सोमवार, मार्च 25, 2019

चुनौती दुष्प्रचार का सामना करने की है


चुनौती दुष्प्रचार का सामना करने की है
वीरेन्द्र जैन

सुप्रसिद्ध पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर का शे’र है-
मैं सच कहूंगी, और फिर भी हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा, और लाजबाब कर देगा
सैम पित्रोदा के बयान के बाद भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और उनकी पार्टी के बड़बोले बयानबाज नेताओं ने असंसदीय भाषा में जिस तरह की आलोचना की है, उससे एक सामान्य, सरल, देशभक्त के नाम पर भक्त बन चुके नागरिक को ऐसा लग सकता है जैसे कि पित्रोदा ने राहुल गाँधी के निर्देश पर गोपनीय दस्तावेजों से बहुत बड़ा देश विरोधी बयान दे डाला हो जिससे भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ गयी हो। इनमें से किसी ने भी उस पूरे साक्षात्कार को नहीं सुना होगा जिसमें से वह वाक्यांश चुना गया है, जिस पर निशाना लगाया जा रहा है। भक्त तो अज्ञान के शिकार हो सकते हैं किंतु स्वयं कांग्रेस के नेताओं ने भी भाजपा सरकार के प्रचारतंत्र और जरखरीद मीडिया की दी हुयी भाषा में यह कहना शुरू कर दिया कि ऐसे कथन आत्मघाती हैं, और तुरंत ही उन्हें उनके निजी विचार बता कर पल्ला झाड़ लिया गया। सैम पित्रोदा से पहले दिग्विजय सिंह, शशि थरूर और मणिशंकर आदि भी अपने साक्षात्कारों में से कुछ चयनित वाक्यांशों के लिए अपनों की आलोचना के शिकार हो चुके हैं। कांग्रेसियों की ये विवेकहीन मौकापरस्तियां त्वरित चुनावी लाभ के लालच में दूरगामी नुकसान करने वाली हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि सुशिक्षित सैम पित्रोदा के कथन की भाषा भी गलत नहीं थी और कम से कम राहुल गांधी व नरेन्द्र मोदी के कुछ बयानों की भाषा से बेहतर थी।
कांग्रेस के बड़े नेता सच जानते हैं, किंतु वे इस भय से ग्रस्त हैं कि मीडिया को गुलाम बना चुकी भाजपा उनके सवालों को सामने नहीं आने देगी व किसी वाक्यांश को गलत ढंग से उठा कर उन्हें देशद्रोही प्रचारित कर देगी। आम चुनाव के इस संवेदनशील समय में वे उन विषयों को छूना भी नहीं चाहते जिनमें ऐसा खतरा संभावित हो। यही कारण है कि पूरे कांग्रेस नेतृत्व ने शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गरदन दबा कर खुद को सुरक्षित मानना चाहा है, जबकि सच तो यह है कि प्रचारतंत्र पर अधिकार जमाये हुए भाजपा चाय वाले से लेकर नीचता को नीची जाति बता कर दुष्प्रचार का कोई भी अभियान चला सकती है। जरूरत रेत में गरदन घुसाने की नहीं अपितु दुष्प्रचार के तंत्र को तोड़ने की है। ऐसा इसलिए सम्भव हो सका है क्योंकि काँग्रेस अब एक संगठन विहीन जमावड़ा है जो हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, के नाम पर चल रहे लठैत संगठन आरएसएस से मौके पर सीधा मुकाबला नहीं कर सकता। यह संगठन भाजपा के नाम से आजकल केन्द्र और कई राज्यों में सत्तारूढ है व सेना, पुलिस, प्रशासन, और न्याय व्यवस्था में उसका हस्तक्षेप स्पष्ट है। वे असत्य या अर्धसत्य बोल कर राजनीतिक मुद्दों को भावनात्मक बना देते हैं व जन आस्था वाले पौराणिक प्रतीकों के आधार पर इतिहास व वर्तमान को अपनी राजनीति के अनुकूल प्रचरित करने में समर्थ हैं। गैरभाजपा दलों के पास झूठे के पर्दाफाश की समान क्षमता वाला कोई तंत्र नहीं है।
कांग्रेस के नेता यह क्यों नहीं कह सके कि देश के लिए शहीद सैनिकों के परिवार यदि अपनी आत्मा की शांति के लिए भारत सरकार द्वारा एयर स्ट्राइक के परिणाम जानना चाहते हैं तो वे देश की सेना और उसके बलिदानों का विरोध कैसे कर रहे हैं? यही बात जब सेम पित्रोदा भी सैनिक परिवारों की भाषा दुहराने लगते हैं तो उससे दुश्मन देश को लाभ कैसे मिलता है, जबकि वह परिवार खुद भी यही बात कह रहा है। जब सत्तारूढ दल का सबसे बड़ा नेता पुलवामा जैसे बड़े आतंकी हमले के बाद खुद चुनाव प्रचार में लगा रहता है तब एकता प्रदर्शित कर चुके विपक्ष से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह उसके लिए सेना के शौर्य का राजनीतिक लाभ लेने के लिए खुला मैदान छोड़ दे। एयर फोर्स के कमांडर ने प्रैस कांफ्रेंस में साफ कहा था कि सेना ने अपने दिये गये लक्ष्य पर सटीक बमबारी की, इस बयान से स्पष्ट है कि सरकार द्वारा अगर आतंकी ठिकानों को निशाना बनाने के आदेश दिये गये थे तो आतंकी शिविरों में उपस्थित प्रशिक्षणार्थियों का सफाया हो जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ है तो सरकार द्वारा सेना को भिन्न आदेश दिये गये थे। देश को सेना और उसके शौर्य पर भरोसा है और उसके कथन को सही मानती है। किंतु एक ओर सेना को भिन्न आदेश देना और दूसरी ओर जनता के सामने अपने झूठे शौर्य का बखान करते हुए वोट बटोरने की कोशिशें देश को धोखा देना है। ऐसे में एक नागरिक द्वारा शहीदों के परिवार की आवाज में आवाज मिलाते हुए सचाई जानने का प्रयास गलत कैसे कहा जा सकता है?
सरकार ने आतंकी हमले के समय जो कुछ किया वह ठीक किया, और कोई भी सरकार होती तो यही करती या करती रही है, या करना चाहिए था। सरकारों को दूरगामी दृष्टि से बहुत सी बातों को ध्यान में रखते हुए फैसले लेने होते हैं। दोष तो यह है कि अपने राजनीतिक हित के लिए विरोधी दलों को दोषी व देशद्रोही बताना व विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त भिन्न सूचनाओं के कारण भ्रमित देश की जनता द्वारा सच्चाई जानने की कोशिश को गलत बताना। सैम पित्रोदा ने अमित शाह और नरेन्द्र मोदी को चुनौती देते हुए कहा है मैं वैज्ञानिक हूं, आंकड़ों में भरोसा करता हूं। मुझे बहुत सारे राज मालूम हैं, मेरे पास न तो कोई बैंक खाता है, न सम्पत्ति, न ही महिलाओं को लेकर कोई कहानी है। किसी भी तरह से मेरे ऊपर कोई उंगली नहीं उठा सकता। 
मोदी और शाह को समझ आने से पहले यह बात काँग्रेस और गैरभाजपा विपक्ष को समझना चाहिए कि मूल समस्या प्रचार के साधनों का एकाधिकार है और इस एकाधिकार को तोड़ने के लिए उन्हें एक साथ झूठ का विरोध करना चाहिए, अन्यथा पंचतंत्र की कहानी के ठग बछड़े को कुत्ता बना कर छोड़ेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


मंगलवार, मार्च 19, 2019

हताशा में उठाया गया जुमला है, हम सब चौकीदार


हताशा में उठाया गया जुमला है, हम सब चौकीदार
वीरेन्द्र जैन

भारतीय जनता पार्टी जिसे अब मोदी जनता पार्टी कहा जाता है और सही कहा जाता है, ने अपने सभी भक्त सदस्यों से ‘मैं भी चौकीदार’ कहलवाने का अभियान चलाया है। यह अभियान राहुल गाँघी द्वारा जोर शोर से ‘चौकीदार ही चोर है’ की लगातार हुंकार के बाद चलाया गया है। महत्वपूर्ण यह भी है कि यह पूरा घटनाक्रम 2019 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले घट रहा है जब नरेन्द्र मोदी की पूरी प्रतिष्ठा ही नहीं अपितु उनका भविष्य भी दाँव पर लगा है। यदि मोदी यह चुनाव हार जाते हैं तो भाजपा की हालत आज की काँग्रेस जैसी हो सकती है।
उल्लेखनीय है कि श्री नरेन्द्र मोदी ने डा. मनमोहन सिंह के दस साल तक प्रधानमंत्री रहने के बाद कुर्सी सम्हाली थी। मनमोहन सिंह कभी अतिरिक्त नहीं बोलते थे इसलिए उनके बोलने में न तो गलतबयानी होती थी और न ही वे चटकारे वाले जुमले ही बोलते थे क्योंकि वे लोकप्रिय वक्ता नहीं थे। वे सुशिक्षित, गम्भीर, और विद्वान व्यक्ति थे, जबकि श्री मोदी ने आरएसएस के एक स्वयं सेवक की तरह हिन्दुओं की पक्षधरता की पाठशाला से सबक सीखे हैं, वे अटलजी की तरह चटकारेदार भाषण देने वाले ओजस्वी वक्ता हैं। उनके भाषण में रोचक जुमले और गैरहिन्दू समुदाय के लोगों के साथ टकराव पैदा कर ध्रुवीकरण कराने वाले प्रसंग भरे रहते आये हैं। उनकी जानकारियां एक बन्द समाज की पुरानी और परम्परागत जानकारियां हैं। अपने विरोधियों के लिए वे जर्सी गाय व बछड़े जैसी उपमाएं दे सकते हैं और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए पाँच पत्नियां पच्चीस बच्चे जैसा वाक्य भी बोल सकते हैं। वे अम्बानी के अस्पताल का उद्घाटन करते हुए गणेश जी के सिर को प्राचीन कालीन प्लास्टिक सर्जरी व का उदाहरण बतला सकते हैं। बिना तैयारी के [एक्स्टम्पोर] बोलने की आदत में वे यह भी भूल जाते हैं कि अब वे प्रधानमंत्री के पद से बोल रहे हैं और उनकी भूलें भारत सरकार की भूलें मानी जायेंगीं, उनकी कही हर बात वैसी की वैसी दर्ज होगी और उससे मुकरने की कोई गुंजाइश नहीं होगी। प्रधानमंत्री पद पर आसीन होते ही उन्होंने स्वयं को प्रधानसेवक कहे जाने या देश का चौकीदार या फकीर जैसे ओढी हुयी विनम्रता के जुमले उछाले। ये जुमले जिन पिछले प्रधानमंत्रियों पर फिट बैठते थे उसके विपरीत मोदी जी, उनके सहयोगियों, उनको नियंत्रित करने वाले संगठनों के आचरण अनुकूल नहीं थे, इसलिए इन जुमलों का खूब मजाक बना, इन पर खूब चुटकले बने।
राफेल विमान सौदे पर सबसे पहली टिप्पणी उन्हीं की पार्टी के राज्यसभा सांसद श्री सुब्रम्यम स्वामी की ओर से आयी थी। जब मोदीजी पहली बार फ्रांस के दौरे पर गये थे तो उनके फ्रांस की जमीन पर पैर रखते ही श्री स्वामी का बयान आ गया था कि राफेल का सौदा भारत के हित में नहीं होगा। किसी तरह उनके मुँह को बन्द तो करवा दिया, पर रास्ता खुल चुका था। सौदे के बाद से उसमें से जो सांप बिच्छू निकलने लगे तो फिर उनने रुकने का नाम ही नहीं लिया। बोफोर्स मामले में राजीव गाँधी पर जितने और जैसे व्यक्तिगत हमले किये गये थे वैसे ही हमले, उसी भाषा में राफेल सौदे के बाद हुये। यह डिजीटल समय है और सूचनाओं के आदान प्रदान की तेजी पहले से कई गुनी है।
राफेल के सम्बन्ध में लगाये गये आरोप स्पष्ट थे और उसकी सफाई में लगातार कई झोल थे। सदन में हो या सुप्रीम कोर्ट में हो, हर जगह ऐसे प्रमाण दिये गये जिन्हें बार बार बदला गया जिससे और अधिक सन्देह पैदा हुआ। विपक्ष के राहुल गाँधी ने मोदी जी के जुमले को ही आधार बना कर देश भर में उनकी चौकीदारी का मजाक बनाते हुए ‘चौकीदार चोर है’, को गुंजा दिया।
 यही कारण रहा कि मोदीजी ने अन्ना आन्दोलन के ‘मैं भी अन्ना हूं’ की तरह मैं भी चौकीदार हूं का अभियान छेड़ दिया। कहा जाता है कि अपनी निन्दा को दूसरों के साथ बांट लेने से अपमान बोध कम हो जाता है। भारतीय जनता पार्टी से मोदी जनता पार्टी में बदलने तक मोदी सत्तारूढ हो चुके थे और पार्टी में अपने विरोधियों को परास्त कर चुके थे। छोटे कार्यकर्ता केन्द्र की सत्ता पाकर गदगद थे और वे अटल अडवाणी की जगह मोदी मोदी की जयजयकार करने लगे थे। मोदी ने पार्टी के अध्यक्ष का पद भी अपने ही पास रखा और नाम के लिए अपने दो जिस्म एक जान अमित शाह के नाम से संगठन पर अधिकार कर लिया। न कहीं अटल जी का नाम और फोटो लगने दिया और न ही अडवाणी जी का। बाकी वरिष्ठ नेताओं को तो वैसे भी कोई नहीं पूछता था। सुब्रम्यम स्वामी जैसे नेता तक कहने लगे कि कुल ढाई आदमी की सरकार है जिसमें मोदी शाह के अलावा आधे जैटली सम्मलित हैं। जब राजनीति व्यक्ति केन्द्रित हो जाती है तो विरोधियों द्वारा व्यक्ति की छवि पर ही हमले की नीति बनायी जाती है। जिस ईमानदारी की छवि को एकमात्र गुण के रूप में पूजा गया हो तो उसी ईमानदारी में निकाले गये दोषों का समुचित उत्तर न मिलने पर छवि खण्डित होती है। दूसरी ओर साढे चार साल तक सुस्त रहने के बाद स्वयं की छवि पर आँच आते ही मोदी ने अपने विरोधियों के खिलाफ दर्ज आर्थिक अपराधों की फाइलें खुलवाना और छापे डलवाने की कार्यवाहियां कीं। इससे इसे बदले की कार्यवाही माने जाने से उसका प्रभाव कम हुआ।
अपने नाम के आगे चौकीदार लिखवाने वाले सवर्ण भाजपाई अब पूछ रहे हैं कि क्या उन्हें भी अब सफाई कर्मचारियों के पैर धोने पड़ेंगे। इसी समय पुलवामा हमले के जबाब में बालाकोट में किये गये हमलों में मृतकों के बारे में सरकार की चुप्पी और पाकिस्तान समेत विदेशी न्यूज एजेंसियों के प्रतिदावों से भक्तों की निगाह में मोदी की छवि धुंधली हुयी है। मोदी के प्रति भक्ति उनकी सत्ता दिला सकने की क्षमता तक सीमित है। हर पराजय भक्तिभाव को कमजोर करती है। यही कारण है कि मैं भी चौकीदार अभियान कमजोर नजर आ रहा है।
 वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, मार्च 09, 2019

फिल्म समीक्षा के बहाने – फिल्म बदला


फिल्म समीक्षा के बहाने – फिल्म बदला
सितारों जड़ी एक पेंचदार जासूसी कथा




film Badla के लिए इमेज परिणाम

वीरेन्द्र जैन
मैंने महिला विमर्श पर बनी अनेक फिल्मों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं, इसलिए महिला दिवस [ 8 मार्च 2019] पर रिलीज इस फिल्म को पहले दिन ही देखना चाहा। देखने के बाद पता चला कि महिला दिवस के दिन रिलीज करना केवल एक टोटका ही था अन्यथा इस फिल्म में महिला विमर्श जैसा कुछ भी नहीं है। व्यापारवृत्ति हर उस भावना को भुनाने की कोशिश करती हैं जहाँ समाज भावुक होने लगता है।
जो लोग भी अच्छे जासूसी उपन्यास पढने के शौकीन रहे हैं वे जानते हैं कि पूरा उपन्यास इस जिज्ञासा के कारण पढा जाता है कि अपराधी कौन है और जासूस किस कौशल के सहारे उस अपराधी तक पहुँचता है। इस प्रयास में वह किन किन सामान्य सी दिखने वाली वस्तुओं और घटनाओं से सबूत जुटाता है और फिर किसी निष्कर्ष तक पहुँचता है यह रोचक ही नहीं होता अपितु पाठकों के विवेक को तराशने का काम भी करता है।
रहिमन देख बढेन खों, लघु न दीजिए डार
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवार
जासूसी उपन्यासों में भी छोटी छोटी सी घटनाएं बड़े बड़े सूत्र छोड़ जाती हैं। इस फिल्म में भी यही तकनीक अपनायी गयी है। पूरे कथानक का उद्घाटन दर्शकों का थ्रिल खत्म कर सकती हैं इसलिए उसे न प्रकट करना ही उनके हित में है। बहरहाल इतना तो बताया जा सकता है कि यह एक हत्या के रहस्य से जुड़ी कथा है। भले ही इसमें फिल्म ‘पिंक’ जैसी अदालती कार्यवाही नहीं है किंतु उसकी तैयारी के बहाने पक्ष और प्रतिपक्ष के सम्भावित तर्कों पर आरोपी और वकील द्वारा गहराई से विचार किया गया है। जिन अमिताभ बच्चन और तापसी पुन्नू ने पिंक फिल्म में क्रमशः एडवोकेट और आरोपी की भूमिका निभाते हुए अपने अभिनय का लोहा मनवाया था, उसी प्रभाव के सहारे इस फिल्म ने दर्शक जुटाये हैं, पर पिंक की तरह महिलाओं से सम्बन्धित कोई विशेष विषय नहीं उठाया। फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण तापसी पुन्नू का बेदाग सौन्दर्य और अमिताभ बच्चन जैसे कुशल व अनुभवी अभिनेता का अभिनय है। फिल्म की सारी शूटिंग इंगलेंड में हुयी है। यूरोप का आकर्षण उसकी स्वच्छता में भी निहित है। हमारे मनीषियों ने स्वर्ग की जो परिकल्पनाएं की हैं वे सामान्य हिन्दी फिल्मों में साकार होती हुयी सी लगती हैं। यही कारण है कि बहुत सारी कहानियों में स्थान का कोई महत्व न होते हुए भी वे हिल स्टेशनों या यूरोप के देशों में फिल्मायी जाती रही हैं।
फिल्म की कथा एक सफल महिला उद्योगपति के विवाहेतर सम्बन्धों के आधार पर बुनी गयी है। प्रचार की दृष्टि से विदेशी परिवेश में कुछ दैहिक सम्बन्धों के दृश्यों को दर्शाया जा सकता था, किंतु ऐसा नहीं किया गया। हो सकता है कि देश में पुलिस और न्याय व्यवस्था की जो दशा है उसके अनुसार यथार्थवादी फिल्म का कथानक ‘जौली एलएलबी” आदि की तरह बनता इसलिए इसे विदेशी परिवेश के अनुसार बनायी गयी हो। फिल्म में न नृत्य है, न ही गीत हैं जो कि आम हिन्दी फिल्मों को केवल सस्ते मनोरंजन की विषय वस्तु बना कर छोड़ देते हैं।
फिल्म का नाम ‘बदला’ है और उससे हिन्दी की स्टंट दृश्यों से भरपूर एक्शन फिल्मों का भ्रम हो सकता है जबकि यह फिल्म उससे बिल्कुल विपरीत है। फिल्म में आउट डोर शूटिंग न के बराबर है और तर्क वितर्कों के दृश्यांतरण के सहारे रची गयी है जिससे कुरोसोवा की सेवन समुराई की याद आना स्वाभाविक है।  
सुजोय घोष की पटकथा और निर्देशन, व राज वसंत के डायलाग अच्छे हैं, किंतु कथा के क्लाइमेक्स में इतने तेज मोड़ हैं कि आम हिन्दी फिल्मों का दर्शक विभूचन में पड़ सकता है, और सम्भव है कि बहुत से दर्शक दृश्यों की जगह कल्पना से कथा समझ सके हों।
अमृता सिंह व तनवीर गनी का अभिनय भी छाप छोड़ता है। अमिताभ बच्चन और तापसी पुन्नू के अभिनय के लिए ही/ भी यह फिल्म देखी जा सकती है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मार्च 06, 2019

संस्मरण - मेरे लिए सिक्के के दूसरे पहलू की तरह थे ओम प्रकाश


 मेरे लिए सिक्के के दूसरे पहलू की तरह थे ओम प्रकाश







वीरेन्द्र जैन
अमृता प्रीतम का एक उपन्यास है, जिसका नाम है ‘ एस्कीमो स्माइल ‘। इस उपन्यास में दो सहेलियां हैं, जिन्हें मित्र कहूं तो ज्यादा ठीक रहेगा क्योंकि सहेली शब्द कुछ ज्यादा स्त्रैण लगता है। वे स्वभाव में विपरीत हैं और शायद इसीलिए एक दूसरे की पूरक हैं। वे इतनी अच्छी मित्र हैं कि बिना किसी परदे के अपनी भावनाएं एक दूसरे से बांट लेती हैं। एक व्यवहारिक है और जो भी मिलता है उसे मजबूरी मान कर ग्रहण कर लेती है, और दूसरी दुस्साहसी है जो अपने मन का कुछ भी कर गुजरती है। पहली वाली दूसरी को जीते देख कर ही जी लेती है। अपने अन्दर घुटते हुए अपना मन खोल देने के लिए ऐसे ही मित्र की जरूरत होती है, और अगर वह दूर हो तो उसके आने की प्रतीक्षा रहती है या कहें कि रहा करती थी, क्योंकि संचार सुविधाओं के प्रसार, मोबाइल फोन अओर इंटरनेट आने के बाद संवाद सुविधा वाली यह पीढी इसे नहीं समझ सकती।
मेरा और ओम प्रकाश का रिश्ता भी कुछ कुछ ऐसा ही था। वह दुस्साहसी, और मुँहफट था जबकि मैं दूर तक सोच कर सारे सम्भावित खतरों से बच, सम्हल सम्हल कर चलने वाला संकोची था। कभी बचपन में किसी मित्र को मन की बात बतायी थी जिसे उसने सार्वजनिक कर के उपहास का पात्र बनवा दिया था इसलिए तब से मैं हर मामले में आत्म केन्द्रित हो गया था। मेरे मुँह से मन की कोई बात बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलती थी। शायद यही पहचान होने के कारण मेरे परिचितों ने इतनी मात्रा में अपने राज मुझ से साझा किये कि लगता था कि दुनिया में जो दिखता है उससे कितनी अलग है और दूसरी ओर डर लगने लगता था कि इन राजों के बोझ से कहीं दिमाग न फट जाये।
एक सत्य जिसकी पहचान हम सारे मित्रों को बहुत बाद में हुयी वह यह था कि हम सारे लोग ही गरीब थे, किंतु सवर्ण समाज से आने के कारण जो श्रेष्ठता बोध था, उसकी समझ यह बनती थी कि गरीब तो दलित और पिछड़ी जातियां ही होती हैं, भले ही उनके पास पैसे हों, और हमारे पास न हों। दूसरे शब्दों में कहें तो हम लोग सामंती युग से पूंजीवादी युग में दाखिल नहीं हुये थे [ वैसे वह युग भी अभी तक सामंती युग पर सवार नहीं हो पाया है, प्रयास जारी है।] । छात्रावस्था तक निकट के मित्रों में मुस्लिम, सिख, ईसाई, सिन्धी, पंजाबी तो थे किंतु दलित और पिछड़े नहीं थे और उनमें से ऐसा भी कोई नहीं था जिससे मित्रता न होने का अफसोस भी हो।
पिता की समझ और घर में आने वाले अखबार व पत्रिकाओं के कारण राजनीति में रुचि तो जागृत हो गयी थी और अकेले घर से बाहर जाने की उम्र होने तक मैं राजनीतिक दलों की आमसभाओं को रुचि के साथ सुनने लगा था जिसमें चटकारे ले ले कर एक दूसरे की आलोचनाएं होती थीं। यह सन 1962 का आम चुनाव था जब मेरी उम्र लगभग ग्यारह बारह साल की रही होगी तब लगभग पन्द्रह सोलह साल का एक लड़का एक आम सभा में भाषण देने के लिए उतारा गया। उसे छात्र नेता कहा गया और माला पहिनायी गयी। कभी हम लोग उसी के मुहल्ले में रहते थे इसलिए उस लड़के का नाम भी मुझे पता था। वे गिरिराज शरण शुक्ल थे, जो आगे लम्बे समय तक राजनीति में सक्रिय रहे, और छुटती नहीं है जालिम ये मुँह से लगी हुयी, सो अभी भी सक्रिय हैं। राजनीति में  उनके विकास की  सीमा नगर पालिका दतिया के स्टेन्डिंग कमेटी के चेयरमैन तक रही। बहरहाल मुझे उस पहले दिन उनसे ईर्षा हुयी थी और सोचा था कि शायद मैं भी कभी ऐसी क्षमता और मौका पा सकूं।
इस घटना के लगभग तीन चार साल बाद हायर सेकेंड्री पास करके मैं कालेज में पहुँचा और मेरी मित्रता जगदीश सुखानी, रमेश राठी के माध्यम से गिरिराज शरण शुक्ल और ओम प्रकाश से हुयी। गिरिराज हम सब लोगों से सीनियर थे, वे वाक्पटु, चतुर, व व्यवहार कुशल ब्राम्हण थे जिनके पिता ने उस कस्बे की एक पूरी पीढी को प्राथमिक शिक्षा दी थी। वे एक छात्र गिरोह का नेतृत्व करते थे। प्रचलित भाषा में छात्र उन्हें गुरु कह कर पुकारते थे। उसी वर्ष ओमप्रकाश का प्रवेश पालीटैक्निक कालेज अशोकनगर में हो गया था और वे त्योहारों की छुट्टियों में ही आया करते थे। सुखानी सिन्धी थे और मित्र होते हुए भी आदत व्यवहार में कुछ भिन्न थे, गिरिराज हम लोगों में वरिष्ठ थे व एक तरह से जूनियर सीनियर का भाव था, इसलिए ओमप्रकाश के अशोकनगर जाने के बाद मेरी और रमेश राठी की मित्रता ज्यादा घनिष्ठ हो गयी थी, इससे पहले यही घनिष्ठता रमेश और ओमप्रकाश के बीच थी।
रमेश राठी मारवाड़ी समाज से आता था। उसके दादा कभी बाहर से आकर दतिया में बसे थे। अपनी जाति की प्रसिद्धि के अनुरूप वे उतार चढाव वाले व्यापार किया करते थे। इसमें लम्बी लाभ हानि होती रहती थी। हम लोगों की मित्रता से लगभग दस वर्ष पूर्व उनके पिता को खूब सारा लाभ हुआ था और उन्होंने नगर में ठीक से नक्शे के साथ सम्भवतः सबसे पहला सीमेंट गुम्मे का पक्का कई मंजिला आधुनिक मकान शहर के बीचों बीच बनवाया था व रईसों जैसी एक बग्घी खरीदी थी। अन्दर से बन चुके मकान का बाहर से पलस्तर होना बाकी था कि उन्हें व्यापार में भारी नुकसान हुआ और मकान का बाहर से पलस्तर भी नहीं हो सका। उस मकान को जिसमें वे खुद भी रहते थे, गिरवी रखना पड़ा था। रमेश के सात-आठ बहिन भाई थे और चार- पाँच बहिन भाई उनके चाचा के थे जो साथ में ही रहते थे। सब लोग सम्पन्नता का स्वाद चख चुके थे व अपेक्षाकृत आधुनिक थे। उनके घर में प्रत्येक बच्चे पर अलग से ध्यान देना सम्भव नहीं था इसलिए हम मित्र लोग भी परिवार के सदस्यों की तरह ही घुल मिल जाते थे। ओम प्रकाश तो बचपन से ही इस घर का पुराना मित्र था। सब भाई बहिन खुश मिजाज थे और आपस में मित्र भी थे। उन दिनों मित्रों के घर फोन करके जाने का चलन नहीं था क्योंकि फोन थे ही नहीं व व्यस्तताएं भी नहीं थीं। मित्रों के आने जाने पर यह नहीं पूछा जाता था कि कैसे आये। रमेश के घर जाकर ऐसा लगता था जैसे कि ऐसे क्लास रूम में आ गये हैं जिसमें टीचर छुट्टी पर हैं। मकान बीच बाज़ार में था और खाने पीने का सामान छोटे भाई बहिनों को भेज कर मंगवाया जा सकता था। कमी केवल एक थी कि मेरी जेब में पैसे नहीं होते थे। रमेश ने रईसी देखी थी, उसने परिवार में पिता चाचा लोगों को जुआ खेलते भी देखा था, देख कर सीखा था और वह जुआ खेलना जानता था। उसने जीतने का कौशल अर्जित कर लिया था। वह जुआ से ही अपना जेब खर्च आदि निकालता था। वह सबसे बड़ा था और भाई बहिनों के चटखारे भी उसी के पैसे से चलते थे। मेरी जेब में पैसे इसलिए नहीं होते थे, क्योंकि बचपन से ही मुझे ऐसी सुरक्षा में पाला गया था कि बाज़ार की कोई भी चीज खाना मना थी। घर में मेवे आते थे, फल आते थे और मिठाई बनती थी किंतु बाहर के खाने का स्वाद ही अलग होता है। मेरी मां के हाथ का खाना भरपूर घी शक्कर मेवे वाला तो होता था पर बिना हींग, लहसुन, गरम मसाले के वह रुचिकर नहीं लगता था। मैंने जो मांगा वह चीज तो दी गयी किंतु तय जेब खर्च न देने की सावधानी रखी गयी। मैं स्वाभिमानी और संयमी था इसलिए उन दिनों किसी भी जगह न खाने को अपना नियम बताता था। शायद रमेश इसे समझता था इसलिए मेरे नियमों की ऐसी तैसी करते हुए जबरदस्ती मुझे खिलाता था। तब मैं अन्दर से बहुत भावुक हो जाता था। रमेश न केवल मेरे साथ, अपितु सबके साथ  इतना सरल और सहज था कि जो बोलता था वह सच बोलता था। मुझ से तो कुछ भी छुपा कर नहीं रखता था। दूसरी ओर मैं था जो कोई बात किसी को नहीं बताता था। उसकी दोस्ती से मैं अभिभूत था। एक बार उसके पास कहीं से कैमरा आ गया और उसे लेकर सब मित्र लोग फोटोग्राफी करने निकले। उत्साह में रमेश एक बरगद के पेड़ की डाल पर फोटो खिंचाने के लिए चढा और फिसल गया। उसका हाथ टूट गया। उन दिनों पलास्टर चढाने से पहले मरीज को क्लोरोफार्म से बेहोश किया जाता था और मरीज से पूछा जाता था कि बताओ किसे पास में बुला कर रखना है। उसने सारे मित्रों, रिश्तेदारों के बीच मेरा नाम लिया था। मैं उसके प्रति गहरे तक भावुक हो गया था।
अगले वर्ष ही उसका एडमीशन पालीटेक्निक सनावद में हो गया था जो दतिया से बहुत दूर था। जाते जाते वह मुझे एक जिम्मेदारी सौंप गया था और उसे पूरी करने का वादा ले गया था। उसकी दोस्ती की गहराई को देखते हुए इस जिम्मेवारी के प्रति मैं बहुत भावुक था। जिम्मेवारी थी कि मैं उसकी छोटी बहिन जिसे वह बहुत चाहता था, का उसकी ही तरह ध्यान रखूंगा। मैं दोस्त के वचन का मान रखने के लिए मन ही मन दृढ प्रतिज्ञ था। पर उसने जो बात मुझे बतायी थी वह अपनी बहिन को नहीं बतायी थी कि मुझ से ऐसा बोल कर गया है। मैं अपना वचन निभाने के लिए उसके घर गाहे बगाहे जाता रहा और उसकी खोज खबर लेने के लिए उसकी बहिन से मिलता रहा। मेरे इस अतिरिक्त मिलने को न केवल मित्रों द्वारा अपितु स्वयं उसकी बहिन द्वारा भी उस भाव से नहीं लिया  गया। इस कारण उन मित्रों के बीच, जो मेरी तरह नहीं सोचते थे, कुछ तनाव भी रहा। इसके एक साल बाद ओम प्रकाश ने अपना ट्रांसफर ग्वालियर पौलीटेक्निक में करा लिया। वह दुस्साहसी तो था ही, अशोकनगर में उसने पहले ही साल दो चार बदमाशों को पीट कर लाइन पर ला दिया था और वह कालेज का प्रैसीडेंट चुन लिया गया था। अशोकनगर का ही एक स्थानीय सहपाठी उसका खास दोस्त बन गया था और उसके परिवार से वह हिल मिल गया था, इस तरह वहाँ भी उसका एक घर बन गया था। ग्वालियर में तो उसका जलवा ही अलग था। वैसे तो वह 75 किलोमीटर दूर ग्वालियर होस्टल में रहता था, जहाँ से दतिया की ओर आने वाली बसें उसके कालेज के सामने से ही गुजरती थीं और प्रत्येक बस वाला कभी भी उसे बिना किराया चुकाये ससम्मान दतिया लाता ले जाता था। एक तरह से वह घर लौट चुका था। मैं दो तरह से खुश था, एक तो रमेश का खास दोस्त होने के नाते मेरा भी खास दोस्त बन चुका था व भाई विहीन मैं उसकी ताकत का बल महसूस करने लगा था, दूसरे रमेश अपनी बहिन की जो जिम्मेवारी मेरे ऊपर छोड़ कर गये थे उसके लिए एक ज्यादा जिम्मेवार दोस्त आ गया था, जिससे मैं राहत महसूस कर रहा था।
ओम प्रकाश के पिता वैसे तो सरकारी प्राइमरी स्कूल अध्यापक थे किंतु उनके पास थोड़ी सी कृषि भूमि भी थी। कुल मिला कर बहुत संतुलित बजट वाला परिवार था जिसमें चार बच्चे पाल रहे थे। ओमप्रकाश के एक चाचा वकील थे और दूसरे ओवरसियर [जूनियर इंजीनियर] जो कहीं दूर् पदस्थ थे। वकील चाचाजी थोड़े से तिकड़मी थे, उनका ध्यान वकालत की ओर तो कम था किंतु विभिन्न विवादास्पद जमीन जायजाद की खरीद फरोख्त से उन्होंने कुछ धन बना लिया था। उनके कुल एक ही लड़की थी। वे कभी कभी ओमप्रकाश की कुछ मदद कर दिया करते थे। ओमप्रकाश को कभी जरूरत पड़ती तो घर में रखे हुए गेंहूं के बोरे में से नहाने वाली पीतल की बाल्टी भर ले जाते थे और तीन चार किलो गेंहूं से जेब के लिए पैसे मिल जाते थे, और पता भी नहीं चलता था। एक बार तो उन्होंने गाँव के एक लड़के की मोटर साइकिल मांग कर उसे गिरवी रख दी थी। एक बार उनके चाचा से मिलने कोई सज्जन अपनी बड़ी एम्पाला गाड़ी लेकर आये थे तो ड्राइवर से चावी मांग कर वह मेरे घर आ गये और फिर हम दोनों उस गाड़ी में बैठ कर शहर में निकले। तब ना तो ओम प्रकाश को इतनी बड़ी गाड़ी चलाने का अभ्यास था और ना ही बाजार की सड़कें इस लायक थीं। कई जगह टकराते टकराते आगे बढे, तब तक तो तलाश शुरू हो चुकी थी। ड्राइवर को दौड़ाया गया बीच में ही पकड़ लिये गये तो उन्होंने ऐसे शराफत से चावी दे दी जैसे कुछ हुआ ही न हो।
ग्वालियर से अपना कोर्स पूरा करने के बाद वे दतिया लौट आये थे। उन दिनों इंजीनियरों की नौकरी मिलना कठिन हो गयी थी। ओम प्रकाश खाली थे और बकौल शायर
मुहब्बत आजकल बस शग्ल है बेरोजगारों का
जिन्हें मिलती नहीं है नौकरी, वे इश्क करते हैं
सो ओम प्रकाश को इश्क हो गया था। इश्क किससे हुआ, न ये उन्होंने कभी बताया और न मैंने कभी पूछा, क्योंकि मेरा हाल भी उन दिनों गुनाहों के देवता के चन्दर की तरह था। मैं लगातार अमृता प्रीतम के उपन्यास और नीरज की कविताएं पढ रहा था। मेरी पसन्द को देखते हुए मेरे घर में किरायेदार एक पढीलिखी भाभी ने ताना कसा था- भैय्या ऐसा लगता है कि आपको मुहब्बत हो गयी है। मैं हँस कर रह गया था। मैं साहित्य के सहारे बिना प्रेमिका और बिना प्रेम अभिव्यक्ति के विरही हो गया था और इस विरह में मजा लेने लगा था। ओम प्रकाश की मजबूरी थी कि वह मुझ से अपने इश्क की बात नहीं कर सकता था, पर दूसरा भी ऐसा कोई नहीं था जिससे वह बात करके अपनी बात की गहराई उसे समझा सकता। यह वह दौर था जब हम लोग इशारों ही इशारों में घंटों, इश्क. इश्क और सिर्फ इश्क की बातें करते थे। कभी किसी फिल्मी गीत के सहारे तो कभी किसी फिल्म या उपन्यास के सहारे। कभी कुछ चर्चित प्रेमी मित्रों के बहाने या कभी किसी और बहाने। लगातार खाली टहलना और किसी होटल में बैठ कर चाय पीते हुए कोई सूत्र तलाश कर ठिलठिलाना। ऐसे ही एक दिन किसी चाय के होटल में रेडियो पर गीत आ रहा था जिसमें पंक्तियां थीं- न ये आंसू रुके तो देखिए फिर हम भी रो देंगे, हम अपने आंसुओं से चाँद तारों को भिगो देंगे....... तो ओमप्रकाश कहते हैं कि एक बात बताओ, ये क्या उल्टे होकर रोयेगी? “मतलब” मैंने पूछा तो वह बोला, बरना चाँद तारे कैसे डूब जायेंगे! उसकी इस बात ने कई दिन रात हँसाया था और अब भी जब ऐसी टिप्पणियां याद आ जाती हैं तो मुस्कराहट आ जाती है। “ आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं” पर उसने कहा था कि यह तो गैरकानूनी है। प्रेम करने वाला गीत और कविता का मर्म खूब समझता है। वह लिखता नहीं था, पर लिख सकता था। मेरे साथ कवि सम्मेलन सुनने जाता था। उसने कभी दो पंक्तियां मेरी कविता की कापी पर लिखी थीं-
जाओ भी, क्योंकि तुमको जाना था
हम से गुस्सा तो इक बहाना था
ओमप्रकाश का रेल के साथ जाने क्या रिश्ता था कि वह अपने छात्र जीवन में शायद ही कभी टिकिट लेकर चला हो। एक तो उसके चाचा शायद रेल विभाग में ही जूनियर इंजीनियर थे, दूसरे वह किसी तरह बात बना लेता था। वह कभी बिना टिकिट पकड़ा भी नहीं गया। एक बार अचानक टीटी आ गया पर संयोग यह हुआ कि सामने बैठे वृद्ध दम्पत्ति में से एक उसी समय बाथरूम चला गया और दूसरे ने दो टिकिट दिखाये तो एक उसका मान लिया गया। उसने मारपीट भी कई बार की किंतु यह मौका तब ही आया जब सामने वाले ने जरूरत से ज्यादा बदतमीजी की हो बेईमानी की हो। एक आगा अली था जो पहलवानी ही करता था और अपनी ताकत की दम पर सबको डराता हुआ एक राजनेता का पालतू बाहुबली था। जब वह किसी बात पर ओमप्रकाश से उलझ गया तो उसने उसे बहुत मारा था और लोगों के दिमाग से आगा अली का भय समाप्त हो गया था। जब तक उसे नौकरी नहीं मिली तब तक वह अपने वकील चाचा के साथ कोर्ट जाने लगा था और मुंशियों वकीलों के बीच बैठ कर दुनियादारी समझने लगा। अपनी साफ समझ और स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण वह वकीलों में काफी लोकप्रिय हो गया। अदालत के कई किस्से वह रोज सुनाता और हम लोग घंटों हँसते थे। इसी दौरान मैंने कुछ महीने बैंक में टेम्पोरेरी नौकरी कर ली थी और मेरी भी जेब में पैसे रहने लगे थे। उसके लिए “कर्तव्य” अर्थात जो उसे करना हो, महत्वपूर्ण था जिसमें पैसा कभी बाधा नहीं बना। वह कहीं से भी कैसे भी ला सकता था।
उसका प्रेम सपरिवार शहर बदल कर चला गया और उसकी शादी हो गयी। फिर ओम प्रकाश की भी शादी हो गयी और उसकी सरकारी नौकरी भी पीडब्ल्यूडी में लग गयी। पोस्टिंग छत्तीसगढ हुयी। तब छत्तीसगढ अलग राज्य नहीं बना था। वह छत्तीसगढ चला गया। ओमप्रकाश ने कभी नाराजी प्रकट नहीं की किंतु वह ज़िन्दगी से नाराज हो गया था, उसने बदला लेना शुरू किया। छत्तीसगढ क्षेत्र में विकास के नाम पर बहुत पैसा पहुँच रहा था और जितने अधिकारी थे सब कमाई कर रहे थे। उसने भी वैसा कोई आदर्श नहीं दिखाया जिसकी कभी हम लोग बात किया करते थे। हम लोगों में वह सबसे पहला था जिसने कार खरीदी थी और जब मेरे घर कार लेकर आता था तो उसका सुख या गौरव मैं भी महसूस किया करता था। 1984 में आये मेरे पहले व्यंग्य संकलन में एक रचना ‘कार की मार’ है जो उसकी कार पर ही लिखी गयी थी। तब कारों की इतनी भरमार नहीं होती थी।
न उसमें समझ की कमी थी, न साहस की, न पैसे की, न पैसा खर्च करने की उदारता की। जब भी आता तो सारे मित्रों को पार्टी देता था। छत्तीसगढ के बाद उसका ट्रांसफर मुरैना हुआ। वहाँ भी उसने दबंगी से नौकरी की। उसने ग्वालियर में मकान बनवाया, वहाँ के सबसे बड़े क्लब की मेम्बरशिप ली, विधायक आदि उसके मित्र थे और बिना झुके उनसे सिर ऊपर कर के बात करता था। कई दुर्घटनाएं झेलीं जिसमें से एक में उसके साथ यात्रा कर रहे एक जनपद अध्यक्ष की मृत्यु हो गयी थी, पर वह साफ बच गया था। एक दुर्घटना में उसकी पत्नी के पैर को नुकसान हो गया था, मुझे याद है जब मैं उन्हें देखने गया था तब मेरे साथ प्रदीप चौबे थे और तब वे इतने बड़े स्टार नहीं हुये थे जितने आज हैं।
मैंने पैसा नहीं कमाया और कभी चादर से ज्यादा पैर नहीं पसारे किंतु कुछ मित्र ऐसे रहे जिन पर भरोसा था कि किसी भी कठिन परिस्तिथि में अगर जरूरत पड़ी तो उनका सहयोग बिना शर्त मिल सकेगा। ओमप्रकाश भी उनमें से एक था, भले ही मुझे कभी जरूरत नहीं पड़ी।
वह बीमार हुआ, जिसका पता नहीं चला। उसके निधन पर मुझे लगा था कि मेरी जिन्दगी का एक कोमलकांत भाग भी मर गया है, जो दिल की बात करता था, और मेरे बिना कहे ही दिल की बात समझता था। मन में आस थी कि कभी बुढापे में मिल कर बैठेंगे और बेनामी बातों को नाम लेकर करेंगे। ऐसा नहीं हो सका। उसके निधन पर मैंने लिखा था-
सबके लिए वो एक नाम एक व्यक्ति था
यह मैं ही जानता हूं कहाँ क्या गुजर गया  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
                     

क्या भाजपा चुनाव 2019 बैकफुट पर खेल रही है


क्या भाजपा चुनाव 2019 बैकफुट पर खेल रही है

वीरेन्द्र जैन
भाजपा, जिसे अब लोग मोदी जनता पार्टी कहने लगे हैं, के अगले लोकसभा चुनावों के लिए हाथ पाँव फूल चुके हैं और उसके प्रमुख नेता बदहवाश हो चुके हैं। वैसे भी वे पूरे पाँच साल तक सीट पर तो बैठे रहे किंतु किसी बिना टिकिट यात्री की तरह असहज रहे। उनका आयतन किसी फुलाये हुए गुब्बारे की तरह रहा जिसकी कभी भी हवा निकल सकने का भय बना रहता है।
वैसे तो प्रायोजित मीडिया से उनके फिर से जीतने की भविष्यवाणियां भी करवायी जा रही हैं किंतु ऐसी शेखियां तो अमित शाह दिल्ली विधानसभा चुनावों से लेकर राजस्थान व उत्तर प्रदेश के लोकसभा के उपचुनावों में भी बघारते रहे थे किंतु परिणाम भिन्न रहे। पहले उत्तराखण्ड, फिर मिजोरम और गोवा में सरकार बनाने में सौदा ही काम आया। यही सौदा प्रशांत कुमार की मध्यस्थता से महाराष्ट्र की सरकार बचाने में भी काम आया। कर्नाटक में भी सौदेबाजी व राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया किंतु काँग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का मोह छोड़ कर मात दे दी। गत वर्ष हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी उन्हें तीन प्रमुख राज्यों में पराजय झेलना पड़ी और वितान बाँधना काम नहीं आया। मोदी के अपने राज्य गुजरात में भी विधानसभा चुनावों में ग्राफ नीचे गया और हारते हारते रह गये। 
वैसे तो उनके अपने सांसद और मंत्रिमण्डल के सदस्य भी संतुष्ट नहीं हैं किंतु एनडीए गठबन्धन से आन्ध्र प्रदेश की तेलगु देशम, बिहार के उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तान अवाम पार्टी उनसे अलग हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में राजभर की पार्टी अलग होने की घोषणा कर चुकी है और अनुप्रिया पटेल का अपना दल प्रियंका गाँधी से मुलाकात कर चुका है और कभी भी अलग हो सकता है। जम्मू कश्मीर में मेहबूबा मुफ्ती गठबन्धन तोड़ चुकी हैं और सरकार भंग करा चुकी हैं। अरुणाचल प्रदेश में हिंसक आन्दोलन हो रहा है। बड़े बड़े नेताओं के घर फूंके जा चुके हैं। उत्तरपूर्व में भरपाई की जो उम्मीद लगायी जा रही थी वह भंग हो चुकी है। पश्चिम बंगाल में बंगलादेशी शरणार्थियों की समस्या को साम्प्रदायिकता के लपेटे में लेने की कोई भी कोशिश वांछित परिणाम देती हुयी नहीं लग रही क्योंकि वहाँ के शेष सारे दल मोदी को दुबारा न आने देने के लिए कृत संकल्पित हैं। काँग्रेस कर्नाटक में त्याग का उदाहरण प्रस्तुत कर चुकी है औए वामपंथी तो सदैव ही राजनैतिक फैसलों के लिए कोई निजी सत्ता मोह नहीं पालते। उत्तरप्रदेश में सपा बसपा का समझौता हो चुका है, और शेष गैरभाजपाई दल मौका मुआइना देख कर प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे सकते हैं।
रोचक यह है कि अमित शाह 400 सीटें जीतने की जो शेखी बघार रहे हैं, दूसरी ओर वे ही ऐसे चुनावी समझौते भी कर रहे हैं कि उनके पास 400 सीटें चुनाव लड़ने के लिए ही नहीं बच रहीं। तामिलनाडु, बिहार. महाराष्ट्र, पंजाब, में सीटों के बंटवारे हो चुके हैं और भाजपा का हिस्सा सब में कमजोर रहा है। आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी कोई प्रमुख पार्टी उनसे समझौता करने नहीं जा रही और किया भी तो उन्हें बहुत छोटा और कमजोर सा हिस्सा मिलेगा। दिल्ली में अगर आम आदमी पार्टी और काँग्रेस का समझौता होगा तो भाजपा को एक भी सीट नहीं मिलेगी व न होने पर भी उनकी सीटें घटेंगीं। इसलिए उनकी उम्मीद गुजरात, हरियाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ, और उत्तर प्रदेश की कुल सवा दो सौ सीटों पर टिकी है जिनमें से आधे राज्यों में अब काँग्रेस की सरकारें हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना से सीटों का समझौता भले ही हो गया हो किंतु विधानसभा में बराबर सीटें लड़ने की घोषणा भी करना पड़ी है, व अपना हिस्सा बढाने के लिए दोनों ही अपनी जीत व दूसरे की हार के लिए प्रयत्नरत रहेंगे। काँग्रेस और एनसीपी का समझौता भी उन्हें नुकसान पहुँचायेगा।
2014 के आमचुनाव में उन्हें पिछली काँग्रेस सरकार की बदनामी तथा चुनाव जीतने के सारे हथकंडे अपनाने के बाद भी कुल 31% वोट मिले थे किंतु अब तो सारे दल उनके खिलाफ हैं व एकजुटता दिखाने के प्रदर्शन कर चुके हैं। जनता भी नोटबन्दी, पैट्रोलियम पदार्थों की मंहगाई, बेरोजगारी, और झूठे जुमलों से नाराज है, इसलिए एंटीइनकम्बेंसी तेजी से प्रभावी है। राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में भी जनता की जो भावनाएं उभारी थीं उससे उलट परिणाम देखने को मिले हैं, और वह ठगी हुयी महसूस कर रही है। राफेल जैसे मामले में राहुल के आक्रामक आरोपों के खिलाफ मोदी का मौन उनके विरुद्ध जा रहा है। माब लिंचिंग और बुद्धुजीवियों की हत्याओं के मामले में सरकार का मौन समर्थन, साम्प्रदायिक घटनाओं में सरकार की पक्षधरता भी उनके खिलाफ जाती है। भाजपा शासित राज्यों की सरकारें उन दलों की सरकारों से अधिक भ्रष्ट साबित हुयी हैं जिनके खिलाफ इसी आधार पर वे चुनाव जीते थे।
भाजपा के पक्ष में भी कुछ बातें हैं। जनता अगर बिना किसी भावनात्मक दबाव के वोट करेगी तो वह देखेगी कि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री के रूप में कोई एक सर्वसम्मत नेता का अभाव है और कोई एक अकेला दल भाजपा जितना मजबूत नहीं है। पिछले वर्षों में नेहरूजी, इन्दिराजी, अटलबिहारी, व्हीपी सिंह, के बाद मोदी ही व्यक्तिगत लोकप्रियता के रूप में चुने गये हैं व इनके अलावा अन्य किसी प्रधानमंत्री की सरकारॆं टिक नहीं पायी हैं। मोदी पर हालिया राफेल सौदे के अलावा कोई भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा है। निराश्रित भाजपाइयों को विपक्ष की भूमिका से उठा कर सरकार का सुख देने के कारण वे मोदी के पक्ष में एकजुट हैं, जबकि अपनी पार्टी में दूसरा कोई नेता उन्हें नजर नहीं आता। सौदेबाजी और दबाव से वे चुनाव से पहले या चुनाव के बाद दलबदल भी करा सकते हैं। अपने बड़े से बड़े झूठ को सत्य की तरह प्रचारित करने वाला मीडिया उनकी गोदी में बैठा है, इसके सहारे वे पुलवामा हमले के बाद वे यह प्रचारित करने में सफल रहे कि बदले में भारतीय एयरफोर्से ने तीन सौ आतंकियों को उनके ही ठिकाने पर मार कर बदला ले लिया। इसी मीडिया के सहारे वे किसी भी घटना में भावुकता पैदा कर सकते हैं, और किसी भी घटना को छुपा सकते हैं। आर एस एस का संगठन व कार्पोरेट घरानों का समर्थन उनके पक्ष में है।
फिर भी वे सशंकित हैं और हर अच्छा बुरा प्रयास कर रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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