए कि अब वह सत्ता में है और उसे खुद को विपक्षी दल समझने की आदत को भूल जाना चाहिए। जरूरी है कि वह विपक्षी के रूप में दिये गये असंगत बयानों से दूरी बना ले। कश्मीर का भूभाग ही नहीं अपितु उस क्षेत्र में रहने वाले भी हमारा अभिन्न अंग हैं, उन्हें दुश्मनों की तरह नहीं मारा जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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