चुनाव अनुमान और मोदी का भविष्य
वीरेन्द्र जैन
2019 के आम चुनाव लगभग समाप्ति की ओर हैं,
और परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जा रही है। किसी भी पार्टी की जीत की
संभावना के सन्देशों पर भरोसा हो जाने से चुनाव में गुणात्मक प्रभाव पड़ता है,
इसलिए सरकार बनाने के लिए संघर्षरत हर दल या गठबन्धन अपनी जीत का वातावरण बनाने
में लगे रहते हैं। क्रमशः नेताओं की विश्वसनीयता घटने के बाद अब पार्टियां तरह तरह
के झूठे सर्वेक्षणों, मीडिया की प्रायोजित बहसों, आलेखों आदि से अपनी लोकप्रियता
और जीत का भ्रम पैदा करते हैं। दूसरी ओर कुछ भिन्न महसूस करने वाला मतदाता सोचता
है कि या तो इन्हें साफ साफ परिदृश्य नहीं दिखता या ये हमें जानबूझ कर धोखा देने
की कोशिश कर रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा के चुनावों में काँग्रेस, भाजपा
ही नहीं अपितु जीतने वाली आम आदमी पार्टी के नेता भी जीतने वाले प्रत्याशियों की
संख्या के प्रति जितने भ्रमित थे, उससे उनके जनता के मूड को समझने की क्षमता का
पता चलता है। 2014 के आम चुनावों में भी किसी को यह अनुमान नहीं था कि नरेन्द्र
मोदी के नेतृत्व के बाद भी भाजपा और एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलेगा व यूपीए के दलों
की सीटें इतनी कम रहेंगीं कि विपक्षी नेता पद के लिए जरूरी सीटें भी नहीं मिल
पायेंगीं।
चुनाव के दौरान भाजपा के नेताओं ने अपनी
जीत के आंकड़े बालाकोट में मृतकों की संख्या की तरह प्रस्तुत किये। ऐसे आंकड़े देने
में न केवल अमित शाह ही थे अपितु नरेन्द्र मोदी स्वयं भी बार बार किसी भी
सैफोलोजिस्ट या राजनीतिक संवाददाता के अनुमानों से कई गुना अधिक आंकड़े दे रहे थे।
दूसरी ओर वे अपना सारा जोर पश्चिम बंगाल और उड़ीसा पर लगा रहे थे। साथ ही अंतिम
प्रायोजित साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा कि गठबन्धन सरकार चलाने में भी वे
अनाड़ी नहीं हैं।
कोई कुछ भी कहे पर 2019 का आम चुनाव मोदी
केन्द्रित चुनाव था जिसमें अपने गठबन्धन और पार्टी के विरोधी गुटों से अलग
नरेन्द्र मोदी अकेले विचर रहे थे। अमित शाह उनकी ही परछांई की तरह दो जिस्म एक जान
हैं। वैसे भाजपा ने भगवा भेषधारी अजय सिंह
बिष्ट उर्फ योगी अदित्यनाथ को छोड़कर किसी को स्टार प्रचारक नहीं माना। जो पार्टी विधानसभा
चुनावों में बिना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित किये चुनाव लड़ती रही है, वह शुरू से
ही प्रधानमंत्री प्रत्याशी के रूप में मोदी का नाम प्रस्तावित करती रही क्योंकि
अपने सबसे बड़े समर्पित भक्त को पार्टी अध्यक्ष बनवा कर और सरकार में सबका मुँह
बन्द करके वे जो चाहें वह कर सकने में सक्षम रहे। जब चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हो
जाता है तो विरोध भी व्यक्ति केन्द्रित हो जाता है और छवि बनाने के लिए जितना
मेकअप किया जाता है, उतना ही प्रयास छवि को उघाड़ने और विकृत करने के लिए होता है।
इसलिए दोनों ओर मोदी ही मोदी रहा।
मोदी ने जो पिछली बार करना चाहा था वह काम
इस बार उन्होंने प्रत्याशी चयन में कर दिखाया। एक भी प्रत्याशी ऐसा नहीं है जिसका
कद मोदी से बड़ा हो या जिसकी कमीज के दाग दबे छुपे रह गये हों। लालकृष्ण अडवाणी,
मुरली मनोहर जोशी, येदुरप्पा, शांता कुमार, सुमित्रा महाजन, कलराज मिश्रा, नज़मा
हेपतुल्ला आदि को उम्र के नाम पर टिकिट वंचित कर दिया गया तो राम जेठमलानी, सुषमा
स्वराज, उमा भारती, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, परेश रावल आदि ने दूरदर्शिता से
स्वयं को बेइज्जत होने से बचा लिया। जिन्हें प्रत्याशी बनाया गया उनकी एक मात्र
योग्यता या तो गैर राजनीतिक कारणों से उनकी निजी लोकप्रियता रही जैसे हेमा मालिनी,
सनी देवल, किरण खेर, जयाप्रदा, मनोज तिवारी, रवि किशन, निरहुआ, बाबुल सुप्रियो,
राज्यवर्धन सिंह राठौर, गौतम गम्भीर, निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, प्रज्ञा ठाकुर
या पार्टी के रिटायर्ड राजनेताओं के वंशज रहे। युवा चेहरों की सबसे प्रमुख प्रतिभा
उनकी अतार्किकता और मोदी भक्ति ही रही। उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो कन्हैया
कुमार जैसी प्रतिभा का धनी हो। अपनी लगन और वैचरिक समर्पण के कारण साधारण परिवार
से निकले नरेन्द्र मोदी या शिवराज सिंह चौहान को अब इस मोदी जनता पार्टी में
प्रवेश नहीं मिल सकता। मोदी राज्यसभा के चयनित सदस्यों के सहारे सरकार चलाने में
भरोसा रखते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि बड़ी घटौत्री के
बाद भी मोदी अब भी अन्य सब नेताओं से अधिक स्वीकार्य नेता हैं, किंतु यह भी सच है
कि वे अब लोकप्रिय नेता नहीं हैं। उन्होंने जिन नकली प्रयासों से अपने कद को ऊंचा
करने का प्रबन्धन किया उनमें से ज्यादातर की कलई खुल गयी है। भाजपा में शेष बचे जो
लोग हैं वे उनकी चुनाव जिता सकने की क्षमता से चमत्कृत लोग हैं जो अटल बिहारी
वाजपेयी की कमजोर गठबन्धन वाली सरकार के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सत्ता का
सुख भोग सके हैं। इसलिए नरेन्द्र मोदी तब तक ही उनके नेता हैं जब तक वे उन्हें और
पार्टी को जिताने की क्षमता रखते हैं। कार्पोरेट जगत भी तब तक ही पीछे से बल देता
है। चुनाव हारने के बाद मोदी केवल अमित शाह के नेता बने रह सकते हैं। चुनाव से
पहले एनडीए में सम्मलित शिवसेना ने जिस भाषा में मोदी को याद किया था उसके बाद
मोदी की उनसे गलबहियां इस बात का संकेत थीं कि मोदी खुद को कमजोर समझ रहे हैं और
दूसरे लाख फुंकार भरते रहने के बाद भी वे स्वाभिमानी नेता नहीं हैं। उ,प्र, में
राजभर की पार्टी छोड़ कर जा चुकी है, अपना दल भी आँखें दिखा कर अपना हिस्सा ले जा
चुकी है। सावित्री बाई फुले ने खुद और उदितराज ने टिकिट कटने के बाद भाजपा छोड़
दी थी। लाख कोशिशों के बाद भी एनसीपी,
बीजू जनता दल, ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू, वायएसआर काँग्रेस केसीआर आदि ने
इनसे समझौता नहीं किया और आगे भी कोई करेगा तो बड़ा हिस्सा वसूलने के बाद करेगा। पंजाब,
दिल्ली, बिहार, राजस्थान. म.प्र., छत्तीसगढ, गुजरात आदि में सीटों की संख्या पर
मतभेद हो सकता है किंतु उनका घटना तय है।
जैसा कि शरद पवार ने कहा है वह सच है कि
स्पष्ट बहुमत न आने की दशा में एनडीए के घटक दलों की पसन्द मोदी नहीं होंगे और
भाजपा वाले भी उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर करेंगे। जब वे कार्पोरेट
जगत के काम के नहीं होंगे तो मुकेश अम्बानी जैसे लोग तो बीच चुनाव में ही देवड़ा
परिवार का समर्थन कर संकेत देने लगते हैं। पराजय के संकेत केवल भाजपा के ही नहीं
हैं अपितु मोदी की विदाई के भी हैं।
वीरेन्द्र जैन
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