सोमवार, मई 27, 2019

एक भिन्न भारत में एक भिन्न लोकतंत्र का उदय


 एक भिन्न भारत में एक भिन्न लोकतंत्र का उदय
वीरेन्द्र जैन

आम चुनाव से ठीक पहले भाजपा के एक सांसद साक्षी महाराज ने कहा था कि 2019 के चुनाव आखिरी चुनाव होंगे। शायद उनका आशय इस बात से रहा होगा कि 2019 में जीत जाने के बाद विपक्षी दल इतने क्षत विक्षत हो जायेंगे कि लम्बे समय तक चुनाव में उतरने लायक नहीं बचेंगे, इसलिए फिर उसके बाद आम चुनाव पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों की तरह औपचारिकता भर हो कर रह जायेंगे। इसी बात को दूसरी तरह से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि 2050 तक भाजपा ही राज करेगी। उल्लेखनीय है कि चुनाव परिणाम देते समय विभिन्न न्यूज चैनल जो ग्राफिक्स दिखा रहे थे उनमें से अनेक ने भाजपा प्लस दिखाने की जगह मोदी प्लस का टाइटिल लगाया था जिसका मतलब है कि अब भाजपा की जगह एक व्यक्ति नरेन्द्र मोदी ने ले ली है। एक चैनल तो परिणामों के साथ एक फिल्मी गीत सुना रहा था- मैं ही मैं हूं, मैं ही मैं हूं, दूसरा कोई नहीं। यह बिल्कुल इन्दिरा इज इंडिया की याद दिला रहा था।
भले ही यह बात जोर शोर से नहीं स्वीकारी जाती हो किंतु यह ज्वलंत सत्य है कि भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का आनुषंगिक संगठन है और इससे सम्बन्धित अंतिम फैसला वहीं से होता है। 2013 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री प्रत्याशी के रूप में चुनाव में उतारने का फैसला भाजपा के लोगों ने नहीं अपितु संघ ने ही लिया था जबकि इस फैसले के कुछ दिन पहले ही अरुण जैटली ने कहा था कि हमारी पार्टी में दस से अधिक लोग इस पद के योग्य हैं। घोषणा के एक दिन पूर्व ही वे कहने लगे थे कि मोदी को तुरंत प्रत्याशी घोषित कर देना चाहिए नहीं तो भाजपा हिट विकेट हो जायेगी। संघ ने तुरंत ही अडवाणी, सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान, और एनडीए सहयोगी बाल ठाकरे की असहमति के बाद भी मोदी को प्रत्याशी घोषित कर दिया था। मोदी की शर्त के अनुसार ही प्रचारक संजय जोशी को न केवल समस्त जिम्मेवारियों से मुक्त कर दिया गया था, अपितु उत्तर प्रदेश के घोषित हो चुके प्रभारी के पद से भी हटा दिया गया था। उसके बाद भाजपा का स्वरूप बदलता गया और वह अटल अडवाणी युग से बाहर निकल आयी। क्रमशः उसके पोस्टरों में से अटल अडवाणी आदि गायब होने लगे। आम सभाओं में किसी भी कीमत पर भीड़ जुटाने की योजनाएं बनायी गयीं। गुजरात से आये हुए लोगों का एक समूह सभा के बीच में मोदी मोदी के नारे लगा कर पार्टी की जगह व्यक्ति को स्थापित करने के बीज बोने लगा था। ड्रोन कैमरे से वास्तविक भीड़ को कई गुना दिखाने और उसके लाइव प्रसारण की व्यवस्थाएं की गयी थीं। अपनी छवि बनाने और विरोधियों की छवि बिगाड़ने में सोशल मीडिया का स्तेमाल और नैट वर्क तैयार कर लिया गया था जबकि विपक्षियों ने तब तक उस बारे में सोचा ही नहीं था। थ्री डी वीडियो तकनीक से मोदी जी के भाषण एक साथ दर्जनों जगह प्रसारित होने लगे थे। सोशल मीडिया पर अतिरंजित फालोइंग बताने की व्यवस्था कर ली गयी थी किंतु उसकी पोल खोलने वाले समाचार को सही प्रसारित नहीं होने दिया गया। जो कार्पोरेट घराने अपनी पसन्द का प्रधानमंत्री बनवाना चाहते थे उन्होंने ही प्रमुख मीडिया हाउसों को खरीद लिया था या उनसे सौदा कर लिया था. ताकि प्राइम टाइम पर पक्षधर एंकर ही संचालन करे। तत्कालीन सरकार और उसके नेताओं या रिश्तेदारों पर लगे आरोपों को उनकी छवि बिगाड़ने के लिए मीडिया पूरा प्रयास कर रहा था।
चालीस से अधिक दलों के साथ गठबन्धन बनाया गया था, चुनाव प्रबन्धन के लिए प्रशांत किशोर जैसे प्रबन्धकों को नियुक्त किया गया था। फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों, और अन्य सेलिब्रिटीज को उनके प्रभाव क्षेत्र के अनुसार टिकिट दिया गया था। दूसरे दलों के नेताओं को दल बदल करा के भरती किया गया था और टिकिट देने में उदारता बरती गयी थी, तब जाकर पश्चिमी और उत्तरी भारत में अर्जित 31 प्रतिशत मतों के सहारे पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी जो पूरे पाँच साल तक चुनावी मूड में रही।
लोकसभा के चुने हुये प्रतिनिधि केवल बहुमत की संख्या बनाने के लिए थे, उनमें से ज्यादातर को सरकार चलाने की कोई जिम्मेवारी नहीं दी गयी। इतना ही नहीं उन्हें सांसद निधि को व्यय करने की स्वतंत्रता भी नहीं दी गयी। मंत्रिमण्डल के प्रमुख विभाग राज्यसभा के चयनित सदस्यों जैसे, अरुण जैटली-वित्तनिर्मला सीतारमण-रक्षा, प्रकाश जावड़ेकर-मानव संसाधनपीयूष गोयल-रेलवे,कोल,विजय गोयल-पार्लियामेंट्री अफ़ेयर जगत प्रशाद नड्डा-स्वास्थ, धर्मेंद्र प्रधान-पेट्रोलियम, मुख्तार अब्बास नकवी-अल्पसंख्यक, सुरेश प्रभु-कॉमर्स,इंडस्ट्री स्मृती ईरानी-कपड़ा, रवि शंकर प्रसाद-लॉ,न्याय, हरदीप सिंह पूरी-गृह निर्माण,शहरी विकास, चौधरी वीरेंद्र सिंह-स्टील, अल्फोंसा-पर्यटन,इलेक्ट्रॉनिक, आदि को दिये गये। ये जनता के चुने हुए नहीं नेताओं के चुने हुये लोग हैं जिनमें से अनेक कार्पोरेट घरानों के द्वारा निर्देशित होंगे, जैसा कि नीरा राडिया मामले में हम लोग देख चुके हैं।
असफल वित्तीय व्यवस्था पर लगाये गये चुनिन्दा पदाधिकारियों, वित्तीय विशेषज्ञों के आरोपों को दबाने के लिए कभी देशद्रोह, कभी लव जेहाद, कभी गौ हत्या, कभी राम मन्दिर, कभी तीन तलाक, आदि आदि के नाम पर टीवी में बहसें छेड़ी जाती रहीं जो साम्प्रदायिकता से भरी हुयी होती थीं।
2019 आम चुनाव के परिणाम सचमुच चौंकाने वाले हैं। जीत के अंतर को देखते हुये प्रथम दृष्टि में ये सन्देहास्पद लगते हैं, किंतु परिणाम आने के बाद बिना किसी सबूत के ईवीएम आदि पर आरोप लगाना भी गलत होता है। इसलिए इन्हें यथावत सच मानते हुये इनका विश्लेषण करना होगा। अभी तक चुनाव परिणाम केवल सम्बन्धित दलों के कार्यों, योजनाओं, पर ही निर्भर नहीं करते थे अपितु, जाति, धर्म, धन, स्थानीय दबाव, आदि की भूमिका भी रहती थी। अब मोदीजी का कहना है कि आज के भारत के इन चुनावों में जाति धर्म, के आधार को छोड़ते हुये जनता ने सामाजिक विकास के आधार पर उनके पक्ष में मतदान किया है।[]वे यह नहीं बताते कि बेगुसराय में गिरिराज सिंह को कन्हैया के खिलाफ क्यों लगाया गया था] अगर ऐसा है तो यह एक बड़ा बदलाव है, भले ही वह गलत सूचनाओं के आधार पर लिया गया फैसला हो। आर्थिक क्षेत्र में लिये गये गलत निर्णयों को विभिन्न पदाधिकारियों के त्यागपत्रों से ही नहीं सुब्रम्यम स्वामी के बयानों से भी समझा जा सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में देशवासियों को लगातार अँधेरे में रखा ही जा रहा है, और उनकी राष्ट्रीय भावनाओं को भुनाया जा रहा है। सच कहने वालों को देशद्रोही कह कर मीडिया में शोर मचा दिया जाता है, ताकि संवाद न हो सके। यदि इतने अधिक लोगों ने अँधेरे को रौशनी मान लिया है तो निश्चित रूप से यह एक भिन्न भारत है और यह उसका भिन्न लोकतंत्र है। अब जो भी चुनाव होंगे वे इसी तरह के असत्य या अर्धसत्य आधारित होंगे और न होने के बराबर होंगे। न कोई राफेल सौदे के सच के बारे में जान सकेगा और ना ही सर्जीकल और एयर स्ट्राइक के बारे में। एक शेर है-
मैंने जब भी बात अपनी कहने की कोशिश करी
बस उसी क्षण आपकी जयकार के नारे लगे  
  वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629    


शनिवार, मई 18, 2019

चुनाव अनुमान और मोदी का भविष्य


चुनाव अनुमान और मोदी का भविष्य  
वीरेन्द्र जैन
2019 के आम चुनाव लगभग समाप्ति की ओर हैं, और परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जा रही है। किसी भी पार्टी की जीत की संभावना के सन्देशों पर भरोसा हो जाने से चुनाव में गुणात्मक प्रभाव पड़ता है, इसलिए सरकार बनाने के लिए संघर्षरत हर दल या गठबन्धन अपनी जीत का वातावरण बनाने में लगे रहते हैं। क्रमशः नेताओं की विश्वसनीयता घटने के बाद अब पार्टियां तरह तरह के झूठे सर्वेक्षणों, मीडिया की प्रायोजित बहसों, आलेखों आदि से अपनी लोकप्रियता और जीत का भ्रम पैदा करते हैं। दूसरी ओर कुछ भिन्न महसूस करने वाला मतदाता सोचता है कि या तो इन्हें साफ साफ परिदृश्य नहीं दिखता या ये हमें जानबूझ कर धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा के चुनावों में काँग्रेस, भाजपा ही नहीं अपितु जीतने वाली आम आदमी पार्टी के नेता भी जीतने वाले प्रत्याशियों की संख्या के प्रति जितने भ्रमित थे, उससे उनके जनता के मूड को समझने की क्षमता का पता चलता है। 2014 के आम चुनावों में भी किसी को यह अनुमान नहीं था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व के बाद भी भाजपा और एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलेगा व यूपीए के दलों की सीटें इतनी कम रहेंगीं कि विपक्षी नेता पद के लिए जरूरी सीटें भी नहीं मिल पायेंगीं।
चुनाव के दौरान भाजपा के नेताओं ने अपनी जीत के आंकड़े बालाकोट में मृतकों की संख्या की तरह प्रस्तुत किये। ऐसे आंकड़े देने में न केवल अमित शाह ही थे अपितु नरेन्द्र मोदी स्वयं भी बार बार किसी भी सैफोलोजिस्ट या राजनीतिक संवाददाता के अनुमानों से कई गुना अधिक आंकड़े दे रहे थे। दूसरी ओर वे अपना सारा जोर पश्चिम बंगाल और उड़ीसा पर लगा रहे थे। साथ ही अंतिम प्रायोजित साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा कि गठबन्धन सरकार चलाने में भी वे अनाड़ी नहीं हैं।
कोई कुछ भी कहे पर 2019 का आम चुनाव मोदी केन्द्रित चुनाव था जिसमें अपने गठबन्धन और पार्टी के विरोधी गुटों से अलग नरेन्द्र मोदी अकेले विचर रहे थे। अमित शाह उनकी ही परछांई की तरह दो जिस्म एक जान हैं। वैसे  भाजपा ने भगवा भेषधारी अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी अदित्यनाथ को छोड़कर किसी को स्टार प्रचारक नहीं माना। जो पार्टी विधानसभा चुनावों में बिना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित किये चुनाव लड़ती रही है, वह शुरू से ही प्रधानमंत्री प्रत्याशी के रूप में मोदी का नाम प्रस्तावित करती रही क्योंकि अपने सबसे बड़े समर्पित भक्त को पार्टी अध्यक्ष बनवा कर और सरकार में सबका मुँह बन्द करके वे जो चाहें वह कर सकने में सक्षम रहे। जब चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हो जाता है तो विरोध भी व्यक्ति केन्द्रित हो जाता है और छवि बनाने के लिए जितना मेकअप किया जाता है, उतना ही प्रयास छवि को उघाड़ने और विकृत करने के लिए होता है। इसलिए दोनों ओर मोदी ही मोदी रहा।
मोदी ने जो पिछली बार करना चाहा था वह काम इस बार उन्होंने प्रत्याशी चयन में कर दिखाया। एक भी प्रत्याशी ऐसा नहीं है जिसका कद मोदी से बड़ा हो या जिसकी कमीज के दाग दबे छुपे रह गये हों। लालकृष्ण अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, येदुरप्पा, शांता कुमार, सुमित्रा महाजन, कलराज मिश्रा, नज़मा हेपतुल्ला आदि को उम्र के नाम पर टिकिट वंचित कर दिया गया तो राम जेठमलानी, सुषमा स्वराज, उमा भारती, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, परेश रावल आदि ने दूरदर्शिता से स्वयं को बेइज्जत होने से बचा लिया। जिन्हें प्रत्याशी बनाया गया उनकी एक मात्र योग्यता या तो गैर राजनीतिक कारणों से उनकी निजी लोकप्रियता रही जैसे हेमा मालिनी, सनी देवल, किरण खेर, जयाप्रदा, मनोज तिवारी, रवि किशन, निरहुआ, बाबुल सुप्रियो, राज्यवर्धन सिंह राठौर, गौतम गम्भीर, निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, प्रज्ञा ठाकुर या पार्टी के रिटायर्ड राजनेताओं के वंशज रहे। युवा चेहरों की सबसे प्रमुख प्रतिभा उनकी अतार्किकता और मोदी भक्ति ही रही। उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो कन्हैया कुमार जैसी प्रतिभा का धनी हो। अपनी लगन और वैचरिक समर्पण के कारण साधारण परिवार से निकले नरेन्द्र मोदी या शिवराज सिंह चौहान को अब इस मोदी जनता पार्टी में प्रवेश नहीं मिल सकता। मोदी राज्यसभा के चयनित सदस्यों के सहारे सरकार चलाने में भरोसा रखते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि बड़ी घटौत्री के बाद भी मोदी अब भी अन्य सब नेताओं से अधिक स्वीकार्य नेता हैं, किंतु यह भी सच है कि वे अब लोकप्रिय नेता नहीं हैं। उन्होंने जिन नकली प्रयासों से अपने कद को ऊंचा करने का प्रबन्धन किया उनमें से ज्यादातर की कलई खुल गयी है। भाजपा में शेष बचे जो लोग हैं वे उनकी चुनाव जिता सकने की क्षमता से चमत्कृत लोग हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की कमजोर गठबन्धन वाली सरकार के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सत्ता का सुख भोग सके हैं। इसलिए नरेन्द्र मोदी तब तक ही उनके नेता हैं जब तक वे उन्हें और पार्टी को जिताने की क्षमता रखते हैं। कार्पोरेट जगत भी तब तक ही पीछे से बल देता है। चुनाव हारने के बाद मोदी केवल अमित शाह के नेता बने रह सकते हैं। चुनाव से पहले एनडीए में सम्मलित शिवसेना ने जिस भाषा में मोदी को याद किया था उसके बाद मोदी की उनसे गलबहियां इस बात का संकेत थीं कि मोदी खुद को कमजोर समझ रहे हैं और दूसरे लाख फुंकार भरते रहने के बाद भी वे स्वाभिमानी नेता नहीं हैं। उ,प्र, में राजभर की पार्टी छोड़ कर जा चुकी है, अपना दल भी आँखें दिखा कर अपना हिस्सा ले जा चुकी है। सावित्री बाई फुले ने खुद और उदितराज ने टिकिट कटने के बाद भाजपा छोड़ दी  थी। लाख कोशिशों के बाद भी एनसीपी, बीजू जनता दल, ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू, वायएसआर काँग्रेस केसीआर आदि ने इनसे समझौता नहीं किया और आगे भी कोई करेगा तो बड़ा हिस्सा वसूलने के बाद करेगा। पंजाब, दिल्ली, बिहार, राजस्थान. म.प्र., छत्तीसगढ, गुजरात आदि में सीटों की संख्या पर मतभेद हो सकता है किंतु उनका घटना तय है।
जैसा कि शरद पवार ने कहा है वह सच है कि स्पष्ट बहुमत न आने की दशा में एनडीए के घटक दलों की पसन्द मोदी नहीं होंगे और भाजपा वाले भी उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर करेंगे। जब वे कार्पोरेट जगत के काम के नहीं होंगे तो मुकेश अम्बानी जैसे लोग तो बीच चुनाव में ही देवड़ा परिवार का समर्थन कर संकेत देने लगते हैं। पराजय के संकेत केवल भाजपा के ही नहीं हैं अपितु मोदी की विदाई के भी हैं। 
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, मई 10, 2019

संस्मरण, प्रदीप चौबे कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या


संस्मरण,  प्रदीप चौबे
कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या
वीरेन्द्र जैन






किसी भी लोकप्रिय व्यक्ति के मित्र होने का दावा बहुत लोग करते हैं जबकि वह उतने लोगों से घनिष्ठता नहीं रख पाता, पर मेरे और प्रदीप चौबे के रिश्ते तब बने थे जब वे उतने लोकप्रिय नहीं थे. जितने बाद में हो गये थे। हम लोग पत्रिकाओं में साथ साथ प्रकाशित होना शुरू हुये. तब लिखने वालों की इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी और प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएं लिखने पढने का शौक रखने वाले लोग पढ लिया करते थे। तब किताबों के प्रकाशन की भी आज कल जैसी बाढ नहीं आयी थी। 1977 के किसी माह में जबलपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका व्यंग्यम में हम लोग साथ साथ मय पते के छपे तो उन्हें पता चला कि मैं भी बैंक की नौकरी में हूं. हम दोनों लोगों ने एक दूसरे को एक ही तारीख को पत्र लिखे और हमारे वे पहले पत्र क्रास कर गये. दोनों ने एक दूसरे की रचनाओं की तारीफ एक साथ की थी, इसीलिए वह 'अहो रूपम अहो ध्वनिम' नहीं थी. तब से लगातार हम लोगों के बीच पत्र व्यवहार रहा। मजे की बात तो यह है कि तब वे अपने डील डौल के कारण अलग से पहचान में आने वाले प्रदीप नहीं थे और तब टीवी इंटरनैट भी नहीं था इसलिए 1982 में जब नागपुर मैं हम लोगों की पहली मुलाकात निश्चित हुयी तब प्रदीप ने लिखा था कि मैं हरे रंग का स्वेटर पहिने होऊंगा उससे पहचान लेना। मैं तब नागपुर में पदस्थ था। बाद में मेल मुलाकातों के किस्से तो बहुत सारे हैं। प्रदीप क्रमशः मंच पर लोकप्रिय होते गये और उन्होंने समझदारी यह की कि बैंक में प्रमोशन नहीं लिया और कैशियर ही बने रहे जिससे उन पर कोई बन्धन लागू नहीं हुआ। इससे उन्हें कवि सम्मेलन के मंचों पर जाने के लिए भरपूर स्वतंत्रता मिली।
वरिष्ठ व्यंग्य कवि माणिक वर्मा की तरह प्रदीप भी मूलतयः गजलगो थे. व्यंग्यजल नाम उन्होंने ही दिया. एक तरह से हिन्दी में स्टेंडअप कामेडी के जनक वे ही थे. बाद में शरद जोशी गद्य व्यंग्य पाठ लेकर मंच पर अवतरित हुये जिसकी शुरुआत मिनी गद्य रचनाओं से प्रदीप कर चुके थे। शरद जोशी भी मंच पर पढने के लिए जिन रचनाओं को तैयार करते थे उनमें एक ही विषय पर छोटी छोटी फब्तियां संकलित की हुयी होती थीं। शरद जोशी ने इस कला में महारत हासिल कर ली थी। प्रदीप और शरद जी दोनों ही लोगों को रचना पाठ की राष्ट्रव्यापी ख्याति रामावतार चेतन के चकल्लस के मंच से मिली थी। मैं भी चेतन जी के आत्मीय लोगों में से था और इस प्रकार चकल्लस परिवार का सदस्य था, यद्यपि उनकी पत्रिका रंग में निरंतर छपने वाला मैं कभी चक्कलस के मंच पर नहीं गया, जबकि चेतन जी ने मेरे संकलन से रचना भी चुन कर रखी थी कि चकल्लस के मंच पर मुझे कौन सी रचना पढनी चाहिए।
प्रदीप के साथ मेरी एक और समानता थी, उन्होंने ग्वालियर में जो एकल काव्य/ रचना पाठ का महत्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किया था वैसा ही उससे पूर्व कभी मैंने सोचा था। भरतपुर में एक समिति भी बना ली थी जिसमें मंच के ही एक और कवि धनेश फक्कड़ भी साथ थे। पहले कवि के रूप में निर्भय हाथरसी का चयन भी कर लिया था किंतु प्रदीप जैसी  कर्मठता के अभाव में योजना को कार्यान्वित नहीं कर सका। बहुत बाद जब प्रदीप ने उसे पूरा कर दिखाया तो मुझे अपनी जैसी योजना के सफल होने पर बहुत खुशी हुयी थी, लगा था कि मैं गलत नहीं सोच रहा था। प्रारम्भ संस्था की रचना पाठ की इस श्रंखला में उन्होंने देश के प्रमुख रचनाकारों को क्रमशः बुलाया जिसमें कृष्ण बिहारी नूर और के पी सक्सेना सहित एक दो और कार्यक्रम सुनने का अवसर मुझे भी मिला। इस वार्षिक कार्यक्रम में ग्वालियर नगर के सुधी श्रोता और समर्थ साहित्य प्रेमी स्वरुचि से एकत्रित होते थे। भरोसा जगता था कि साहित्य के प्रति प्रेम अभी जिन्दा है व सम्प्रेषणीय साहित्य ही प्रेमचन्द, और परसाई की परम्परा को आगे बढायेगा।
प्रदीप बेलिहाज होकर खुल कर बात करते थे. जबकि मेरे अन्दर सदैव एक संकोच सा रहा। मैं सोच कर बोलता रहा  कि किसी को बात बुरी न लग जाये. प्रदीप और ज्ञान चतुर्वेदी दोनों की स्पष्टवादिता मुझे पसन्द रही है क्योंकि मेरे खुद के अन्दर उसका अभाव रहा है। वे देश के सुप्रसिद्ध कवि शैल चतुर्वेदी के सगे छोटे भाई थे जिसका पता मुझे तब लगा जब आगरा में आयोजित उनके परिवार में होने वाले विवाह समारोह का आमंत्रण मिला। उन्होंने न तो अपनी पहचान शैल चतुर्वेदी के भाई के रूम में बनाई और न ही उनके भाई होने को ही भुनाया।
 उनके कृतित्व को हास्यकवि तक सीमित नहीं किया जा सकता, भले ही वे हास्य व्यंग्य के शिखर के कवियों में थे  और मंच पर प्रतिष्ठित अन्य कवियों की तुलना में अधिक सारगर्भित रचनाएं प्रस्तुत करते थे। किसी व्यंग्य विचार को रूपक में ढालने और उसे मंच पर प्रस्तुत करने में वे बेजोड़ थे। वे हास्य व्यंग्य की रचनाओं के पाठ को बैंक की नौकरी की तरह आजीविका का साधन मानते थे, किंतु उनकी असली प्रतिभा का नमूना उनकी गज़लों, और उनके द्वारा सम्पादित और प्रकाशित वार्षिक पत्रिका प्रारम्भ की रचनाओं के चयन में दिखती है जिसके अंकों में दुनिया भर के श्रेष्ठतम गज़लकारों की श्रेष्ठतम रचनाएं संकलित हैं। एक साक्षात्कार में जब सुप्रसिद्ध कहानीकार और पहल के सम्पादक ज्ञानरंजन से पूछा गया कि आपने कथा लेखन क्यों बन्द कर दिया तो उन्होंने प्रतिप्रश्न किया था कि आप पहल के सम्पादन को रचनाकर्म क्यों नहीं मानते। प्रदीप ने ‘प्रारम्भ’ में प्रकाशित करने के लिए जिन रचनाओं के अम्बार को खंगाल कर मोती चुने होंगे वह काम कोई सामान्य प्रतिभा का व्यक्ति नहीं कर सकता। वे जिन पत्रिकाओं से जुड़े रहे उनसे उनकी रुचि और समझ का पता चलता है। मैंने दर्जनों बार उनके हाथ में सारिका, धर्मयुग और हंस के अंक देखे और देख कर अच्छा लगा। वे ज्यादा अपने से लगे।
एक गज़ल में उनका एक मिसरा था- यादों का दरवाजा बा है, आना है तो आ जाओ। मैंने पूछा यह ‘बा’ क्या है, तो बोले तुम रोज ही तो प्रयोग करते होगे, जैसे मुँह बाना, अर्थात खुला हुआ। मैंने इस शब्द का ऐसा प्रयोग पहली बार ही देखा था। ऐसे ही याद आया कि हम लोग अट्टहास के कार्यक्रम में लखनऊ के गैस्ट हाउस में साथ साथ रुके हुये थे, कि डिनर हेतु आदरणीय उदय प्रताप सिंह जी के साथ जाने का कार्यक्रम बन गया। तब ही पता चला कि आदरणीय नीरज जी भी वहीं रुके हुये हैं तो हम सभी श्रद्धालुओं ने कुछ समय उनके साथ गुजारने का मन बनाया। उस दिन नीरज जी ने कहा था कि आप लोग फिल्मी गीतों को ज्यादा महत्व नहीं देते पर शोले के एक गीत में जो कहा गया है कि – स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है। बताओ इससे पहले इस एक दो तीन हो जाने का प्रयोग हिन्दी के किस गीत में हुआ है। प्रदीप चौबे ने कई नये प्रयोग किये थे। शब्दों की तोड़ फोड़ में निर्भय हाथरसी भी माहिर थे।
पिछले दिनों जब प्रदीप के युवा पुत्र का आकस्मिक निधन भोपाल में हो गया था तब मैं भोपाल में नहीं था, लौट कर आने पर पता चला। सोचा फोन करूं, पर हिम्मत नहीं हुयी। सोचता रह गया, सच्ची सम्वेदना के समय मेरे बोल नहीं फूटते। मुनीर नियाजी की वह नज़्म रह रह कर याद आती है – हमेशा देर कर देता हूं मैं.......।
प्रदीप जी भी चले गये। जिन विशिष्ट लोकप्रिय लोगों से मित्रता की दम पर खुद के हीनता बोध को ढक लिया करता था, वे घटते जा रहे हैं। प्रकृति का नियम ही है। 
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, मई 02, 2019

भगवा आतंकवाद पर काँग्रेस रक्षात्मक क्यों?


भगवा आतंकवाद पर काँग्रेस रक्षात्मक क्यों?

वीरेन्द्र जैन
2019 के आम चुनाव में प्रत्याशी म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह काँग्रेस के कुछ विरले नेताओं में से एक हैं जो कांग्रेसी राजनीति के सभी गुणों में पारंगत हैं और एक परिपूर्ण राजनेता हैं। वे एक छोटे से राजपरिवार के सदस्य हैं, शिक्षा से इंजीनियर हैं, सुलझे हुये हैं, आम लोगों के बीच उठते बैठते हैं, प्रदेश में समुचित संख्या में उनके समर्थक और उपकृत लोग हैं। काँग्रेस में उनका एक अलग गुट है, जितने लोग उन्हें पसन्द करते हैं, उतने ही काँग्रेस के दूसरे गुट के लोग उनसे जलते हैं। इन्दिरा गाँधी के समय से ही वे कुछ कुछ सेंटर से लेफ्ट की ओर झुके नजर आते हैं। सारे पूजा पाठ, नर्मदा परिक्रमा, साधुओं की संगत, आदि के बाद भी उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि अन्य कई काँग्रेसियों की तुलना में ज्यादा चमकदार है, वे सबसे ज्यादा मुखर हैं। हो सकता है कि यह उनके प्रबन्धन का ही एक हिस्सा हो, पर यह इतना सफल है कि काँग्रेस को समाप्त करने के सपने देखने वाली भाजपा उन्हें अपना दुश्मन नम्बर एक मानती है।
मुख्य मंत्री के रूप में म.प्र. में अपने दस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने भाजपा के विस्तार पर लगाम लगा कर रखी व उनकी सारी चुनावी योजनाओं की काट प्रस्तुत करते रहे। जो भी विपक्ष का नेता बनता था वह भी उनका मुरीद हो जाता था, और यही कारण रहा कि भाजपा को बार बार अपने विधायक दल का नेता बदलना पड़ा । थक हार कर 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दिग्विजय सिंह के खिलाफ तेज साम्प्रदायिक कार्ड खेला और यब केन्द्र की मंत्री भगवा भेषधारी उमा भारती को उनके न चाहते हुए भी मुख्यमंत्री प्रत्याशी बना कर मैदान में उतार दिया था।  
कर्मचारियों के असंतोष और कांग्रेस की गुटबाजी के कारण वे चुनाव हार गये। प्रायश्चित में उन्होंने दस वर्षों तक कोई पद न लेने व प्रदेश की राजनीति में सक्रिय न होने का फैसला लेकर उस पर अमल भी किया। इस दौरान अपनी राजनीतिक चेतना के कारण, घटनाओं पर तात्कालिक सटीक राजनीतिक टिप्पणियों से काँग्रेस के प्रमुख नेता बने रहे। दस वर्ष के बाद ही उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार की और काँग्रेस के महासचिव के रूप में राहुल गाँधी के प्रमुख सलाहकार बने रह कर पूरी काँग्रेस को संचालित करते रहे। जब राजनीति व्यक्ति केन्द्रित होने लगती है तो प्रतिक्रिया में व्यक्ति की छवि को भी झूठे सच्चे आरोपों से धूमिल करने का काम भी उसका विरोध पक्ष करने लगता है। सोनिया गाँधी को विदेशी ईसाई महिला और राहुल गाँधी को पप्पू कह कर बदनाम किया गया था। दिग्विजय सिंह को भी न केवल मुसलमानों का पक्षधर अपितु आतंकियों का पक्षधर तक प्रचारित कर दिया गया। भाजपा के पास शुरू से ही एक मजबूत दुष्प्रचार एजेंसी रही है जो पहले मौखिक प्रचार के रूप में संघ के नेतृत्व में काम करती थी, तब भी इसे रियूमर स्पोंसरिंग संघ कहा जाता था। इसी एजेंसी ने कभी देश के सबसे मजबूत विपक्ष कम्युनिष्ट पार्टी को विदेश के इशारे और पैसे पर संचालित होने वाला दल कह कर बदनाम किया था। बाद में तो कम्युनिष्ट देशों में वृद्धों को मार देने से लेकर तरह तरह से वैज्ञानिकता विरोधी प्रचार किये जिसमें जल विद्युत का अर्थ पानी में से बिजली निकाल कर उसे खेती के लिए अनुपयुक्त बना देने तक था। उनका यह काम लगातार जारी रहा और बाद में अखबारों, पत्रकारों से लेकर टीवी का स्तेमाल करते हुए ब्लाग्स फेसबुक और व्हाट’स एप्प तक उन्हें बेनामी होकर अफवाहें फैलाने की सुविधा मिलती गयी।
दूसरी ओर काँग्रेस किसी बरबाद हो चुके साम्राज्य की तरह ढहती गयी। उसके पास कुछ पुराने खण्डहर होते किले और जंग लगी तोपें व सामंती अहंकार शेष बचा।  काँग्रेस अपनी अपनी हवेलियों को सम्हाले दरबारियों के समूह में बदलती गयी जो आपस में भी जंग करते रहे और निजी लाभ के लिए एकजुट भी होते रहे। काँग्रेस की चिंता करने वाला और उसमें रह कर उसी को नुकसान करने वालों के प्रति कठोर होने का साहस करने वाला कोई नहीं बचा। ऐसी ही दशा में भाजपा काँग्रेस पर लगातार हमलावर होती गयी, कार्पोरेट घरानों से जुड़ कर उसके प्रभावी सदस्यों को खरीदती गयी, दुष्प्रचार से इतिहास तक को बदनाम करती गयी व चुनाव जीतने के लिए दोदलीय व्यवस्था जैसी स्थितियां बनाती गयी।  
काँग्रेस चुनावी परिस्तिथियों के अनुकूल होने पर भले ही गठबन्धन की सरकार बनाती गयी हो किंतु उसकी संगठन क्षमता निरंतर क्षीण होती गयी। विचारधारा को समर्पित कार्यकर्ताओं की फसल बिल्कुल सूख गयी। नेताओं के पट्ठे पैदा होते गये जो कांग्रेस के लिए नहीं अपितु अपने उस्ताद के लिए तत्पर रहते हैं। ऐसी दशा में भाजपा अपनी कुशल संगठन क्षमता के कारण निरंतर जड़ें जमाती गयी। भले ही 2004 से 2014 तक काँग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार रही किंतु संसद भाजपा के चाहने पर ही चल सकी। उन्होंने सफलतापूर्वक झूठ का सिक्का चलाया। उनकी इस क्षमता के लिए बार बार पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर का वह शे’र याद आता है-
मैं सच कहूंगी और फिर भी हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा, और लाजवाब कर देगा
पिछले दिनों भोपाल लोकसभा चुनाव क्षेत्र से काँग्रेस के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह के मुकाबले भाजपा को कोई सही उम्मीदवार नहीं मिला [ बकौल राजनाथ सिंह] तो उन्होंने विभिन्न बम विस्फोटों और हत्याओं के लिए आरोपित, स्वास्थ के आधार पर जमानत पर छूटी प्रज्ञा ठाकुर को यह कह कर चुनाव में उतार दिया कि वे निर्दोष हैं और उन्हें जानबूझ कर फंसाया गया था। इस्लामिक आतंकवाद की तर्ज पर दिग्विजय सिंह ने विभिन्न मुस्लिम इबादतगाहों में हुये विस्फोटों को भगवा आतंकवाद कहा था, पर पूजा पाठी दिग्विजय सिंह का वह मतलब नहीं था जो संघ परिवार ने प्रचारित किया। उन्होंने प्रचारित किया कि उन्होंने सभी हिन्दुओं को आतंकवादी कह दिया है जबकि हिन्दू तो शांतिप्रिय और सहिष्णु होता है। सच तो यह है कि समझौता एक्सप्रैस, अजमेर. हैदराबाद, जामा मस्जिद, मालेगाँव, मडगाँव, आदि स्थानों पर जो बम विस्फोट हुये थे वे उन आतंकवादी घटनाओं की प्रतिक्रिया में साम्प्रदायिक दिमाग के लोगों ने किये थे, जिन्हें इस्लामिक आतंकवाद कहा गया था। जब इस्लामिक आतंकवाद कहने से सारे मुसलमानों को आतंकवादी नहीं माना जाता है तो हिन्दू समाज के एक वर्ग विशेष के लोगो द्वारा किये गये कारनामों की जिम्मेवारी पूरे हिन्दू समाज पर कैसे डाली जा सकती है। भगवा आतंकवाद कहने का इतना ही मतलब था कि इस घटना को करने वाले अपराधी हिन्दू थे और उन्होंने वैसी ही प्रतिक्रिया में मुस्लिम इबादतगाहों को निशाना बनाया। जाँच एजेंसियों ने कुछ लोगों की पहचान कर सबूत जुटाये व मामला दर्ज कराया जिनमें प्रज्ञाठाकुर भी एक आरोपी थीं।
दुखद यह है कि दुष्प्रचार के डर से कांग्रेस इस निर्दोष बयान को स्पष्ट करने की जगह इसे छुपाने में लगी है, और एक झूठ सिर चढ कर बोल रहा है। घटनाएं हुयी हैं, जाँच में कुछ लोग पकड़े गये हैं, मुकदमे चल रहे हैं, सरकारी वकील को इस कारण वकालत छोड़ना पड़ी क्योंकि वर्तमान सरकार ने इस प्रकरण में धीमे चलने को कहा था जिसे उन्होंने कानून के हक में नहीं माना। व्यापम और ई-टेन्डरिंग समेत अनेक भ्रष्टाचरणों से रंगी आरोपी पार्टी चुनावों में साम्प्रदायिक रंग लाकर मुद्दे बदल चुकी है तो निर्दोष काँग्रेस अपने सच को भी सामने नहीं ला पा रही है। काँग्रेस उम्मीदवार दिग्विजय सिंह ने अपने होंठ सिल लिये हैं और कह रहे हैं कि मैं साध्वी के बारे में कुछ भी नहीं बोलूंगा।
यह सत्य की हार और असत्य की जीत है। कांग्रेस अगर सच बोलने का साहस नहीं जुटाती तो वह पार्टी को समाप्त करने के भाजपाई सपने को पूरा कर रही होगी।
वीरेन्द्र जैन
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